दतिया की संस्कृति और इतिहास
विनोद मिश्र की यह किताब ‘दतिया धाम : वृंदावन’ दतिया के बारे में उनकी चिंताओं उनके अध्ययन और अनुशीलन को प्रकट करती है। वे आलेख जो उन्होंने खासतौर पर दतिया के बारे में लिखें इस किताब में संकलित हैं ।
दतिया को ‘धाम’ कहना और ‘वृंदावन’ कहना लेखक की किसी खास मनस्थिति का द्योतक है । यह तो सही है कि दतिया को बरसों पहले से छोटा वृंदावन कहा जाता है, यहां के गोविंद जी मंदिर और राधावल्लभ मंदिर में सुबह से शाम तक आने-जाने वालों का तांता लगा रहता है । जन्माष्टमी का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है । जन्माष्टमी के दूसरे दिन दधिखाना की लीला सारे महाजन समुदाय, पुजारियों और भक्तों के लिए रोचक हुआ करती है । सब लोग उत्साह से इसमें भाग लेते है । सारे वैष्णव उत्सव, वैष्णव त्यौहार और कृष्ण से जुड़े गोपाष्टमी जैसे समैया भी यहां बड़े धूमधाम और श्रद्धा के साथ बनाए जाते हैं। गोपाष्टमी के दिन श्री विहारी मन्दिर से कन्हैया जी गोपों के साथ धेनु चराने के लिए जाते हैं, वे लौटकर जब वापस आते हैं, तो उनकी आरती में राजपरिवार के प्रतिनिधि उपस्थित होते हैं ।
धाम उस स्थान को कहते हैं जो पवित्र जगह रही हो। यहां सम्राट अशोक के ग्राम पराशरी के शिला लेख सहित अनेक पुरातात्विक धरोहर काफी प्राचीन है।
दतिया का प्राचीन युग अगर कृष्ण भक्ति और राम भक्ति यानी वैष्णव भक्ति का युग था, तो वर्तमान युग को शाक्त साधना का युग कह सकते हैं। इस कस्बे में पीतांबरा पीठ वाले स्वामी जी महाराज के आगमन के बाद दतिया ‘शक्ति उपासक’ के बड़े केंद्र के रूप में पहचाना जाने लगा। अब यहां देश के गिने-चुने स्थानों के सदृश्य दुर्लभ विग्रह विराजमान हैं, जो शक्ति के प्रतीक हैं। दस महाविद्या में से तीन के मन्दिर यहां भी है- श्री बगलामुखी, श्री धूमावती और श्री माई ! इसी कस्बे में तारा मां का विग्रह भी है, जो पंचम कवि की टोरिया पर स्वामी जी ने स्थापित किया था। इस तरह जहां शाक्त मार्ग के साधक दोबारा सक्रिय हुए, वहीँ आज भी वैष्णव भक्त भी अपने पूरे श्रद्धा भक्ति के साथ लोगों के हृदय में विद्यमान है । दतिया धाम वृंदावन कहने से दतिया की जो छवि बनती है, वह वृंदावन की शैली पर बसे किसी कस्बे की छवि होती है। दतिया में यह परंपरा सदा ही रही कि यहां के राजा राम भक्त रहे और रानियां कृष्ण भक्त। राजा और रानियों ने बृज मण्डल की अनेक यात्रायें की जिनके यात्रा वृतांत भी लिखे गये रानियां की भक्ति का प्रकट कृष्ण मंदिरों के रूप में हुआ, शहर में दर्जनों कृष्ण मंदिर हैं जिनमे कृष्ण भक्ति के उत्सव मनाए जाते हैं। वैसे तो लगभग इतनी ही संख्या में श्री राम मंदिर भी होंगे। यहां रामनवमी की तरह जानकी नवमी भी मनाई जाती है । ठीक जैसी कि राधावल्लभ मंदिर सहित अनेक कृष्ण मंदिरों में श्री राधा अष्टमी मनाई जाती है। जानकी नवमी का उत्सव दतिया के राजगढ़ दरवाजे के पास रहने वाले रावत परिवार में आज भी मनाई जाती है, यह रावत परिवार दो हिस्सों में है आधा झांसी रहता है और आधे लोग यहां। राधावल्लभ मंदिर में जो विशिष्ट गायन होता है, वैसा ही विशिष्ट गायन जानकी नवमी के दिन होता है। विशिष्ट गायन तो राम विवाह के दिन भी होता है , जब श्री अवध विहारी मन्दिर,राम लला मन्दिर असनई, ठड़ेश्वरी श्रीराम मन्दिर में विवाहोत्सव मनाया जाता है । समाज गायन की परंपरा दतिया में पुरानी है।
