मैं पापन ऐसी जली--भाग(१२) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मैं पापन ऐसी जली--भाग(१२)

सरगम यूँ ही कुछ देर तक बिस्तर में मुँह छुपाकर रोती रही और मन में सोचती रही कि उसने आदेश से प्यार करके कोई गलती कर दी क्या?,उसकी माँ ने कितने भरोसे के साथ उसे यहांँ पढ़ने के लिए भेजा है और वो अपनी माँ के पीठ पीछे ये सब कर रही है,लेकिन मैनें तो निर्मल मन से आदेश से प्यार किया है अगर वो भी मुझे प्यार करता है तो फिर उसने ऐसी हरकत क्यों की?वो सच में मुझे प्यार करता भी या नहीं या फिर मैं उसके लिए एक खिलौना मात्र हूँ,कहीं कमलकान्त बाबू ने आदेश के बारें में सही तो नहीं कहा था? और इन्हीं सब सवालों के जवाब ढूढ़ते सरगम कब सो गई उसे पता ही नहीं चला....
उधर आदेश जब अपने कमरें में पहुँचा तो गुस्से से एक दम बौखलाया हुआ था और उसने मन में सोचा....
"दो कौड़ी की लड़की मुझे थप्पड़ मारती है,इसके जैसी ना जाने कितनी लड़कियों के साथ मैं खेल चुका हूँ,ये अपनेआप को समझती क्या है?,मेरे एक इशारे पर काँलेज की कोई भी लड़की मेरे साथ हमबिस्तर होने को तैयार हो जाती थी,वहाँ विदेश में भी मैनें अपनी दौलत के दम पर ना जाने कितनी लड़कियों को फँसा रखा था और ये मुझे इतने नखरे दिखाती है,इतने दिनों से मैं इसके साथ अच्छा व्यवहार कर रहा था कि ये मेरे जाल में फँस जाए लेकिन लगता है ये आसानी से मानने वाली नहीं,मुझे इसे फँसाने के लिए कुछ और ही सोचना पड़ेगा"
और यही सब सोचते सोचते आदेश भी सो गया,जब सुबह सरगम उठी थी उसका मन बहुत ही बोझिल था,रात वाली बात को वो भूल नहीं पा रही थीं,उसे खुद से घिन आ रही थी कि किसी पुरूष ने उसे इस तरह से छुआ है,वो अनमने मन से बिस्तर से उठी और सबके लिए चाय बनाकर ले गई लेकिन आज वो आदेश को चाय पहुँचाने उसके कमरें में ना गई,उसकी शकल भी वो नहीं देखना चाहती थी,फिर वो तैयार होकर सबके लिए नाश्ता बनाने लगी,लेकिन बाहर किसी के लिए भी नाश्ता परोसने ना गई ,उसने भानू से कहा कि.....
" आज उसकी तबियत ठीक नहीं है,उसने नाश्ता बना दिया है,आज नाश्ता वो ही सबको परोस दे",
सरगम की बात सुनकर भानू बोली...
"ठीक है दीदी!तुम अपने कमरें में जाकर आराम करो,मैं सबको नाश्ता परोस देती हूँ और सबको खिलाने के बाद मैं तुम्हारे लिए तुम्हारे कमरें में ही नाश्ता ले आऊँगी",
फिर सबको नाश्ता खिलाने के बाद भानूप्रिया सरगम के कमरें में नाश्ता लेकर पहुँची तो सरगम ने भानू से कहा....
"तू खा ले भानू!मेरा मन नहीं है"
"मन क्यों नहीं है?खाओगी नहीं तो कमजोर हो जाओगी फिर तुम्हारी माँ हम सबको उलाहना देगीं कि मेरी बेटी को कमजोर कर दिया"
भानू की बात सुनकर सरगम मुस्कुरा उठी और गैर मन से उसने नाश्ता किया और फिर भानू से बोली...
"तू आज अकेली ही काँलेज चली जा,मैं आज काँलेज नहीं जाऊँगीं"
"ठीक है !तो तुम आराम करो,मैं अब काँलेज जाती हूँ और माँ से कहती जाऊँगी कि आज दोपहर का खाना वो महाराज से बनवा लें,तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है"
और फिर इतना कहकर भानू सरगम के कमरें से चली गई और इधर भानू का किसी चींज में मन नहीं लग रहा था,ना ही वो पढ़ पा रही थी और ना ही वो रात वाली बात भूल पा रही थी,वो बड़ी कश्मकश में थी कि क्या करें?,वो ये घर भी नहीं छोड़ सकती थी क्योंकि वो अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के काबिल नहीं थी और अगर उसने घर छोड़ भी दिया तो चाचा-चाची उससे घर छोड़ने का कारण पूछेंगे तो फिर वो क्या जवाब देगी?,यही सब सोच सोच कर सरगम परेशान हो रही थी....
