अन्धायुग और नारी--भाग(७) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अन्धायुग और नारी--भाग(७)

आँखें खोलते ही तुलसीलता ने लालटेन के उजियारे में मुझे पहचान लिया और मुझसे पूछा....
"तू यहाँ क्यों आया है"?
"तुम्हें बचाने",मैंने कहा...
" तू मुझे बचाने क्यों आया है"?,तुलसीलता ने पूछा...
"मानवता के नाते",मैं बोला...
"तेरे दादा को पता चल गया कि तूने मुझे यहाँ से छुड़ाया है तो",तुलसीलता बोली...
"तुम अगर अपनी बकवास बंद कर दो तो मैं तुम्हारी रस्सियाँ खोल दूँ",मैंने तुलसीलता से कहा....
"अरे! बिगड़ता क्यों है,कोई एहसान थोड़े ही कर रहा है तू मुझ पर",तुलसीलता बोली....
"हाँ! सही कहा तुमने,एहसान नहीं है ये,अपने दादा जी के किए बुरे काम को अच्छा करने की कोशिश कर रहा हूँ",मैंने तुलसीलता से कहा....
"तू तो बुरा मान गया रे!",तुलसीलता बोली....
"अगर अब तुम अपना मुँह बंद कर लो तो मैं तुम्हारे यहाँ से बाहर निकलने का कुछ इन्तजाम करूँ",मैंने कहा...
"गुस्सा तो तेरी नाक पर धरा रहता है,समझता क्या है तू खुद को",तुलसीलता गुस्से से बोली...
"और तुम! तुमने जो मुझे उस दिन अपने दरवाजे से भगा दिया था तो वो क्या था,तुम तो उस दिन जैसे मुझ पर फूल बरसा रही थी",मैंने उसकी रस्सियाँ खोलते हुए कहा...
"अच्छा! तो तू उस दिन की बात से खफ़ा है",तुलसीलता बोली....
"लो खुल गईं रस्सियाँ,चलो अब उस खिड़की से बाहर कूदो",मैंने तुलसीलता से कहा....
"हाँ! चल बता तो कहाँ से कूदना है"?,तुलसीलता ने पूछा...
"अभी बताया तो कि खिड़की से कूदना है,बहरी हो क्या एक बार का सुनाई नहीं देता",मैने तुलसीलता से कहा....
"ऐ....सुन ज्यादा धौंस मत जता,ले नहीं जाती बाहर",तुलसीलता अपने दोनों हाथ बाँधते हुए बोली....
"ऐ...अब ज्यादा नाटक मत कर,चुपचाप अपनी साड़ी ठीक से लपेटकर खिड़की से कूद चल,मैं तुझे तेरी कोठरी तक छोड़कर आता हूँ",मैंने उससे कहा....
"तू जाएगा मुझे छोड़ने,तुझे तो अँधेरे से डर लगता है ना!",तुलसीलता बोली...
"तुम साथ होगी तो डर नहीं लगेगा",मैंने उससे कहा....
"फिर वापस कैसें आएगा"?,उसने पूछा....
"तुम मेरी चिन्ता मत करो,बाकी बातें बाद में कर लेना,पहले यहाँ से निकलो तो सही",मैने कहा....
और फिर उस रात हम दोनों बैठक की खिड़की से कूदकर बाहर पहुँच गए,मैं उसे उसकी कोठरी तक छोड़ने भी गया,मैं वापस आने लगा तो वो बोली....
"भीतर नहीं आएगा",
तब मैंने कहा,"नहीं"!
उसने पूछा,"क्यों"?
मैंने कहा,"तुमने उस दिन भगा दिया था इसलिए मैं तुम्हारी कोठरी के भीतर नहीं आऊँगा"
फिर वो कुछ भी नहीं बोली और मैं वापस चला आया,लेकिन अब रास्ते मेँ मुझे बहुत डर लग रहा था,जाने में तो वो साथ थी इसलिए डर नहीं लगा,लेकिन अब मैं अकेला था इसलिए डर लग रहा था,मैं रास्ते भर हनुमानचलीसा रटता चला आ रहा था और जैसे तैसे हवेली तक पहुँचा और चुपचाप अपने बिस्तर पर आकर चादर ओढ़कर लेट गया और कुछ ही देर में मुझे नींद भी आ गई,सुबह जागा तो अभी सारा माहौल शान्त था क्योंकि जो लठैत तुलसीलता की पहरेदारी में तैनात किए गए थे वें अब भी महुए की शराब पीकर सोए पड़े थे और दादाजी जी शायद अभी ठाकुर मानसिंह के यहाँ से लौटे नहीं थे.....
