भारत अपनी आजादी के पचहत्तर वर्ष अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है जिसके उपलक्ष में भारत सरकार द्वारा विभिन्न स्तरों पर विशेष आयोजन किए जा रहे है जिसका उद्देश्य वर्तमान पीढ़ी को आजादी के सत्यार्थ एवं उद्देश्य से परिचित कराना है तो भविष्य के लिए एक शसक्त सक्षम भारत के निर्माण के लिए जागरूकता जागृति का बोध कराना है जो राष्ट्र कि विरासत पहचान एवं सांस्कृतिक धरोहर को अक्षय अक्षुण बनाए रखने के लिए राष्ट्र समाज सदैव चैतन्य बोध कि स्थिति में रहे ।
किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र की अस्मिता एवं स्वतंत्र अस्तित्व के लिए आवश्यक भी है कि वह अपने समाज को राष्ट्रीय मूल्यों मर्यादाओं के परिपेक्ष्य में सजग चिंतनशील गतिशील क्रियाशील बनाए रखे।
सामाजिक एवं धार्मिक बिखराव-
613 इस्वी में क़बीलाई संकृतियो के रेगिस्तान से इस्लाम धर्म का प्रवर्तन हुआ जिसने अपने जन्म के साथ ही अपने विस्तार पर व्यवहरिक कार्य करना शुरू कर दिया चूंकि इस्लाम का जन्म स्थान भारत से बहुत करीब है और आगमन भी बहुत दुरूह नहीं है जिसके कारण इस्लामिक आक्रांताओं कि आकांक्षा का केंद्र भारत ही बन गया इस्लाम धर्म में दैहिक सुखो एवं भोग कि सुविधा स्वतंत्रा एवं प्रचुरता ने समाज पर प्रभाव भी डालना शुरू कर दिया।
भारत में प्रथम इस्लामिक आगमन एवं परतंत्रता का प्रारम्भ
अपनी स्थापना के सौ वर्षों में ही इस्लामिक देश के शासकों ने भारत की तरफ अपना ध्यान जाने अनजाने में ही करना शुरू कर दिया सन 711 में भारत में इस्लाम का प्रथम आगमन हुआ इसी वर्ष स्पेन में भी इस्लाम दाखिल हुआ ।
भारत में इस्लाम के आगमन का प्रसंग भी एक विचित्र संयोग है मुसलमानों के नागरिक जहाज को कुछ समुद्री लुटेरों ने बंधक बना लिया जिसे छुड़ाने के कूटनीतिक राजनीतिक प्रयास असफल होने के बाद बगदाद के हज्जाज बिन युसुफ 17 वर्ष की उम्र में बिन कासिम कि छोटी सेना के साथ सिंध के राजा दाहिर से युद्ध के लिए भेज दिया चूंकि समुद्री लूटेरों ने जिस जगह मुसलमान नागरिकों के जहाज को बंधक बनाया था वह सिंध के राजा दाहिर कि राज्य सीमा में आती थी ।
बिन कासिम और दाहिर के मध्य युद्ध में सिंध के राजा दाहिर को पराजित होना पड़ा यही जबकि राजा दाहिर को अन्य राजाओं एवं पुत्रो से सहयोग लेकर बिन कासिम से युद्ध लड़ा और हार गया यही से भारत में इस्लाम का आगमन एवं गुलामी कि शुरुआत होती है।
713 में कासिम ने मुल्तान,दीपाल पुर,अरोर, ब्रह्मनाबाद,बहरोर, रावर और निरुन पर कब्ज़ा कर लिया ।
सातवीं सदी में भारत के पश्चिमी तट अलग अलग बंदरगाहों में अरब सौदागर बड़ी संख्या में आकर बसने लगे और भारतीय महिलाओं से ही विवाह करते थे इसकी बस्तियां मालावार केरल में थी मालावार के हिन्दू राजा चेरा मन पेरूमल ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया राजा का नाम अब्दुल रहमान सानी रखा गया राजा चेरामन पेरूमल के उत्तराधिारियों ने बड़े हर्ष के साथ अरब विद्वानों का स्वागत किया और मालावार तट पर ग्यारह मस्जिदों का निर्माण कराया इस प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम का प्रवेश राजनीतिक धार्मिक सामाजिक तीनों स्तरों पर हुआ जो किसी समाज के राष्ट्र के लिए मूल अनिवार्यता है।
ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व युनान से सिकन्दर भारत आया उसकी मंशा विश्व विजेता बनने की थी भारत में उसने बहुत से राजाओं को पराजित किया और अपने सेनापति सेल्युक्स को जिम्मेारी सौंप युनान लौट गया मगर उस समय चाणक्य जैसे दूरदर्शी शिक्षक और चन्द्रगुप्त जैसे बीर राष्ट्रभक्त योद्धा ने भारत की अखंडता को अक्षु्ण रखा और अंत में सेल्युक्स को युनान लौटने के लिए अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य से करना पड़ा।
