उस दिन के बाद से मेरे और त्रिलोकनाथ जी के बीच अच्छी मित्रता हो गई,हलाँकि वें उम्र में मुझसे काफी बड़े थे और मुझे लगता था कि जैसे वें मुझसे कहीं ज्यादा जिन्दगी के तजुर्बे हासिल कर चुके हैं,मैंने अक्सर देखा था वें दिन भर तो एकदम ठीक रहते थे,हम सभी के संग हँसते बोलते थे,लेकिन रात को उनके कमरे से दर्द भरे गीतों की आवाज़ आया करती थी,जिससे ये साबित होता था कि वें बहुत ही अच्छे गायक थे,चूँकि उनका कमरा मेरे कमरे के बगल में था,इसलिए मैं साफ साफ उनके गीतों के बोल सुन सकता था जो विरह में डूबे हुए रहते थे,ना जाने ऐसा कौन सा दर्द था जो उन्होंने अपने मन में दबा रखा था, बाक़ी सभी लोगों की तो उनके घरों से चिट्ठियाँ आ जाया करतीं थीं,मेरे लिए भी माया और छाया की चिट्ठियाँ नियमित आती रहतीं थीं,लेकिन मैंने कभी भी त्रिलोकनाथ बाबू के लिए कोई भी ख़त आता ना देखा था,ना जाने ऐसी कौन सी वजह थी जो उनके घरवालों ने उन्हें छोड़ रखा था,मन में तो आता था कि उनसे पूछ लूँ लेकिन फिर लगता था कि किसी के निजी जीवन की थाह लेना उचित नहीं है....
और एक रात मैं रात के खाने पर उनका इन्तज़ार करता रहा लेकिन वें नहीं आए,तब मुझसे चाचीज़ान ने कहा कि....
"आप बेकार ही उनका इन्तज़ार कर रहे हैं,देखिए ना खाना ठण्डा हुआ जाता है,आप खाना खा लीजिए,वें जब आऐगें तो हम उन्हें उनके कमरे में खाना पहुँचा देगें",
फिर चाचीज़ान की लाख मिन्नतें करने के बाद मैंने खाना खा लिया और खाना खाकर अपने कमरे में आकर पढ़ाई करने लगा,देर रात गए त्रिलोकनाथ बाबू आए और उन्होंने हवेली के गेट को दरबान से खोलने के लिए कहा, लेकिन दरबान ने उनके लिए हवेली का गेट नहीं खोला क्योंकि वें उस रात बहुत पीकर आए थे इसलिए दरबान ने उन्हें भीतर घुसने से मना कर दिया और उन्होंने इतनी पी रखी थी कि खुद को सम्भाल नहीं पा रहे थे,जब खुद के होश नहीं सम्भाल पाए तो वहीं हवेली के गेट के बाहर ही किनारे पर जाकर धरती पर लेट गए और फिर वहीं सो गए,उस समय तक चाचीजान सहित हवेली के सभी नौकर और नौकरानी सो चुके थे,इसलिए मैंने चाचीज़ान को जगाना सही नहीं समझा और मैं ही बाहर चला गया फिर दरबान से विनती कि वो उन्हें हवेली के भीतर आने दे लेकिन वो नहीं माना, इसलिए फिर मैंने उससे कहा कि मैं पूरी जिम्मेदारी लेता हूँ त्रिलोकनाथ बाबू की, कि वें भीतर आकर कोई बदसलूकी नहीं करेगें,मैं उन्हें अपने कमरें में ले जाऊँगा,तब बहुत मिन्नतों के बाद दरबान मान गया,इसके बाद उसने त्रिलोकनाथ बाबू को जमीन से उठाने में मेरी मदद भी की, फिर मैं सहारा देकर त्रिलोकनाथ बाबू को अपने कमरे में ले आया और उन्हें अपने बिस्तर पर लिटा दिया,
फिर मैंने फर्श पर चटाई बिछाई और उस चटाई पर चादर ओढ़कर लेट गया,इसके बाद मुझे कब नींद आ गई इसका मुझे पता ही नहीं चला,सुबह चिड़ियों की चहचहाहट से मेरी आँख खुली,तब मैंने देखा कि त्रिलोकनाथ बाबू अभी भी बेसुध होकर सो रहे थे,इसलिए मैं बगीचे में जाकर सैर करने लगा और वहाँ से आकर मैं स्नान वगैरह करके पूजापाठ में लग गया,मैंने अपने कमरें में ठाकुर जी का एक छोटा सा मंदिर बना रखा था,मैं वहीं आसन बिछाकर पूजापाठ कर लिया करता था,एकाध घंटे में मेरी पूजा खतम हुई और मैं पीछे मुड़ा तो मैंने देखा कि त्रिलोकनाथ बाबू जाग चुके हैं और बड़े गौर से मुझे पूजा करते हुए देख रहे हैं,मैं आसन से उठा, पूजा की थाली उठाकर उनके पास आया और उन्हें प्रसाद देने लगा तो वें बोले....
"मुझ जैसे अधर्मी को प्रसाद मत दीजिए सत्यव्रत बाबू! आपकी पूजा का आपको कोई फल नहीं मिलेगा", त्रिलोकनाथ बाबू बोले....
