अन्धायुग और नारी--भाग(२३) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अन्धायुग और नारी--भाग(२३)

और ये चाचा जी की सोची समझी चाल थी,उन्हें पता था कि चाची उनके आने की खबर जरूर उन तीनों को देने जाएगीं,उन सभी से ये कहेगीं कि सावधान रहना ठाकुर साहब हवेली आ चुके हैं,चाची ने उन तीनों को हवेली के तलघर में छुपाया था,वहीं उन्होंने उनके रहने सोने का इन्तजाम किया था और चाची उन सभी को अब ये खबर देने सीढ़ियांँ उतरकर तलघर पहुँचीं,वें नीचे पहुँची तो सब अभी भी सोए पड़े थे,चाची ने तुलसीलता को जगाते हुए कहा....
"तुलसी जागो! ठाकुर साहब हवेली में आ चुके हैं,अब तुम तीनों सावधान रहना",
तुलसी आँखें मलते हुए जाग उठी और चाची से बोली....
" क्या कहा ठकुराइन! ठाकुर साहब हवेली आ चुके हैं",
"हाँ! अब तुम तीनों सावधान हो जाओ",चाची बोली....
"लेकिन उन्हें कुछ पता तो नहीं चला कि उदय भगवन्तपुरा से आ चुका है",तुलसी ने पूछा...
"उनके चेहरे को देखकर तो नहीं लग रहा था कि उन्हें कुछ मालूम चला है",चाची बोलीं....
"हाँ! ये तो बहुत अच्छा हुआ जो उन्हें कुछ मालूम नहीं चला",तुलसीलता बोली....
और तभी तलघर की सीढ़ियों से चाचा की आव़ाज आई....
"ओह....तो तुमने उस कुत्ते को यहाँ छुपा रखा है"
अब तक सब जाग चुके थे और चाचाजी की आवाज़ सुनकर सबके चेहरों का रंग उड़ गया,चाचाजी सीढ़ियांँ उतरकर नीचे आए,उनके हाथ में बंदूक थी और चेहरे पर ढ़ेर सारा गुस्सा फिर वें चाची से बोलें.....
"तुझे शरम नहीं आई खानदान की इज्जत उछालते हुए,",
"और तुम्हें शरम नहीं आती दूसरों औरतों के साथ रात गुजारते हुए,तब खानदान की इज्जत नीलाम नहीं होती",चाची बोलीं....
"देख रहा हूँ बहुत जुबान चलने लगी है तेरी,तेरी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि तू मेरे खिलाफ जाऐगी,मेरी मर्जी के बिना इस हरामजादे को भगवन्तपुरा से छुड़ा लाई,मेरी बराबरी करने चली है,तेरा काम है घर और बच्चे सम्भालना,तू वो कर,इस दुनियादारी में मत पड़",चाचा जी बोले....
"क्यों ?ये बच्चे और ये घर मेरे अकेले का है,तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है इन सबके प्रति",चाची बोली....
"मुझे मेरी जिम्मेदारी मत सिखा,तुझे इस घर में रहने को मिल रहा है ना तो तू इतनी गनीमत समझ,मेरी माँ की वजह से तू इस घर में टिकी हुई है,जिस दिन भी मेरा मन करेगा तो तुझे इस घर से कचरे की तरह निकालकर बाहर करूँगा",चाचाजी बोलें.....
"सुनो! ज्यादा मत बोलो,बोलना मुझे भी आता है,मैं जब तक लिहाज कर रही हूँ तो कर रही हूँ,जिस दिन मैंने लिहाज करना बंद कर दिया ना तो तुम कहीं के नहीं रहोगे",चाची बोली...
"तू परे हट,मैं तुझसे बात करने नहीं आया हूँ,मैं तो इस हरामजादे वकील से बात करने आया था",
और ऐसा कहकर चाचाजी ने उदयवीर के सीने पर बंदूक सटा दी,ये देखकर सभी परेशान हो उठे,तब चाचाजी ने उदयवीर से पूछा....
"अच्छा! तो तू मेरी बीवी को भी जानता है",
"ठाकुर साहब! उनकी कोई गलती नहीं है,वें तो बड़ी बहन होने के नाते मेरी मदद करने चलीं आईं थीं",उदयवीर बोला...
"बड़ी बहन! वाह.....भाई.....वाह....क्या रिश्ता बनाया है तुम दोनों ने",ये कहकर चाचा जी हँसने लगें...
तब तुलसीलता बोली.....
"ठाकुर साहब! उदय की जान बख्श दीजिए,मैं उससे कहूँगी केस वापस लेने को तो वो केस वापस ले लेगा",
"बड़ी मुश्किल से शिकार शेर के पास आया है,अब इसकी जान बख्शना बेवकूफी होगी",चाचाजी बोले...
"ठाकुर साहब! ऐसा मत कीजिए",तुलसीलता बोली...
"ओहो ! तो बड़ी हमदर्दी है तुझे अपने यार से,ये तेरा पुराना आश़िक है ना!",चाचाजी बोलें
"तुलसी! मत गिड़गिड़ाओ इस जालिम के सामने,मत माँगो भीख मेरी जान की,ऐसे लोग किसी के सगे नहीं होते,जो कभी अपनी पत्नी का नहीं हुआ,उसके भीतर कहाँ से समर्पण की भावना होगी,ऐसे इन्सान के आगे घुटने टेकना बेकार है",उदयवीर बोला....
