कहानी no - 11
किसी सार्वजनिक संस्था के दाक सदस्य चर्चा के लिए गांधीजी के पास वर्धा पहुँचे। बातचीत में गाँधीजी को लगा कि छोटे से काम के लिए दो व्यक्तियों का उनके पास आना उचित नहीं है। गांधीजी से रहा न गया और दोनों से कह दिया ‘आप दोनों को तीन दिन रहने की जरूरत नहीं हैं। कोई एक व्यक्ति वापस लौट जाए।‘ दोनों आंगतुक एक-दूसरे की शक्ल देखते रह गए।
गांधीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा- 'समय का अपव्यय करना सर्वथा अनुचित है। जिस समय एक व्यक्ति यहाँ काम कर रहा होगा, दूसरा व्यक्ति वापस जाकर वहाँ और कोई काम कर सकता है।' समय के इस महत्व को जानने के बाद वे लोग अपनी गलती समझ गए और उनमें से एक व्यक्ति फौरन वापस चला गया।
निष्कर्षःयदि आप जीवन से प्रेम करते हैं तो समय को व्यर्थ ही न गवाएं, क्योंकि जीवन समय से बनता है और वह भी हर क्षण से-
क्षण-क्षण से बनता है जीवन
जैसे जल-बूंदी से सागर।
इस जीवन का कोई छोर नहीं
सो बहा चले जैसे सागर।
जो लोग दुनिया में आगे बढ़े हैं, उन्होंने फुर्सत के समय को भी कभी व्यर्थ न जाने दिया। उन्होंने अच्छा साहित्य पढ़कर अपना बौद्धिक सुधार किया और अच्छे साहित्य का सृजन किया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी जेल-यात्रा के दौरान 'Discovery of India' की रचना की और अपनी बेटी प्रियदर्शिनी (इंदिरा गांधी) का ज्ञान पत्राचार के माध्यम से बढ़ाया।
“A man is wise with the wisdom of his time only”
कहानी no - 12राजा विक्रमादित्य के पास सामुद्रिक लक्षण जानने वाला एक ज्योतिषी पहुँचा। विक्रमादित्य का हाथ देखकर वह चिंतामग्न हो गया। उसके शास्त्र के अनुसार तो राजा दीन, दुर्बल और कंगाल होना चाहिए था, लेकिन वह तो सम्राट थे, स्वस्थ थे। लक्षणों में ऐसी विपरीत स्थिति संभवतः उसने पहली बार देखी थी। ज्योतिषी की दशा देखकर विक्रमादित्य उसकी मनोदशा समझ गए और बोले कि 'बाहरी लक्षणों से यदि आपको संतुष्टि न मिली हो तो छाती चीरकर दिखाता हूँ, भीतर के लक्षण भी देख लीजिए।' इस पर ज्योतिषी बोला - 'नहीं, महाराज! मैं समझ गया कि आप निर्भय हैं, पुरूषार्थी हैं, आपमें पूरी क्षमता है। इसीलिए आपने परिस्थितियों को अनुकूल बना लिया है और भाग्य पर विजय प्राप्त कर ली है। यह बात आज मेरी भी समझ में आ गई है कि 'युग मनुष्य को नहीं बनाता, बल्कि मनुष्य युग का निर्माण करने की क्षमता रखता है यदि उसमें पुरूषार्थ हो, क्योंकि एक पुरूषार्थी मनुष्य में ही हाथ की लकीरों को बदलने की सामाथ्य होती है।'
F.W. Robertson ने कहा है-It is not the situation which makes the man, but the man makes the situation. The slave may be a free man. The monarch may be a slave…
अर्थात स्थिति एवं दशा मनुष्य का निर्माण नहीं करती, यह तो मनुष्य है जो स्थिति का निर्माण करता है। एक दास स्वतंत्र व्यक्ति हो सकता है और सम्राट एक दास बन सकता है।
उपरोक्त प्रसंग से ये बातें प्रकाश में आती हैं-
