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नि:शब्द के शब्द - 22

नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
बाईसवां भाग

***


आशू

मोहिनी का जीवन, अपने अतीत की धूमिल यादों की परतों को कभी खुरचने, कभी उन पर अपने आंसू बहाने तो कभी बे-मतलब ही अनजानी राहों की तरफ चलने और भागने का मोहताज हो गया. जब तक वह कार्यालय में रहती, व्यस्त रहती, अपना काम करती. बहुत कम बोलती, अधिकांशत: चुप और खामोश रहती. जितने लोग भी उसकी वास्तविकता को जानते थे, वे सब उसे एक संशय की दृष्टि से ही घेरे नज़र आते थे. इसका सबसे बड़ा कारण था कि, कोई भी उसकी वास्तविकता को नहीं जान सका था. वह कहाँ की रहने वाली थी, यह बात भी उसके कार्यालय में कोई भी नहीं जानता था और जो कुछ वह बताती थी, उस पर कोई भी सहज ही विश्वास नहीं कर पाता था.

एक दिन, आशू उसके कार्यालय में, उसके ही सामने आकर खड़ा हो गया तो मोहिनी ने उसे अपने ही घर में, बगीचे तथा घर के अन्य कामों के लिए रख लिया. इस तरह से जब मोहिनी को आशू का साथ और सहायता मिली, तो वह पहले से और भी अधिक सहज हो गई. धीरे-धीरे आशू ने उसके घर के अन्य कामों के अलावा, उसके रसोई में भी काम करना आरम्भ किया तो मोहिनी को अब बना-बनाया ताज़ा भोजन भी मिलने लगा था. लेकिन, इतना सब कुछ होने के बाद भी मोहिनी खुद को खुश नहीं रख सकी. एक समय था जबकि, वह मोहित के प्यार में एक पल भी अकेला नहीं काट सकती थी और अब उसके सामने अपनी सारी ज़िन्दगी उसके बगैर काटने के लिए पड़ी थी.

आशू के उसके घर में काम करने और वहीं रहने से एक सुविधा तो मोहिनी को मिल ही चुकी थी. वह अपने खाली वक्त में आशू को अपने सामने बैठा लेती. उससे कॉफ़ी बनवाती और फिर दोनों जन जब काफी पीते होते तो मोहिनी उससे सारे संसार की बातें करती रहती. तब इन्हीं बातों के मध्य एक दिन मोहिनी ने जब आशू को अपने पिछले जीवन और दोबारा फिर से जीवन पाकर, इस संसार में आने की कहानी सुनाई तो वह बड़ी देर तक चुप बना रहा. इस पर मोहिनी ने उससे पूछा कि,

'तुम्हें कैसा लगा, मेरी कहानी सुनकर?'

'बहुत उदास और कष्टमय कहानी है आपकी आंटी?' आशू बोला तो मोहिनी आश्चर्य से उसका भोला-सा मुख देखने लगी. तब आशू ने उसे टोका. वह बोला कि,

'ऐसे क्या देखती हैं आप?'

'तुम्हें, यह सब सुनकर ज़रा भी डर नहीं लगा मुझसे?' मोहिनी ने पूछा तो वह बोला,

'क्यों, डरुंगा मैं? आप तो बहुत अच्छी आंटी हैं.'

'तुम्हें ऐसा भी नहीं लगा कि, मैं यह सब जैसे बनाकर एक कहानी सुना रही हैं? अथवा कोई दुष्ट-आत्मा या भूत हूँ?'

'क्यों? आपको क्या पड़ी होगी जो ऐसी कहानी बनाएं. आपके साथ ऐसा हुआ है और आपने यह सब देखा और जाना है, इसीलिये कहती हैं.'

आशू के मुख से संतोषप्रिय बात सुनकर मोहिनी को बहुत अच्छा लगा. एक तसल्ली-सी उसके मन और आत्मा को मिली तो तुरंत ही उसके चेहरे की आभा में सुन्दरता के चार चाँद लग गये. वह आशू से बोली कि,

'तुम बहुत अच्छे हो आशू. अगर मेरी उम्र के होते तो मैं तुमसे जबरन शादी कर लेती.'