लेकिन इस्लामी विस्तार को रोकने के लिए कोई चाणक्य या चन्द्रगुप्त नहीं पैदा हुए क्योंकि सिकन्दर सिर्फ राजनतिक युद्ध का विस्तार वादी था जबकि इस्लामी लोगों ने बड़ी चतुराई से भारतीय समाज से कब संबन्ध स्थापित कर स्वयं के समाज में समाहित कर लिया भारतीयों को पता ही नहीं चला ।
तीन इस्लामिक आक्रांताओं को भारत में इस्लामिक जमी को उर्वरा बनाने का श्रेय दिया जाना चाहिए बिन कासिम ,मोहम्मद गजनवी,मोहम्मद गोरी बाबर तो मृत या सुसुप्ता अवस्था में पड़ी भारतीयों एवं भारतीयता को जगा कर या तो नृशंस हत्याएं की या तो इस्लाम का अनुयाई बनाया ।
अपनी स्थापना या जन्म के कुछ ही वर्षों में इस्लाम ने भारतीय उमहाद्वीप के सनातन साम्राज्य कि संस्कृति समाज पर एक छत्र राज्य स्थापित कर लिया भारत इस्लामिक शासकों के शासन के अधीन था और भारतीय गुलाम और गुलाम को किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए इसी सिद्धांत पर मुगल शासकों ने बचे खुचे सनातनी भारतीयों को जबरन धर्मांरण का प्रयास करते रहते थे।
आठवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी बाबर के पूर्व तक भारतीय उपमाद्वीप में इस्लामिक शासन की स्थापना हो चुकी थी एवं विभिन्न इस्लामिक कुनबो या भारतीय भाषा में कहें तो वंशो द्वारा भारतीय उपमहद्वीप में शासन सत्ता को लेकर अनेकों युद्ध युद्ध हुए जिसमें भारतीय या तो मुक दर्शक थे या किसी पक्ष में खड़े होकर लड़ते लड़ते मरते रहते इस दौरान गजनवी,गोरी,तैमूर के अलावा गुलाम वंश,खिलजी वंश,तुगलक वंश आदि विभिन्न इस्लामिक शासकों ने युद्ध जीता और शासन किया लोदी के शासन काल में ऐसा मत है की राणा सांगा स्वयं ने लोदी के विरूद्ध युद्ध करने के लिए सहयोगी के रूप में बाबर को आमंत्रित किया था बाबर बहादुर एवं चतुर कूटनीतिज्ञ था लोदी को तो उसने परास्त किया और राणा सांगा को युद्ध क्षेत्र में बुरी तरह परास्त कर भारतीय उपमहाद्वीप की बीर लड़ाकू राजपूतों के हौसले पस्त कर दिए जिसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि राजपूतों को या तो मुगलों कि चाकरी करनी पड़ती थी या युद्ध लड़ कर वीरगति प्राप्त करना यह चुनाव स्वयं राजपूत योद्धाओं का होता था कि वे मुगल शासन के लिए लड़ेंगे या फिर स्वयं कि सत्ता के लिए लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होंगे।
राणा सांगा के अवरोहण के बाद बाबर के मन में भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन की इच्छा प्रबल हुई और वह दो मोर्चो पर युद्ध लड़ने लगा शासन स्थापना के लिए प्रत्यक्ष युद्ध और सामाजिक सांस्कृतिक दीर्घकालिक शासन सत्ता के लिए जिसके लिए उसने सनातन हिन्दू धार्मिक आस्था के केंद्रों मन्दिरों धार्मिक संस्थाओं का विध्वंस करना शुरू कर दिया परिणाम स्वरूप सामरिक रूप से परास्त भारतीय शासक और सांस्कृतिक पहचान खो चुकी भारतीय जन मानस विकल्प हीन सिर्फ घुट घुट कर गुलामी का आदि होने लगी बाबर ने दीर्घकालिक मुगल साम्राज्य की नीव भारतीय उप महाद्वीप में रखी बाबर के पुत्र हुमायूं को जीवन भर चुनौतियों का सामना युद्ध के रूप में करना पड़ा छिपना भागना पड़ा पुनः हुमायूं ने मुगल शासन की जड़ों को मजबूती प्रदान किया हुमायूं के बेटे अकबर द्वारा दूरदृष्टी राजनीतिक कुशलता का परिचय देते हुए भारत की बीर पराक्रमी राजपूताना से सम्बन्ध स्थापित किया जिसकी शुरुआत अकबर ने खुद जोधाबाई से विवाह