हम स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल या प्रतिकूल बनाते हैं, अपने विचारों से, अपनी सोच से। जो व्यक्ति यह सोचता है कि वह निर्धन है, तो उसके विचार भी निर्धन होते हैं। विचारों की निर्धनता के कारण ही वह आर्थिक रूप से विपन्न होता है। यह विपन्नता उसे इस कदर लाचार कर देती है, कि उसे धरती पर बिखरी संपन्नता नजर ही नहीं आती। नजर आते हैं सिर्फ संपन्न लोग, उनके ठाठबाट और शानो-शौकत जो उसे कुंठित करते हैं, जबकि उनसे प्रेरणा लेकर वह भी संपन्न होने की कोशिश कर सकता है। अतः जरूरत है अपनी सोच में बदलाव लाने की।
मन की स्थिती अजेय है, अपराजेय है। उसकी दृढ़ इच्छा-शक्ति मनुष्य को विवश कर देती है कि वह किसी की परवाह किए बिना अपने काम को जी-जान से पूरा करें, अपनी सामर्थ्य से उस काम को पूरा करे।
मनुष्य निर्धनता और संपन्नता का सम्बन्ध भाग्य से जोड़ता है। वह सोचता है कि जो सौभाग्यशाली है, लक्ष्य उस पर प्रसन्न रहती है और बदकिस्मती का मारा कोशिश करने के बावजूद निर्धन ही बना रहता है।
निष्कर्ष:
सफलता की मुख्य शर्त है- पुरूषार्थ। पुरूषार्थ करने से ही 'सार्थक जीवन' बनता है, केवल भाग्यवादी रहकर नहीं। भाग्य तो अतीत में किए गए कर्मों के संचित फलों का भूल है, जो मनुष्य को सुखःदुःख के रूप में भोगने को मिलते हैं और वे फल भोगने के पश्चात क्षीण हो जाते हैं। विशेष बात यह है कि भोग करने का समय भी निश्चित नहीं है। ऐसी स्थिति में वह कब तक भाग्य के भरोसे सुख की प्रतीक्षा करता रहेगा?
यथार्थ में पुरूषार्थ करने में ही जीवन की सफलता सुनिश्ति है, जबकी व्यक्ति भाग्य के सहारे निष्क्रियता को जन्म देकर अपने सुनहरे अवसर को नष्ट कर देता है। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण यदि चाहते तो पांडवों को पलक झपकते ही विजय दिला देते, किन्तु वे नहीं चाहते थे कि बिना कर्म किए उन्हें यश मिले। उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का पाठ पढ़ाकर उसे युद्ध में संलग्न कराया और फिर विजय-श्री एवं कीर्ति दिलवाकर उसे लोक-परलोक में यशस्वी बनाया।
अतः आप विकास की नई-नई मंजिलें तय करने और उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचने के लिए अपने पुरूषार्थ को कभी शिथिल न होने दें और पूर्ण उत्साह के साथ आगे बढ़ते रहें।
पुरूषार्थ उसी में है जो संकट की घड़ी में निर्णय लेने में संकोच नहीं करता।
-वेदव्यास: महाभारत
कहानी no - 13लोकतंत्र के महान समर्थक अब्राहम लिंकन एक बार अपने गांव के नजदीक एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे। भाषण के बीच एक महिला खड़ी होकर बोली - 'अरे, यह राष्ट्रपति है? यह तो हमारे गांव के मोची का लड़का है।'
अपने प्रति ये अपमानजनक शब्द सुनकर लिंकन ने बड़े ही विनम्र शब्दों में उस महिला से कहा, 'मैडम! टापने बहुत अच्छा किया जो उपस्थ्ति जनता से मेरा यथार्थ परिचय करा दिया, मैं वही मोची का बेटा हूँ। क्या मैं आपसे एक बात पूछ सकता हूँ? 'अवश्य', उस महिला ने कहा। तब लिंकन ने पूछा - 'क्या आप यह बताने का कष्ट करेंगी कि मेरे पिताजी ने आपके जूते आदि तो ठीक तरह से मरम्मत किए थे न? आपको उनके कार्य में कोई शिकायत तो नहीं मिली।'