'?'- आशू का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला ही रह गया. वह मारे लज्जा के अपने स्थान से उठा. काफी के दोनों मग उठाये और शर्माते हुए यह कह कर जाने लगा कि,

'मनुष्य को कभी भी प्यार-मुहब्बत और शादी-ब्याह के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए. लड़कियां बहुत खराब होती हैं. हमेशा धोखा दिया करती हैं.'

'?'- मोहिनी सुनकर दंग रह गई. उसने आशू को रोका. बोली,

'अच्छा ! सुनो तो ज़रा?'

'जी?' आशू ने उसे देखा तो वह बोली,

'तुमने तो बहुत बड़ी बात कह दी है. तुम्हें कैसे मालुम है कि, लड़कियां प्यार में धोखा दिया करती हैं?'

'इसलिए कि, मुझे भी धोखा दिया गया है.'

'मुझे बताओगे कि, कौन है वह?' मोहिनी ने पूछा तो वह बोला कि,

'मगदला- बहुत खराब है वह?'

'हमारे प्रीस्ट की लड़की.'

'?'- मोहिनी सुनकर चुप हो गई तो आशू ने आगे बताया कि,


'जब मेरी मां ज़िंदा थी और मैं स्कूल जाता था तो मुझसे खूब ही हंसकर बातें किया करती थी, परन्तु जब मैं अनाथ हो गया और स्कूल जाना मेरा बंद हो गया तो अब देखती भी नहीं है, मेरी तरफ?'

'तुम स्कूल जाओगे?'

'जाना तो बहुत चाहता हूँ, लेकिन कैसे?'

'मैं, भेजूंगी तुम्हें.'

'सच?'

'बिलकुल सच. लेकिन, मेरी एक शर्त होगी.'

'?'- आशू मोहिनी को आश्चर्य से देखने लगा तो वह आगे बोली कि,

'मैं तुमको सबसे पहले बाकायदा गोद लूंगी. तुम्हें अपना बेटा बनाऊँगी. बोलो, मंजूर है तुम्हें?'

'?'- बेचारा, आशू क्या करता? उससे नहीं रहा गया तो वह दोनों मग वहीं छोडकर, मारे खुशी से मोहिनी के गले से लग गया. आशू जैसे बे-सहारे गरीब लड़के को भविष्य में मिलने वाली छत और सहारे की खुशी थी, मगर मोहिनी को किस बात की खुशी हुई होगी? आशू की बाहें उसके गले से लगने के लिए मिली थीं- मोहिनी की समझ में नहीं आया कि, वह हंसे, रोये या फिर अपनी खुशियों का ढिंढोरा पीटती फिरे? मानव ज़िन्दगी, किस प्रकार से, अपने विभिन्न पड़ावों से रुकती-ठहरती हुई, ना जाने कितने ही आयामों को जन्म देती हुई अपनी मंजिल तक पहुँचती है? जीवन की इस कठोर सच्चाई को, कितने लोग याद रखते हैं और कितने नहीं? कौन जाने?

मोहिनी के कुछेक दिन और गुज़र गये.

एक मौसम बीत गया. जाड़े की ऋतु कंप-कंपाकर चलती बनी. दूसरा मौसम बसंत की हवाएं आईं और सारे पेड़ों को नंगा कर गईं. मोहिनी ने जुलाई के महीने से आशू को स्कूल भेजने का विचार बनाया था. इसके साथ ही उसके स्कूल जाने से पहले उसको बाकायदा गोद लेने के लिए आवश्यक पेपर आदि भी सरकारी कार्यालय में जमा करने थे. मगर कहते हैं कि, इंसान के जीवन में मिलने वाली खुशियाँ पल-दो-पल की होती हैं और आंसू, उम्र भर के. मानव-जीवन की यह क्षणिक खुशियाँ उसकी हथेली में पैदा होने से पहले ही लिख दी जाती हैं. कितनी और कब? इन सवालों के जबाब मनुष्य को तब मिलते हैं जबकि, उसके हाथ खाली रह जाते हैं और इंसान केवल मजबूरी में अपने हाथ मलकर ही रह जाता है.