कर किया एवं जोधा के भाई राणा मान सिंह को अपनी सेना कि कमान सौंप सेनापति नियुक्त किया गया जिसके कारण राजपूताना में ही विभाजन हो गया और बहुसंख्यक राजपूत अकबर के पक्ष में हो गए सिर्फ राणासांगा के पौत्र महाराणा प्रताप ने उस समय अकबर के विरूद्ध मोर्चा खोल रखा था एवं भारत माता की वेदना कराह पर क्रोधित हो क्रूर काल से भी टकरा जाते उनकी विडम्बना यह थी कि बादशाह तो अकबर था मगर उसकी सल्तनत कि रक्षा करने वाले राजपूताना वीर ही थे महाराणा प्रताप इकलौता नाम जिसने मुगल काल के उत्कर्ष में भारत की आजादी कि रौशनी जलाए रखी और स्वतंत्र ही मां भारती के आंचल का कफन ओढ़ लिया अकबर के लाख प्रलोभन पर भी राजपूताना आन मान सम्मान अभिमान पर आंच नहीं आने दिया और जीवन पर्यन्त मां भारती कि मुक्ति के अनुष्ठान का युद्ध लड़ते रहे घास की रोटी खाई निर्वासित जीवन व्यतीत किया मगर राजपूताना स्वाभिमान एवं मां भारती के गौरव को सदैव ऊंचा रखा भामा शाह व्यवसाई थे के सहयोग से पुनः सेना अस्त्र शस्त्र के साथ तैयार कर अकबर को राजपूताना शौर्य वीरता से परिचित ही नहीं करवाया वल्कि परास्त भी किया गया मगर मुगल शाशन की जड़े भारतीय उमहाद्वीप में बहुत गहरी हो चुकी थी जिसे हिला पाना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन था।
मुगल शासक एवं शासन काल -
तीन सौ एकत्तिस वर्ष सिर्फ बाबर की पीढ़ी एवं मुगलों कि गुलामी एवं उनकी क्रूरता की वेदना को भारतीयों द्वारा स्वीकार किया गया सन 711 से 1526 के मध्य विभिन्न इस्लामिक आक्रांताओं की मार एवं अत्याचारों का शिकार होना पड़ा लगभग 857 वर्ष तक भारतीय उपमाद्वीप पर इस्लामिक वैचारिक
आर्थिक राजनीतिक गुलामी एवं क्रूरता को भारतीयों को बर्दाश्त करना पड़ा एवं लगभग ग्यारह सौ वर्ष आंशिक से पूर्ण गुलाम भारतीय समाज था । भारत का राष्ट्रीय स्वरूप विकृत हो चुका था क्योंकि उनकी विवशता थी अपने धार्मिक सांस्कतिक स्वरूपों में बदलाव कर किसी प्रकार उसे जीवित रख सके क्योंकि इस्लामिक शासकों का ध्यान भारत के सम्पूर्ण धार्मिक सामाजिक एवं संस्कारिक पहचान को समाप्त कर इस्लामिक समाज को ही स्थापित करना था जिससे कि इस्लामिक पहचान में समाहित हो भारतीय उप महाद्वीप के लोग इस्लाम में रम जाय परिणाम स्वरूप अपनी पुरानी धार्मिक संस्कारिक मान्यता को भूलकर गुलामी जैसी बात मन मतिष्क से त्याग दे जिसके लिए लगभग प्रत्येक मुगल शासक द्वारा हिन्दू समाज को इस्लाम में परिवर्तित करने का शाम दाम भय कि पराकाष्ठा से किया और तब भी बहुत हद तक सफल थे आज भी उसके परिणाम प्रत्यक्ष हैं यदि भारतीय मुसलमानों की पच्चीस करोड़ आबादी को जोड़ कर देखा जाय तो भारतीय उपहाद्वीप में अब भारत एक देश मात्र है जिसमें भी बीस प्रतिशत इस्लाम को मानने वाले हैं यानी हिन्दू अब एक सीमित दायरे में सिमट चुका है चार इस्लामिक राष्ट हैं भारतीय उपमाद्वीप में।
हिन्दू सदैव अपनी पीठ खुद अभिमान से ठोकता हैं हम शांत प्रिय है किसी पर आक्रमण नहीं करते किसी को दुखी नहीं करते सिर्फ मुक बन चाहे कोई कितने भी अत्याचार करे सहन करते रहते है और हम इसी योग्यता के कारण विश्व गुरु बनेंगे।
भयानक इस्लामिक दमन के दौर में भी भारत की अस्मिता के रक्षक -
महाराणा प्रताप के वर्षों बाद मराठा शौर्य के रूप में जन्म लिया शिवा जी शिवा जी का बचपन मां जीजा बाई के कठिन देश प्रेम शिक्षा एवं समर्थ गुरु राम दास जी की देख रेख में हुआ था जिस प्रकार अकबर जैसे ताकतवर बादशाह की नाक में दम कर रखा था महाराणा प्रताप ने ठीक उसी प्रकार शिवा जी ने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिए और छापामार युद्ध शैली नई युद्ध शैली से औरंगेब को घाट घाट का पानी पीने को विवश कर दिया औरंगेब को दक्षिण में उलझाने का श्रेय भी बहुत कुछ शिवा जी को ही जाता है जहां उसकी मृत्यु भी हुई वह लौट