अन्धायुग और नारी--भाग(१०) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अन्धायुग और नारी--भाग(१०)

मैं और चंपा चुपचाप उसी टीले के पास बैठकर उस बाँसुरी वाले की बाँसुरी सुनने लगे,बहुत ही मीठी बाँसुरी बजा रहा था वो,मैं तो जैसे उसकी बाँसुरी में खो सी गई,वो आँखें बंद करके बाँसुरी बजा रहा था और मैं उसे एकटक निहारे जा रही थी, सच में उसका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था,कुछ ही देर में उसने बाँसुरी बजाना बंद किया और जैसे ही अपनी आँखें खोली तो हम दोनों को अपने नजदीक बैठा देख सकपका गया और उसने हमसे पूछा...
"कौन हो तुम दोनों और यहाँ क्या कर रही हो",?
तब चंपा बोली...
"हम तुम्हारी बाँसुरी सुनकर यहाँ चले आए थे,बहुत ही मीठी बाँसुरी बजाते हो तुम",
"वो तो ठीक है लेकिन तुम दोनों को यहाँ कोई देख लेगा तो क्या समझेगा"?,बाँसुरी बजाने वाला बोला....
"क्या सोचेगा भला! बाँसुरी सुनना कोई गुनाह है क्या"?,चंपा ने अपनी आँखें मटकाते हुए पूछा...
"तुम दोनों का बाँसुरी सुनना गुनाह नहीं है,लेकिन एक लड़के के पास यूँ बैठना गुनाह है",बाँसुरी बजाने वाला बोला....
"ठीक है....ठीक है तो हम दोनों जा रहे हैं यहाँ से,हमें भी ऐसा गुनाह करके कोई मजा नहीं आ रहा है",चंपा गुस्से से बोली...
"अरे! तुम तो रुठ गई,मैं तो यूँ ही कह रहा था",बाँसुरी बजाने वाला बोला....
"अब रुठूँ ना तो क्या करूँ,तुम बात ही ऐसी कर रहे हो",चंपा बोली....
"अच्छा! ठीक है वो सब छोड़ो ,पहले ये बताओ कि तुम्हारी ये सहेली गूँगी है क्या"?,बाँसुरी वाले ने पूछा...
"नहीं! तो! ये तो इतना बोलती है कि बोल बोलकर मेरा सिर खा जाती है",चंपा बोली...
"तो फिर ये अभी क्यों नहीं बोल रही है",बाँसुरी बजाने वाले ने पूछा...
"जरा शरमा रही है बेचारी",चंपा बोली....
"किससे शरमा रही है मुझसे",बाँसुरी बजाने वाले ने पूछा...
"हाँ! शायद तुम्ही से शरमा रही है",चंपा बोली....
"मुझसे क्यों शरमा रही है,क्या मैं इसका ससुर हूँ?",बाँसुरी बजाने वाला बोला....
"मुझे लगता है कि बात कुछ और ही है",चंपा मुस्कुराते हुए बोली....
"अच्छा! वो सब छोड़ो ,पहले ये बताओ कि नाम क्या तुम दोनों के",बाँसुरी बजाने वाले ने पूछा...
"मैं चंपा और ये मेरी सहेली जनकदुलारी",चंपा बोली...
"ओह...तो इसका नाम जनकदुलारी है",बाँसुरी बजाने वाला बोला....
"और तुम्हारा नाम क्या है",चंपा ने पूछा...
" मैं गिरिधर हूँ",बाँसुरी बजाने वाला बोला....
"तो गिरिधर! क्या तुम रोज यहाँ बाँसुरी बजाने आते हो",चंपा ने पूछा....
"नहीं! हमेशा तो नहीं आता,जब मन अशान्त होता तो चला आता हूँ यहाँ और यहाँ बैठकर बाँसुरी बजाने से मेरा अशान्त मन शान्त हो जाता है",गिरिधर बोला...
"हम दोनों तो माता के मंदिर में जल चढ़ाने आए थे,बस यही नौ दिन ही तो हम लड़कियों को बाहर निकलने की छूट मिलती है,बाकी दिन तो हम घर में कैद रहतीं हैं",चंपा बोली....