एक दिन, आशू के कोई दूर के मामा आये और बाकायदा खुदको उसका वारिस दिखाकर उसे मोहिनी से छीनकर ले गये. बाद में मोहिनी को पता चला था कि, मिशन की तरफ से आशू की मां के नाम भविष्य निधि का पैसा अचानक से निकल कर आया था और ये पैसा आशू को उसके नावालिग़ होने के कारण नहीं दिया जा सकता था. इसके लिए उसका कोई वैध बालिग़, रिश्तेदार होना अति आवश्यक था; इसीलिये, इसी लालच में आशू के मामा भी अब जीवित हो चुके थे. यह दुनियां, अपने खुरापाती कर्मों के लिए किसकदर जानी-मानी जाती है? आशू के मामा जी, इस सच्चाई के बहुत सुंदर उदाहरण थे. भविष्य-निधि के पैसे के एक थोड़े-से, हथेली भर के भंडार के लिए उन्होंने किसी नादान बच्चे का सुंदर भविष्य तक दांव पर लगा दिया था. उन्हें तो केवल पैसों से मतलब था- उन्हें क्या, भाड़ में जाए यह दुनियां, ये रिश्तेदारी और मासूम, नादाँ बच्चे का भविष्य?

आशू, मोहिनी के पास से चला गया तो मोहिनी की रातें एक बार फिर से और भी अधिक काली हो गईं. उसको यह दुःख इसकदर मसोस गया कि, मोहिनी को अब दिन की रोशनी में ही अपनी किस्मत की लकीरें छीनने और नोचने वाले चील-कौवे और गिद्ध दिखाई देने लगे थे. वह फिर से अकेली हुई तो जैसे फिर से टूटने भी लगी. इंसानों से प्यार-मुहब्बत और अपनत्व के विश्वास का शीशा तो उसका पहले ही से टूटकर चकनाचूर हो चुका था. मोहित ने बहुत पहले ही से उसको फरेब की ठोकर मार दी थी और अब एक छोटा-सा, नादान बच्चा भी उसके पास नहीं रहा था. अकेली, अंधकारमय रातों में वह सिसकती तो सारी दुनियां ही मानो उसे काट-खाने को दौड़ती नज़र आने लगती. अपने घर की हर दीवारों से जैसे ईंटे खोद-खोदकर उसे भूत निकलते दिखाई देते. इतने बड़े घर के हरेक कोने से उस पर उपहास करती हुई परछाइयां नाचती हुई दिखाई देतीं.

अपने जीवन के इन कठोर और पीड़ायुक्त दिनों में तब मोहिनी कभी-कभी यह सोचने पर विवश हो जाती कि, ऐसी दर्दभरी और नीरस ज़िन्दगी से तो भला होगा कि, वह फिर से वापस अपने आत्माओं के आसमान में लौट जाए. वहां, कम-से-कम वह अकेली और तन्हा तो नहीं रहेगी. वहां पर उसको अपनी सहेलियों में कम-से-कम इकरा और रागिनी तो मिल ही जायेंगी. वह एक बार आत्महत्या कर ले और फिर वहीं आत्माओं के संसार में पहुँच जायेगी. क्या अंतर रहेगा? यहाँ और वहां में? आसमान के आत्मिक संसार में रहते हुए उसे भटकना होगा और यहाँ इस संसार में भी, हाड़-मांस के इस मानव चोले में वह अभी भी भटक ही तो रही है?