नहीं सका शिवा भारत के इतिहास में महान योद्धा साहसी एवं कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में सदैव प्रज्वलित मशाल हैं जिसके प्रकाश में हिन्दू सनातनी अपने को अभिमानित महसूस करते है शिवा जी भारतीय इतिहास में प्रथम योद्धा थे जिन्होने हिन्दू साम्राज्य की स्थापना मुगल काल के उस भयंकर भयानक दौर में कि गई जो भारतीय उमहाद्वीप में भारतीयों के लिए दिवास्वप्न के समान था क्योंकि तत्कालीन बादशाह औरगज़ेब कि क्रूरता एवं इस्लाम धर्म में जबरन धर्मंतरण से सनातनी और हिन्दू समाज की स्थिति बहुत दैयानिय थी ऐसे समय में शिवा का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के हिन्दू सनातनी के लिए एक विश्वास का संचार था।
सन 711 से 1857 के मध्य मात्र महाराणा प्रताप एवं शिवा जी ऐसे शौर्य सूर्य है जो भारतीय छितिज पर युगों युगों तक जीवंत जागृत शौर्य की प्रेरणा देते हुए स्वतंत्रता का शंखनाद करते रहेंगे जिसकी प्रतिध्वनि सदैव वायुमंडल में मातृभूमि प्रेम के लिए जागृत करती रहेगी।।
यूरोपीय देशों का भारत के प्रति आकर्षण -
वास्कोडिगामा 8 जुलाई 1497 को भारतीय उपमहाद्वीप कि खोज किया एव 20 मई 1498 को कोझीकोड जिले कालीकट के काप्पड़ गांव पहुंचा जिसके बाद यूरोपिय एव पश्चिमि देशों से भारत के संबंध कि शुरुआत हुई और पुर्तगाली,फ्रांसीसी, डच,ब्रिटिश आदि का आगमन शुरू हुआ जितने भी इस्लामिक आक्रांता आये सभी भारत के पड़ोसी देश अफगानिस्तान आदि से ही थे 24 अगस्त सन 1608 को व्यपार के उद्देश्य से भारत के सूरत बंदरगाह पर अंग्रेजो का आगमन हुआ सात वर्षों बाद थॉमस रो जेम्स प्रथम राजदूत के नेतृत्व में अंग्रेजो को सूरत में कारखाना स्थापित करने का शाही फरमान प्राप्त हुआ मुगल काल मे ही अंग्रेजो ने भारत की तरफ रुख कर किया 1600 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को ब्रिटिश कि महरानी एल्ज़ियावेथ प्रथम ने रायल चार्टर द्वारा अधिकार प्रदान किया जिसके बाद भारत मे ईस्ट इंडिया कम्पनी कि स्थापना हुई ।कम्पनी कि स्थापना के साथ ही भारत मे अंग्रेजो ने पैर फैलाना शुरू कर दिया और भारत यूरोपीय देशों के लिए महत्वपूर्ण केंद्र एव आकर्षण बन गया यूरोपीय देशों के बीच भारत मे मसालों के व्यपार करने की होड़ लग गई जिसके कारण कई युद्ध हुये दक्षिण एव दक्षिण पूर्व एशियाई आन राइट एव जान व्हाइट द्वारा एक कम्पनी कि स्थापना कि गयी जिस्रे ईस्ट इंडिया कंपनी कि स्थापन कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ कोई सीधा संबंध नही था धीरे धीरे कूटनीतिक चालों अन्य यूरोपीय कम्पनियों को भारत से भारत बहर खदेड़ दिया।
अपने व्यपारिक संस्थओं का विस्तार किया एव ब्रिटिश संस्कृति को विकसित करना प्रारम्भ कर दिया उनका मुख्य व्यवसाय रेशम,नील कपास अफीम आदि थे।
व्यपार के दौरान अंग्रेजो ने भारत के अस्त व्यस्त राजनीतिक आर्थिक सामाजिक स्थिति का भरपूर लाभ उठाया भारतीय सामंतों ,राजाओं के आपसी कलह को देखते हुए अंग्रेजो ने भारत पर शासन करने की मंशा बनाई सन 1750 से इष्ट इंडिया कम्पनी ने राजनीतिक हस्तपक्षेप शुरू कर दिया सन 1757में प्लासी कि लड़ाई में रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल के नबाब सिराजुद्दौला को पराजित कर दिया इसके साथ ही ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत मे शासन स्थापित हो गया।
1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के बाद 1858 में भारत मे ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन का अंत हो गया जिसके बाद ब्रिटिश क्राउन का भारत पर सीधा नियंत्रण हो गया।
