शैलेन्द्र बुधौलिया की कवितायेँ - 3 शैलेंद्र् बुधौलिया द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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शैलेन्द्र बुधौलिया की कवितायेँ - 3

।।।आत्मबोध।।।         (11)

 

मैं समय के पूर्व कुछ कहने लगा था ।

अपनी धारा में स्वयं बहने लगा था ।।

 

भावना का वेग था  उलझा हुआ ।

कुछ नहीं था स्वयं में सुलझा हुआ ।।

 

एक अलग संसार था सपनीला सा ।

एक अलग अंदाज था गर्वीला सा ।।

 

भ्रम नहीं था कुछ भी सब आसान था ।

मैं स्वयं से सत्य से अंजान था ।।

 

आज जब बातावरण कुछ शांत था ।

कोलाहल से दूर था एकांत था ।।

 

कलम लेकर हाथ में कुछ गढ़ रहा था ।

एक अन्तर्द्वन्द मुझ में बड़ रहा था ।।

 

प्रश्न अनगिन सामने होकर खड़े ।

जानने को सत्य मेरा थे अड़े ।।

 

मुझमें ही तब मैं स्वयं जिन्दा हुआ ।

और स्वयं से मैं ही शर्मिन्दा हुआ ।।

 

प्रश्न जैसे  जैसे आगे बड़ रहे थे ।

सैकड़ों चाबुक हृदय पर पड़ रहे थे ।।

 

तुमने कोई यातना को भी जिया है ?

तुमने कड़वा घूँट कोई भी पिया है ?

 

तुम कभी भी चैन से सुख से रहे हो ?

या समय की धार के संग संग बहे हो ?

 

है कोई नई बात जो तुमनें कही हो ?

है कोई पीड़ा जो बस तुमने सही हो ?

 

कोई नव निर्माण जो तुमने किया हो ?

कोई नया संकल्प जो तुमने लिया हो ?

 

कुछ किया यैसा जो सबके काम आये ?

कुछ कहा यैसा कि जो दुनिया को भाये ?

 

कुछ रचा यैसा जिसे संसार गाये ?

युग युगों तक जो धरा पर गुनगुनाये ?

 

याकि बीती बात दुहराते रहे हो ?

और अपने ज़ख्म सहलाते रहे हो ?

 

काश जग की बांह को अब भी गहो तुम।

हो रचयिता जो तो कुछ यैसा कहो तुम।।

 

जिसको दुनियां कोई नया अवदान जाने ।

और श्रृजन का एक अभिनव गान माने ।।

 

 

      ।।। पीर पराई ।।।             (12)

 

तुम क्या जानो पीर पराई

तुम्हें कभी न फटी विमाई

 

मैंने कष्ट जन्म से पाया ।

     दर्दों ने मुझको अपनाया ।।

खुशियों ने ठोकर मारी तो ।

     पीड़ा ने मुझको सहलाया ।।

मैं सोया जब जब कांटों पर।

   तुमने सेज सजाई ।।

तुम क्या जानो पीर पराई ।।

 

व्यथा वेदना मेरे साथी ।

      मन है मौन रुदन के थाती ।।

आँसू पीता रहा उम्रभर ।

      हंसी रही बस आती जाती ।।

 

।।।आत्मबोध।।।         (11)

 

मैं समय के पूर्व कुछ कहने लगा था ।

अपनी धारा में स्वयं बहने लगा था ।।

 

भावना का वेग था  उलझा हुआ ।

कुछ नहीं था स्वयं में सुलझा हुआ ।।

 

एक अलग संसार था सपनीला सा ।

एक अलग अंदाज था गर्वीला सा ।।

 

भ्रम नहीं था कुछ भी सब आसान था ।

मैं स्वयं से सत्य से अंजान था ।।

 

आज जब बातावरण कुछ शांत था ।

कोलाहल से दूर था एकांत था ।।

 

कलम लेकर हाथ में कुछ गढ़ रहा था ।

एक अन्तर्द्वन्द मुझ में बड़ रहा था ।।

 

प्रश्न अनगिन सामने होकर खड़े ।

जानने को सत्य मेरा थे अड़े ।।

 

मुझमें ही तब मैं स्वयं जिन्दा हुआ ।

और स्वयं से मैं ही शर्मिन्दा हुआ ।।

 

प्रश्न जैसे  जैसे आगे बड़ रहे थे ।

सैकड़ों चाबुक हृदय पर पड़ रहे थे ।।

 

तुमने कोई यातना को भी जिया है ?

तुमने कड़वा घूँट कोई भी पिया है ?

 

तुम कभी भी चैन से सुख से रहे हो ?

या समय की धार के संग संग बहे हो ?

 

है कोई नई बात जो तुमनें कही हो ?

है कोई पीड़ा जो बस तुमने सही हो ?

 

कोई नव निर्माण जो तुमने किया हो ?

कोई नया संकल्प जो तुमने लिया हो ?

 

कुछ किया यैसा जो सबके काम आये ?

कुछ कहा यैसा कि जो दुनिया को भाये ?

 

कुछ रचा यैसा जिसे संसार गाये ?

युग युगों तक जो धरा पर गुनगुनाये ?

 

याकि बीती बात दुहराते रहे हो ?

और अपने ज़ख्म सहलाते रहे हो ?

 

काश जग की बांह को अब भी गहो तुम।

हो रचयिता जो तो कुछ यैसा कहो तुम।।

 

जिसको दुनियां कोई नया अवदान जाने ।

और श्रृजन का एक अभिनव गान माने ।।

 

 

      ।।। पीर पराई ।।।             (12)

 

तुम क्या जानो पीर पराई

तुम्हें कभी न फटी विमाई

 

मैंने कष्ट जन्म से पाया ।

     दर्दों ने मुझको अपनाया ।।

खुशियों ने ठोकर मारी तो ।

     पीड़ा ने मुझको सहलाया ।।

मैं सोया जब जब कांटों पर।

   तुमने सेज सजाई ।।

तुम क्या जानो पीर पराई ।।

 

व्यथा वेदना मेरे साथी ।

      मन है मौन रुदन के थाती ।।

आँसू पीता रहा उम्रभर ।

      हंसी रही बस आती जाती ।।

मैं भटका एकाकी हर दिन ।

   तुमने ईद मनाई ।

तुम क्या जानो पीर पराई ।।

 

 

 

मैं भटका एकाकी हर दिन ।

   तुमने ईद मनाई ।

तुम क्या जानो पीर पराई ।।