और रही चाचाजी की बात तो वें भी अभी किसी तवायफ़ के कोठे पर ही शराब पीकर बेसुध पड़े होगें,नहीं तो गए होगें कन्चपुरा अपनी रखैल गंगी के यहाँ,जब चाचाजी को कहीं कोई ठिकाना नहीं मिलता तो अक्सर वो कन्चपुरा में रह रही गंगी के पास चले जाते हैं,ये बात मुझे इसलिए मालूम है क्योंकि चाचा चाची का इस बात को लेकर अक्सर झगड़ा होता रहता है तब चाची गंगी को खूब कोसती है,
गंगी का पति उसे छोड़कर जा चुका है,वो उसे इसलिए छोड़कर भाग गया क्योंकि वो सन्तान पैदा नहीं कर पाई,गँगी के सन्तान पैदा नहीं हुई तो उसका यौवन भी बुढ़ापे की ओर अग्रसर नहीं हुआ,पति के छोड़कर जाने के बाद वो चाचा के खेतों में काम किया करती थी,एक रोज चाचा मजदूरों की मजदूरी देने खेतों में पहुँचे और उनकी नज़र गंगी पर पड़ गई,गंगी को भी इस नाजायज़ रिश्ते से कोई एतराज़ ना था सो चाचा फँस गए उसके मोहजाल में.....
खैर! मैं जागा तो अभी घर का माहौल एकदम ठण्डा,घर का माहौल दोपहर होने के साथ साथ गरम हो उठा,क्योंकि अब दादाजी ठाकुर मानसिंह के यहाँ से लखनऊ की मशहूर तवायफ़ हुस्नाबानो का मुजरा देखकर वापस आ चुके थे,उनका सुरूर और खुमारी अब दोनों उतर चुके थे इसलिए वें अब होश में थे और हवेली में कदम रखते ही उन्होंने लठैतों से पूछा...
"देवदासी को कुछ खाना वाना दिया या वो ऐसे ही भूखी प्यासी बँधी पड़ी है",
"सरकार! हम सभी जब सुबह जागे तो वो वहाँ नहीं थी", उन सभी में से एक लठैत बोला...
"नहीं थी....क्या बकते हो,वो वहाँ नहीं थी तो कहाँ गई"?,दादाजी जी चिल्लाएं...
"हुजूर! लगता है वो रात को ही भाग गई",दूसरा लठैत बोला...
"भाग गई....कैसें भाग गई,मैं तुम हरामखोरों को इसलिए पाल रहा हूँ कि तुम्हारी गिरफ्त से कोई भाग जाएं," दादा जी फिर चिल्लाए....
"हुजूर! बैठक की खिड़की खुली हुई थी,शायद वो वहीं से भागी है",तीसरा लठैत बोला....
"नमकहरामों! तो तुम उस समय क्या कर रहे थे? पड़े होगे शराब पीकर कहीं,एक काम सौंपा था वो भी नहीं कर पाए तुम लोग",दादाजी जी गुस्से से बोले...
"माँफ कर दीजिए सरकार! गलती हो गई हम लोगों से",चौथा लठैत बोला....
"गलती हो गई....मुफ्त का खाने को कह दो,बस काम के लिए ना कहो,तुम लोग किसी काम के नहीं हो,अब दफा हो जाओ मेरी नजरों से",दादाजी गुस्से से बोले....
और सभी लठैत वहाँ से चले गए फिर दादाजी जब नहाकर खाना खाने पहुँचे तो दादी उनकी थाली परोसकर उन्हें पंखा झलने बैठीं,ये दादी का रोज का नियम था,दादाजी चाहें कुछ भी करके आएं हों लेकिन जब वें खाना खाने बैठते थे तो दादी ही उन्हें पंखा झलतीं थीं,वें कहा करतीं थीं कि पति की केवल इतनी ही सेवा तो करने को मिलती है,मैं तो अभागी हूँ जो उनकी सेवा करने का मौका ही नहीं मिलता,मैं तो केवल अपना पत्नी धर्म निभा रही हूँ जो मेरे माँ बाप ने मुझे सिखाया है मैं तो बस वही कर रही हूँ जो एक पत्नी को करना चाहिए...
कभी कभी मुझे दादी की ऐसी बातों से खींझ हुआ करती थी कि पति चाहे पत्नी को कितने भी जूते मारता रहे और पत्नी सदैव उसके चरण स्पर्श करती रहे,ये विधान मेरी समझ से परे था,इन रुढ़िवादी परम्पराओं के मैं हमेशा खिलाफ रहता था,परम्पराओं के नाम पर आप कुछ भी स्त्रियों पर थोप दें और स्त्रियाँ सदैव उन्हें निभाती रहें,ये प्रथाएँ नहीं एक तरह का शोषण था,जो मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं था.....
ये कैसें नियम थे जो पुरूषों के लिए अलग थे और स्त्रियों के लिए अलग,पुरूष घर में स्त्री होते हुए पराई स्त्रियों के पास जाएं और स्त्री घर के खूँटे से बँधी रहें,वो अपनी मर्जी से साँस भी ना ले सकें,अपने मनमुताबिक जी भी ना पाएं,यहाँ तक कि अपनी पसंद का जीवनसाथी भी ना चुन पाएं,लेकिन ऐसी पाबन्दियाँ ना पुरूषों पर पहले कभी थीं और शायद ना कभी होगीं.....
ये सब दे देखकर मेरा जी जला करता था और मैं अपना मन मसोस कर रह जाता था और उस समय मेरे मन में तुलसीलता के लिए बार बार ये ख्याल आ रहा था कि अब दादा जी उसके साथ क्या करेगें और अगर उन्हें ये पता चल गया कि तुलसीलता को भागने में मैनें मदद की है तो मेरा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा और यही सब सोच सोचकर मेरा जी बैठा जा रहा था....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....