जहांगीर के शासन काल मे हाकिन्स अपने साथ इंग्लैंड के बादशाह जेम्स प्रथम का पत्र बादशाह जहांगीर के नाम लाया था और जहांगीर के दरबार मे स्वय बातौर राजदूत पेश हुआ एव घुटनो के बल बादशाह जहांगीर को सलाम पेश किया ।
उस समय तक पुर्तगाली कालीकट में अपना डेरा जमा चुके थे तथा भारत मे व्यपार कर रहे थे हाँकिन्स ने बादशाह जहांगीर को पुर्तगालियों के प्रति बहुत भड़काया और जहांगीर से विशेष सुविधाएं प्राप्त किया।
पुर्तगालियों के जहाज को लूटा सन 1663 में बादशाह जहांगीर के फरमान से सूरत में कोठी कारखाना बनाकर व्यपार करने लगा सन 1615 में सर टामस रो राजदूत बनकर आया सन 1616 में मछलीपट्टनम एव कालीकट में कोठी बनाने कि अनुमति प्राप्त कर लिया शाहजहां के शासन काल मे 1634 में कलकत्ते से पुर्तगालियों को हटाकर केवल स्वय के लिये व्यपार कि अनुमति ले ली।
औरंगजेब के शासनकाल में एक बार फिर पुर्तगालियों का वर्चस्व बढ़ चुका था मुम्बई का टापू उनके अधिकार में था सन 1661 में इंग्लैंड के सम्राट को यह टापू दहेज में मिला था बाद में 1668 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस टापू को खरीद लिया 1664 में ईस्ट इंडिया कम्पनी कि तरह भारत मे व्यपार करने फ्रांसीसी कम्पनी आई बाद में फ्रांसीसियों ने 1668 सूरत,1669 में मछलीपट्टनम 1774 में पांडिचेरी में अपनी कोठियां बनवाई उस समय फ्रांसीसी कम्पनी का प्रमुख दुमास था बाद में डुप्ले कि नियुक्ति हुई।
डूप्ले पहला यूरोपियन था जिसकी मंशा भारत मे साम्राज्य कायम करने की थी।।
1857 के असफल प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत में ब्रिटिश हुकूमत के हौसले बुलन्द थे क्योंकि बहुत सुनियोजित संगठित बहादुर शाह ज़फ़र के नेतृत्व में लडी गई स्वतंत्रता कि लड़ाई ने अंगेजो को यह विश्वास दे दिया कि अब भारतीय स्वतंत्रता के लिए किसी स्तर तक संघर्ष संग्राम कभी भी कर सकते है बहादुर शाह ज़फ़र को निर्वासित कर रंगून भेजने के बाद एवं भारतीयों के प्रथम सयुक्त स्वतंत्रता को कुचलने के बाद सबसे पहले अपने सामरिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था को कारगर धारदार बनाने कि कोशिश शुरू कर दी जिससे की आम जन कि मुक सहमति से लंबे समय तक शासन किया जा सके ।
सन 1885 में सर ए यू हूम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना इसलिए कि गई की आम भारतीय अपनी आवाज़ इसके माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत तक पहुंचा सके कालांतर में भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई का मंच बना।
ग्यारह सितंबर सन 1893 को स्वामी रामकृष्ण परमहस के शिष्य स्वामी विवेकानंद जी द्वारा विश्व धर्म सम्मेलन में शून्य पर लागातार बोलते हुए विश्व समुदाय का ध्यान भारत कि तरफ आकृष्ट किया जिसका भारत कि आजादी पर गहरा प्रभाव पड़ा इसी समय महात्मा गांधी जी द्वारा दक्षिण भारत में प्रवासी भारतीयों के लिए सफल लंबी लड़ाई लडी गई जब मोहन दास करम चंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो आत्म विश्वास एवं ऊर्जा से परिपूर्ण इसके पूर्व गोपाल कृष्ण गोखले लोकमान्य तिलक द्वारा भारत कि आजादी कि वैचारिक लड़ाई चलाई जा रही थी गणपति पूजन के माध्यम से विखरी भारतीय शक्ति को संगठित करना एवं स्वराज्य मेरा अधिकार है कि भावनात्मक जागरण भारतीयों के लिए स्वतंत्रता कि आशा का किरण लेकर आयी।
महात्म गांधी द्वारा चंपारण से सत्य अहिंसा के सिद्धांत पर स्वतंत्रता आंदोलन का शुभारम्भ कर सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता छुआ छूत जाती पांती आदि भारतीय समाज की सामाजिक जटिलताओं को समाप्त करने के लिए जागरूकता जागृति अभियान का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा सम्पूर्ण भारत वर्ष सामाजिक स्तर पर सभी भेद भाव को भूल कर गांधी जी के पीछे जाग खड़ा हुआ।