विनोद मिश्र ने दतिया से संबंधित लेख -उन्नाव, श्री पीतांबरा पीठ, दतिया नगर के कृष्ण मार्गीय मंदिर, वैष्णव समुदाय के संरक्षक महाराज विजय बहादुर सिंह, दतिया की वाचक परंपरा में अज्ञात राम भक्त मुस्लिम कवि, बुंदेला महारानी चंद्र कुमार चंद्र प्रकाश दतिया, डोल ग्यारस, घरेलू अलौकिक शिक्षाएं सहित लगभग दो दर्जन विषयों को समर्पित करके लिखें । विनोद मिश्र के पिता श्री महेश मिश्र मधुकर इतिहास व पुरातत्व के अनुसंधानकर्ता थे, उनके साथ विनोद ने भी अनेक पुस्तकालयों और पुरातात्विक स्थानों की यात्राएं की हैं। अध्ययन का क्रम उनके किशोरावस्था से ही आरंभ हो गया था जो पिता के जाने के बाद स्वतंत्र रूप से उन्होंने आगे बनाए रखा। इस तरह यह कस्बा वैष्णव धाम और शक्ति धाम दोनों ही रूपों में लोगों के श्रद्धा और भक्ति का केंद्र है व श्रद्धा भाव के कारण विशिष्ट रूप से भक्ति में रहता है । और स्थानों पर क्षेत्र और ग्वार में दो नवरात्रि मनाई जाती हैं जबकि दतिया में चार नवरात्रि मनाई जाती हैं -चैत और क्व़ार की प्रकट नवरात्रि, माघ और आषाड़ की गुप्त नवरात्रि! इसीलिए शायद लेखक ने दतिया को धाम भी कहा।
पुस्तक में संकलित सबसे बड़ा लेख दतिया में राधावल्लभ संप्रदाय के उद्भव के बारे में है । निश्चित ही दतिया में राधा वल्लभ संप्रदाय की शुरुआत और वर्तमान में उनके भक्तों की मन्दिर में गतिविधियां, रोज की सेवा, उनकी सेवा में गाए जाने वाले विशिष्ट भजन, स्वतंत्र अध्ययन का विषय है। जिस पर विनोद ने ठीक ही श्रम किया है।
संगीत की परंपरा होने के वजह से गीतों कविताओं और भजन आदि में इनकी विशेष रूचि है। सांझी उत्सव की चर्चा करते हुए उन पदों को याद करते हैं जो इस वक्त गए जाते हैं –
श्री वृषभान कुमार किशोरी
श्री राधिका सांझी को खेल बनावत
रूप को लोभी भयो सखी श्याम
सवई मिलके नित फूल बिनावत
हो सकी कहे जान कहो
रूठे हा हा करें ताहे मनावत
तो महारानी चंद्र कुमारी के ग्रंथ चंद्रप्रकाश में लिखी गई यह पंक्तियां भी उन्होंने पूरी शिद्दत से साझा की हैं
मेरे पति कृष्ण चंद्र मोर मुकुट धारी
शंख चक्र गदा पद्म कौस्तुभ मणि न्यारी
दीनन के दीनानाथ संतन हितकारी
कर जोरे करण अर्ज सुनिए बनवारी
चंद्रकुवरि शरण आई रखो गिरधारी
दीपावली के अवसर पर रद्दी में मिली किसी पांडुलिपि से वाणी शंकर दास का होली का पद प्रतिलिपि करके विनोद मिश्रा उध्दृत करते हैं -
कैसी है गोरी जैसी दोरी रंग अबीर
झोरी कैसी अभीर जोरी जैसी नीर मिली रोरी
कैसी है रोरी जैसे भाल लगी संग खोरी
कैसी संग खोरी जैसी भोंह की मरोरी है
कैसी है मरोरी जैसी धनु की प्रत्यंचा डोरी
कैसी है डोरी जैसी लाल शशि चकोरी है
कैसी है चकोरी जैसी नवल किशोरी भोरी
शंकर दास होरी खेलत आई श्याम बोरी है
नेही नागरी दास जी राधावल्लभ संप्रदाय के बड़े भक्त थे और कवि भी थे, उन्होंने जो पद लिखा है उसको इस तरह प्रकट किया है-
प्रथम श्री सेवक पद सिर नाऊं
करहु कृपा श्री दामोदर मोपे श्री हरिवंश चरण रज पाऊं
गुण गंभीर व्यास नंदन जू के तव प्रसाद सुयश रस पाऊँ
नागरी दास के तुम ही सहायक रसिक अनन्य नृपति मनभाऊँ
अन्य स्टेट से दतिया राज्य में सादर आमंत्रित किए गए ज्योतिष राय मिरजाद राय के पुत्र परमा नागार्च ने राधावल्लभी संप्रदाय को समर्पित भाव से अंगीकार किया,वह स्वीकार करते हैं कि गुरु कृपा से हमें यह सब प्राप्त हुआ-
श्री गुरु को उपकार ना भूलो !हित हरिवंश भजन करी फूलों !!
गुरु ने वृंदा विपिन बताओ ! तो मैं राधावल्लभ पायो !!
परमानंद जी लंबे समय तक दतिया में रहे बाद में वृंदावन चले गए
विनोद मिश्र सुरमणि ने लोक त्योहारों, लोक कृतियों, और लोक कलाकारों पर खूब काम किया है ‘दतिया की चतेउर परंपरा’ में उनकी स्वतंत्र किताब है। इस संग्रह से उन लोगों को दतिया के बारे में बड़ी जानकारी मिलेगी जो दतिया को सांस्कृतिक रूप से जानना चाहते हैं, दतिया के संगीत ,संस्कृति और विभिन्न स्थानों के बारे में इतिहास से लेकर अभी तक के अनेक प्रसंग और काव्य अंश विनोद मिश्र ने अपने पाठकों से साझा किए हैं ।
यह पुस्तक विनोद मिश्र सुरमणि के लिए भी यश दायक हो और हम सब पाठकों के लिए भी ज्ञान दायक हो , इन समृद्ध लेखों से यही आशा बनती है ।
राजनारायण बोहरे
कहानीकार ,समीक्षक एवं लोक संस्कृति शोधार्थी दतिया