मैं तो ओढ चुनरिया - 51 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 51

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

51


जैसे जैसे समय बीत रहा था , वैसे वैसे घर में तैयारियां हो रही थी पर गोद भराई का चढावा देख कर माँ का उत्साह बिल्कुल ठंडा पङ गया था । वे काम कर तो रही थी पर बेमन से । मामू हर रोज आजकल जल्दी आने लगे थे । वे हर रोज आते और पिताजी के सामने बैठ जाते । बीच बीच में कफ सीरप छोटी शीशियों में भरने लगते या फिर चुपचाप बैठे मुँह ताकते रहते । ये मामू जगत मामू थे । वैसे तो ये पिताजी के मामा थे पर उनसे साढे चार साल छोटे थे तो पिताजी उन्हें मामाजी न कह कर मामूराम कह कर बुलाया करते । कोई हुक्म देना होता तो भूषण कह लेते पर ऐसे मौके बहुत कम होते । मुश्किल से साल में एक दो । इनका नाम था भारत भूषण । तीन बहनों और दो भाइयों में सबसे छोटे थे ये । बचपन बहुत गरीबी में बीता । जब पैदा हुए , तब घर में भाभी आ चुकी थी । भाई ने कुरता पायजामा सीना सीख लिया था तो वह एक कपङे की दुकान के बाहर चबूतरे पर सिलाई मशीन लेकर बैठ जाता । कोई कुरता पजामा सिलवा लेता तो सिल देता । बदले में दो या तीन रुपए मिल जाते । पर यह महीने में दो चार बार से ज्यादा न होता । लोग कपङे सिलवाते ही कम थे । किसी शादी ब्याह में एक दो जोङे सिलवा लेते फिर सालों पहनते रहते । वह भी घर पर औरते जैसा तैसा सिल लेती । बाजार से कपङे सिलवाने का रिवाज ही नहीं था । पिता बूढे हो गये थे फिरकियां बना करगली गली घूमते हुए बेचने का काम अब उनसे होता न था और माँ से भी अब दूर जाया न जाता था । ऊपर से रब की मार कि एक बार दोनों हैजे की चपेट में आ गए और इलाज के अभाव में चार दिन में ही चल बसे । तब ये मामा दस बारह साल के थे और बङे भाई के अपने तीन बच्चे हो चुके थे । बहनें आई , दो दिन मिजाजपुरसी करके चली गई । भाभी को तो पहले ही ये एक आँख न भाता था । जायदाद के नाम पर एक कच्चा पक्का दो कमरे का मकान था । उसमें भी आधे का हिस्सेदार यह था । भाई का अपना खर्चा मुश्किल से चल रहा था । उस पर भाई की रोटी भी सिर आ पङी । बीबी की हर रोज की किच किच , आखिर तंग आकर वह एक दिन भूषण को बिस्कुट बनाने वाली बेकरी में छोङ आया । दस रुपए महीना तय हुआ । अब भूषण हर रोज सुबह नौ बजे बेकरी जाने लगा । वहाँ से लौटते रात के आठ बज जाते । हाथ पैर थकावट से दर्द करने लगते पर कहता किसे । सुनता कौन यहाँ । ऊपर से खाना कभी मिलता , कभी न । अक्सर पानी पीकर ही सो जाता । एक दिन ऐसे ही भूखे पेट काम पर गया तो ट्रे भट्ठी में रखने के लिए हाथ आगे बढाया था कि चक्कर खा कर भट्ठी में जा गिरा । मालिक चीख मार कर दौङा । भट्ठी में से बाहर खींचा । तुरंत सरकारी अस्पताल ले कर गया । भाई को खबर दी गई । वह आया । बचने की कोई सूरत नही थी पर किस्मत में बचना लिखा था तो बच गया । सिर का एक तरफ बुरी तरह से झुलस गया था । एक कान का ऊपर का सारा मांस पिघल कर बह गया था । सिर्फ छेद बचा था । बाल जल गए थे पर भूषण को बचा लिया गया । उसे बीस दिन अस्पताल में रहना पङा था । भाई रात को दो रोटी अचार या नमक के साथ दे जाता । बाकी सारा दिन वह लेटा हुआ शाम होने का इंतजार करता रहता । भाभी