गांधी जी ने भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम में सम्पूर्ण भातियो को चाहे वह किसी जाति का हो किसी धर्म का हो किसी विचार धारा का को संगठित करने एवं उसे नेतृत्व प्रधान करने में बहुत महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई गांधी जी का भारतीय जन मानस एवं भारतीयता पर इतना गहरा प्रभाव था कि उनकी किसी बात का विरोध कोई करने कि बात सोच भी नहीं सकता था भले ही गांधी जी के निर्णय का प्रभाव कुछ भी पड़ने वाला हो अतः गांधी जी के नेतृत्व में सम्पूर्ण भारतीय जन मानस अपना भविष्य सुखद देखता था गांधी जी के स्वय का जीवन वास्तव में महात्मा का ही था एक पड़खर जिसे आप लंगोटी भी कह सकते है के अलावा एक डंडा एवं कांधे पर एक चादर जो गुलाम भारत के आम भारतीयों का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करता था एवं सम्पूर्ण भारतीयों को गांधी जी में अपना हितैषी संरक्षक दिखता था ।
जिस प्रकार हर व्यक्ति को अपने संरक्षक बापू में दिखता है यही विशेषता गांधी जी की भारतीयों के नेतृत्व का दर्शन वास्तविकता थी स्पष्ट था कि जितना जन समर्थन गांधी जी को प्राप्त था तत्कालीन नेताओ में किसी को प्राप्त नहीं था जिसके कारण कोई भी गांधी जी के विरोध ने नहीं खड़ा होता था इसके प्रत्यक्ष उदाहरण -
1-नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने जब सीता भी पट्टा भी रमैया को कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में पराजित किया तब गांधी जी ने कहा था कि सिताभी पट्टाभि रमैया कि हार मेरी हार हा तो नेता जी ने अध्यक्ष पद से ही इस्तीफा दे दिया जबकि कहा जाता है कि गांधी जी को रश्टपिता की उपाधि नेता जी ने ही दिया था।
2- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब प्रधान मंत्री के विषय में बात चली तो नेहरु जी मात्र इसलिए पटेल आदि नेताओ से उपर प्रधान मंत्री पद कि शपथ ली क्योंकी गांधी जी नेहरु जी को प्रधान मंत्री बनाना चाहते थे।
3- स्वतंत्रता प्राप्ति के समय एवं बटवारे के बाद मुस्लिमो एवं पाकिसतान को छोटा भाई समझने कि नसीहत को लेकर अनशन जिसका किसी के द्वारा विरोध ना किया जाना।
गांधी जी के प्रत्येक आदेश इच्छा का पालन चाहे उसके परिणाम कुछ भी हो के कारण जो लोग उनकी कुछ नीतियों से नाराज़ थे या रहते थे उनकी बातो को ना तो गांधी जी ने कभी महत्त्व दिया ना ही तात्कालिकता नेताओ के समूह ने जिसके कारण विरोधियों के मन में एक विरोध दबे स्वर कि चिंगारी दबी हुई थी जब उनको पूरा भरोसा हो गया कि गांधी जी अब भी सयुक्त भारत की तरह ही हिंदुस्तान पाकिस्तान को सम दृष्टि से परिभाषित करते है और जब तक जीवित रहेंगे ऐसा ही करते रहेंगे जिससे विभाजित भारत के हिंदुस्तान को बहुत हानि उठानी पड़ सकती है तो उन्होंने गांधी जी को हिंदुस्तान के राष्ट्र पिता के रूप में अतीत बना दिया।
गांधी जी कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका -
गांधी जी के आंदोलन से ब्रिटिश सरकार को चिंता होने लगी गांधी जी को मिलने वाले जन समर्थन से थी गांधी जी भी अंग्रेजो कि मानसिकता को दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष के दौरान बहुत हद तक समझते थे अतः बहुत शांत और सौम्य तरीके से अपने आंदोलन को संचालित करते थे उनके प्रति आस्था का यह स्तर था कि लोग लाठियां खाकर लगभग मृतप्राय हो जाते थे फिर भी उग्र नहीं होते थे अंग्रेजो को आश्चर्य एवं विवश करने वाले आस्था के आसमान के नेतृत्व के प्रत्यक्ष गांधी के समक्ष नतमस्तक और श्रद्धावान हो जाते।