सो, मोहिनी जब ऐसा सोचने लगी तो उसके दिल-ओ-दिमाग की सोचें, उसके चेहरे पर उसके आने वाले भावी दिनों का कफ़न बनकर लिपटने लगीं. उसके सोचने, काम करने के अंदाज़ बदले, उसके कार्य-कलापों में बदलाव के चिन्ह दिखे तो सबसे पहले उसके इन परिवर्तनों को उसके बॉस रोनित ने महसूस किया. वह समझ गया कि, लड़की अब सचमुच किसी दूसरे प्रकार के इरादों में उलझ चुकी है. अब तक रोनित ने मोहिनी की हरेक बात पर विश्वास किया था- उसने जो भी अपने बारे में बताया था, उसने सच माना था- यही कारण था कि, मोहिनी के तमाम हालात और परिस्थितियों को देखते हुए उसने उसे अपनी फर्म में नौकरी दी थी. फर्म की सबसे बड़ी जिम्मेदार कुर्सी पर बैठाकर उसे सम्मानित किया था. लेकिन अब? हालात दूसरे थे. मोहिनी भटकने लगी थी. अपने आप से और दिल-ओ-दिमाग से भी.

आगे कहीं इससे भी कुछ और बड़ी बात न बन जाए, मोहिनी अपना कोई अन्य बड़ा नुक्सान न कर डाले; इससे पहले भला यही रहेगा कि, वह मोहिनी को समझाये. ऐसा सोचकर रोनित ने मोहिनी को अपने निजी कार्यालय में बुलवाया. फिर जब वह आ गई और कुर्सी पर बैठ भी गई तो रोनित ने औपचारिकता के नाते अपनी बात आरम्भ की. वह बोला कि,

'कैसी हैं आप?'

'ठीक हूँ.' मोहिनी बोली.

'केवल ठीक ही या कुछ और भी?'

जी. . .?'

'चाय पीयेंगी या कॉफ़ी? वैसे मैंने कॉफ़ी मंगवाई है?' रोनित ने कहा तो मोहिनी ने उत्तर दिया,

'कुछ भी.'

'आपके काम से मैं बहुत ही ज्यादा प्रसन्न हूँ. जब से आपने जनरल मैनेजर का काम सम्भाला है, हमारी फर्म के मुनाफे में तीस परसेंट का इजाफा हो चुका है.'

'मैं जानती हूँ और मुझे खुशी भी है.'

'लेकिन, मुझे नहीं लगता है.'

'क्यों?'

'लगता है कि जैसे आप बहुत अधिक परेशान हैं. कहीं दूर भागना चाहती हैं?' रोनित ने कहा तो मोहिनी ने अपनी गर्दन झुका ली. नज़रें भी नीचे कर लीं. तब रोनित ने अपनी बात आगे बढ़ाई. वह बोला कि,

'मुझे खबर मिली है कि, आप कहीं-न-कहीं ऐसी जगहों पर जाती रहती हैं, जहां पर कोई नहीं जाता है. उदाहरण के लिए, आप किसी पहाड़ जैसी ऊंची जगह पर जाकर खड़ी हो जाती हैं और नीचे गहरी घाटी को देखती रहती हैं? कभी समुद्र के ऊपर बने पुल पर खड़ी होकर उसकी गहराई नापने की कोशिश करती हैं. कुछ नहीं तो किसी कुएं की मनि पर बैठ कर नीचे देखती हैं? क्यों जाती हैं इन खतरनाक स्थानों पर आप? अपने साथ अब ड्राईवर को भी नहीं ले जाती हैं?'

'?'- मोहिनी खामोश होकर नीचे फर्श को देखने लगी.

'मैं आपका शुभ-चिंतक हूँ. यह बात आप जानती भी हैं. आगे भी हमेशा आपके भले के लिए सोचूंगा और करता भी रहूंगा. क्या जान सकता हूँ कि, क्यों जाती हैं आप, इन मौत के आगोश में छिपाने वाली जगहों पर?'

'सच बताऊँ. . .?' मोहिनी बोली तो रोनित ने उसे एक भेदभरे ढंग से देखा.