"तुम लोगों से अच्छा तो मैं हूँ,जो जब चाहे,जहाँ चाहे घूम सकता हूँ,जा सकता हूँ",गिरिधर बोला...
"तुम लड़के हो ना! इसलिए कुछ भी कर सकते हो,लेकिन हम लड़कियों को कहाँ इतनी आजादी मिलती है",चंपा बोली....
हम दोनों गिरिधर के पास खड़े बातें ही कर रहे थे कि तभी और लड़कियांँ भी हमारे पास आ पहुँचीं जो हमारे संग मंदिर में जल चढ़ाने आईं थीं और उनमे से एक बोली....
"आज तुम दोनों जरूर हम सबको मार खिलवाकर रहोगी",
"क्यों?ऐसा क्या हो गया",चंपा ने पूछा...
तभी उनमें से दूसरी बोली....
"देख तो कितना दिन चढ़ आया है और हम लोग अभी तक घर नहीं पहुँचे",
"अच्छा! बाबा!तुम सब घबराओ मत,चलो अब घर चलते हैं",चंपा बोली...
जब हम सभी वहाँ से आने लगे तो गिरिधर ने पूछा...
"कल फिर आओगी तुम दोनों",
ये सुनकर हमारी सहेलियों में से एक बोली....
"हम सब भी आऐगें साथ में",
और फिर मैं उस दिन अपनी सहेलियों के संग वहाँ से चली आई,फिर दूसरे दिन में जब अपनी सहेलियों के संग मंदिर पहुँची तो वो वहाँ नहीं आया,इसलिए मेरा मन खराब हो गया...
इसके बाद वो तब आया जिस दिन नवरात्रि का आखिरी दिन था और उस दिन मंदिर में बहुत भीड़ थी,उस दिन हम सभी लड़कियों के संग किसी की माँ,किसी की चाची तो किसी की भाभी भी आई थी और ऐसे में उस टीले तक जाकर उसकी बाँसुरी सुनना नामुमकिन था और मैं अपना मन मसोसकर रह गई, लेकिन फिर वो मंदिर में आया और मेरे साथ खड़ी मेरी सौतेली माँ से बोला....
"माई! प्रसाद दे दो ना!",
लेकिन मेरी सौतेली माँ ने उसे प्रसाद नहीं दिया और आगें बढ़ गई,लेकिन उस समय मेरी टोकरी में भी प्रसाद था,जो मैनें अलग से चढ़ाया था और फिर मैने अपनी सौतेली माँ की नजरे बचाकर उसके हाथ पर दो पेड़े धर दिए और आगें बढ़ गई,जब मैं आगें बढ़ गई तो फिर मैनें पीछे मुड़कर देखा तो वो मुस्कुरा रहा था और उसे मुस्कुराता देख मेरे होंठो पर भी मुस्कान बिखर गई.....
उस दिन के बाद मैं उससे अपने गाँव में दशहरे के मेले में मिली,जो नदी किनारे लगता था,मुझे बाबूजी ने मेले में जाने की इजाज़त दे दी थीं,जब कि मेरी सौतेली माँ नहीं चाहती थी कि मैं मेले में जाऊँ,लेकिन बाबूजी के आगें मेरी सौतेली माँ की बिलकुल नहीं चली और मुझे मेले में जाने की इजाज़त मिल गई....
सौतेली माँ मेरे साथ मेले में आना चाहती थी लेकिन मायके से उनका भाई आ गया था तो वें उसी की आवभगत करने में जुट गईं थीं,बड़ा भाई अपने दोस्तों के साथ रंगरलियाँ मना रहा था और रही बाबूजी की बात तो वें बेचारे अपाहिज थे,मेरी माँ के स्वर्ग सिधारने के बाद उनके साथ एक हादसा हो गया था,उनके पैर में कभी कोई बिषैला कट चुभ गया होगा और उस समय उन्होंने ध्यान नहीं दिया,लेकिन उस काँटे ने बाबूजी के पैर में ऐसा घाव किया कि ना जाने कितना इलाज कराने के बावजूद भी उनके पाँव का घाव ठीक नहीं हुआ और उस घाव ने बाबूजी के ऊपरी पैर को भी खराब करना शुरू कर दिया था,इसलिए मजबूरीवश डाक्टर को बाबूजी का पैर काटना पड़ा,वे बैसाखियों के सहारे ही चलते थे.....