इसलिए वो टहलने के लिए बगीचें में जा पहुँची,वहीं बगीचें के बगल में सर्वेन्ट क्वार्टर बने थे,वो वहाँ टहल रही थी तो तब उसकी नजर गनपत ड्राइवर की मेहरारू पर पड़ी,गनपत की मेहरारू वहीं क्वार्टर के बाहर सिगड़ी जलाकर उसमें कुछ बैंगन और टमाटर भून रही थी,उसने जैसे ही सरगम को वहाँ देखा तो झट से घूँघट डाल लिया,वो अभी एक महीने पहले ही गनपत के संग गाँव से शहर आई थी,अभी नई नई शादी थी इसलिए वो सरगम से शरमा रही थी,सरगम को शीतला जी ने बताया था कि गनपत ड्राइवर अपनी नई नवेली दुल्हन को गाँव से शहर ले आया है और वो दोनों क्वार्टर नंबर चार में रहते हैं,सरगम का मन तो वैसे भी उदास था इसलिए उसने सोचा चलो गनपत की दुल्हन से बात करती हूँ,शायद मन को कुछ अच्छा लगें,इसलिए वो उसके पास पहुँची और उससे बोली.....
"तुम गनपत भइया की दुल्हन हो ना!"
नई बहुरिया ने घूँघट में से ही हाँ के जवाब में सिर हिला दिया तो सरगम ने पूछा....
"तुम्हारा नाम क्या है"?
"सिमकी...सिमकी!नाम है हमारा"
तब सरगम ने पूछा...
"कहाँ की रहने वाली हो"?
"जी!महोबा के पास छोटा सा गाँव है कुलपहाड़,हम वहीं के रहने वाले हैं",सिमकी बोली....
"बैंगन और टमाटर भूनकर भरता बनाओगी"?,सरगम ने पूछा....
"हाँ!हमारे उनको बहुत पसंद है भरता,दाल तो बना दी है लेकिन वो बोले कि भरता खाऐगें",सिमकी बोली....
"भरता तो मुझे भी बहुत पसंद है",सरगम बोली....
"तो बस थोड़ी देर रुक जाओ दीदी!,बैंगन भुन जाने दो फिर तुम्हें भी भरता खिलाऐगें",सिमकी बोली...
"सच में!मुझे भी खिलाओगी भरता"?,सरगम ने पूछा...
"हाँ!और क्या,अगर तुम्हें दिक्कत ना हो हमारे यहाँ खाने में तो",सिमकी बोली....
"भला!तुम्हारे यहाँ खाने में मुझे दिक्कत क्यों होगी?",सरगम ने पूछा...
"वो क्या है कि हम गरीब आदमी है ना!",सिमकी बोली...
"मैं ये सब गरीब अमीर नहीं मानती ,मेरे लिए तो कोई प्यार से दो बोलकर अगर पानी भी पिला दें ना बहुत बड़ी बात होगी",सरगम बोली...
"दीदी!तुम कितनी अच्छी हो तो चलो फिर भीतर आ जाओ भरता खाने के लिए",सिमकी बोलीं....
"ऐसे भीतर नहीं आऊँगीं",सरगम बोलीं....
"काहे! हम से कौन्हों गलती हो गई का",सिमकी ने पूछा....
"पहले अपना मुँह दिखाओ,ये घूँघट हटाओगी तब भरता खाने भीतर आऊँगी मैं",सरगम बोली...
"ओहो....तो ई बात है ,लेव अभी हटाए देते हैं घूँघट",
और फिर सिमकी ने अपने घूँघट को सरकाकर सिर तक ओढ़ लिया,सिमकी सच में सुन्दर थी,गोरा रंग,हिरनी जैसी बड़ी बड़ी आँखें,गुलाबी होंठ तो उसे देखकर सरगम बोली....
"तुम तो बड़ी सुन्दर हो सिमकी"
और ये सुनते ही सिमकी शरमा गई और सरगम से बोली...
"दीदी!अब तो भीतर चलो",
और फिर सरगम कमरें के भीतर गई तो सिमकी ने फौरन उसके बैठने के लिए चटाई बिछा दी और टेबल फैन चला दिया,सरगम चटाई पर बैठ गई और उसने ध्यान से कमरें को देखा तो कमरें में एक ओर छोटा सा पलंग बिछा था,दूसरी ओर कमरें की खिड़की खुली थी और वही खिड़की के नीचे सिमकी की गृहस्थी का सामान रखा था और उस कमरें में फर्नीचर के नाम पर कुछ भी नहीं था,बगल में छोटा सा बाथरूम था,वो नजारा देखकर सरगम ने मन में सोचा....
"बेचारे गाँव के लोंग शहर आकर कैसा जीवन जीते हैं,जो खुले आसमान में उड़ते आए हो उन्हें ऐसे छोटे से कमरें में बसर करना पड़ता है"
फिर सिमकी ने फौरन सिलबट्टे पर हरी चटनी पीसी और भरता बनाकर ,गाँव के घी में चुपड़ीं दो रोटियाँ सरगम की थाली में परोस दीं और सरगम बड़े खुश मन से उस भरते को खाने लगी.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....