'?'- . . खामोशी.

'मैं मरने जाती हूँ, लेकिन मर नहीं पाती हूँ.'

'क्यों? जब कि आपको मालूम है कि आप अपना यह दूसरा जीवन फिर से भीख में लेकर आई हैं?'

'जानती हूँ.'

तो फिर? क्या मिलेगा आपको दोबारा मर कर भी?'

'मैं 'मनुष्य के पुत्र' से दोबारा यह जीवन मांगकर यहाँ आई थी, यही सोचकर कि, मेरा मंगेतर जो मेरे कारण उदास और रोता रहता है, मुझे फिर से पाकर खुशियों के कारण सारा आसमान अपने हाथों में उठा लेगा, मगर उसी ने मुझ में सबसे पहले ठोकर मारकर मुझे जैसे अपाहिज बना दिया है. अपने जिस प्यार के लिए मैंने आसमान की सियासत तक हिला दी थी, तो जब उसी ने मुझे अपनाने से मना कर दिया तो फिर मेरा यहाँ रहने का कोई अन्य कारण नज़र नहीं आता है.'

'आपको मालुम है कि, बाग़ में से चार फूल तोड़ने से चमन खाली नहीं होता है. घर का, समाज का, देश का मुखिया अगर चला जाए तो क्या वह घर,समाज और देश अपाहिज हो जाता है? अगर एक मोहित ने आपको नकार दिया है तो क्या यह दुनियां आपकी पसंद के अन्य मोहितों से खाली हो चुकी है? सब्र से काम लीजिये. क्या पता आपके उस 'शान्ति के राजा' की आपके लिए क्या मर्जी है? जब उसने आपको लिए इतना कुछ किया है तो आगे भी वह आपके जीवन के दिनों को खुशियों में अवश्य ही बदल देगा.' रोनित ने बताया तो मोहिनी जैसे शर्मिंदा होते हुए बोली,

'मैं जानती हूँ कि, मैं कोई गुनाह करने जा रही थी.'

'इस गुनाह की सज़ा? मालुम है क्या आपको?'

'?'- खामोशी. मोहिनी चुप हो गई.

'इसी खतरनाक गुनाह से बचाने के लिए एक बार जो सूली चढ़ चुका है, वह अब दोबारा तो फिलिस्तीन में नहीं आयेगा?'

'आपको, ये बातें कैसे मालुम हैं?' मोहिनी ने आश्चर्य से रोनित को देखा.

'मैंने तो सिर्फ किताबों में ही पढ़ा है. आपने जो बातें की हैं और जो मुझे बताई हैं, उन्हीं के हिसाब से ही मैंने भी आपको उत्तर दिया है. असली सच्चाई तो ऊपर का रहने वाला ही जाने. लेकिन जो कड़वी सच्चाई है, वह यही कि, पाप तो पाप होता है, और पाप करने की सज़ा केवल और केवल मृत्यु है. मैं केवल इतना ही जानता हूँ.'

'?'- मोहिनी फिर से खामोश हो गई तो रोनित ने अंतिम बात कही. वह बोला कि,

'इसलिए, अपने दिमाग से इन ऊल-जलूल बातों को निकाल फेंकिये. ज़िन्दगी एक नियामत है, इस बात को आप मुझसे अधिक बेहतर जानती हैं- ज़िन्दगी की नियामत आपको दो बार मिल चुकी है. अब आप अपने ऑफिस में जाइए और रिलेक्स हो जाइए. पता नहीं, हमने सारी बातें कर लीं और कॉफ़ी, अभी तक नहीं आई? चलिए, कॉफ़ी भी, आपके ऑफिस में पहुंचा दी जायेगी. '

तब मोहिनी, चुपचाप अपने स्थान से उठकर चली गई. अपने बॉस रोनित की बातों से वह तनिक खिन्न तो हुई थी, लेकिन फिर भी उसके दिल को एक तसल्ली भी प्राप्त हुई थी. वह जानती थी कि, एक रोनित ही ऐसा मनुष्य था जो, मोहिनी की कहानी और उसकी बातों पर विश्वास कर सका था, वरना बाक़ी तो उसकी बातें सुनकर हंसा ही करते थे.

