जुड़वा देश ABHAY SINGH द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जुड़वा देश

जुड़वां देश, एक गर्भ से एक वक्त में पैदा


भारत-पाकिस्तान। एक ही आर्मी, एक कॉलेज से प्रशिक्षित अफसर। परर पाकिस्तान में 3 मिलट्री तख्तापलट, भारत मे लोकतन्त्र फला।


कभी सोचा क्यों??

आज समझिये। जरा धैर्य से पढिये।

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पाकिस्तानी सम्विधान 10 साल तक लिखा न जा सका। व्यवस्था वही "पुलिस स्टेट" वाली थी, जो अंग्रेज छोड़ गए थे। सब कुछ गवर्नर जनरल, जिन्ना के हाथ मे था।


वो अपनी पार्टी और देश मे रिस्पेक्टेड होने की वजह से सुप्रीम थे। मगर उम्रदराज, बीमार भी। कायदा बिठाने के पहले, कायदे आजम चल बसे।


चेले लियाकत की हत्या हो गयी। देश अब बन्दर ब्रिगेड के हाथ मे.. जिनका अनुभव, भड़काऊ भाषण, दंगे करवाने और गालीबाजी भर का था।


1953 में एंटी अहमदिया दंगे हुए कन्ट्रोल करने को आर्मी बुलाई गयी। वेल स्ट्रक्चर्ड आर्मी ने कंट्रोल किया, कुछ समय एडमिनिस्ट्रेशन भी बढ़िया सम्भाला। आर्मी की इज्जत बढ़ी।


सेनाध्यक्ष अयूब को सरकार में जगह मिली। पर 1958 तक सिविल एडमिनिस्ट्रेशन पूरा कोलैप्स हो गया। मार्शल लॉ लगा, तो पाकिस्तानी खुश, बोले- माशाल्लाह लग गया।


अयूब जल्द ही तानाशाह बन गए।/उनका राज देश की तरक्की का रहा।

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आर्मी, 200 साल पुरानी, ब्रिटिश संस्था थी। 1857 का विद्रोह के बाद, उन्होंने बंगाल और बिहार से भर्ती बन्द कर दी। आर्मी में 75% पंजाब के सिख, मुसलमान, पहाड़ी लोग भरे थे। बफर के रूप में नेपाली गोरखा भर दिए।


पार्टीशन के बाद, 60% पंजाब पाकिस्तान बना। मुस्लिम पंजाबी थे, पाकिस्तान गए। इंडियन आर्मी में पंजाबियों की संख्या घटी, गोरखा रह गए, बाकी दूसरी रेजिमेंट्स भी।


अब जातीय-क्षेत्रीय अनुपात देखें, तो इंडियन आर्मी बैलन्स यूनिट थी। सेना में धार्मिक/क्षेत्रीय एका नही था। लेकिन 1958 तक, पाकिस्तान का सिविल प्रशासन सम्भाल रही आर्मी में पंजाबी भाषी भरे पड़े थे।


सिंध, खैबर, पूर्वी पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व सेना में, नही के बराबर था। याने अब सिविल प्रशाशन में भी प्रतिनिधित्व नही था।


कुल मिलाकर पाकिस्तान के दूसरे हिस्से पंजाबी साम्राज्य की कालोनियां बन गए।

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बीच बीच मे आयी डेमोक्रेटिक सरकारो ने वोट के लिए विभाजन को हवा दी।


उर्दू को नेशनल लैंग्वेज घोषित कर देना, अहमदियों को नॉन मुस्लिम घोषित करना, शियाओं को दोयम दर्जे का समझना, इन सबने पाकिस्तानी सोसायटी को बारूद के ढेर पर बिठा दिया। दंगे, आंदोलन, असंतोष .


इसे एक रखना किसी आर्म्ड फोर्स के बस की ही बात थी, तो आर्मी की जरूरत बढ़ती गयी। वही हालात आज हैं।

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इस पर आर्मी को वही वित्तीय स्वतंत्रता थी, जो ब्रिटिश जमाने से चली आ रही थी। पाकिस्तान आजादी के बाद फौजी ताकत बढ़ाता गया। दशकों तक उसका 70% नेशनल बजट आर्मी को समर्पित था।


आर्मी इस पैसे का क्या करेगी, उस पर सिविल गवर्नमेंट का दखल न तब था, न आज है।

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भारत की बागडोर गांधी ने अपने घोषित उत्तराधिकारी नेहरू को सौपी। जो युवा था, कांग्रेस का चुनावी चेहरा था, समावेशी और दूरदर्शी था।