महात्मा गांधी जी ने भी अंग्रेजो भारत छोड़ो 1942 के अलावा सीधे ब्रिटिश हुकूमत से नहीं टकराते उनके आंदोलन का दूरगामी प्रभाव पड़ता जो ईट का जवाब पत्थर से देने जैसा था ईस्ट इंडिया कम्पनी व्यपार करने के बहाने से भारत पर हुकमत तक पहुंचे वैसे ही गांधी जी के आंदोलनों का प्रभाव ब्रिटिश हुकूमत के वाणिज्य एवं आर्थिक व्यवस्था एवं आय पर गंभीर प्रभाव डालते गांधी जी के आंदोलन ब्रिटिश सरकार के राजस्व स्रोतों पर प्रहार करते जैसे नमक सत्याग्रह,विदेशी वस्त्रों की होली,नील की खेती करने वाले किसानों के लिए आंदोलन आदि आदि।
दूसरा मह्वपूर्ण कार्य गांधी जी ने बिखरे एवं जटिल भारतीय समाज को एक जुट करने का प्रयास किया छुआ छूत ,जाती पांटी भेद भाव आदि सामाजिक भेद भाव को समाप्त करने का आवाहन शंखनाद किया जिसके कारण भारतीय जन मानस को एकजुट होकर जागृत होने का अवसर प्राप्त हुआ और उन्हें सर्व स्वीकार नेता गांधी जी के रूप में मिला जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्पूर्ण प्रभावी भूमिका निभाई।।
भारत के स्वतत्रता संग्राम का दूसरा मह्वपूर्ण कारक -
1885 में सर ए यू ह्युम द्वारा भारतीयों द्वारा अपनी आवाज़ ब्रिटिश हुकूमत तक पहुंचाने के लिए स्थापित कि गई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आठ वर्षों बाद ग्यारह सितंबर सन उन्नीस सौ तिरानवे को विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेानन्द द्वारा शून्य पर निरंतर पचास घंटे से अधिक व्याख्यान ने सम्पूर्ण विश्व को भारत को सुनने समझने एवं जानने को विवश कर दिया जिसके बहुत दूरगामी प्रभावी परिणाम भारत के संदर्भ में विश्व जन मानस पर परिलक्षित हुए जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में विश्व जनमत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका कि आधार शिला रखी ।
इसकी दूसरी श्रृंखला भी बंगाल कि पावन भूमि से ही प्रत्यक्ष हुई जिनको सम्पूर्ण विश्व एवं भारतवासी नेता जी के नाम से जानते है जी हां नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जिनके द्वारा अाई सी इस चयनित होने एवं त्यागपत्र देने के बाद भारत कि स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े वेश बदलकर जब देश के बाहर गए तब हिटलर जैसे तानाशाह ने जर्मनी में उन्हें अपने आकाशवाणी से संदेश प्रसारण का अवसर प्रदान किया हिटलर नेता जी से बहुत प्रभावित था नेता जी ने उस समय अनेकों विदेशी राष्ट्र ध्यक्षो से मुलाकात कर भारतीय पक्ष को स्वतंतरता के आंदोलन के परिपेक्ष में प्रस्तुत किया जिसका उन्हें भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ।
नेता जी ने भारतीय सेना के ही पूर्व सैनिकों को एकत्रीत कर आजाद हिंदू फौज गठित किया और अपने वैचारिक सोच एवं सिद्धांत को मूर्तरूप प्रदान किया एवं भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने अविस्मरणीय योगदान का परचम लहरा दिया नेता जी की आजाद हिन्द सेना ने शुरुआती दौर में विजय प्राप्त कर स्वतंत्र भारत की घोषणा की शानदार शुरुआत की मगर दुर्भाग्य से द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्रा राष्ट्रो की विजय जिसमें ब्रिटेन भी सम्मिलित था नेता जी के स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक अभियान को समाप्त करने के लिए विवश कर दिया भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का चमकता शौर्य सूर्य नेपथ्य के अंधेरों में चला गया मगर ब्रिटिश हुकूमत को एहसास आभास विश्वास दे गया कि अब भारत को बहुत अधिक दिनों तक गुलाम नहीं रखा जा सकता नहीं तो हर भारतीय नेता बन स्वतंत्रता आंदोलन का शूरवीर योद्धा होगा।।.