दिन और समय गुजरते पल भी नहीं लगते हैं.

रोनित की कही हुई तमाम बातें मोहिनी के दिमाग से निकल तो नहीं सकी थीं बल्कि, एक दिन वे सब आई-गई हो गईं. वह सामान्य हो गई. समय के बढ़ते हुए मूल्यों ने मोहिनी को गुजरे हुए वक्त की कीमत का एहसास करा दिया. वह नादान फूलों पर मंडलाते हुए भौरों को देखती तो उसका जी जल कर ख़ाक हो जाता. लेकिन, जब उन्हीं फूलों पर नाजुक तितलियों को देखती तो उनकी तीन दिन के जीवन के बारे में सोचते ही उसकी आँखें छलक भी जाती थीं. तभी उसके दिमाग में रोनित के कहे हुए शब्द गूँज जाते, 'यह दुनियां है. इस दुनियां के साथ चलोगी तो दुनियाँवाले भी तुम्हारे साथ-साथ चलेंगे. नहीं, चलोगी तो पीछे रह जाओगी.' मोहिनी ने इन बातों की कड़वाहट के साथ-साथ, उनकी सच्चाई को भी जाना और समझा और यह सोचकर अपने आपको तसल्ली दी, समझा लिया कि, दुनियांवाले तो केवल एक ही संसार का ज्ञान रखते हैं, मगर वह तो दो तरह की दुनियां के बारे में जानती है. इसलिए, अब वह समय से अपने कार्यालय आती, अपने काम में मन लगाती और फिर जब वह फुरसत में होती तो फिर बड़े आराम से अपने बारे में सोचा करती. सोचकर रोती, कभी पछताती, कभी खुद से तो कभी सारे ज़माने से शिकायतें करती, मगर अब भूलकर भी अपने हालात का मजमा नहीं लगाया करती थी. दूसरों से उसने अपने दुःख, अपने दर्द और अपने किस्से कहना बंद कर दिए थे.

वक्त ने करबट ली. समय के कितने ही चक्र घूम गये. मोहिनी के लिए उसके अपने दुःख, अपने दर्द और अपनी कहानी, उसके हालात के चमगादड़ बनकर, उसकी ज़िन्दगी के घर की दीवारों पर लटकते ही रह गये. उसके जीवन के दर्द की तमाम बातें अबाबीलों की तरह हर शाम उसके ही सामने जैसे दीवारों पर चिपकी रहतीं- मगर अब उसने उनकी हर तरह से परवा करना छोड़ दिया था. वह देखती और लापरवाही से नज़रें फेर लेती थी.

एक दिन उसे अपने कार्यालय के काम से दूसरे शहर किसी मीटिंग में जाना था. वह हवाई अड्डे पर, अपने गेट के सामने हवाई जहाज के लिए प्रतीक्षा कर रही थी कि, तभी एक बेहद आकर्षित, लम्बे और 'हेंडसम' व्यक्ति ने उसको सम्बोधित किया. वह उसे गौर से देखते हुए बोला कि,

'व्हाट-ए-सरप्राइस? इकरा तुम?'

'?'- मोहिनी ने उस युवक को आश्चर्य से देखा.

'अरे, भूल गई मुझे? मैं, सोहित हूँ. तुम्हारा मित्र. तुम्हारे साथ पढ़नेवाला, 'एजाज़-ए-निशाँ, मिन्नत-ए-तालीम' कॉलेज में पढ़नेवाला? याद है न कि, कभी-कभी, हम दोनों एक-साथ भी बैठा करते थे.?

'?'- मोहिनी, फिर भी उसे एक संशय के साथ देखती रही.

-क्रमश:

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