वह गवर्नर जनरल नही, प्रधानमंत्री था। कैबिनेट सिस्टम को लेकर नेहरू चले। ढाई साल में सम्विधान बनाया। डोमिनियन स्टेटस खत्म कर, एक वेल ऑर्गनाइज्ड रिपब्लिक बनाया, चुनाव कराये।


खुद सदा निचले पद ( प्रधानमंत्री) पर रहे। वो पद जो राजा के बराबर राष्ट्रपति को, सलाह मात्र देने के लिए होता है।


किसी दूसरे को संवेधानिक बॉस स्वीकारने का बावजूद, यह उनका निजी आभामंडल, और नैतिक स्वीकार्यता थी, जिसने सन्सद, मन्त्रिमण्डल, फर्स्ट अमंग इक्वल की परिपाटियां बिठाई और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया।

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उन्होंने सिविल ब्यूरोक्रेसी को मजबूत किया। ल पंचवर्षीय योजनाएं लाये। आजादी मिलते ही 10 साल में विकास के मंदिर दिखने लगे। आजादी के बाद 15 साल, लोगो को किसी दमन, दंगे का सामना नही करना पड़ा।


धार्मिक समूहों के सेपरेट इलेक्टोरेट खत्म किये गए। कांग्रेस का संगठन, मुस्लिम लीग के उलट, बहुलता वादी था। तो सरकारो में सभी जाति धर्म समुदायों के लोग को अवसर मिला।


कुछ को उनकी जनसाख्यिक क्षमता से ज्यादा भी, जिसे आजकल व्हाट्सप में तुष्टिकरण कहते हैं।

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और हां, मंडल के चालीस साल पहले, सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी लागू हुआ। यह भी नेहरू की देन थी।


मेरिट के छातीकुटवे समझें, कि सरकारी नौकरी आपके रटन्त विद्या का इनाम नही। रेजीम को प्रशासन में सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व देना मजबूरी है। ऐसी पॉलिसी, देश को अखण्ड, शांत रखने की दूरदर्शिता है


पाकिस्तान उर्दू के मसले पर टूटा। नेहरू ने भाषायी तनाव के लक्षण देखे, तो भाषाई राज्य बनाए। फेयर इलेक्शन, निर्वाचित सरकारें दी।


केंद्र- राज्य की सरकारों में अधिकार लूटने की परंपरा नही बैठी। सम्विधान में लिखे स्पस्ट विभाजन को लागू होने दिया गया।


राज्य के सीएम को, पीएम के मातहत कर्मचारी जैसे ट्रीट करने की परम्परा नही रखी । याने आंतरिक असंतोष के हर पहलू को कवर कर, नेहरू ने वो बुनियाद रखी, कि सेना को घरेलू मामलात में बोलने की राह न मिले।

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उनका एक एडवांटेज, उनकी अपनी अंतराष्ट्रीय वकत थी। नेहरू की शख्सियत, भारत के असल कूटनीतिक वजन से ज्यादा थी। वे, और उनसे ज्यादा कृष्णा मेनन, इंटरनेशनल डिप्लोमेसी के रॉक स्टार थे।


तो रक्षा नीति सेना से अधिक कूटनीति के भरोसे डाली। (इस नीति ने 62 में बैकफायर किया)

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भवन भी संदेश देते हैं। वाइसराय पैलेस, राष्ट्रपति भवन हुआ। पहले राजगोपालाचारी रहे, और फिर राजेन्द्र प्रसाद। पर नेहरू??


वे रहने को गए तीन मूर्ति भवन,

क्यों??


ये ब्रिटिश कमांडर इन चीफ का आवास था। यह दरअसल सेना को सन्देश था- सिविलयन गवरनेंट इज द बॉस।

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1955 में सेना में एक "कमांडर इन चीफ" का पद खत्म हुआ। तीनों सेनाओं के 3 कमांडर हुए।


प्रोटोकॉल की लिस्ट बनी, तो राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेनाध्यक्षों के ऊपर रखे गए। सेना का खर्च CAG, याने संसद के दायरे में आया।


याने पाकिस्तान के विपरित, जवाबदेही की परिपाटी तय की गई। सेना कहीं सिविल एडमिनिस्ट्रेशन मे नही लगाई जाएगी, यह क्लियर कर दिया।

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सेना ने शांति से पावर कट स्वीकार लिया, ऐसा नही है। कहना ठीक नही, पर जानिए कि इस बदलाव के दौर में सेनाध्यक्ष, नेहरू से खफा क्यों रहते थे। विपरीत बयान क्यो देते थे??