तो मैं चंपा और अन्य सहेलियों के साथ मेले पहुँची,वहाँ मुझे बाँसुरी की आवाज़ आई और मुझे पक्का यकीन हो गया था कि हो ना हो वो गिरिधर ही है और मैं उस बाँसुरी की आवाज़ की ओर भागी,जिससे मेरी सहेलियाँ मुझसे बिछड़ गईं,मैं भागकर जब वहाँ पहुँची तो मैने देखा वो सच में गिरिधर ही था जो बाँसुरी बजाकर बाँसुरियाँ बेच रहा था,मैं उसके पास गई और बोली....
"मुझे भी एक बाँसुरी चाहिए",
पहले तो वो मेरी आवाज़ सुनकर मुझे देखता रह गया लेकिन फिर उसने मुझे उन बाँसुरियों में से एक बाँसुरी निकालकर दी,तब मैनें उससे बाँसुरी के दाम पूछे तो वो बोला....
"इस बाँसुरी के मैं कोई दाम नहीं लूँगा",
मैंने पूछा,"क्यों"?
तो वो बोला.....
"प्रेम से दी हुई या ली हुई चींज अनमोल होती है,दाम चुकाने से प्रेम खतम हो जाता है",
"ये क्या कह रहे हो तुम"?,मैने पूछा....
"वही जो तुम्हारे मन में है",गिरिधर बोला...
"मेरे मन में कुछ भी नहीं ",मैंने कहा....
"तुम्हारी आँखें सब कह रहीं हैं कि तुम्हारे मन में क्या है",गिरिधर बोला....
"कुछ भी तो नहीं है मेरे मन में",मैं बोली....
और तभी मेरी सहेलियाँ मुझे ढूढ़ती हुईं मेरे पास आ पहुँची और चंपा मुझसे बोली....
"अच्छा! तो हमारी राधा अपने गिरिधर के पास है और हम खोज खोजकर परेशान हुए जा रहे थे",
"ये क्या बकती है री"?,मैं चंपा से बोली...
"बक नहीं रही हूँ,सच ही तो कह रही हूँ",चंपा बोली....
"लो चंपा ! तुम भी बाँसुरी खरीद लो",गिरिधर बोला....
"ना भाई! इसने ले ली,वही काफी है,मैं बाँसुरी का क्या करूँगी"?,चंपा बोली...
"लो ले लो !दाम मत देना",गिरिधर बोला...
"नहीं! तुम किसी और को बेच देना",चंपा बोली....
"ठीक है,नहीं लेना चाहती तो कोई बात नहीं",गिरिधर बोला...
"अब तुम्हारी इजाज़त हो तो हम अपनी सहेली को ले जाएँ",चंपा बोली...
"हाँ...हाँ...ले जाओ,मैने थोड़े बुलाया था इसे,ये खुदबखुद यहाँ आ गई",गिरिधर बोला....
"तुम्हें शायद मालूम नहीं गिरिधर! दिल से दिल को चाह होती है,तभी ऐसा होता है",चंपा बोली...
"अब ज्यादा बकवास मत कर,चल अब घर चलते हैं",मैने चंपा से कहा....
और फिर उस दिन के बाद मैं और गिरिधर इसी तरह कहीं ना कहीं मिलने लगे और जिस जगह हम मिलते थे उस जगह की रखवाली चंपा किया करती थी और हमें मिलाने में बहुत मदद किया करती थी,लेकिन शायद ईश्वर को हमारा मेल नहीं सुहाया और इस बात की खबर मेरे बड़े भाई को लग गई.....

क्रमशः...
सरोज वर्मा....