Andhayug aur Naari - 38 books and stories free download online pdf in Hindi

अन्धायुग और नारी - भाग(३८)

मैं मुलिया की बातें सुनकर दंग रह गया,वो जो कह गई थी मेरे परिवार के बारें में तो वो सुनकर मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था,कुछ सोच नहीं पा रहा था कि क्या कोई इतना हैवान हो सकता है,क्या कोई किसी मासूम लड़की की शख्सियत मिटाने के लिए इतना गिर सकता है,वो मेरा परिवार था,जहाँ मैं पला बढ़ा था,उस माँ ने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया था और वो ही अब मेरी सबसे बड़ी दुश्मन बन चुकी थी,वो इतनी क्रूर और निर्दयी हो सकती है ये मैं सोच भी नहीं सकता था,एक औरत भला दूसरी औरत के साथ ऐसा कैसें कर सकती है.....
फिर मैंने खुद को संतुलित किया और मुलिया से पूछा....
"ये बात तुमने किसी और से तो नहीं कही"
"ना! छोटे बाबू! अगर हम किसी से कुछ बता देते तो तुम्हार घरवाले आज जेल में होते,लेकिन तुमसे ये बात ना छुपा पाएंँ,काहे से छोटी बहू बहुतई नीक रही,हमार बहुत ख्याल करत रही,उहके जाए का हमें भी बहुत दुख है,ऊ दुख हम कबसे आपन कलेजे मा समेटे रहे,लेकिन आज तुम्हें देख के चुप ना रही सके",मुलिया बोली...
"अच्छा! ये बताओ उस रात बाबूजी कहाँ थे,घर पर नहीं थे क्या?", मैंने मुलिया से पूछा...
"नाही! मालिक ऊ रात कहूँ किसी के यहाँ निमन्त्रण में गए रहे"मुलिया बोली...
उसके बाद मैंने मुलिया से ये बात किसी और से ना बताने की हिदायत देकर उसे जाने दिया और मैं उल्टे पैर घर पहुँचा और घर जाकर माँ से गुस्से में बोला....
"माँ! तुमने ही भ्रमर को मरवा दिया ना! वो तुम्हें बहुत खटक रही थी इसलिए भइया के हाथों उसका गला घुटवाकर तुमने उसे नदी में फेकवा दिया"
"चुप कर! नामुराद! अपनी माँ पर ऐसा लाँछन लगाते तुझे शर्म नहीं आती,तुझे पता है ना कि तू मेरा पेट जाया नहीं है,तब भी मैंने तुझे अपने बच्चे की तरह जिन्दगी भर छाती से लगाकर रखा और तू मुझे उसका ये सिला दे रहा है,आखिर तू पराया ही रहा,ये मेरी भूल थी जो मैं तुझे अपना समझ रही थी" स्नेहलता माँ बोली....
"यही सच है माँ! उसकी मौत के पीछे तुम सभी लोगों का हाथ है",मैंने कहा....
"देखा माँ! देवर जी क्या कह रहे हैं,आखिर एक तवायफ़ के बेटे से उम्मीद ही क्या की जा सकती है"?, भाभी बोली...
"भाभी!अब झूठ बोलने से क्या फायदा?",मैंने कहा....
"हाँ! हम सभी तो झूठे हैं,तू ही है यहाँ एक हरिश्चन्द्र की औलाद",भइया बोले...
"हाँ!मैंने ही मरवाया है तेरी बीवी को,बोल क्या बिगाड़ेगा मेरा",स्नेहलता माँ बोली....
"ये तुम क्या कह रही हो स्नेहलता?",बाबू जी बोले....
"जब ये मुझ पर झूठे इल्जाम लगा ही रहा है तो उसे मान लेने में ही भलाई है, जब ये अपनी माँ को खूनी बना रहा है तो मैं खूनी बन जाती हूँ,बस यही देखना रह गया था,जिसे पाल पोसकर बड़ा किया वही आज मेरे लिए काल बनकर खड़ा है,एक तवायफ़ की बेटी के आगे पालने वाली माँ कुछ भी नहीं",स्नेहलता माँ बोली....
"त्रिलोक! अब तू बहुत बोल चुका,अपनी माँ पर ऐसी तोहमतें लगाते तेरा कलेजा नहीं काँपा",बाबूजी बोले...
"बाबूजी!आप उस रात घर पर नहीं थे,इसलिए आपको कुछ नहीं मालूम ",मैंने कहा....
"तू तो ऐसे कह रहा है जैसे तू उस रात घर पर ही था,अपनी बहसबाज़ी बंद कर और निकल जा मेरे घर से,इस घर में ऐसे लोगों की कोई जरुरत नहीं है,एहसान फरामोश कहीं का,अपनी देवी जैसी माँ पर लाँछन लगा रहा है",बाबूजी बोले....
"बाबूजी! ये माँ नहीं डायन है,जो अपने ही बेटे का भला नहीं देख सकी और उसकी खुशियों में आग लगा दी",मैंने कहा....
"अब तू अपनी हदें पार कर रहा त्रिलोक! चला जा मेरी आँखों के सामने से,नहीं तो मैं कुछ कर बैठूँगा", बाबूजी बोले....
"हाँ! जा रहा हूँ यहाँ से,मैं भी कौन सा आपलोगों से कोई रिश्ता रखना चाहता हूंँ,जिस दिन आपको माँ की सच्चाई पता चलेगी ना तो आपको भी उस दिन बहुत अफसोस होगा,आज के बाद मैं आपके घर में कदम नहीं रखूँगा",
अपनी कहानी कहते कहते त्रिलोकनाथ बाबू की आँखें भर आईं....
"ओह....इतनी क्रूरता,वो भी अपने बेटे के साथ",मैंने त्रिलोकनाथ बाबू से कहा ....
"हाँ! और उस दिन मैनें अपना सबकुछ गँवा दिया",त्रिलोकनाथ बाबू बोले....
"तो इसका समाधान शराब तो नहीं",मैंने उनसे कहा.......
तब त्रिलोकनाथ त्रिपाठी बोले....
"सत्यव्रत बाबू! सही कहा आपने शराब समाधान तो नहीं, लेकिन जीने का बहाना तो है,कम से कम कुछ देर ही सही होश में नहीं रहने देती ,फिर ना याद रहती है भ्रमर और ना याद रहती है स्नेहलता माँ,क्या खूब कहा है मिर्जा ग़ालिब साहब ने भी".....