"सही कहा तूने,अब सब बेकार है,अब मैं तुझे नहीं छोड़ूगा",
और ऐसा कहकर चाचाजी ने बंदूक का ट्रिगर दबाना चाहा,तभी ऐन मौके पर किशोरी ने चाचाजी को पीछे से धक्का दे दिया और चाचा जी धरती पर गिर पड़े फिर उनकी बंदूक भी उनके हाथ से छूटकर गिर गई,तभी किशोरी उदयवीर और तुलसीलता से बोली....
"भागो तुम दोनों यहाँ से",
और फिर क्या था,तुलसीलता और उदयवीर तलघर की सीढ़ियांँ चढ़कर ऊपर की ओर भागे,इधर चाचाजी को किशोरी की हरकत पर बहुत गुस्सा आया और वें झटपट उठे फिर बंदूक उठाकर उन्होने सबसे पहले किशोरी के सीने में दाग दी और फिर तलघर की सीढ़ियाँ चढ़कर उन दोनों के पीछे भागे,इधर गोली लगते ही किशोरी खून से लथपथ होकर धरती पर तड़प रही थी,चाची रोते हुए उसके पास पहुँची तो किशोरी उनसे लरझती आवाज़ में बोली.....
"ठाकु..राइन... उन...दोनों को बचा लो"
और ये किशोरी के आखिरी शब्द थे,इन शब्दों को कहकर किशोरी ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं,अब चाची तलघर की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर भागी,पहले तो उन्होंने रसोई से हँसिया उठाया और उन तीनों के पीछे पीछे गईं,ये सारा तमाशा घर के सभी नौकर देख रहे थे,दादी भी उस वक्त घर पर नहीं थीं,वें बगीचे वाले मंदिर में पूजा करने गईं थीं और दादाजी किसी तवायफ के कोठे पर पड़े थे,गोली की आवाज़ सुनकर मैं भी भागा भागा अपने कमरें से बाहर आया और फिर मैंने छाया और माया को अपने कमरें में ही बंद रहने को कहा,एक नौकर ने मुझे सब कुछ बताया और मैं भी उन सभी के पीछे भागा.....
तुलसीलता और उदय उस सुनसान इलाके की ओर भागे जहाँ खेत ही खेत थे,चूँकि तुलसीलता को वहांँ की सभी जगह पता थीं इसलिए वो उदयवीर को वहाँ ले गई,अब सूरज भी निकल आया था और उसकी रोशनी चारों ओर फैल चुकी थी,वें अब भागते भागते थक गए थे,इसलिए एक पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे और तभी चाचा जी का एक लठैत घोड़े पर सवार होकर उनका पीछा करता हुआ वहाँ पहुँच गया और उसके पीछे चाचाजी भी अपने घोड़े पर सवार थे साथ में आठ दस लठैत और भी थे,चाचाजी ने उन दोनों को घेर लेने को कहा,फिर क्या था सभी लठैंतों ने उन दोनों को घेर लिया और रस्सी से बाँध दिया,दोनों चीखते रहे,चिल्लाते रहे,दोनों ने बहुत हाथ पैर मारे खुद को बचाने के लिए लेकिन चाचाजी ने उनकी एक ना सुनी.....
कुछ देर के बाद दोनों के हाथ पैर बाँधकर उन दोनों के लिए उस पेड़ से फाँसी के फंदे बनाएं गए और उन्हें उन फंदो को उन दोनों के गले में डालकर घोड़ो पर खड़ा कर दिया गया,जब दोनों के गले में फंदे डल गए तो लठैतों ने घोड़ो को दूसरी जगह हटा दिया, घोड़ो के हटते ही गले में रस्सी की पकड़ मजबूत हो चली थी,अब दोनों का दम घुट रहा था,दोनों अपने पैर हवा में चला रहे थे लेकिन चाचाजी को उन दोनों पर कोई रहम ना आया,आखिरकार दोनों का दम घुट गया और दोनों की साँसें उखड़ चुकी थीं,अब दोनों शान्त हो चुके थे,दोनों के बदन में अब कोई भी हरकत नहीं हो रही थी,जब चाचाजी को तसल्ली हो गई कि दोनों मर चुके हैं तो चाचाजी ने लठैतों से उनकी लाश को पेड़ से उतारने को कहा और उनसे बोले कि इन दोनों की लाशों को जल्द से जल्द ठिकाने लगा दो,लठैत अभी दोनों की लाशों को पेड़ से उतार ही रहे थे कि बदहवाश, बेहाल सी चाची वहाँ पहुँची और चाचा जी से बोली....
"आखिरकार तुमने अपने मकसद को अन्जाम तक पहुँचा ही दिया",
"हाँ! और क्या? अपने दुश्मनों को छोड़ना कहाँ की अकलमन्दी है"चाचाजी बोलें....
"तुम्हें क्या मिल गया इन दोनों को मारकर",चाची ने पूछा....
"संतुष्टि और तृप्ति",चाचाजी बोलें....
"घिन आ रही है मुझे तुमसे",चाची बोली....
"फालतू बकवास बंद करो और चुपचाप घर जाओ,घर जाकर अपना हुलिया ठीक करो,चण्डी लग रही हो बिलकुल",चाचाजी बोलें....
" हाँ! आज मैं चण्डी ही बन गईं हूँ और एकाध का रक्त पीकर ही यहाँ से जाऊँगीं",
और ऐसा कहकर चाची ने हँसिए से चाचाजी की गरदन पर जोर का वार किया और चाचाजी की गरदन से खून की धार बह चली,चाची की इस हरकत से लठैत भी डरकर वहाँ से भाग गए.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....