युवा आक्रोश--
भारत का युवा वर्ग बहुत आक्रोशित एवं आंदोलित था जिसके परिामस्वरूप स्वरूप भारत का नौजवान जिसमें जाने कितने है जाने अनजाने नाम गीन पाना नहीं है आसान द्वारा हंसते हंसते ब्रिटिश हुकूमत के विरोध की प्रतिक्रिया में दे दी गई जान चंद्रशेखर आजाद,बटुकेश्वर दत्त,पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ,सरदार भगत सिंह,राजेन्द्र लाहिड़ी,रौशन लाल, मदन लाल ढींगरा ,कन्हैया लाल,खुदी राम
बोस,असफाकउल्लाह खान ,हेमू कलानी,चाहे स्त्री हो या पुरुष सभी नौजवानों ने आज कि पीढ़ी के बेहतर भविष्य के लिए स्वयं का सर्वस्व बलिदान के दिया भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कि विफलता के बाद जो स्वतंत्रता कि लड़ाई प्रारम्भ हुई वह ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध चौतरफा थी भारत का प्रत्येक वर्ग भारत कि स्वतंत्रता से कम कुछ नहीं चाह रहा था ।
सम्पूर्ण विश्व में विकास एवं वैज्ञानिक युग की बयार बह रही थी ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी प्रशासनिक सुविधाओं के परिप्रेक्ष्य या संदर्भ में ही सही भारत में भी बुनियादी विकास की आधारशिला रखी जैसे रेल व्यवस्था, डांक व्यवस्था,दूरसंचार टेलीफोन व्यवस्था आदि किया जिसका लाभ स्वय भारतीयों को अपने ही देश एवं देशवासियों को समझने एवं एकीकृत होने में मिला ।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नेता स्वय ब्रिटेन से ही पढ़े लिखे थे जिसके कारण उनको ब्रिटिश हुकूमत एवं जन मानस की मानसिकता की भली भांति जानकारी थी बहुत से नेता तो ब्रिटेन में रहकर ही भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को समर्थन सहयोग देते जिसमें श्याम कृष्ण वर्मा जी एवं बरकतउल्ला का नाम सम्मिलित हैं आज एक सामान्य भारतीय के लिए ब्रिटेन जाना बहुत आसान नहीं है लेकिन उस समय भगत सिंह आदि द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में बम फेकना से बहुत स्पष्ट है कि ब्रिटेन जाना उस समय कितना आसान था भगत सिंह आदि को सिर्फ पहचान छुपानी पड़ी थी पहुंचने में बहुत कठिनाई नहीं हुई ब्रिटिश हुकूमत का उद्देश्य सिर्फ भारत भारत में शासन का व्यवसायिक ही था ।
भारतीय नौजवानों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का वह अध्याय है जो युगों युगों तक भारत के नौजवानों के लिए अपने कर्तव्यों दायित्व बोध एवं राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी प्रतिबद्धता के लिए प्रेरित करता रहेगा मै खुदी राम बोस,कन्हाई लाल एवं मदन लाल ढींगरा के त्याग बलिदान को अवश्य निरूपित करना चाहूंगा।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी गोरखपुर उत्तर प्रदेश ।।