उस महिला ने सफाई देते हुए कहा - 'नहीं, नहीं, उनके कार्य में कोई शिकायत नहीं मिली। वे अपना काम बड़ी अच्छी तरह करते थे।'
अब्राहम लिंकन ने उत्तर दिया, 'मैडम! जिस प्रकार मेरे मोची पिता ने अपने कार्य में आपको कोई शिकायत का मौका नहीं दिया, उसी प्रकार मैं भी आपको आश्वस्त करता हूँ कि आपने मुझे राष्ट्रपति के रूप में सेवा करने का जो मौका दिया है, उसे मैं बड़ी ही कुशलता से करूंगा और यह मेरी कोशिश रहेगी कि मेरे काम में आपको कोई शिकायत का मौका न मिले।'
यह है अमरीकी इतिहास के सर्वाधिक सफल राष्ट्रपति लिंकन की विनम्रता का उदाहरण, जिन्हें आज भी बड़ी श्रद्धा एवं आदर के साथ स्मरण किया जाता है।
उक्त उदाहरण का विश्लेषण कर हम यह कह सकते हैं कि विनम्रता-आत्म-सम्मान (यानी ऊँचे स्वाभिमान) का एक विशेष गुण है।
व्यक्ति की महानता को दर्शाती है।
एक पॉजिटिव पर्सनेलिटी ही सारी खूबियों की बुनियाद है।
मनुष्य को उदारचित बनाती है।
परोपकार की भावना प्रदान करती है।
धैर्यवान व संयमी बनाती है और
सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है।
कहानी no - 14एक बार राजा मिलिंद भिक्षु के पास गए। भिक्षु का नाम नागसेन था। राजा ने भिक्षु से पूछा-महाराज एक बात बताइए, आप कहते हैं कि हमारा व्यक्तित्व स्थिर नहीं है। जीव स्वयंमेव कुछ नहीं है, तो फिर जो आपका नाम नागसेन है यह नागसेन कौन है? क्या सिर के बाल नागसेन हैं? भिक्षु ने कहा- ऐसा नहीं है। राजा ने फिर पूछा - क्या ये दांत, मस्तिष्क, मांस आदि नागसेन हैं? भिक्षु ने कहा-नहीं। राजा ने फिर पूछा-फिर आप बताएं क्या आकार, संस्कार, समस्त वेदनाएं नागसेन हैं? भिक्षु ने कहा-नहीं। राजा ने फिर प्रश्न किया-क्या ये सब वस्तुएं मिलकर नागसेन हैं? या इनके बाहर कोई ऐसी वस्तु है जो नागसेन है? भिक्षु ने कहा नहीं। अब राजा बोले- तो फिर नागसेन कुछ नहीं है। जिसे हम अपने सामने देखते हैं और नागसे32न कहते हैं वह नागसेन कौन हैं?
अब भिक्षु ने राजा से पूछा? राजन, क्या आप पैदल आए हैं? राजा ने कहा- नहीं, रथ पर। भिक्षु ने पूछा-फिर तो आप जरूर जानते होंगे कि रथ क्या है? क्या यह पताका रथ है? राजा ने कहा-नहीं। भिक्षु बोले- क्या ये पहिए या धुरी रथ हैं? राजा ने कहा- नहीं। भिक्षु ने पूछा-क्या ये रस्सियां या चाबुक रथ हैं? राजा ने कहा नहीं। भिक्षु ने पूछा-क्या इन सबके बाहर कोई अन्य चीज है, जिसे हम रथ कहते हैं? राजा ने कहा-नहीं। भिक्षु ने कहा-तो फिर, रथ कुछ नहीं है? जिसे हम सामने देखते हैं और रथ कहते वह क्या है? राजा ने कहा-इन सब चीजों के एक साथ होने पर ही इसे रथ कहा जाता है। भिक्षु ने कहा-राजन, इसमें ही आपकी जिज्ञासा का हल छिपा है। जिस प्रकार इन वस्तुओं के उचित तालमेल से रथ् का निर्माण हुआ है, ठीक उसी प्रकार अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल और वायु इन पाँच तत्वों के समुचित संयोजन से बना शरीर ही नागसेन है। इसके इतिरिक्त कुछ नहीं।
निष्कर्ष:
किसी वस्तु को सही आकार इसके घटकों के उचित संयोजन से ही मिलता है। इसके बाद ही कोई तत्व अपनी संपूर्णता तक पहुँचता है।
याद रखें.......व्यक्तित्व (Personality) का सम्बन्ध उन गहराइयों से है जो हमारी चेतना को विकसित करती हैं, अर्थात् जो हर क्षण हमारे व्यवहार, आचरण और हमारी चेष्टाओं में अभिव्यक्त होती रहती है। स्पष्ट है, व्यक्तित्व का अर्थ केवल व्यक्ति के बाह् गुणा (External Factors); जैसे - रूप-रंग, चाल-ढाल, पहचावा, बोलचाल आदि से नहीं है, उसके आंतरिक गुणों (Internal factors or instrinsic qualities) से भी है, जैसे- चरित्र-बल, इच्छा-शक्ति, आत्म-विश्वास, मन की एकाग्रता आदि। इस प्रकार व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के बाह् गुणों एवं आंतरिक गुणों के योग से है। यथार्थ में आन्तरिक गुणों के विकास से ही आपके व्यक्तित्व को संपूर्णता प्रदान होती है जिसे कंपलीट पर्सनेलिटी यानि डायनेमिक पर्सनेलिटी कहते हैं, जो किसी भी क्षेत्र में स्थायी सफलता का प्रमुख अंग मानी जाती है।
कहानी no - 15नरेन डे (स्वामी विवेकानंद) अपने छात्र-जीवन में आर्थिक विषमता से जूझ रहे थे। एक दिन उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस से कहा-'यदि आप काली माँ से प्रार्थना करेंगे, तो वह मेरे वर्तमान आर्थिक संकट दूर कर देंगी।' रामकृष्णजी बोले- 'नरेन, संकट तुम्हारे हैं, इसलिए तुम स्वयं मंदिर में जाकर काली मां से मांगो, वह अवश्य सुनेगी।' यह कहकर उसे मंदिर में भेज दिया। वहां उसने और कुछ न कहकर 'माँ मुझे भक्ति दो' कहा और फिर गुरू जी के निकट लौट आया। उन्होंने पूछा- 'क्या मांगा?' 'माँ मुझे भक्ति दो' नरेन ने कहा। 'अरे, इससे तेरे संकट दूर नहीं होंगे, तू फिर से अंदर जा और मां से स्पष्ट मांग' वह गया और उसने पूर्ववत् जैसा किया। जब तीसरी बार जाने पर भी उसने काली माँ से केवल यही कहा - 'माँ मुझे भक्ति दो, 'तब परमहंस जी हंसे और कहने लगे- 'नरेन! मुझे मालूम था, तू भौतिक सुख नहीं मांगेगा, क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की पूर्ण जिज्ञासा तेरे ह्दय में उत्पन्न हो चुकी है और इसीलिए मैंने तुम्हें तीनों बार भक्ति मांगने के लिए ही अंदर भेजा था। तेरे वर्तमान आर्थिक संकट का सामाधान तो मैं स्वयं ही कर सकता था।'
तात्पर्य:
एक विशुद्ध गुरू अथवा भक्त के सान्निध्य में रहने से मन का शुद्धिकरण करना सरल व सहज हो जाता है। हेनरी फोर्ड के प्रपौत्र एल्फ्रेड फोर्ड (हेनरी फोर्ड-3) ने 'इस्कॉन' के संस्थापक क्षीत् स्वामी प्रभुपाद की शिष्यता ग्रहण कर और उनके साथ भारत में कुछ महीने रहकर अपने मन की शुद्धी की थी, अर्थात् अध्यात्म का बीजारोपण किया था। बाद में स्वामीजी ने अपने शिष्य अम्बरी दास (हेनरी फोर्ड-3) को वापिस अमरीका भेज दिया था।
यह एक उत्तम उपाय बताया गया है, क्योंकि एक सच्चे गुरू के निकट उसके शिष्य का अन्तर्मन सदा बना रहता है और वे उसकी आत्म-उन्नति का मार्ग-दर्शन स्वयं करते रहते हैं। आवश्यकता इस बात की कि हम मन की शुद्धि के लिए पहले जिज्ञासु (Inquisitive) बने और फिर संत की पहचान के विवेकी (Judicious) बने।