सेनाध्यक्ष थिमैया अपने फेवरिट को उत्तराधिकारी बनाने के लिए सीधे राष्ट्रपति को रिकमेंड कर रहे थे। नेहरू ने दखल दिया, सीनियरिटी का प्रिंसिपल लाये।


गुस्साए थिमैया ने इस्तीफा दिया, पर नेहरू की कॉल पर वापस लिया। तब सेना के भीतर, जनरलों के शीतयुद्ध और गुटबाजी पर काफी रेकॉर्ड है।


कारण, बहाने कुछ भी हों, पर सेना उस वक्त पाकिस्तान मिलट्री को सत्ता का सरमौर बनते हासिल करते.. और खुद की पावर कट होते तो देख ही रही थी।


इस दौरान कई पत्रों, नोट्स को एंटी नेहरू साहित्य में इस्तेमाल किया जाता है।

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1962 में के बाद सेना वृद्धि का निर्णय हुआ। तो इसके साथ घरेलू अर्धसैनिक फोर्स भी बने। आज 14 लाख फ़ौज है, तो 12 लाख की पैरामिलिट्री भी।


असल मे दोनो ही सेना है। लेकिन सेनाध्यक्ष महज 10 लाख मिलिट्री पर्सनेल का बॉस है। 16 लाख लोग एयर, नेवी, BSF, ITBP वगैरह के अंडर है।


नीति के तहत सेना का मिलिट्री कॉन्टेक्ट मिनिमाइज किया जाता है। दंगे हो या राहत कार्य, आप CRPF, NDRF, PAC वगेरह को एक्शन में देखते है, आर्मी नही। कश्मीर जैसी जगह पर भी सेना बॉर्डर पर ही होती है। अंदर सीआरपी।


यह अलग बात कि नासमझ लोग पाकिस्तान की तर्ज पर, बात- बात में सेना बुलाने की मांग करते हैं।

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नेहरू ने सेना के जनरलों को रिटायरमेंट के बाद, राजदूत बनाने की परंपरा डाली।


मगर उन्हें पिपुल कॉन्टेक्ट, याने राजनीति में उतरने की आजादी नही दी, गवर्नर नही बनाया। प्रशासन में जगह नही दी।

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आप पकिस्तान के उलट भारत का निर्माण देख सकते हैं। पर क्या आपने नोटिस किया कि उस दौर के कितने गोल्डन रूल्स तोड़े गए हैं।


चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का पद फिर बन गया है। जनरल चुनाव लड़कर मंत्री और मुख्यमंत्री बन गए हैं। एक जनरल, सरकार के राजनैतिक विरोधियों को, टीवी पर मां बहन की गालियां दे रहा है।


सेना का मरता जवान, सेना की सर्जिकल स्ट्राइक सब पब्लिक डोमेन में है, राजनीति का हॉट पॉइंट है। वादे, धोखे, करप्शन, चुप्पी वहां भी है। पर हम सेना के नाम पर इमोशनल रहते हैं।


सेना एक पार्टी की उपलब्धि के रूप में इस्तेमाल हो रही है। उसके पक्ष में बयानबाजी कर रही है।

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सिविल प्रशासन समाज को बांटने, किसी धर्म को सुप्रीम, किसी को दोयम बनाने की नीति पर है। रायसीना हिल के ऑफिस, अब गुजरात की कालोनी बन गए है।


राज्य केंद्र के मातहत है ट्रीट हो रहे। डिप्टी सीएम जेल जा रहे, सीएम लाइन में है। भारत आज.. सिस्टमेटिकली पाकिस्तान के पद चिन्हों पर चल रहा है।

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ज्योतिष पर मेरा विश्वास नही। मगर साथ साथ पैदा दो लोगो की कुंडली अगर एक जैसी होती हो, तो शायद भारत का भविष्य भी पाकिस्तान ही होना लिखा है।


प्रशासनिक समझ से विहीन, नारेबाज गालीबाज जनता का देश, जब अपनी बेवकूफियों के हाथों आजादी खोएगा, ये लोग अपनी गुलामी के दिनों में उस नेहरू को याद करेंगे..


जो भारत के पाकिस्तान बनने की राह के बीचोबीच,दीवार बनकर खड़ा था