का बङबङाना पहले से बढ गया था । पहले ही खर्चा कौन सा कम था । ऊपर से दवाई का बिल पता नहीं कितना बनेगा । जिस दिन अस्पताल से घर आया , भाभी ने मुँह फुला रखा था , सीधे मुँह बात नहीं की , न हाल ही पूछा । ऊपर से बात बात पर ताने । सुना सुना कर बातें । कहती अपने बच्चों को , सुनाती देवर को । भूषण का मन दुखी तो पहले ही था अब टूट गया । दूसरे दिन दोपहर में घर से निकला और छोटी बहन के घर पहुँच गया । बहन ने भाई की हालत देखी तो रो पङी । पर उसके घर में भी गरीबी थी । भाई का बोझ कैसे उठाती तो ये मामा वहाँ से भी अगले दिन चल पङे । किसी भङभूजन से चार आने के चने लेते । साथ में पानी पीते और चने चबा लेते । इसी तरह पंद्रह दिन यहाँ वहाँ भटकते रहे । भाई भाभी ने तो सुख की सांस ही ली थी पर भाई जिस दिन बीबी से लङ पङता उस दिन कह देता , तेरी वजह से घर छोङ कर गया भूषण । बीबी कहती – ज्यादा ही लाड आ रहा है तो ढूढ ला न जाके । वैसे वह भी जानती थी कि कोई उस यतीम को ढूढने वाला नहीं । इस तरह बीस दिन इधर उधर भटकने के बाद एक दिन अचानक यह मामा हमारे घर आ पहुँचा । पैदल चलता हुआ वह घर पहुँचा तो हालत बुरी तरह से बिगङी हुई थी । थाली में रोटी देखी तो एकसाथ सात रोटी खा गया । माँ उसका मुँह देखती रह गई । उस दिन भरपेट खाकर निश्चिंत होकर सोया तो अगले दिन देर दोपहर तक सोया रहा । न तो उससे किसी ने उस पर बीती पूछी न उसने बताने की सोची । दस दिन बाद उसने एक हौजरी में काम ढूंढ लिया । यहाँ शुक्रवार की छुट्टी होती थी क्योकि मुसलमान कारीगरों को नमाज पढने जाना होता था । गुरुवार जिसे ये लोग पीर का दिन कहते थे , उस दिन शाम को हिसाब होता । जिसके जितने पैसे बनते , मिल जाते । सस्ते का जमाना था । ऊपर से लोगों की जरूरतें नाममात्र की । मोटा खाना मोटा पहनना । मामू को पैसे मिलते तो मेरे लिए एक रुपए की बर्फी या रबङी का दोना लाना न भूलता । बाहर से ही आवाज लगाता – पप्पले , ए पप्पल और मैं बुरी तरह से चिढ जाती । मुँ बना कर बैठ जाती । ये भी कोई नाम हुआ । मुझे कोई बात नहीं करनी । मामू मुझे कस कर पकङ लेते । हाथ में पकङा दोना मेरे सामने लहराते और मैं गुस्सा भूल कर दोना लपक लेती – अब ये नाम नहीं लेना । कल से बिल्कुल नहीं ।
ठीक है बाबा कल से बिल्कुल नहीं लेना है ।
मैं हानी में सिर हिलाती ।
मामू जोर से पुकारते – पप्पले । देख तूने खुद ही कहा है , कल से नहीं पुकारना । आज के लिए तूने कहाँ मना किया ।
मैं फिर से नकली नाराजगी दिखाती हुई रबङी खाती रहती और ये खेल हर रोज इसी तरह से चलता रहता । मामू मुझे बहुत प्यार करते । माँ भुनभुनाती – ये हर रोज मिठाइयां खिला कर लङकी को बिगाङने की कोई जरूरत है क्या . ये तो होता नहीं कि चार पैसे घर दे दें । दो वक्त की रोटी बाहर से खानी पङे तो आटा दाल का भाव पता लग जाय । पर सामने कुछ न कहती । मामा उम्र में पिताजी से बेशक छोटे थे पर रिश्ता तो ससुर वाला ही था । माँ उनसे घूंघट नहीं करती थी पर माथे तक पल्ला जरूर रखती और सामने आकर कभी बात नहीं करती थी । जो कहना या देना होता मेरे माध्यम से ही दिया जाता । पिताजी से भी माँ ने कभी कुछ नहीं कहा तो ये मामा पूरी जिंदगी हमारे घर ही बने रहे ।

 

बाकी फिर ...