सब कुछ पैसा ही नहीँ Prafulla Kumar Tripathi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सब कुछ पैसा ही नहीँ


यह कहानी है वर्ष 1940 के आसपास की। सुल्तानपुर में भीटहा पंडित नाम से पंडितों का एक नामी गिरामी गाँव था। गाँव में कुछ अत्यंत ही प्रतिष्ठित परिवार बसे थे। लेकिन पढाई- लिखाई में उनकी रूचि कम ही थी। उनके पास खेती - बारी चूंकि पर्याप्त थी इसलिए अभिभावक भी बच्चों की पढ़ाई के प्रति बहुत ज्यादा संजीदा नहीं रहते थे।लेकिन पंडित हरिचंद का मिज़ाज कुछ अलग था।वे खुद किसी तरह खुद ग्रेजुएट कर लिए थे और चाहते थे कि उनके बेटे भी उंची पढाई करके नौकरी- चाकरी करें।गाँव से स्कूल लगभग आठ किलोमीटर था और बीच में नदी भी पड़ती थी।नदी पार करने के लिए नाव भी हुआ करती थी। नदी बरसात में ज्यादा दिक्कतें देती थी वरना पानी इतना कम रहता था कि लोगबाग आसानी से उसे पार कर जाया करते थे।भीटहा पंडित के बच्चे भी इसे पार करके स्कूल जाया करते थे।हरिचंद की सोच को अब अमल में लाने का समय आ गया था क्योंकि उनके दो बेटे क्रमशः लगभग अठारह और पंद्रह साल के हो चले थे और उनको शहर के स्कूल में दाखिला दिलाना था।बड़े शौक से उन्होंने जुलाई के महीने में अपने सहेज कर रखे कुर्ते और धोती को निकाला,टोपी पहनी और बच्चों को साथ लेकर शहर गए।शहर के सबसे अच्छे स्कूल में दाखिला कराये और उसी दिन स्कूल की ड्रेस और कापी किताबें भी खरीद लाये। अगले दिन से दोनों बेटे स्कूल जाने लगे।

हम यह बताना तो भूल ही गए कि इस कथा के बिंदु हमारे इन दोनों बेटों का नाम क्या था ? बड़े का नाम था बागेश्वर और छोटे का नाम रामेश्वर था। बागेश्वर खाने पीने और खेलकूद में पारंगत था। रामेश्वर को पढाई लिखाई से कोई मतलब नहीं था और वह घर से तो स्कूल के लिए चलता था लेकिन स्कूल पहुँच ही जाये इसकी कोई गारंटी नहीं थी।उसे शहर की कचहरी बहुत अच्छी लगती थी जो स्कूल के पास में ही थी।कचहरी में मुवक्किलों और वकीलों की ही भीड़ नहीं हुआ करती थी बल्कि ढेर सारे जादूगर , सामान बेंचने वाले भी हलचल बढाया करते थे।वे डमरू बजा कर भीड़ इकठ्ठा करते और फिर उनका जादू शुरू हो जाता था। रामेश्वर को यह सब देखने में बड़ा ही मज़ा आता था।एक ही महीने में रामेश्वर की पढाई की प्रगति गाँव वालों के माध्यम से पंडित हरिचंद को मिल गई। वे बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने चेतावनी दी कि अब अगर आगे ऎसी शिकायत मिली तो वे रामेश्वर को घर से निकाल देंगे।

रामेश्वर कहता बाबू जी मुझे नहीं लिखना पढ़ना है।मुझे तो बस गाँव में ही रहना अच्छा लगता है।क्या ज़रूरी है सभी पढ़ लिख कर साहब ही बनें ?लेकिन बाबू जी उसकी एक नहीं सुनते। रामेश्वर के लिए यह कठिन दौर था।कुछ दिन अनचाहे रूप से वे स्कूल जाते रहे।उन दिनों स्कूलों में थर्ड मंथली ,सिक्स मंथली और फाइनल इम्तेहान हुआ करते थे।देखते देखते स्कूल के थर्ड मंथली इम्तेहान का समय आ गया। अब रामेश्वर की हालत पतली। करे तो क्यइम्तहान के पहले दिन ही रामेश्वर ने अपने बगल के सहपाठी को किसी तरह इस बात के लिए पटा लिया कि वह उसकी मदद कर देगा।इम्तहान चलता रहा और रामेश्वर की उसके दोस्त के साथ युगलबंदी भी। अब तो रामेश्वर को निश्चिंतता हो गई कि इम्तिहान की वैतरणी पार लग जायेगी।लेकिन भविष्य में कुछ और होना लिखा था।इम्तेहान का आखिरी पर्चा जिस दिन था उस दिन अचानक प्रिंसिपल साहब का कमरों में दौरा हुआ और रामेश्वर नकलबाजी में पकड़ लिए गए।रामेश्वर काटो तो खून नहीं।" "अब तो यह बात बाबूजी तक पहुँच कर ही रहेगी रामेश्वर बुदबुदाए।

रामेश्वर कैशोर्य अवस्था के उस नाज़ुक मोड़ पर था जहां से फिसलने की संभावनाएं अपार हुआ करती हैं।बाल मनोविज्ञान नाम की चीज़ उन दिनों आज की तरह विकसित नहीं हुई थी और शिक्षक , अभिभावक बच्चों को मार-पीट त कर ही अनुशासन का पाठ पढ़ाने में विश्वास रखते थे।अब गुप्ताजी को ही ले लीजिये। उस स्कूल के ड्राइंग के टीचर थे और अगर बच्चों ने थोड़ा भी चूँ - चपड़ की तो खूब खूब पीटते थे।एक बार तो उनका पारा इतना चढ़ गया कि चीख- चीख कर बोलने लगे -" हाँ- हाँ, जाकर अपने माँ-बाप को बता दो कि स्कूल में एक जल्लाद आया है, जल्लाद !" भला हो आजकल की शिक्षा प्रणाली का कि कम से कम ऐसे जल्लादों से तो मुक्ति मिल गई है।

हाँ तो रामेश्वर की तो हालत खराब।अब वह करे तो क्या करे।उसको कुछ सूझ नहीं रहा था और उसने अचानक फैसला कर लिया कि अब वह गाँव छोड़ कर मुम्बई भाग जाएगा। डरते डरते स्कूल से गाँव गया।उसके बाबू जी किसी न्योते में दो दिन के लिए बाहर गए थे। रामेश्वर ने इधर उधर से कुछ रूपये जुटाए और अपनी गठरी बांध कर अगली सुबह की भोर में गाँव छोड़ने का फैसला कर लिया।

रामेश्वर मुम्बई जाने वाली ट्रेन में बैठ चुका था।अक्सर लड़के भाग कर मुम्बई जाते रहते हैं इसलिए जब टी.टी.उसके कम्पार्टमेंट में आया तो उसने भी यही समझा।लेकिन रामेश्वर ने तो बाकायदा टिकट ले रखा था।उसके दिमाग में वे ढेर सारे लोग एक एक करके आते जा रहे थे जो उसके गाँव या गाँव के इर्द - गिर्द के थे और बरसों से मुम्बई में काम कर रहे थे।वे साल में जब एक बार गाँव आते तो रामेश्वर को भी मुम्बई नगरिया की चका चौंध के बारे में रस ले लेकर बताया करते थे।वे अक्सर बढईगिरी,पेंटिंग या चौकी दारी का काम किया करते थे।कुछ तो दिन में कोई और काम और रात में चौकी दारी करके डबल कमाई किया करते थे।सेठ लोगों की कृपा अगर हो जाती तो उनको रहने के लिए भी जगह मिल जाया करती थी जो मुम्बई के लिए सबसे कठिन काम था। उन्हीं में से एक राम आसरे भी था जो रामेश्वर के ही गाँव का था और जिससे रामेश्वर की बहुत पटती थी। रामेश्वर के दिमाग में ज्यों ही उसका नाम आया वह खुश हो उठा। "चलो मुम्बई में रहने का जुगाड़ तो हो गया। " मन ही मन वह बोला।

चर्चगेट पर ट्रेन पहुची तो झट से लोकल पकड़ कर रामेश्वर भांडुप के उस इलाके में पहुंचा जहां राम आसरे की खोली थी।राम आसरे की उस दिन छुट्टी थी और वह घर पर ही मिल गया।दोनों एक दूसरे को देखकर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्न हुए।रामेश्वर ने सच- सच राम आसरे को बता दिया कि वह बाबूजी की मार की डर से बिना किसी को बताये मुम्बई भाग आया है।राम आसरे को दुःख हुआ किन्तु वह करता भी तो क्या ! हाथ मुंह धो कर दोनों ने खाना खाया और सो गए।

अगले दिन राम आसरे अपनी मिल के मालिक से मिलवा कर रामेश्वर के लिए काम की बात भी पक्की कर ली।

"देखो भाई राम आसरे , एक बात में साफ़ साफ़ अभी कहे देता हूँ कि मुझे चोरी चमारी बिलकुल पसंद नई है।इसलिए तुम्हे अपने दोस्त की गारंटी लेनी होगी।" सेठ जी बोल रहे थे।

"जी, जी मालिक ये मेरा दोस्त बहुत ही अच्छे घर का है और , और चोरी - चमारी की तो आप बिलकुल ही मत सोचिये।"राम आसरे ने अपने मालिक को आश्वस्त किया।

अगले दिन से रामेश्वर और राम आसरे सेठ की मिल में साथ साथ जाने लगे।रामेश्वर इतना तो समझ चुका था कि अगर वह सेठ का विश्वासभाजक बन गया तो उसकी ज़िन्दगी संवर जायेगी।

जी तोड़ मेहनत और हर काम खुशी से करने के हौसले ने रामेश्वर को सेठ मोंघे लाल का बहुत ही प्रिय बना दिया।साल भर में उसको सुपरवाइजर बना दिया गया।अब उसको रहने के लिए कैम्पस में ही एक कमरे का क्वार्टर भी मिल चुका था।

अंग्रेजों का ज़माना था और ट्रेड यूनियन उन दिनों हुआ नहीं करती थी।लेकिन बावजूद इसके कुछ लेबर इकठ्ठे होकर सेठ को बोनस आदि के लिए धमकाया करते थे।सेठ वैसे तो प्रोफेशनल गुंडों की मदद से उन तत्वों पर गाहे बगाहे काबू पा लिया करता था लेकिन इधर सेठ ने यह देखा था कि रामेश्वर भी मिल के कर्मचारियों में काफी दबंग बन चुका था।उसे मराठी भी आ गई थी और गुंडे मवालियों जैसी हरकतें भी वह करने लगा था।सेठ ने दिमाग से काम लिया और धीरे धीरे रामेश्वर को कुछ रिस्क वाली जिम्मेदारियां सौंपनी शुरू की। रामेश्वर उन्हें बखूबी निभाने लगा।

दशहरे के पंद्रह दिन पहले बोनस को लेकर इस साल फिर कुछ लेबरों ने आवाजें उठानी शुरू कर दी थीं। इस बार उन्हें कंट्रोल में लाने की जिम्मेदारी सेठ मोंघे लाल ने रामेश्वर के कंधे पर डाल दी।रामेश्वर के लिए यह करो या मरो के उद्घोष जैसा लगा।रात रात भर जाग कर और अंततः कुछ गुंडे मवाली लेबरों की ठुकाई करके बोनस वाले मसले को उसने निपटा ही दिया।

रामेश्वर को दीवाली आते आते माँ लक्ष्मी की कृपा का पात्र समझा गया और वह अब सेठ की मिल का चीफ सुपरवाइजर बन गया।उसे अब तीन कमरे का फ़्लैट मिल गया और उसकी पूछ गाँव गिरांव में भी बढ़ गई।

इस बार जब वह गाँव आया तो उसके बूढ़े बाबूजी ने खाट पकड ली थी।बड़े भाई इंटर करके जूनियर इंजीनियर हो गए थे।उनकी शादी भी हो चुकी थी।रामेश्वर की बूढी मां ने खांसते खांसते रामेश्वर से उसके लिए आये रिश्ते की बात की।संयोग की बात हमेशा उखड़ कर बात करने वाले रामेश्वर ने अपनी माँ की बात मानते हुए इस रिश्ते के लिए हामी भर दी।अगले साल शादी की तारीख तय हो गई।

रामेश्वर को मुम्बई में रहते हुए अब चार साल हो चुके थे।उसके बैंक में अच्छी खासी रकम जमा हो गई थी।मिल के मजदूरों में सूद सहित उधार पर भी वह रूपये बांटने लगा था| उसमें ज्यादातर पियक्कड़ ही हुआ करते थे और रूपये लौटाने के लिए हुज्जत हवाली भी करनी पड़ती थी।रामेश्वर ने अपनी शादी के लिए खूब बढ़िया बढ़िया कपडे सिलवाये।

नियत समय पर रामेश्वर की शादी धूम धाम से सम्पन्न हो गई।दोस्तों रिश्तेदारों ने छक कर शराब पी और जश्न मनाया। पुष्पा रानी उसकी पारो बनी। सुहाग रात में रामेश्वर ने अपनी पत्नी को मुम्बई से इस ख़ास मौके के लिए लाया गले का हार दिया।गाँव रहते हुए रामेश्वर को अब ज्यादा दिन हो गए थे।उधर सेठ तार पर तार भेजे जा रहा था तो इधर रामेश्वर भी उसे कभी अपने बाबूजी के मरने की तो कभी अपनी माताजी के मरने की खबर देकर ना आ पाने का बहाना मारता था।रामेश्वर की पत्नी पुष्पा बेहद गरीब परिवार से आई थी।असल में अधेड़ हो चुके रामेश्वर को कोई अच्छा प्रस्ताव आ ही नहीं रहा था।इसलिए उनकी माँ ने लोकलाज से बचने के लिए ही इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था।

एक दिन अचानक घर में तूफान खड़ा हो गया।किसी ने रामेश्वर के छिपाए हुए पर्स से बीस हज़ार रूपये चुरा लिए थे।रामेश्वर ने पूरा आसमान सर पर उठा रखा था।जब से वह गाँव आया था यार दोस्तों की घर में आवाजाही भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी।पीने खाने का भी दौर देर रात तक चलने लगा था। रामेश्वर को समझ में नहीं आ रहा था कि घर में रखा रूपया गया तो कहाँ गया ? उसका माथा ठनका। " हो न हो मेरी पत्नी ने ही यह रूपया गायब किया है।"वह बुदबुदा उठा।

उन दिनों घर में शौचालय नहीं हुआ करते थे।घर के मर्द और औरत खेत- खलिहान ही जाया करते थे।सांझ के धुंधलके में और भोर में घर की औरतें खेतों में निकल जाती थीं।एक ऎसी ही भोर में जब रामेश्वर की पत्नी पुष्पा अन्य औरतों के साथ खेत खलिहान गई हुई थी रामेश्वर ने उसके बक्से की ताला तोड़कर तलाशी ली।उसके सारे रूपये साड़ियों के बीच रखे मिले। रामेश्वर आग - बबूला हो उठा।

पत्नी के आते ही रामेश्वर ने घर की खिडकी दरवाज़ा बंद कर दिया और अपनी पत्नी पर टूट पड़ा।

"हरामजादी ..तुझको मेरा ही पर्स मिला था चोरी करने के लिए ?" उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था।

कोने में दुबकी नव विवाहिता कुछ कहती कि रामेश्वर ने पास पड़े गड़ासे से उस पर आक्रमण कर दिया। उस पर तब तक वार करता रहा जब तक उसकी साँसें बंद नहीं हो गईं।

कमरे के बाहर लोग दरवाजे पीट रहे थे लेकिन रामेश्वर को मानो भूत सवार हो गया था।लथपथ होकर उसने दरवाजा खोला तो लोग अंंदर का माजरा देखकर सहम गये।

गांव का चौकीदार भागा भागा थाने गया और दारोगा पुलिस लेकर आ गया।

रामेश्वर बड़बड़ाते हुए बेहोशी के आलम में कहे जा रहा था,

"पैसा,हाय मेरा पैसा।एक एक पैसा मैनें जोड़ा था हरामजादी...... ।"

उसको सेशन कोर्ट से फांसी और फिर हाइकोर्ट से तकनीकी आधार पर आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।