"किसने कहा कि आप अधर्मी हैं,कभी कभी इन्सान नासमझी में बहक जाता है तो बस आप भी बहक गए होगें ", मैंने कहा....
"ये बहकना नहीं था सत्यव्रत बाबू! मैंने शराब जानबूझकर पी थी,अपना दुख भूलने के लिए", त्रिलोकनाथ बाबू बोले....
"ऐसा भला कौन सा दुख सता रहा था आपको,जो आपको शराब पीने की जरूरत पड़ गई",मैंने उनसे पूछा....
"ये बातें मैं आपसे फिर कभी कहूँगा,पहले मुझे ये बताइए कि रात में आप ही लाए ना मुझे बाहर से उठाकर और अपने बिस्तर पर लिटा दिया",त्रिलोकनाथ बाबू बोलें....
"आप मेरे मित्र हैं त्रिलोकनाथ बाबू! भला मैं आपको कैसें रात भर गेट के बाहर बिताने देता,मानवता भी कोई चींज कोई होती है कि नहीं",मैंने कहा....
"आप पराए होकर भी मेरे संग इतनी मानवता दिखा रहे हैं,लेकिन जो मेरे अपने हैं उन्होंने तो मुझसे कब का मुँह मोड़ लिया,मेरी तबाही के जिम्मेदार मेरे घरवाले ही हैं",त्रिलोकनाथ बाबू बोले....
"त्रिलोकनाथ बाबू! किसी की तबाही का कारण उसके घरवाले बन सकते हैं ये तो मैं कभी भी सोच नहीं सकता",मैंने कहा...
" नहीं सोचा होगा तो मेरी कहानी सुनने के बाद सोचने लगेगे",त्रिलोकनाथ बाबू बोले...
"ऐसा क्या हुआ था आपके साथ,मैं जानना चाहता हूँ,शायद अपना दुख मुझे बताकर आपको थोड़ा सुकून मिल सके",मैंने कहा...
"सुकून....ये शायद मेरे मेरे नसीब में नहीं है सत्यव्रत बाबू!,अब तो मैंने इसके बारें में सोचना ही छोड़ दिया है",त्रिलोकनाथ बाबू बोले....
"आप ऐसा क्यों कहते हैं? जिन्दगी से इतने हताश और निराश नहीं होते,अगर अभी अँधेरा है तो एक ना एक दिन उजाला जरूर होगा",मैंने कहा....
"मेरी जिन्दगी में वो दिन कभी नहीं आएगा सत्यव्रत बाबू! क्योंकि हम जैसों की जिन्दगी में सिवाय अँधेरों के कभी कुछ नहीं होता",त्रिलोकनाथ बाबू बोले....
"ये कैसीं बातें कर रहे हैं आप? आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं त्रिलोकनाथ बाबू! मैं कभी भी किसी से कुछ नहीं कहूँगा ,लेकिन कृपया करके यूँ घुट घुटकर ना जिएंँ,ये आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है",मैंने कहा....
"आप सुनना चाहते हैं तो सुनें,आज मैं अपने बारें में आपको सबकुछ बताऊँगा",
और फिर त्रिलोकनाथ बाबू ने अपनी कहानी मुझे सुनानी शुरू की......
ये उस समय की बात है जब मैं ने बारहवीं पास करके काँलेज में दाखिला लिया था,मुझे अंग्रेजी पढ़ने और पढ़ाने का बहुत शौक था,हमारे काँलेज में उन दिनों एक अंग्रेजी महिला प्रोफेसर हुआ करती थीं,जो हमें अंग्रेजी पढ़ाया करती थीं और उनका नाम मार्गरिटा थाँमस था,उनकी हिन्दी भी उतनी ही अच्छी थी जितनी कि अंग्रेजी,वें अंग्रेज जरूर थी लेकिन और सभी अंग्रेजों की तरह क्रूर नहीं थीं,वें बहुत ही ममतामयी थी और हम हिन्दुस्तानियों को बड़ा ही सम्मान देतीं थीं,हम हिन्दुस्तानियों को वें और अँग्रेजों की तरह हेय दृष्टि से नहीं देखती थीं,वें खासतौर पर मुझे बड़ा पसंद करतीं थीं,क्योंकि मैं उनके सिखाए हुए सबक बखूबी याद कर लेता था और कभी भी भूलता नहीं था,इसलिए मैं उनका पसंदीदा छात्र था.....
वें एक बुजुर्ग महिला थीं,उनके पति का स्वर्गवास हो चुका था और उनका एक ही बेटा था जो विलायत में ही पढ़ाई करके वहीं बस गया था,बस कभी कभार अपनी माँ से मिलने आ जाया करता था,प्रोफेसर मार्गरिटा थाँमस को भारतीय जीवन रास आ गया था क्योंकि वें बचपन से ही भारत में ही पली बढ़ी थीं,उनके पिता सेना में बड़े अफ्सर थे और माँ घरेलू महिला थीं,उनकी जवानी और बचपन हिन्दुस्तान में ही बीता था इसलिए वें चाहती थी कि वें अपना आखिरी समय भी हिन्दुस्तान में बिताकर यहीं की मिट्टी में दफ्न हो जाएँ,ये उनकी दिली तमन्ना थी.....
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....