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते

"अच्छा! ये बताइए,अभी आपकी चाँदतारा माँ तो जिन्दा होगीं ना! तो उनके पास जाकर अपना मन हल्का कर लिया कीजिए"मैंने उनसे पूछा.....
"सत्यव्रत बाबू! अब तो वो नहीं रही,भ्रमर के जाने ग़म में उनकी तबियत बिगड़ती चली गई और वो भी एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह गईं",त्रिलोक बाबू बोले....
"ओह....बहुत दुख हुआ मुझे ये जानकर",मैंने कहा....
"आप मेरी उजड़ी हुई दुनिया पर दुख मत मनाइए,शायद यही मेरा नसीब था सत्यव्रत बाबू!"त्रिलोकनाथ जी बोले...
"वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता त्रिलोक बाबू!",मैंने कहा....
"देखते हैं शायद आपकी कही बात सही हो जाए तो चलो अब मैं भी अपने कमरें में जाकर स्नान वगैरह करता हूँ,तभी ये सुस्ती जाएगी",
और ऐसा कहकर त्रिलोक बाबू चले गए.....
मुझे वहाँ रहते अब लगभग दो महीने से ज्यादा हो गया था और इस दौरान मैंने देखा एक शख्स मर्सियाबानो से मिलने आएँ,उस वक्त मैं मर्सियाबानो के कमरें में ही मौजूद था,उन्होंने मुझे अपने कमरें में किसी काम से बुलाया था,जुम्मन मियाँ कुछ दिनों के लिए अपने घर गए थे इसलिए उन्होंने रजिस्टर देखने को बुलाया था कि किस किस ने अपने अपने कमरे का किराया चुका दिया और किस किस का बाक़ी रह गया है,मैं रजिस्टर देख ही रहा था कि तभी उनकी मुलाजिमा उनके पास आकर बोलीं....
"बहू बेग़म! डाक्टर सिंह आए हैं आपसे मिलने",
"हाँ...हाँ....उन्हें भीतर आने को कहिए",मर्सियाबानो बोलीं......
डाक्टर सिंह भीतर आएँ,तो उन्हें अपने कमरे के भीतर आता देखकर मर्सियाबानो बोलीं....
"सत्यव्रत मियाँ! अब आप जाएँ,ये काम आप बाद में कर लीजिएगा",
"ठीक है", मैंने कहा....
और मैं वहाँ से चला आया,लेकिन जब वें शख्स कमरें के भीतर आएँ तो मर्सियाबानो की आँखें नम हो गईं और ऐसा लग रहा था कि वे उन शख्स से बहुत से सवाल पूछना चाहतीं थीं,लेकिन शायद मैं वहाँ मौजूद था इसलिए उन्होंने खुद पर काबू कर रखा था और वें शख्स लगभग उनके हमउम्र ही लग रहे थे, तब मेरे मन में एक बात खटकी कि वे तो बेवा हैं और उन्होंने ये भी कहा था कि उनका कोई रिश्तेदार नहीं है तो फिर ये शख्स कौन हैं और मेरा मन अपने ही सवाल का जवाब खोजने में लग गया....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....


अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED