मैं कौन हूँ ? - 2 Disha Jain द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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मैं कौन हूँ ? - 2

(१).. ‘मैं’ कौन हूँ?

भिन्न हैं, नाम और ‘खुद’
दादाश्री : क्या नाम है आपका?

प्रश्नकर्ता : मेरा नाम चंदूलाल है।

दादाश्री : वास्तव में आप चंदूलाल हो?

प्रश्नकर्ता : जी हाँ।

दादाश्री : चंदूलाल तो आपका नाम है। चंदूलाल आपका नाम नहीं है? आप ‘खुद’ चंदूलाल हो या आपका नाम चंदूलाल है?

प्रश्नकर्ता : वह तो नाम है।

दादाश्री : हाँ, तो फिर ‘आप’ कौन? यदि ‘चंदूलाल’ आपका नाम है तो ‘आप’ कौन हो? आपका ‘नाम’ और ‘आप’ अलग नहीं हैं? अगर ‘आप’ नाम से अलग हो तो ‘आप’ कौन हो? यह बात आपको समझ में आ रही है न कि मैं क्या कहना चाहता हूँ? ‘यह मेरा चश्मा’ कहने पर तो चश्मा और हम अलग हुए न? उसी प्रकार अब ऐसा नहीं लगता कि आप नाम से अलग हो?

जैसे कि दुकान का नाम रखें ‘जनरल टे्रडर्स’, तो वह कोई गुनाह नहीं है। लेकिन अगर उसके सेठ से हम कहें कि ‘ऐ! जनरल ट्रेडर्स, यहाँ आ’। तो सेठ क्या कहेंगे कि, ‘मेरा नाम तो जयंतीलाल है और जनरल टे्रडर्स तो मेरी दुकान का नाम है’। अर्थात् दुकान का नाम अलग और सेठ उससे अलग, माल अलग, सब अलग-अलग हैं न? आपको क्या लगता है?

प्रश्नकर्ता : सही है।

दादाश्री : लेकिन यहाँ तो, ‘नहीं, मैं ही चंदूलाल हूँ’ ऐसा कहते हैं। अर्थात् दुकान का बॉर्ड भी मैं, और सेठ भी मैं! आप चंदूलाल हो, वह तो पहचानने का साधन है।

असर? तो आत्मस्वरूप नहीं
हाँ, ऐसा भी नहीं है कि आप बिल्कुल भी चंदूलाल नहीं हो। आप हो चंदूलाल, लेकिन ‘बाइ रिलेटिव व्यू पॉइन्ट’ (व्यावहारिक दृष्टि) से यू आर चंदूलाल, इज़ करेक्ट।

प्रश्नकर्ता : मैं तो आत्मा हूँ, लेकिन नाम चंदूलाल है।

दादाश्री : हाँ, लेकिन अगर अभी कोई ‘चंदूलाल’ को गाली दे तो आप पर असर होता है क्या?

प्रश्नकर्ता : असर तो होता है।

दादाश्री : तो आप ‘चंदूलाल’ हो, ‘आत्मा’ नहीं। आत्मा हो तो आप पर असर नहीं होता। और असर होता है, इसलिए आप चंदूलाल ही हो।

चंदूलाल के नाम से कोई गालियाँ दे तो आप उसे पकड़ लेते हो। चंदूलाल का नाम लेकर कोई उल्टा-सीधा कहे तो आप दीवार से कान लगाकर सुनते हो। हम कहें कि, ‘भाई, दीवार आपसे क्या कह रही है?’ तब कहते हो, ‘नहीं, दीवार नहीं, अंदर मेरी बात चल रही है। वह सुन रहा हूँ’। जबकि किसकी बात चल रही है ? तब कहते हो, ‘चंदूलाल की’। अरे, लेकिन आप चंदूलाल नहीं हो। यदि आप आत्मा हो तो चंदूलाल की बात अपने ऊपर नहीं लेते।

प्रश्नकर्ता : वास्तव में तो ‘मैं आत्मा ही हूँ’ न?

दादाश्री : अभी आप आत्मा हुए नहीं हो न! चंदूलाल ही हो न? ‘मैं चंदूलाल हूँ’ यह आरोपित भाव है। आपमें ऐसी जो बिलीफ (मान्यता) बैठ गई है कि ‘मैं चंदूलाल ही हूँ’, यह रोंग बिलीफ है।


(2).. बिलीफ– रोंग, राइट (झूठी-सच्ची)

कितनी सारी रोंग बिलीफ
‘मैं चंदूलाल हूँ’ आपकी यह मान्यता, यह बिलीफ तो रात को नींद में भी नहीं जाती न! फिर लोग शादी करवाकर कहते हैं कि, ‘तू तो इस स्त्री का पति है’। इसलिए हमने फिर पतिपना मान लिया। उसके बाद ‘मैं इसका पति हूँ, पति हूँ’ करते हैं। कोई सदा के लिए पति रहता है क्या? डाइवोर्स होने के बाद दूसरे दिन उसका पति रहेगा क्या? अर्थात् ये सारी रोंग बिलीफ बैठ गई हैं।

अत: ‘मैं चंदूलाल हूँ’ वह रोंग बिलीफ है। फिर ‘इस स्त्री का पति हूँ’ वह दूसरी रोंग बिलीफ। ‘मैं वैष्णव हूँ’ वह तीसरी रोंग बिलीफ। ‘मैं वकील हूँ’ वह चौथी रोंग बिलीफ। ‘मैं इस लड़के का फादर हूँ’ वह पाँचवी रोंग बिलीफ। ‘इसका मामा हूँ’, वह छट्ठी रोंग बिलीफ। ‘मैं गोरा हूँ’ वह सातवीं रोंग बिलीफ। ‘मैं पैंतालीस साल का हूँ’, वह आठवीं रोंग बिलीफ। ‘मैं इसका पार्टनर हूँ’ यह भी रोंग बिलीफ। आप ऐसा कहो कि ‘मैं इन्कम टैक्स पेयर हूँ’ तो वह भी रोंग बिलीफ है। ऐसी कितनी रोंग बिलीफें बैठ गई होंगी?

‘मैं’ का स्थान परिवर्तन
‘मैं चंदूलाल हूँ’ यह अहंकार है। क्योंकि जहाँ ‘मैं’ नहीं है, वहाँ पर ‘मैं’ का आरोपण किया है। इसी को अहंकार कहते हैं।

प्रश्नकर्ता : ‘मैं चंदूलाल हूँ’ कहने में अहंकार कहाँ आया? ‘मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ’ ऐसा करे तो अलग बात है, लेकिन सहजभाव से बोले तो उसमें अहंकार कहाँ आया?

दादाश्री : सहजभाव से बोले तो भी क्या अहंकार चला जाता है ? ‘मेरा नाम चंदूलाल है’ ऐसा सहजभाव से बोलने पर भी वह अहंकार ही है। क्योंकि आप ‘जो हो’ वह जानते नहीं हो और ‘जो नहीं हो’ उसका आरोपण करते हो, वह सब अहंकार ही है न!

‘आप चंदूलाल हो’ वह ड्रामेटिक चीज़ है। अर्थात् ‘मैं चंदूलाल हूँ’ ऐेसा कहने में हर्ज़ नहीं है लेकिन ‘मैं चंदूलाल हूँ’ ऐसी बिलीफ नहीं बैठनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता : हाँ, वर्ना ‘मैं’ पद आ जाता है।

दादाश्री : ‘मैं’ ‘मैं’ की जगह पर बैठे तो अहंकार नहीं है। ‘मैं’ मूल जगह पर नहीं है, आरोपित जगह पर है इसलिए अहंकार है। ‘मैं’ आरोपित जगह से हट जाए और मूल जगह पर बैठ जाए तो अहंकार चला जाएगा। अर्थात् ‘मैं’ को निकालना नहीं है, ‘मैं’ को उसके एक्ज़ेक्ट प्लेस (यथार्थ स्थान) पर रखना है।

‘खुद’ खुद से ही अन्जान?
यह तो अनंत जन्मों से, खुद, ‘खुद’ से गुप्त (अनजान) रहने का प्रयत्न है। खुद, ‘खुद’ से गुप्त रहे और पराए का सब कुछ जाने, तो यह आश्चर्य ही है न! खुद, ‘खुद’ से कितने समय तक गुप्त रहोगे? कब तक रहोगे ? ‘खुद कौन है’ यह जानने के लिए ही यह जन्म है। मनुष्य जन्म इसीलिए है कि ‘खुद कौन है’ वह पता लगा लो। वर्ना, तब तक भटकते रहोगे। ‘मैं कौन हूँ’ यह जानना पड़ेगा न? आप ‘खुद कौन हो’ यह जानना पड़ेगा या नहीं?


(3).. ‘I’ और ‘My’ को अलग करने का प्रयोग

सेपरेट, 'I' एन्ड 'My' (अलग करो ‘मैं’ और ‘मेरा’)
आपसे कहा जाए कि, सेपरेट 'I' and 'My' विद सेपरेटर, तो आप 'I' और 'My' को सेपरेट कर सकेंगे क्या? 'I' एन्ड 'My' को सेपरेट करना चाहिए या नहीं? जगत् में कभी न कभी जानना तो पड़ेगा न! सेपरेट 'I' एन्ड 'My'। जैसे दूध के लिए सेपरेटर होता है न, उसमें से मलाई सेपरेट (अलग) करते हैं न? उसी तरह इन्हें अलग करना है।

आपके पास 'My' जैसी कोई चीज़ है? 'I' अकेला है या 'My' साथ में है?

प्रश्नकर्ता : 'My' साथ में है न!

दादाश्री : क्या-क्या 'My' है आपके पास?

प्रश्नकर्ता : मेरा घर और घर की सभी चीज़ें।

दादाश्री : सभी आपकी कहलाती हैं? और वाइफ किसकी कहलाती है?

प्रश्नकर्ता : वह भी मेरी।

दादाश्री : और बच्चे किसके हैं?

प्रश्नकर्ता : वे भी मेरे।

दादाश्री : और यह घड़ी किसकी है?

प्रश्नकर्ता : वह भी मेरी।

दादाश्री : और ये हाथ किसके हैं?

प्रश्नकर्ता : हाथ भी मेरे हैं।

दादाश्री : फिर ‘मेरा सिर, मेरा शरीर, मेरे पैर, मेरे कान, मेरी आँखें’ ऐसा कहेंगे। इस शरीर की सारी चीज़ों को ‘मेरा’ कहते हैं, तब ‘मेरा’ कहने वाले ‘आप’ कौन हैं? यह नहीं सोचा? ‘माई नेम इज़ चंदूलाल’ कहते हो और फिर कहते हो ‘मैं चंदूलाल हूँ’, इसमें कोई विरोधाभास नहीं लगता?

प्रश्नकर्ता : लगता है।

दादाश्री : आप चंदूलाल हो, लेकिन इसमें 'I' एन्ड 'My' दो हैं। यह 'I' एन्ड 'My' की दो रेल्वे लाइन अलग ही हैं। पैरेलल ही रहती हैं, कभी एकाकार होती ही नहीं। फिर भी आप एकाकार मानते हो, तो वह समझकर इसमें से 'My' को सेपरेट कर दो। आपमें जो 'My' है न, उसे एक ओर रख दो। 'My' हार्ट, तो उसे एक ओर रख दो। इस शरीर में से और क्या-क्या सेपरेट करना होता है?

प्रश्नकर्ता : पैर, इन्द्रियाँ।

दादाश्री : हाँ, सभी। पाँच इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ सभी। फिर ‘माइ माइन्ड’ कहते हैं कि ‘आइ एम माइन्ड’ कहते हैं?

प्रश्नकर्ता : ‘माइ माइन्ड’ कहते हैं।

दादाश्री : मेरी बुद्धि कहते हैं न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : मेरा चित्त कहते हैं न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : और ‘माइ इगोइज़म’ कहते हैं कि ‘आइ एम इगोइज़म’ कहते हैं’?

प्रश्नकर्ता : ‘माइ इगोइज़म।’

दादाश्री : ‘माइ इगोइज़म’ कहोगे तो उसे अलग कर सकोगे। लेकिन उसके आगे जो है, उसमें आपका हिस्सा क्या है, वह आप नहीं जानते। इसलिए फिर पूर्ण रूप से सेपरेशन नहीं हो पाता। आप, अपना कुछ हद तक ही जानते हो। आप स्थूल चीज़ें ही जानते हो, सूक्ष्म जानते ही नहीं है। सूक्ष्म को माइनस करना, फिर सूक्ष्मतर को माइनस करना, फिर सूक्ष्मतम को माइनस करना वह तो ज्ञानी पुरुष का ही काम है।

लेकिन एक-एक करके सारे स्पेयर पार्ट्स माइनस करते जाएँ तो 'I' और 'My', दोनों अलग हो सकते हैं न? 'I' और 'My' दोनों अलग करने पर आखिर में क्या बचेगा? 'My' को एक ओर रख दें तो आखिर क्या बचा?

प्रश्नकर्ता : 'I'.

दादाश्री : वह 'I' वही आप हो। बस, उसी 'I' को रियलाइज़ करना है।

प्रश्नकर्ता : तो सेपरेट करके यह समझना है कि जो बाकी बचा वह ‘मैं’ हूँ?

दादाश्री : हाँ, सेपरेट करने पर जो बाकी बचा, वह आप ‘खुद हो’, 'I' आप खुद ही हो। उसका पता तो लगाना होगा न? इसलिए यह आसान रास्ता है न? अगर 'I' और 'My' अलग करें तो?

प्रश्नकर्ता : वैसे रास्ता तो आसान है, लेकिन वे सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भी अलग हो सकें, तब न? वह ज्ञानी के बिना नहीं हो सकता न?

दादाश्री : हाँ, वह ज्ञानी पुरुष बता देंगे। इसीलिए हम कहते हैं न, सेपरट 'I' and 'My' विद ज्ञानीज़ सेपरेटर। उस सेपरेटर को शास्त्रकार क्या कहते हैं? भेदज्ञान कहते हैं। बिना भेदज्ञान के आप कैसे अलग करेंगे? क्या-क्या चीज़ आपकी है और क्या-क्या आपकी नहीं है, इन दोनों का आपको भेदज्ञान नहीं है। भेदज्ञान यानी यह सब ‘मेरा’ है और ‘मैं’ अलग हूँ इनसे। इसलिए ज्ञानी पुरुष के पास, उनके सानिध्य में रहने से तो भेदज्ञान प्राप्त हो जाएगा और फिर हमारा ('I' और 'My') सेपरेट हो जाएगा।

'I' और 'My' का भेद करें तो बहुत आसान है न यह? मैंने यह तरीका बताया, इसके अनुसार अध्यात्म सरल है या कठिन है? वर्ना इस काल के जीवों का तो शास्त्र पढ़ते-पढ़ते दम निकल जाएगा।

प्रश्नकर्ता : आप जैसों की ज़रूरत है न, समझने के लिए तो?

दादाश्री : हाँ, ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन ज्ञानी पुरुष तो अधिक नहीं होते न! लेकिन किसी काल में होते हैं। तब अपना काम निकाल लेना। ज्ञानी पुरुष का ‘सेपरेटर’ ले लेना एकाध घंटे के लिए, उसका किराया-विराया नहीं लगता! उससे सेपरेट कर लेना। इससे 'I' अलग हो जाएगा, वर्ना नहीं हो सकेगा न! 'I' अलग होने पर सारा काम हो जाएगा। सभी शास्त्रों का सार इतना ही है।

आत्मा होना है तो ‘मेरा’ (माइ) सबकुछ समर्पित कर देना पड़ेगा। ज्ञानी पुरुष को 'My' सौंप देंगे तो आपके पास सिर्फ 'I' बचेगा। 'I' विद 'My' वही जीवात्मा कहलाता है। ‘मैं हूँ और यह सब मेरा है’ वह जीवात्म दशा है और ‘सिर्फ मैं ही हूँ और यह मेरा नहीं है’ वह परमात्म दशा है। अर्थात् 'My' की वजह से मोक्ष नहीं होता। ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान होने पर 'My' छूट जाता है। अगर 'My' छूट जाएगा तो सब छूट जाएगा।

'My' इज़ रिलेटीव डिपार्टमेन्ट एन्ड 'I' इज़ रियल। अर्थात् 'I' टेम्परेरी नहीं होता, 'I' इज़ परमानेन्ट। 'My' इज़ टेम्परेरी। अत: इसमें आपको 'I' को ढूँढ निकालना है।


(4).. संसार में ऊपरी कौन?

ज्ञानी ही पहचान करवाएँ ‘मैं’ की
प्रश्नकर्ता : ‘मैं कौन हूँ’ यह जानने की जो बात है, वह इस संसार में रहकर कैसे संभव हो सकती है?

दादाश्री : तब कहाँ रहकर जाना जा सकता है उसे? संसार के अलावा और कोई जगह है जहाँ रहा जा सके? इस जगत् में सभी संसारी ही हैं और सभी संसार में ही रहते हैं। यहीं पर यह जानने को मिल सकता है कि ‘मैं कौन हूँ’। ‘आप कौन हो’ उसी को समझने का विज्ञान है यहाँ पर। यहाँ आना, हम आपको पहचान करवा देंगे।

और यह जितना भी हम आपसे पूछ रहे हैं, तो हम आपसे ऐसा नहीं कहते कि आप ऐसा करके लाओ। आपसे हो सके, ऐसा नहीं है। अत: हम आपसे क्या कहते हैं कि हम आपके लिए सब कर देंगे। इसलिए आपको चिंता नहीं करनी है। यह तो पहले समझ लेना है कि वास्तव में ‘हम’ क्या हैं और क्या जानने योग्य है? सही बात क्या है? करेक्टनेस क्या है? वल्र्ड (दुनिया) क्या है? यह सब क्या है? परमात्मा क्या हैं?

परमात्मा हैं? परमात्मा हैं ही और वे आपके पास ही हैं। बाहर कहाँ ढूँढ रहे हो? लेकिन कोई यह दरवाज़ा खोल दे तो हम दर्शन कर पाएँगे न! यह दरवाज़ा इस तरह बंद हो गया है कि कभी भी खुद से खुल सके ऐसा है ही नहीं। वह तो ऐसे तरणतारण ज्ञानी पुरुष का ही काम है, जो खुद पार उतर चुके हैं।

खुद की ही भूलें खुद की ऊपरी
भगवान तो आपका स्वरूप है। आपका कोई ऊपरी (बॉस, मालिक) है ही नहीं। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। आपको कोई कुछ कर ही नहीं सकता। आप स्वतंत्र ही हो, सिर्फ अपनी भूलों के कारण आप बंधे हुए हो।

आपका कोई ऊपरी नहीं है और आपमें किसी जीव का दखल (हस्तक्षेप) भी नहीं है। इतने सारे जीव हैं, लेकिन किसी जीव का आपमें दखल नहीं है। और ये लोग जो कुछ दखल करते हैं, तो वह आपकी भूल की वजह से दखल करते हैं। आपने जो (पूर्व में) दखल की थी, यह उसी का फल है। यह मैं खुद ‘देखकर’ बता रहा हूँ।

हम इन दो वाक्यों में गारन्टी देते हैं, इससे इंसान मुक्त रह सकता है। हम क्या कहते हैं कि, ‘तेरा ऊपरी दुनिया में कोई नहीं है। तेरे ऊपरी तेरे ब्लंडर्स और तेरी मिस्टेक्स हैं। ये दोनों नहीं होंगे तो तू परमात्मा ही है।’

और ‘तुझमें किसी की ज़रा भी दखल नहीं है। कोई जीव ऐसी स्थिति में है ही नहीं कि किसी जीव में किंचित्मात्र भी दखल कर सके, ऐसा है यह जगत्।’

ये दो वाक्य सब समाधान ला देते हैं।


(5) जगत् में कर्ता कौन?

जगत् कर्ता की वास्तविकता
फैक्ट (वास्तविक) बात नहीं जानने की वजह से यह सब उलझा हुआ है। अब आपको, ‘जो जाना हुआ है’ वह जानना है, या ‘जो नहीं जाना हुआ है’ वह जानना है?

जगत् क्या है? किस तरह बना? बनाने वाला कौन? हमें इस जगत् से क्या लेना-देना? हमारे साथ हमारे संबंधियों का क्या लेना-देना है? बिज़नेस किस आधार पर है? मैं कर्ता हूँ या कोई और कर्ता है? यह सब जानने की ज़रूरत तो है ही न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, जी।

दादाश्री : इसलिए पहले यह बात-चीत कर लें कि इसमें शुरुआत में क्या जानना है। जगत् किसने बनाया होगा, आपको क्या लगता है? किसने बनाया होगा ऐसा उलझन भरा जगत्? आपका क्या मत है?

प्रश्नकर्ता : ईश्वर ने ही बनाया होगा।

दादाश्री : तो फिर सारे संसार को चिंता में क्यों रखा है? चिंता से बाहर की अवस्था है ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : सब लोग चिंता करते ही हैं न?

दादाश्री : हाँ, लेकिन उसने यह संसार बनाया तो चिंता वाला क्यों बनाया? उसे पकड़वाकर लाओ, सी.बी.आई. वालों को भेजकर। लेकिन भगवान गुनहगार हैं ही नहीं! यह तो, लोगों ने उन्हें गुनहगार बना दिया है।

वास्तव में तो, गॉड इज़ नॉट क्रिएटर ऑफ दिस वल्र्ड एट ऑल। ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। अर्थात् यह तो सारी कुदरती रचना है। उसे गुजराती में मैं ‘व्यवस्थित शक्ति’ कहता हूँ। यह तो बहुत सूक्ष्म बात है।

उसे मोक्ष कहा ही नहीं जा सकता
छोटा बच्चा भी कहता है कि, ‘भगवान ने बनाया’। बड़े संत भी कहते हैं कि ‘भगवान ने बनाया’। यह बात लौकिक है, अलौकिक नहीं है।

भगवान यदि क्रिएटर (निर्माता) होते न तो वे सदा के लिए हमारे ऊपरी ठहरते और मोक्ष जैसी चीज़ ही नहीं होती, लेकिन मोक्ष है। भगवान क्रिएटर नहीं हैं। मोक्ष को समझने वाले लोग भगवान को क्रिएटर नहीं मानते। ‘मोक्ष’ और ‘भगवान क्रिएटर’ ये दोनों विरोधाभासी बातें हैं। क्रिएटर तो हमेशा के लिए उपकारी हुआ और उपकारी हुआ इसलिए आखिर तक ऊपरी का ऊपरी ही रहा।

तो भगवान को किसने बनाया?
यदि अलौकिक तौर पर हम ऐसा कहें कि ‘भगवान ने बनाया’ तो ‘लॉजिक’ वाले हमें पूछेंगे कि, ‘भगवान को किसने बनाया?’ प्रश्न खड़े होते हैं। लोग मुझसे कहते हैं, ‘हमें लगता है कि भगवान ही दुनिया के कर्ता हैं। आप तो मना कर रहे हैं, लेकिन आपकी बात स्वीकार नहीं हो पाती।’ तब मैं पूछता हूँ कि यदि मैं स्वीकार करूँ कि भगवान कर्ता हैं, तो उस भगवान को किसने बनाया? यह तू मुझे बता। और उस बनाने वाले को किसने बनाया? कोई भी कर्ता है तो उसका कर्ता होना चाहिए, यह ‘लॉजिक’ है। लेकिन फिर उसका एन्ड (अंत) ही नहीं आएगा, इसलिए वह बात गलत है।

न आदि, न ही अंत, जगत् का
यानी किसी के बनाए बगैर बना है, किसी ने बनाया नहीं है इसे। किसी ने बनाया नहीं है, तो अब किससे पूछेंगे इसके बारे में हम? मैं भी ढूँढता था कि कौन ऐसा जोखिम उठाने वाला है, जिसने यह सारी धांधली मचाई है! मैंने हर तरह से ढूँढा, लेकिन कहीं नहीं मिला।

मैंने ‘फॉरेन’ के साइन्टिस्टों से कहा कि, ‘गॉड क्रिऐटर है, इसे प्रमाणित करने के लिए आप मेरे साथ कुछ बातचीत कीजिए। यदि वह क्रिएटर है तो उसने किस साल में क्रिएट किया यह बताइए। तब उन्होंने कहा, ‘साल हमें मालूम नहीं है’। मैंने पूछा, ‘लेकिन उसकी बिगिनिंग (शुरुआत) हुई थी या नहीं?’ तब उन्होंने कहा, ‘हाँ, बिगिनिंग हुई थी। क्रिएटर कहा अर्थात् बिगिनिंग होगी तभी न!’ जिसकी बिगिनिंग होती है, उसका अंत आता है। लेकिन यह तो बिना एन्ड वाला जगत् है। बिगिनिंग नहीं हुई फिर एन्ड कहाँ से आएगा? यह तो अनादि अनंत है। क्या ऐसा नहीं लगता कि जिसकी बिगिनिंग नहीं हुई, उसका बनाने वाला नहीं हो सकता?

भगवान का सही पता
जब इन फॉरेन के साइन्टिस्टों ने पूछा, ‘तो क्या भगवान नहीं है?’ तब मैंने कहा, ‘भगवान नहीं होते तो इस जगत् में जो भावनाएँ हैं, सुख और दु:ख का जो अनुभव होता है, उसका कोई अनुभव ही नहीं होता। इसलिए भगवान तो अवश्य हैं ही’। उन्होंने मुझसे पूछा कि, ‘भगवान कहाँ रहते हैं?’ मैंने कहा, ‘आपको कहाँ लगते हैं?’ तब उन्होंने कहा, ‘ऊपर’। मैंने पूछा, ‘वे ऊपर कहाँ रहते हैं? उनकी गली का नंबर क्या? कौन सी गली है? जानते हो आप? खत पहुँचे ऐसा सही एडे्रस है आपके पास?’ ऊपर तो कोई बाप भी नहीं है। मैं सब जगह घूम आया। सब लोग कहते थे कि ऊपर है, ऊपर उँगली उठाते रहते हैं। इससे मेरे मन में ऐसा हुआ कि सभी लोग बता रहे हैं, तो कुछ होना चाहिए। इसलिए मैं ऊपर सब जगह खोजकर आया तो ऊपर तो सिर्फ आकाश ही है, ऊपर कोई नहीं मिला। ऊपर तो कोई नहीं रहता। अब उन फॉरेन के साइन्टिस्टों ने मुझसे कहा कि, ‘भगवान का सही एड्रेस बताएँगे?’ मैंने कहा, ‘लिख लीजिए। गॉड इज़ इन एवरी क्रीचर, वेदर ‘विज़िबल’ ऑर ‘इनविज़िबल’, नॉट इन क्रिएशन’। (भगवान, आँखों से दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले, हर एक जीव में विद्यमान हैं, लेकिन मानव निर्मित किसी चीज़ में नहीं हैं’।)

यह टेपरिकॉर्डर ‘क्रिएशन’ कहलाता है। जितनी मैन मेड (मानव निर्मित) चीज़ें हैं, मनुष्यों की बनाई हुई चीज़ें हैं, उनमें भगवान नहीं हैं। जो कुदरती रचना है, उसमें भगवान हैं।

मनोनुकूल का सिद्धांत
यानी यह साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। कितने सारे संयोग इकट्ठे होने पर कोई कार्य होता है। उसमें इगोइज़म करके, ‘मैंने किया’, कहकर हाँकते रहते हैं। लेकिन अच्छा होने पर ‘मैंने किया’ और बिगड़ने पर ‘मेरे संयोग अभी ठीक नहीं हैं’ लोग ऐसा कहते हैं न! संयोगों को मानते हैं न लोग?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : कमाई होती है तो उसका गर्वरस खुद खाता है और जब घाटा होता है तब कुछ बहाना बना लेता है। हम पूछें, ‘सेठ जी, ऐसे क्यों हो गए हैं अभी?’ तब वे कहेंगे, ‘भगवान रूठे हैं’।

प्रश्नकर्ता : मनमुताबिक सिद्धांत हो गया।

दादाश्री : हाँ, मनमुताबिक, लेकिन उस पर (भगवान पर) ऐसा आरोप नहीं लगाना चाहिए। वकील पर आरोप लगाया जाए, और किसी पर आरोप लगाया जाए वह तो ठीक है, लेकिन क्या भगवान पर आरोप लगाना चाहिए? वकील तो दावा करके हिसाब माँगेगा लेकिन इनके लिए कौन दावा करेगा? इसके फलस्वरूप तो अगले जन्म में (संसार की) भयंकर बेड़ी मिलेगी। भगवान पर आरोप लगाना चाहिए क्या?

प्रश्नकर्ता : नहीं लगाना चाहिए।

दादाश्री : या फिर कहेगा, ‘स्टार्स फेवरेबल (ग्रह अनुकूल) नहीं हैं’। या फिर ‘पार्टनर टेढ़ा है’ ऐसा कहता है। नहीं तो ‘पार्टनर में कमी निकालता है’। वर्ना ‘लड़के की बहू मनहूस है’ ऐसा कहता है लेकिन खुद के सिर पर नहीं आने देता! खुद के सिर पर कभी गुनहगारी नहीं लेता। इसके बारे में मेरी एक फॉरेन वाले से बातचीत हुई थी। उसने पूछा कि ‘आपके इन्डियन लोग गुनाह अपने सिर क्यों नहीं आने देते?’ मैंने कहा, ‘यही इन्डियन पज़ल है। अगर इन्डिया की कोई सब से बड़ी पज़ल (पहेली) हो तो, यही है।’

साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स
इसलिए बातचीत करो, जो कुछ भी बातचीत करनी हो वह सब करो। ऐसी बातचीत करो कि जिससे आपको सब खुलासे मिल जाएँ।

प्रश्नकर्ता : यह ‘साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स’ समझ में नहीं आया।

दादाश्री : यह सब साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स (वैज्ञानिक सांयोगिक प्रमाणों) के आधार पर है। संसार में एक भी परमाणु चेन्ज हो सके ऐसा नहीं है। अभी आप भोजन करने बैठे, तो आपको मालूम नहीं कि आप क्या खाने वाले है? क्या बनाने वाले को पता है कि कल खाने में क्या बनाना है? यह कैसे हो जाता है, यह भी अजूबा है। आपसे कितना खाया जाएगा और कितना नहीं, वह सब परमाणु मात्र, निश्चित है। आप आज मुझसे मिले हो न, वह किस आधार पर मिल पाए? ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। अति-अति गुह्य कारण हैं। उन कारणों को खोज निकालो।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उन्हें खोजें कैसे?

दादाश्री : जैसे अभी आप यहाँ आए, उसमें आपके बस में कुछ है नहीं। वह तो आप मानते हो, इगोइज़म करते हो कि, ‘मैं आया और मैं गया’। यह जो आप कहते हो, ‘मैं आया’। अगर मैं पूछूँ कि, ‘कल क्यों नहीं आए थे?’ तो यों पैर दिखाते हो। इससे क्या समझा जाए?

प्रश्नकर्ता : पैर दु:ख रहे थे।

दादाश्री : हाँ, पैर दु:ख रहे थे। पैर का नाम लो तो नहीं समझ जाएँगे कि आने वाले आप है या पैर?

प्रश्नकर्ता : लेकिन ‘मैं ही आया’ कहा जाएगा न?

दादाश्री : आप ही आए हो। नहीं? यदि पैर दु:खने लगें तब भी आप आओगे?

प्रश्नकर्ता : मेरी खुद की इच्छा थी आने की, इसलिए आया हूँ।

दादाश्री : हाँ, इच्छा थी आपकी, इसलिए आए। लेकिन ये पैर वगैरह सब ठीक थे, तभी आ पाए न? ठीक नहीं होते तो?

प्रश्नकर्ता : तब तो नहीं आ पाता। ठीक बात है।

दादाश्री : तो क्या आपसे अकेले आया जा सकता है? जैसे एक आदमी रथ में बैठकर यहाँ पर आए और कहे, ‘मैं आया, मैं आया’। तब हम पूछें, ‘आपके पैरों में तो पेरैलिसिस हुआ है, तो आप आए कैसे?’ तब वह कहेगा, ‘रथ में आया। लेकिन मैं ही आया, मैं ही आया।’ ‘अरे! लेकिन रथ आया या आप आए?’ तब वह कहेगा, ‘रथ आया।’ फिर मैं कहूँ कि, ‘रथ आया या बैल आए?’

अर्थात् यह बात तो कहाँ से कहाँ है! लेकिन देखिए उल्टा मान लिया है न! सारे संयोग अनुकूल हों तभी आ सकते हैं, वर्ना नहीं आ सकते।

सिर दु:खता हो तो, आप आए हुए हों तो भी वापस चले जाओगे। अगर आप ही आने-जाने वाले होते, तो सिर दु:खने का बहाना नहीं बना सकते न? अरे, तब फिर सिर आया था या आप आए थे? अगर कोई रास्ते में मिले और कहे, ‘चलिए चंदूलाल मेरे साथ’ तो भी आप वापस चले जाएँगे। अत: अगर संयोग अनुकूल हों, यहाँ पहुँचने तक कोई रोकने वाला नहीं मिले तभी आ पाओगे।

खुद की सत्ता कितनी?
आपने तो कभी खाया भी नहीं है न! यह तो सारा चंदूलाल खाते हैं और आप मन में मानते हो कि मैंने खाया। चंदूलाल खाते हैं और संडास भी चंदूलाल जाते हैं। बिना वजह इसमें फँस गए हो। यह आपकी समझ में आता है?

प्रश्नकर्ता : वह समझाइए।

दादाश्री : इस संसार में संडास जाने की स्वतंत्र सत्ता वाला कोई इंसान नहीं जन्मा है। संडास जाने की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है किसी की, फिर और कौन सी सत्ता होगी? यह तो, जब तक आपकी मर्ज़ी के अनुसार थोड़ा बहुत होता है, तो मन में मान लेते हैं कि मुझसे ही हो रहा है सबकुछ। जब अटक जाए न, तब पता चलता है।

मैंने फॉरेन रिटर्न डॉक्टरों को यहाँ बड़ौदा में बुलाया था, दस-बारह लोगों को। उनसे मैंने कहा, ‘आपमें संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है’। इस पर उनमें खलबली मच गई। आगे कहा कि, ‘वह तो जब अटकेगी तब पता चलेगा। तब वहाँ पर किसी की हेल्प लेनी पड़ेगी। इसलिए यह आपकी स्वतंत्र शक्ति है ही नहीं। यह तो भ्रांति से आपने कुदरत की शक्ति को खुद की शक्ति मान लिया है। परसत्ता को खुद की सत्ता मानते हैं, उसी को भ्रांति कहते हैं। यह बात थोड़ी बहुत समझ में आई आपको? दो आना या चार आना जितना भी समझ में आया?

प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आता है।

दादाश्री : उतना समझ में आए तो भी हल आ जाए। ये लोग जो कहते हैं न कि, ‘मैंने इतना तप किया, ऐसे जाप किए, उपवास किए’ वह सब भ्रांति है। फिर भी जगत् तो ऐसे का ऐसा ही रहेगा। अहंकार किए बगैर नहीं रहेगा। स्वभाव है न?

कर्ता, नैमित्तिक कर्ता...
प्रश्नकर्ता : वास्तव में खुद कर्ता नहीं है, तो फिर कर्ता कौन है? और उसका स्वरूप क्या है?

दादाश्री : ऐसा है, नैमित्तिक कर्ता तो खुद ही है। खुद स्वतंत्र कर्ता तो है ही नहीं, लेकिन नैमित्तिक कर्ता है। यानी पार्लियामेन्टरी पद्धति से कर्ता है। पार्लियामेन्टरी पद्धति अर्थात्? जैसे पार्लियामेन्ट में सब की वोटिंग होती है और फिर अंत में खुद का वोट होता है न, उसके आधार पर खुद कहता है कि ‘यह तो मुझे करना होगा’। इस प्रकार से कर्ता बनता है। इस तरह योजना का सर्जन होता है। योजना करने वाला खुद ही है। कर्तापन सिर्फ योजना में ही होता है। योजना में उसके दस्तखत हैं। लेकिन संसार में लोग यह नहीं जानते। छोटे कम्प्यूटर में से फीड किया हुआ निकलकर बड़े कम्प्यूटर में जाता है, इस तरह योजना सर्जित होकर बड़े कम्प्यूटर में जाती है। वह बड़ा कम्प्यूटर फिर उसका विसर्जन करता है। अत: इस जन्म की सारी लाइफ विसर्जन के रूप में है, जिसका सर्जन पिछले जन्म में हो चुका था। इसलिए इस भव में जन्म से लेकर मृत्यु तक सारा विसर्जन के रूप में ही है। खुद के हाथ में कुछ भी नहीं है, परसत्ता में ही है। एकबार योजना बनी कि सब परसत्ता में चला जाता है। रूपक में, परिणाम में उस परसत्ता का ही ज़ोर चलता है। अर्थात् परिणाम अलग है। परिणाम परसत्ता के अधीन है। आपको समझ में आता है? यह बात बहुत गहन है।

कर्तापद से कर्मबंधन
प्रश्नकर्ता : कर्म के बंधन में से छूटने के लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : ये कर्म जो हैं, वे कर्ता के अधीन है। अत: अगर कर्ता होगा तभी कर्म हो सकता है। कर्ता नहीं होगा तो कर्म नहीं बनेगा। कर्ता कैसे? आरोपित भाव में जा बैठा, इसलिए कर्ता बना। अपने मूल स्वभाव में आ जाए तो खुद कर्ता है ही नहीं। ‘मैंने किया’ ऐसा कहने से कर्ता बना। यानी कर्म को आधार दिया। अब खुद कर्ता न हो तो कर्म खत्म हो जाएगा! निराधार कर दें तो कर्म खत्म हो जाएगा। यानी जब तक कर्तापन है, तभी तक कर्म हैं।

‘छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म,
नहीं भोक्ता तू उसका, यही धर्म का मर्म’
—श्रीमद् राजचंद्र

अभी आप ऐसा मान बैठे हो कि ‘मैं चंदूलाल हूँ’, इसलिए सब एकाकार हो गया है। अंदर दो वस्तुएँ अलग-अलग हैं। आप अलग और चंदूलाल अलग हैं। लेकिन जब तक वह आपको पता नहीं है, तब तक क्या हो सकता है? ज्ञानी पुरुष भेदविज्ञान से जुदा कर देते हैं। उसके बाद जब ‘आप’ (‘चंदूलाल’ से) जुदा हो जाते हो, तब ‘आपको’ कुछ भी नहीं करना होता, सब ‘चंदूलाल’ करते रहते हैं।


(6) भेदज्ञान कौन करवाए?

आत्मा-अनात्मा का वैज्ञानिक विभाजन
जैसे इस अँगूठी में सोना और तांबा दोनों मिले हुए हैं, उसे हम गाँव में ले जाकर किसी से कहें कि, ‘भाई, अलग-अलग कर दीजिए न!’ तो क्या कोई भी कर देगा? कौन कर पाएगा?

प्रश्नकर्ता : सुनार ही कर पाएगा।

दादाश्री : जिसका यह काम है, जो इसमें एक्सपर्ट है, वह सोना और तांबा दोनों को अलग कर देगा। सौ का सौ प्रतिशत सोना अलग कर देगा, क्योंकि वह दोनों के गुणधर्मों को जानता है कि सोने के गुणधर्म ऐसे हैं और ताँबे के गुणधर्म ऐसे हैं। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष आत्मा के गुणधर्मों को जानते हैं और अनात्मा के गुणधर्मों को भी जानते हैं।

जैसे अँगूठी में सोना और ताँबे का ‘मिक्स्चर’ है इसलिए उन्हें अलग किया जा सकता है। सोना और तांबा दोनों कम्पाउन्ड स्वरूप हो जाएँ, तो उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। क्योंकि इससे गुणधर्म अलग ही प्रकार के हो जाते। इसी प्रकार जीव के अंदर चेतन और अचेतन का मिक्स्चर है, वे कम्पाउन्ड स्वरूप नहीं हुए हैं। इसलिए फिर से स्वभाव में लाए जा सकते हैं। कम्पाउंड हुआ होता तो पता ही नहीं चलता। चेतन के गुणधर्मों का भी पता नहीं चलता और अचेतन के गुणधर्मों का भी पता नहीं चलता और तीसरा ही गुणधर्म उत्पन्न हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं है। वह तो सिर्फ मिक्स्चर ही हुआ है। इसलिए ज्ञानी पुरुष जुदा कर दें तो आत्मा की पहचान हो जाएगी।

ज्ञानविधि क्या है?
प्रश्नकर्ता : आपकी ज्ञानविधि क्या है?

दादाश्री : ज्ञानविधि तो सेपरेशन (अलग) करती है, पुद्गल (अनात्मा) और आत्मा का! शुद्ध चेतन और पुद्गल दोनों का सेपरेशन।

प्रश्नकर्ता : यह सिद्धांत तो ठीक है लेकिन उसका तरीका क्या है, वह जानना है।

दादाश्री : इसमें लेने-देने जैसा कुछ नहीं होता, सिर्फ यहाँ बैठकर ज्यों का त्यों बोलने की ज़रूरत है (‘मैं कौन हूँ’ उसकी पहचान, ज्ञान कराने के लिए दो घंटे का ज्ञानप्रयोग होता है। उसमें अड़तालीस मिनिट आत्मा-अनात्मा का भेद करने वाले भेदविज्ञान के वाक्य बुलवाए जाते हैं। जो सभी को बोलने होते हैं। उसके बाद एक घंटे में उदाहरण देकर पाँच आज्ञाएँ विस्तारपूर्वक समझाई जाती हैं, जो कि अब बाकी का जीवन कैसे व्यतीत करना है ताकि नए कर्म न बंधें और पुराने कर्म पूर्णतया खत्म हो जाएँ, साथ ही हमेशा ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ की जागृति रहा करे!)

आवश्यकता गुरु की या ज्ञानी की?
प्रश्नकर्ता : दादाजी से मिलने से पहले किसी को गुरु मानते हों तो ? तो उसे क्या करना चाहिए?

दादाश्री : तो उनके वहाँ जाना न! और अगर नहीं जाना हो तो, जाना आवश्यक भी नहीं है। आपको जाना हो तो जाना और नहीं जाना हो तो मत जाना। उन्हें दु:ख न हो, इसलिए भी जाना चाहिए। हमें विनय रखना चाहिए। यहाँ पर ‘आत्मज्ञान’ लेते समय मुझसे कोई पूछे कि, ‘अब मैं गुरु को छोड़ दूँ?’ तब मैं कहता हूँ कि, ‘नहीं छोड़ना भाई! अरे, उस गुरु के प्रताप से तो यहाँ तक पहुँच पाया है’। गुरु की वजह से इंसान कुछ मर्यादा में रह सकता है। गुरु न हों तो मर्यादा भी नहीं रहती और गुरु से कहना चाहिए कि ‘मुझे ज्ञानी पुरुष मिले हैं। उनके दर्शन करने जाता हूँ’। कुछ लोग तो अपने गुरु को भी मेरे पास ले आते हैं, क्योंकि गुरु को भी मोक्ष तो चाहिए न! संसार का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं हो सकता और मोक्ष का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं हो सकता। व्यवहार के गुरु ‘व्यवहार’ के लिए हैं और ज्ञानी पुरुष ‘निश्चय’ के लिए हैं। व्यवहार रिलेटिव है और निश्चय रियल है। रिलेटिव के लिए गुरु की ज़रूरत है और रियल के लिए ज्ञानी पुरुष की ज़रूरत है।


(7) .. मोक्ष का स्वरूप क्या?

ध्येय केवल यही होना चाहिए
प्रश्नकर्ता : मनुष्य का ध्येय क्या होना चाहिए?

दादाश्री : मोक्ष में जाने का ही! यही ध्येय होना चाहिए। आपको भी मोक्ष में ही जाना है न? कब तक भटकना है? अनंत जन्मों से भटक भटक... भटकने में कुछ बाकी ही नहीं रखा है न! तिर्यंच (जानवर) गति में, मनुष्य गति में, देवगति में, सभी जगह भटकता ही रहा है। क्यों भटकना पड़ा? क्योंकि ‘मैं कौन हूँ’, इतना ही नहीं जाना। खुद के स्वरूप को ही नहीं पहचाना। खुद के स्वरूप को जानना चाहिए। ‘खुद कौन है’ वह नहीं जानना चाहिए? इतना घूमे फिर भी नहीं जाना आपने? सिर्फ पैसे कमाने के पीछे पड़े हो? मोक्ष के लिए भी थोड़ा-बहुत करना चाहिए या नहीं करना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : करना चाहिए।

दादाश्री : अर्थात् स्वतंत्र होने की ज़रूरत है न? ऐसे परवश कब तक रहना है?

प्रश्नकर्ता : मैं ऐसा मानता हूँ कि स्वतंत्र होने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन स्वतंत्र होने की समझ की ज़रूरत है।

दादाश्री : हाँ, उस समझ की ही ज़रूरत है। उस समझ को हम जान लें तो बहुत हो गया। भले ही स्वतंत्र नहीं हो पाएँ। स्वतंत्र हो पाएँ या न भी हो पाएँ, वह बाद की बात है। फिर भी उस समझ की ज़रूरत तो है न? पहले समझ प्राप्त हो गई, तो बहुत हो गया।

‘स्वभाव’ में आने में मेहनत नहीं
मोक्ष यानी अपने स्वभाव में आना और संसार यानी अपने विशेष भाव में जाना। तो आसान क्या है? स्वभाव में रहना वह! यानी मोक्ष कठिन नहीं है। संसार हमेशा ही कठिन रहा है। मोक्ष तो खिचड़ी बनाने से भी आसान है। खिचड़ी बनाने के लिए तो लकड़ी लानी पड़ती है, दाल-चावल लाने पड़ते हैं, पतीली लानी पड़ती है, पानी लाना पड़ता है, तब जाकर खिचड़ी बनती है। जबकि मोक्ष तो खिचड़ी से भी आसान है लेकिन
मोक्षदाता ज्ञानी मिलने चाहिए। वर्ना मोक्ष कभी नहीं हो सकता। करोड़ों जन्म बीत जाने पर भी नहीं हो सकता। अनंत जन्म हो ही चुके हैं न?

मोक्ष मेहनत से नहीं मिलता
यह जो हम कहते हैं न, कि हमारे पास आकर मोक्ष ले जाओ! तब लोग मन में सोचते हैं कि ‘ऐसा दिया हुआ मोक्ष किस काम का, अपनी मेहनत किए बिना?’ ‘तो भाई, मेहनत करके लाना। देखो, उनकी समझ कितनी अच्छी (!) है?’ बाकी मेहनत से कुछ भी नहीं मिलता। मेहनत से कभी किसी को मोक्ष नहीं मिला है।

प्रश्नकर्ता : मोक्ष दिया या लिया जा सकता है क्या?

दादाश्री : उसमें लेना या देना है ही नहीं। यह तो नैमित्तिक है। आप मुझसे मिले, यह निमित्त है। निमित्त ज़रूरी है। बाकी, न तो कोई देने वाला है और न ही कोई लेने वाला है। देने वाला किसे कहा जाता है? कोई अपने घर की चीज़ दे, तो उसे देने वाला कहते हैं। ये तो आपके घर में ही मोक्ष है, हमें तो सिर्फ आपको दिखा देना है, रियलाइज़ करवा देना है। यानी कि लेना-देना है ही नहीं, हम तो सिर्फ निमित्त हैं।

मोक्ष यानी सनातन सुख
प्रश्नकर्ता : मोक्ष पाकर करना क्या है?

दादाश्री : कुछ लोग मुझसे मिलने पर कहते हैं कि मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। तब मैं कहता हूँ कि, ‘भाई, मोक्ष की ज़रूरत नहीं है लेकिन आपको सुख तो चाहिए या नहीं? या दु:ख पसंद है?’ तब वे कहते हैं, ‘नहीं, सुख तो चाहिए’। मैंने कहा, ‘सुख थोड़ा-बहुत कम होगा तो चलेगा?’ तब वे कहते हैं, ‘नहीं, सुख तो पूरा ही चाहिए’। तब मैंने कहा, ‘तो फिर हम सुख की ही बातें करें न! मोक्ष की बात जाने दो’। मोक्ष वह क्या चीज़ है लोग यह समझते ही नहीं। शब्द में बोलते हैं, बस इतना ही है। लोग ऐसा समझते हैं कि मोक्ष नाम की कोई जगह है और वहाँ जाने से हमें मोक्ष का मज़ा आता है! लेकिन ऐसा नहीं है यह सब।

मोक्ष, दो स्टेज में
प्रश्नकर्ता : आम तौर पर हम मोक्ष का अर्थ ऐसा करते हैं, ‘जन्म-मरण से मुक्ति’।

दादाश्री : हाँ, यह सही है। लेकिन जो अंतिम मुक्ति है, वह सेकन्डरी स्टेज है। लेकिन पहली स्टेज में, पहला मोक्ष यानी संसारी दु:ख का अभाव रहता है। संसार के दु:खों में भी दु:ख स्पर्श न करे, उपाधि (बाहर से आने वाला दु:ख) में भी समाधि रहे, वह पहला मोक्ष। और फिर जब यह देह छूटे तब आत्यंतिक मोक्ष है। लेकिन पहला मोक्ष यहीं पर हो जाना चाहिए। मेरा मोक्ष हो ही चुका है न! ऐसा मोक्ष हो जाना चाहिए कि संसार में रहने पर भी संसार छूए नहीं। तो ऐसा है कि इस अक्रम विज्ञान से ऐसा हो सकता है।

जीते जी ही मुक्ति
प्रश्नकर्ता : जो मुक्ति या मोक्ष है, वह जीते जी मुक्ति है या मरने के बाद वाली मुक्ति है?

दादाश्री : मरने के बाद वाली मुक्ति किस काम की? मरने के बाद मुक्ति होगी, ऐसा कहकर लोगों को फँसाते हैं। अरे, मुझे यहीं पर कुछ दिखा न! स्वाद तो चखा कुछ, कुछ प्रमाण तो बता। वहाँ पर मोक्ष होगा, उसका क्या ठिकाना? ऐसे उधार मोक्ष का हमें क्या करना? उधार में बरकत नहीं होती। इसलिए कैश (नकद) ही अच्छा। हमारी यहाँ जीते जी ही मुक्ति होनी चाहिए। जनक राजा की मुक्ति आपने सुनी है या नहीं?

प्रश्नकर्ता : सुनी है।


(8) अक्रम मार्ग क्या है?

अक्रम ज्ञान से अनोखी सिद्धि
प्रश्नकर्ता : लेकिन इस संसार में रहते हुए आत्मज्ञान ऐसे मिल सकता है?

दादाश्री : हाँ, ऐसा रास्ता है। संसार में रहकर इतना ही नहीं, लेकिन वाइफ के साथ रहते हुए भी आत्मज्ञान मिल सके ऐसा है। सिर्फ संसार में रहकर इतना ही नहीं, लेकिन बेटे-बेटियों की शादी करवाकर और सभी कार्य करते हुए भी आत्मज्ञान हो सकता है। मैं संसार में रहते हुए ही आपको यह करवा देता हूँ। संसार में, अर्थात् सिनेमा देखने जाना वगैरह आपको सभी छूट देता हूँ। बेटे-बेटियों की शादी करवाना और अच्छे कपड़े पहनकर करवाना। फिर इससे ज़्यादा और कोई गारन्टी चाहिए?

प्रश्नकर्ता : इतनी सारी छूट मिले, तब तो ज़रूर (आत्मा में) रहा जा सकता है।

दादाश्री : सभी छूट! यह अपवाद मार्ग है। आपको कुछ मेहनत नहीं करनी है। आपको आत्मा भी आपके हाथों में दे देंगे, उसके बाद आत्मा की रमणता में रहना और इस लिफ्ट में बैठे रहना। आपको और कुछ भी नहीं करना है। फिर आपको कर्म बंधेगे ही नहीं। एक ही जन्म के कर्म बंधेंगे, वे भी मेरी आज्ञा पालन करने के बदले में। हमारी आज्ञा में रहना इसीलिए ज़रूरी है कि लिफ्ट में बैठते समय यदि हाथ इधर-उधर करेंगे तो मुश्किल में पड़ जाएँगे न!

प्रश्नकर्ता : यानी अगला जन्म होगा ज़रूर?

दादाश्री : पिछला जन्म भी था और अभी अगला जन्म भी है लेकिन यह ज्ञान ऐसा है कि अब एक-दो जन्म ही बाकी रहते हैं। पहले अज्ञान से मुक्ति हो जाती है। फिर एक-दो जन्मों में अंतिम मुक्ति मिल जाती है। एक जन्म तो शेष रहेगा, यह काल ऐसा है।

आप एक दिन मेरे पास आना। हम एक दिन तय करेंगे तब आना है। उस दिन सभी की रस्सी पीछे से काट देंगे। रोज़-रोज़ नहीं काटते। रोज़ तो फिर ब्लेड लेने जाना पड़ेगा। रोज़ तो सत्संग की सभी बातें करते हैं, लेकिन एक दिन तय करते हैं, उस दिन यों ब्लेड से बंधन काट देते हैं। और कुछ नहीं। फिर तुरंत ही आप समझ जाएँगे कि यह सब खुल गया। सीने पर से बंधन गया, ऐसा अनुभव होने पर तुरंत ही कहोगे कि मुक्त हो गया। अर्थात् मुक्त हो गया हूँ, ऐसा भान होना चाहिए। मुक्त होना कोई गप्प नहीं है। यानी हम आपको मुक्त करवा देते हैं।

जिस दिन यह ‘ज्ञान’ देते हैं उस दिन क्या होता है? ज्ञानाग्नि से उसके जो कर्म हैं, वे भस्मीभूत हो जाते हैं। दो प्रकार के कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं और एक प्रकार के कर्म बाकी रहते हैं। जो कर्म भापरूपी हैं, उनका नाश हो जाता है और जो कर्म पानी रूपी हैं, उनका भी नाश हो जाता है लेकिन जो बर्फ रूपी कर्म हैं, उनका नाश नहीं होता है। जो बर्फ रूपी कर्म हैं, उन्हें भोगना ही पड़ता है। क्योंकि वे जमे हुए हैं। जो कर्म फल देने के लिए तैयार हो गए है, वह फिर छोड़ते नहीं। लेकिन पानी और भाप स्वरूप जो कर्म हैं, उन्हें ज्ञानाग्नि उड़ा देती है। इसलिए ज्ञान पाते ही लोग एकदम हल्के हो जाते हैं, उनकी जागृति एकदम बढ़ जाती है। क्योंकि जब तक कर्म भस्मीभूत नहीं होते, तब तक जागृति बढ़ ही नहीं सकती इंसान की! बर्फरूपी कर्म तो हमें भोगने ही पड़ते हैं। और फिर उन्हें भी सरल तरीके से कैसे भोगें, उसके सब रास्ते हमने बताए हैं कि, ‘‘भाई, ये ‘दादा भगवान के असीम जय जयकार हो’ बोलना, त्रिमंत्र बोलना, नव कलमें बोलना’’।

हम ज्ञान देते हैं, उससे कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं और उस समय कई आवरण टूट जाते हैं। तब भगवान की कृपा होते ही वह खुद जागृत हो जाता है। वह जागृति फिर जाती नहीं है, एकबार जागने के बाद वह जाती नहीं है। निरंतर जागृत रह सकते हैं। यानी निरंतर प्रतीति रहेगी ही। प्रतीति कब रह सकती है? जागृति हो तो प्रतीति रह सकती है। पहले जागृति, फिर प्रतीति। फिर अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति ये तीनों रहेंगे। प्रतीति सदा रहेगी।

लक्ष (जागृति) तो कभी कभी रहेगा। कुछ धंधे में या किसी काम में लगे कि फिर से लक्ष चूक जाते हैं और काम खत्म होने पर फिर से लक्ष में आ जाते हैं। और अनुभव तो कब होता है कि जब काम से, सब से निवृत होकर एकांत में बैठे हुए हों तब अनुभव का स्वाद आता है। यद्यपि अनुभव तो बढ़ता ही रहता है, क्योंकि पहले चंदूलाल क्या थे और आज चंदूलाल क्या हैं, वह समझ में आता है। तो यह परिवर्तन कैसे होता है? आत्म-अनुभव से। पहले देहाध्यास का अनुभव था और यह आत्म-अनुभव है।

प्रश्नकर्ता : आत्मा का अनुभव हो जाने पर क्या होता है?

दादाश्री : आत्मा का अनुभव हो जाए तो देहाध्यास छूट जाता है। देहाध्यास छूट गया, यानी कर्म बंधना रुक गया। उसे संवर (नए बीज गीरे बिना कर्म की निर्जरा) रहता है। फिर और क्या चाहिए?

आत्मा-अनात्मा के बीच भेद-रेखा
यह अक्रम विज्ञान है, इसलिए इतनी जल्दी समकित हो जाता है। वर्ना आज क्रमिक मार्ग में समकित हो सके, ऐसा है ही नहीं। यह अक्रम विज्ञान तो बहुत उच्च कोटि का विज्ञान है। आत्मा और अनात्मा के बीच अर्थात् आपकी और पराई चीज़, ऐसे दोनों का विभाजन कर देते हैं। ‘यह’ हिस्सा आपका और ‘यह’ आपका नहीं है, और बीच में लाइन ऑफ डिमार्केशन, लक्ष्मण रेखा डाल दी वहाँ पर। फिर पड़ौसी के खेत की भिंडी हम नहीं खा सकते न!

मार्ग: ‘क्रम’ और ‘अक्रम’
तीर्थंकरों का जो ज्ञान है वह क्रमिक ज्ञान है। क्रमिक यानी सीढ़ी दर सीढ़ी चढऩा। जैसे-जैसे परिग्रह कम करते जाते हैं, वैसे-वैसे मोक्ष के निकट पहुँचाता है। वह भी लंबे अरसे के बाद और यह अक्रम विज्ञान क्या है? सीढिय़ाँ नहीं चढऩी हैं, लिफ्ट में बैठ जाना है और बारहवीं मंज़िल पर चढ़ जाना है। ऐसा यह लिफ्टमार्ग निकला है। जो इस लिफ्टमार्ग में बैठ गए, उनका कल्याण हो गया। मैं तो निमित्त हूँ। इस लिफ्ट में जो बैठ गए, उनका हल निकल आया न! हल तो निकालना ही होगा न? हम मोक्ष में जाएँगे ही, उस लिफ्ट में बैठे होने का प्रमाण तो होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? उसका प्रमाण यानी क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं हों, आर्तध्यान-रौद्रध्यान नहीं हों। तो पूर्ण काम हो गया न?

जो ‘मुझे’ मिला वही पात्र
प्रश्नकर्ता : यह मार्ग इतना आसान है, तो फिर क्या अधिकार (पात्रता) जैसा कुछ देखना ही नहीं है? हर किसी के लिए यह संभव है?

दादाश्री : लोग जब मुझसे पूछते हैं, ‘क्या मैं अधिकारी (पात्र) हूँ?’ तब मैं कहता हूँ, ‘मुझे मिला, इसलिए तू अधिकारी है’। यह मिलना, वह तो, साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स हैं इसके पीछे। इसलिए हमें जो कोई व्यक्ति मिलता है, उसे अधिकारी माना जाता है। जो नहीं मिला वह अधिकारी नहीं है। वह किस आधार पर मिलता है? वह अधिकारी है, इसी आधार पर मुझसे मिलता है। मुझसे मिलने पर भी यदि उसे प्राप्ति नहीं होती, तो फिर उसको अंतराय कर्म बाधक है।

क्रम में ‘करना है’ और अक्रम में...
एक भाई ने एकबार प्रश्न किया कि क्रम और अक्रम में क्या फर्क है? तब मैंने बताया कि, क्रम अर्थात् सभी कहते हैं कि यह उल्टा (गलत) छोड़ो और सीधा (सही) करो। सभी यही कहते रहते हैं बार-बार। वह है क्रमिक मार्ग। क्रम अर्थात् सभी, कुछ छोड़ने को कहते हैं, यह कपट-लोभ छोड़ो और अच्छा करो। यही आपने देखा है न अभी तक? और यह अक्रम अर्थात् करना नहीं है। करोमि-करोसि-करोति नहीं! जेब काटने पर अक्रम में कहते हैं, ‘उसने काटी नहीं है और मेरी कटी नहीं’ और क्रम में तो ऐसा कहते हैं कि, ‘उसने काटी है और मेरी कटी’।

यह अक्रम विज्ञान लॉटरी जैसाहै। लॉटरी में इनाम मिले तो उसके लिए उसने कोई मेहनत की थी? रुपया उसने भी दिया था और औरों ने भी रुपया दिया था, लेकिन उसका चल निकला। उसी तरह यह अक्रम विज्ञान, तुरंत ही मोक्ष दे देता है, नकद ही!

अक्रम से आमूल परिवर्तन
अक्रम विज्ञान तो बहुत बड़ा आश्चर्य कहलाता है। यह ‘ज्ञान’ लेने के बाद अगले दिन से ही व्यक्ति में परिवर्तन हो जाता है। सुनते ही लोगों को यह विज्ञान स्वीकार हो जाता है और यहाँ खिंचे चले आते  हैं।

अक्रम मार्ग, विश्वभर में
यह संयोग तो बहुत ही उच्च कोटि का है। ऐसा कहीं हुआ ही नहीं है। एक ही व्यक्ति सिर्फ, ‘दादाजी’ ही यह कार्य कर सके हैं। दूसरा कोई नहीं कर सकता।

प्रश्नकर्ता : यह तो दादा की कृपा है न?

दादाश्री : यह मार्ग तो चलता रहेगा। मेरी इच्छा है कि कोई भी तैयार हो जाए, बाद में कोई मार्ग चलाने वाला होना चाहिए न?

प्रश्नकर्ता : होना चाहिए।

दादाश्री : पर मेरी इच्छा पूर्ण हो जाएगी।

प्रश्नकर्ता : ‘अक्रम विज्ञान’ यदि चलता रहेगा, तो वह निमित्त से चलता रहेगा!

दादाश्री : ‘अक्रम विज्ञान’ ही चलेगा। अक्रम विज्ञान तो, साल-दो साल अगर ऐसे ही चलता रहा तो सारी दुनिया में इसी की बातें चलेंगी और पहुँच जाएगा सभी जगह। क्योंकि जिस तरह झूठी बात सिर चढ़कर बोलती है, उसी तरह सच बात भी सिर चढ़कर बोलती है। सच बात का अमल देर से होता है और झूठी बात का अमल जल्दी हो जाता है।

अक्रम द्वारा स्त्री का भी मोक्ष
लोग कहते हैं कि मोक्ष पुरुष का ही होता है, स्त्रियों के लिए मोक्ष नहीं है। इस पर मैं उनसे कहता हूँ कि स्त्रियों का भी मोक्ष हो सकता है। क्यों नहीं होगा ? तब कहते हैं, उनकी कपट और मोह की ग्रंथि बहुत बड़ी है। पुरुष की गाँठ छोटी होती है, जबकि उनकी उतनी बड़ी जिमीकंद जितनी होती है।

स्त्री भी मोक्ष में जाएगी। भले ही सभी मना करें, लेकिन स्त्री मोक्ष के लायक है क्योंकि वह आत्मा है और पुरुषों के संपर्क में आई है, इसलिए उसका भी निबेड़ा आएगा, लेकिन स्त्री प्रकृति में मोह बलवान होने की वजह से ज़्यादा टाइम लगेगा।

काम निकाल लो
अपना काम निकाल लेना, जब ज़रूरत हो तब। ऐसा भी नहीं है कि आप आना ही। आपको ठीक लगे तो आना! और जब तक संसार पसंद हो, पुसाता हो (जँचता हो), तब तक वह व्यापार चलाते रहना। हमें तो ऐसा नहीं है कि आप ऐसा ही करो। और हम आपको खत लिखने भी नहीं जाते। यहाँ पर (हम) आए हो तभी आपसे कहते हैं कि, ‘भाई, लाभ उठा लो’। इतना ही कहते हैं आपको। हज़ारों सालों से ऐसा विज्ञान प्रकट नहीं हुआ है। इसलिए मैं कहता हूँ कि बाद में जो भी होना हो सो हो, लेकिन यह काम निकाल लेने जैसा है।


(9) ‘ज्ञानी पुरुष’ कौन?

संत पुरुष : ज्ञानी पुरुष
प्रश्नकर्ता : ये जो सारे संत हो चुके हैं, उनमें और ज्ञानी में कितना अंतर  है?

दादाश्री : संत किसे कहते हैं? जो बुराई छुड़वाए और अच्छाई सिखाए। जो गलत करना छुड़वाए और अच्छा करना सिखाए, वे संत कहलाते हैं।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् जो पापकर्म से बचाएँ वे संत?

दादाश्री : हाँ, पापकर्म से बचाएँ वे संत, लेकिन पाप-पुण्य, दोनों से बचाएँ, वे ज्ञानी पुरुष कहलाते हैं।

संत पुरुष सही राह पर चढ़ाते हैं और ज्ञानी पुरुष मुक्ति दिलवाते हैं। संत तो पथिक कहलाते हैं। पथिक यानी वे खुद चलते हैं और दूसरे पथिक से कहते हैं, ‘चलो तुम मेरे साथ’ और ज्ञानी पुरुष तो आखिरी स्टेशन कहे जाते हैं, वे तो अपना काम ही निकाल देते हैं।

सच्चा, बिल्कुल सच्चा संत कौन? जो ममता रहित हों। तो दूसरे कम-ज़्यादा ममता वाले होते हैं। और सच्चा ज्ञानी कौन? जिनमें अहंकार और ममता दोनों ही नहीं होते।

इसलिए संतों को ज्ञानी पुरुष नहीं कहा जा सकता। संतों को आत्मा का भान नहीं होता। वे संत भी जब कभी ज्ञानी पुरुष से मिलेंगे, तब उनका निबेड़ा आएगा। संतों को भी इनकी आवश्यकता है। सब को यहाँ आना पड़ता है, और कोई चारा ही नहीं है न! प्रत्येक की इच्छा यही है।

ज्ञानी पुरुष दुनिया का आश्चर्य कहलाते हैं। ज्ञानी पुरुष तो प्रकट दीया कहलाते हैं।

ज्ञानी पुरुष की पहचान
प्रश्नकर्ता : ज्ञानी पुरुष को कैसे पहचाना जा सकता है?

दादाश्री : कैसे पहचानोगे? ज्ञानी पुरुष तो ऐसे होते हैं कि यों ही पहचाने जा सकें। उनकी सुगंध ही ऐसी होती है कि पहचानी जा सकती है। उनका वातावरण कुछ और ही प्रकार का होता है। उनकी वाणी भी कुछ और प्रकार की होती है। उनके शब्दों से पता चल जाता है। अरे! उनकी आँखें देखकर ही पता चल जाता है। ज्ञानी के पास भारी विश्वसनीयता होती है, ज़बरदस्त विश्वसनीयता! और उनका हर शब्द शास्त्ररूपी होता है, यदि समझ में आए तो उनके वाणी-वर्तन और विनय मनोहर होते हैं, मन का हरण करने वाले होते हैं। ऐसे बहुत सारे लक्षण होते हैं।

ज्ञानी पुरुष में बुद्धि लेश मात्र भी नहीं होती! वे अबुध होते हैं। ऐसे कितने लोग होंगे जिनमें लेश मात्र भी बुद्धि न हो? शायद ही कभी किसी जन्म में होते हैं ऐसे, और तब लोगों का कल्याण हो जाता है। तब लाखों लोग (संसार सागर) तैरकर पार निकल जाते हैं। ज्ञानी पुरुष अहंकार रहित होते हैं, ज़रा सा भी अहंकार नहीं होता है। अब अहंकार रहित तो इस संसार में कोई भी मनुष्य नहीं है। मात्र ज्ञानी पुरुष ही अहंकार रहित होते हैं।

ज्ञानी पुरुष तो हज़ारों सालों में एकाध पैदा होते हैं। बाकी, संत व शास्त्रज्ञानी तो अनेक होते हैं। हमारे यहाँ शास्त्र के ज्ञानी बहुत सारे हैं लेकिन आत्मा के ज्ञानी नहीं हैं। जो आत्मा के ज्ञानी होते हैं न, वे तो परम सुखी होते हैं, उन्हें किंचित्मात्र भी दु:ख नहीं रहता। इसलिए वहाँ पर अपना कल्याण हो जाता है। जो खुद अपना कल्याण करके बैठे हुए हैं, वे ही हमारा कल्याण कर सकते हैं। खुद पार उतरे हों, वे हमें पार उतार सकते हैं। वर्ना जो खुद डूब रहा हो, वह कभी भी पार नहीं उतार सकता।


(10) ‘दादा भगवान’ कौन?

‘मैं’ और ‘दादा भगवान’, नहीं एक रे
प्रश्नकर्ता : तो आप भगवान क्यों कहलवाते हैं?

दादाश्री : मैं खुद भगवान नहीं हूँ। भगवान को, ‘दादा भगवान’ को तो मैं भी नमस्कार करता हूँ। मैं खुद तीन सौ छप्पन डिग्री पर हूँ और ‘दादा भगवान’ तीन सौ साठ डिग्री पर हैं। मेरी चार डिग्री कम हैं, इसलिए मैं ‘दादा भगवान’ को नमस्कार करता हूँ।

प्रश्नकर्ता : वह किसलिए?

दादाश्री : क्योंकि मुझे तो चार डिग्री पूरी करनी हैं। मुझे पूरी तो करनी पड़ेंगी न? चार डिग्री कम रही, नापास हुआ लेकिन क्या पास हुए बगैर छुटकारा है?

प्रश्नकर्ता : आपको भगवान होने का मोह है क्या?

दादाश्री : मुझे तो भगवान बनना बहुत बोझ जैसा लगता है। मैं तो लघुतम पुरुष हूँ। इस दुनिया में मुझसे लघु कोई नहीं है, ऐसा लघुतम पुरुष हूँ। अर्थात् भगवान बनना मुझे बोझ लगता है, बल्कि शर्म आती है!

प्रश्नकर्ता : भगवान नहीं बनना है तो फिर यह चार डिग्री पूरी करने का पुरुषार्थ किसलिए करना है?

दादाश्री : वह तो मुझे मोक्ष में जाने के लिए। मुझे भगवान बनकर क्या करना है ? भगवान तो, जिनमें भी भगवत् गुण धारण हैं, वे सभी भगवान हैं। ‘भगवान’ शब्द विशेषण है। जो व्यक्ति उसके योग्य हो, तो लोग उसे भगवान कहते ही हैं।

यहाँ प्रकट हुए, चौदह लोक के नाथ
प्रश्नकर्ता : ‘दादा भगवान’ शब्द प्रयोग किसके लिए किया गया है?

दादाश्री : ‘दादा भगवान’ के लिए। मेरे लिए नहीं, मैं तो ज्ञानी पुरुष हूँ।

प्रश्नकर्ता : कौन से भगवान?

दादाश्री : ‘दादा भगवान’, जो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आपमें भी हैं, लेकिन आपमें प्रकट नहीं हुए हैं। आपमें अव्यक्त रूप से हैं और यहाँ व्यक्त हो चुके हैं। जो व्यक्त हुए हैं, वे फल दे सके ऐसे हैं। एकबार उनका नाम लेने से ही आपका काम हो जाए ऐसा है। लेकिन पहचानकर बोलेंगे तो कल्याण हो जाएगा और सांसारिक चीज़ों की जो अड़चनें होंगी वे भी दूर हो जाएँगी। लेकिन उनमें लोभ मत करना और लोभ करने गए तो अंत ही नहीं आएगा। आपकी समझ में आया, ‘दादा भगवान’ कौन हैं?

ये जो दिखाई देते हैं, वे ‘दादा भगवान’ नहीं हैं। ये जो दिखाई देते हैं, आप उन्हें ‘दादा भगवान’ समझते होंगे। नहीं? लेकिन यह दिखते हैं वे तो भादरण के पटेल हैं। मैं तो ‘ज्ञानी पुरुष’ हूँ और ‘दादा भगवान’ तो, जो भीतर बैठे हैं, भीतर प्रकट हुए हैं, वे हैं। चौदह लोक के नाथ प्रकट हुए हैं, उन्हें मैंने खुद देखा है, खुद अनुभव किया है। इसलिए मैं गारन्टी से कहता हूँ कि वे भीतर प्रकट हुए हैं।

और ये बातें कौन कर रहा है? ‘टेपरिकॉर्डर’ बातें कर रहा है। क्योंकि ‘दादा भगवान’ में बोलने की शक्ति नहीं है और ये ‘पटेल’ तो टेपरिकॉर्डर के आधार पर बोलते हैं। क्योंकि ‘भगवान’ और ‘पटेल’ दोनों अलग हो गए, इसलिए वहाँ पर अहंकार नहीं कर सकते। यह टेपरिकॉर्डर जो बोलता है, उसका मैं ज्ञाता-दृष्टा रहता हूँ। आपका भी टेपरिकॉर्डर बोलता है, लेकिन आपके मन में आपको ऐसा गर्वरस उत्पन्न होता है कि ‘मैं बोला’। बाकी, हमें भी दादा भगवान को नमस्कार करने पड़ते हैं। दादा भगवान के साथ हमारा जुदापन का ही व्यवहार है। व्यवहार ही जुदापन का है। लेकिन लोग ऐसा समझते हैं कि ये खुद ही दादा भगवान हैं। नहीं, खुद दादा भगवान कैसे हो सकते हैं? ये तो पटेल हैं, भादरण के।


(11) ‘अक्रम मार्ग’ खुला ही है

पीछे ज्ञानियों की वंशावली
हम हमारे पीछे ज्ञानियों की वंशावली छोड़ जाएँगे। हमारे उत्तराधिकारी छोड़ जाएँगे और उसके बाद ज्ञानियों की लिंक चलती रहेगी। अत: सजीवन मूर्ति खोजना। उसके बगैर हल आए ऐसा नहीं है।

मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करने वाला हूँ। मेरे बाद में कोई चाहिए या नहीं चाहिए? मेरे बाद लोगों को मार्ग तो चाहिए न?

जिसे जगत् स्वीकार करेगा, उसी का चलेगा
प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि मेरे पीछे चालीस-पचास हज़ार रोने वाले होंगे लेकिन शिष्य एक भी नहीं होगा। तो इससे आप क्या कहना चाहते हैं?

दादाश्री : मेरा कोई शिष्य नहीं होगा। यह कोई गद्दी नहीं है। गद्दी होगी तभी वारिस होगा न! कोई रिश्तेदार के रूप में वारिस बनने आएगा न! यहाँ तो जो कोई स्वीकार्य होगा, उसका चलेगा। जो सभी का शिष्य बनेगा, उसका काम होगा। यहाँ तो लोग जिसे स्वीकार करेंगे, उसी का चलेगा। जो लघुतम होगा, उसी को जगत् स्वीकार करेगा।


(12) आत्मदृष्टि होने के बाद...

आत्मप्राप्ति के लक्षण
‘ज्ञान’ मिलने से पहले आप चंदूलाल थे और अब ज्ञान लेने के बाद शुद्धात्मा बन गए, तो उसमें अनुभव में कुछ फर्क लगता है?

प्रश्नकर्ता : हाँ जी।

दादाश्री : ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ यह भान आपको कितने समय तक रहता है?

प्रश्नकर्ता : एकांत में अकेले बैठे होते हैं, तब।

दादाश्री : हाँ। फिर कौन सा भाव रहता है? आपको कभी ऐसा भाव होता है कि ‘मैं चंदूलाल हूँ?’ आपको रियली ‘मैं चंदूलाल हूँ’ ऐसा भाव कभी हुआ था?

प्रश्नकर्ता : ज्ञान लेने के बाद नहीं हुआ।

दादाश्री : तो फिर आप शुद्धात्मा ही हो। इंसान को एक ही भाव रह सकता है। यानी कि ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’, ऐसा आपको निरंतर रहता ही है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन कई बार व्यवहार में शुद्धात्मा का भान नहीं रहता।

दादाश्री : तो क्या ऐसा ध्यान रहता है कि ‘मैं चंदूलाल हूँ’? तीन घंटे शुद्धात्मा का ध्यान नहीं रहा और तीन घंटे के बाद पूछें, ‘आप चंदूलाल हो याशुद्धात्मा हो? तब क्या कहोगे?

प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा।

दादाश्री : यानी वह ध्यान था ही। कोई सेठ हो, और उसने शराब पी रखी हो तो उस समय उसका सारा ध्यान चला जाता है, लेकिन शराब का नशा उतर जाए तब...?

प्रश्नकर्ता : फिर जागृत हो जाएँगे।

दादाश्री : उसी प्रकार यह भी दूसरा, बाहर का असर है।

मैं पूछूँ कि वास्तव में ‘चंदूलाल’ हो या ‘शुद्धात्मा’ हो? तब आप कहते हो, कि ‘शुद्धात्मा’। दूसरे दिन आपसे पूछता हूँ कि ‘आप वास्तव में कौन हो?’ तब आप कहते हो कि ‘शुद्धात्मा’। पांच दिनों तक मैं पूछता रहूँ, इसके बाद मैं समझ जाता हूँ न कि आपकी चाबी मेरे पास है। उसके बाद अगर आप शिकायत करोगे तो भी मैं सुनूँगा नहीं। भले ही आप शिकायत करते रहो।

आया अपूर्व भान
इसे श्रीमद् राजचंद्र जी क्या कहते हैं कि, ‘‘सद्गुरुना उपदेशथी आव्युं अपूर्वभान, निजपद निजमांही लह्युं, दूर थयुं अज्ञान।’’ (सद्गुरु के उपदेश से आया अपूर्व भान, निजपद, निज मांही मिला, दूर भया अज्ञान।) पहले देहाध्यास का ही भान था। पहले हमें देहाध्यास रहित भान नहीं था। वह अपूर्व भान, आत्मा का वह भान हमें हो गया है। जो ‘खुद’ का निजपद था कि ‘मैं चंदूलाल हूँ’ ऐसा कहता था, अब वही ‘मैं’ निज में बैठ गया है। जो निज पद था, वह निज में बैठ गया और जो अज्ञान था, ‘मैं चंदूलाल हूँ’ वह अज्ञान दूर हो गया।

उसे कहते हैं देहाध्यास
जगत् देहाध्यास से मुक्त नहीं हो सकता और अपने स्वरूप में नहीं रह सकता। आप स्वरूप में रहे यानी अहंकार गया, ममता गई। ‘मैं चंदूलाल हूँ’ यह देहाध्यास कहलाता है और जब से ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा लक्ष बैठा (जागृति आई), तब से किसी तरह का अध्यास नहीं रहा। अब कुछ रहा नहीं है। फिर भी यदि भूलचूक हो जाए न, तो कुछ घुटन महसूस हो सकती है।

शुद्धात्मा पद शुद्ध ही
अत: यह ‘ज्ञान’ लेने के बाद पहले जो भ्राँति थी कि ‘मैं कर रहा हूँ’, वह भान टूट गया। यानी ‘शुद्ध ही हूँ’, ऐसा भान रहे, इसलिए ‘शुद्धात्मा’ कहा। किसी के साथ कुछ भी हो जाए, ‘चंदूलाल’ गालियाँ दे, फिर भी आप शुद्ध हो। फिर ‘हमें’ चंदूलाल से कहना चाहिए कि ‘भाई, किसी को दु:ख पहुँचे ऐसा अतिक्रमण क्यों करते हो? इसलिए प्रतिक्रमण करो’।

किसी को दु:ख पहुँचे ऐसा कुछ कह दिया हो तो उसे ‘अतिक्रमण करना’ कहा जाता है। तब उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए।

प्रतिक्रमण यानी जिस प्रकार आपकी समझ में आए, उस प्रकार उससे माफी माँगनी है। ऐसा दोष किया है, वह मेरी समझ में आ गया है और अब फिर से ऐसा दोष नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय करना चाहिए। ऐसा किया, वह गलत किया है, ऐसा नहीं होना चाहिए। फिर दोबारा ऐसा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना। फिर भी वापस हो जाए और वही दोष बार-बार हो जाए तो फिर से पछतावा करना। लेकिन जैसे ही दिखाई दें, उनका पछतावा करना तो उतने कम हो जाएँगे। इस तरह आखिर में धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : यानी (किसी भी) व्यक्ति के लिए प्रतिक्रमण किस तरह करने चाहिए?

दादाश्री : मन-वचन-काया, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म, (उस व्यक्ति का) नाम और उसके नाम की सर्व माया से, भिन्न ऐसे उसके शुद्धात्मा को याद करना, और फिर जो भी भूलें हुई हैं उन्हें याद करना (आलोचना), ‘उन भूलों के लिए मुझे पश्चाताप हो रहा है और उनके लिए मुझे क्षमा करना (प्रतिक्रमण), फिर से ऐसी भूलें नहीं होंगी ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ’, ऐसा तय करना (प्रत्याख्यान)। ‘आप’ खुद ‘चंदूलाल’ के ज्ञाता-दृष्टा रहना और जानना कि ‘चंदूलाल’ ने कितने प्रतिक्रमण किए, कितने सुंदर किए और कितनी बार किए।

प्रज्ञा भीतर से सचेत करती है
यह विज्ञान है इसलिए हमें इसका अनुभव होता है और भीतर से ही सचेत करता है। वहाँ (क्रमिक में) तो हमें करना पड़ता है जबकि यहाँ भीतर से ही सचेत करता है।

प्रश्नकर्ता : अब यह अनुभव हुआ है कि भीतर से चेतावनी मिलती है।

दादाश्री : अब हमें यह मार्ग मिल गया है और शुद्धात्मा की जो बाउन्ड्री (सीमा-रेखा) है, उसके पहले दरवाज़े में प्रवेश मिल गया है। जहाँ से कोई भी बाहर नहीं निकाल सकता। किसीको भी (हमें) वापस निकालने का अधिकार नहीं है, ऐसी जगह आपने प्रवेश पाया है!

बार-बार कौन सचेत करता है? प्रज्ञा! ‘ज्ञान’ प्राप्ति के बिना प्रज्ञा की शुरुआत नहीं हो सकती है। अगर समकित प्राप्त हुआ हो तो प्रज्ञा की शुरुआत होती है। समकित में प्रज्ञा की शुरुआत किस प्रकार होती है? दूज के चंद्रमा जैसी शुरुआत होती है, जबकि अपने यहाँ तो पूर्ण प्रज्ञा उत्पन्न हो जाती है। फुल (पूर्ण) प्रज्ञा यानी वह फिर मोक्ष में ले जाने के लिए ही सचेत करती है। भरत राजा को तो चेताने वाले रखने पड़े थे, नौकर रखने पड़े थे। जो हर पंद्रह मिनट में कहते थे कि ‘भरत राजा! चेत, चेत, चेत!’ तीन बार आवाज़ लगाते थे। देखो, आपको तो अंदर से ही प्रज्ञा सचेत करती है। प्रज्ञा निरंतर सचेत करती रहती है, कि ‘ऐ, ऐसे नहीं’। पूरे दिन सचेत करती रहती है और यही है आत्मा का अनुभव! निरंतर, पूरे दिन आत्मा का अनुभव।

भीतर अनुभव रहता ही है
जिस दिन हम ज्ञान देते हैं, उस रात का जो अनुभव है, वह जाता नहीं है। किस प्रकार जाए फिर? हमने जिस दिन ज्ञान दिया था न, उस रात का जो अनुभव था वह सदा के लिए है। लेकिन पुन: आपके कर्म घेर लेते हैं। पूर्वकर्म, जो भुगतने शेष हैं, वे ‘वसूली करने वाले’ घेर लेते हैं, उसमें मैं क्या करूँ?

प्रश्नकर्ता : दादाजी, लेकिन अब इतना भोगवटा (सुख या दु:ख का असर, भुगतना) नहीं लगता।

दादाश्री : नहीं, वह नहीं लगता है तो वह अलग बात है, लेकिन अगर वसूली करने वाले अधिक हों उसे अधिक घेर लेते हैं। पाँच वाले को पाँच, दो वाले को दो और बीस वाले को बीस। मैंने तो आपको शुद्धात्मा पद में बिठा दिया, लेकिन फिर जब अगले दिन से माँगने वाले आते हैं तब ज़रा सफोकेशन हो जाता है।

अब रहा क्या बाकी?
वह क्रमिक विज्ञान है और यह अक्रम विज्ञान है। यह ज्ञान तो वीतरागों का ही है। ज्ञान में अंतर नहीं है। हमारे ज्ञान देने के बाद आपको आत्म अनुभव हो जाता है तो क्या काम बाकी रहता है? ज्ञानी पुरुष की ‘आज्ञा’ का पालन करना है। ‘आज्ञा’ वही धर्म और ‘आज्ञा’ वही तप। और हमारी आज्ञा संसार (व्यवहार) में ज़रा सी भी बाधक नहीं होती। संसार में रहते हुए भी संसार स्पर्श न करे, ऐसा है यह अक्रम विज्ञान।

यदि एकावतारी बनना हो तो हमारे कहे अनुसार आज्ञा में चलो न! तो यह विज्ञान एकावतारी है। यह विज्ञान है फिर भी यहाँ से सीधे मोक्ष में जा पाएँ, ऐसा नहीं है।

मोक्षमार्ग में आज्ञा वही धर्म...
जिसे मोक्ष में जाना हो, उसे क्रियाओं की ज़रूरत नहीं है। जिसे देवगति में जाना हो, भौतिक सुखों की कामना हो, उसे क्रियाओं की ज़रूरत है। मोक्ष में जाना हो, उसे तो ज्ञान और ज्ञानी की आज्ञा, इन दोनों की ही ज़रूरत है।

मोक्षमार्ग में तप-त्याग कुछ भी नहीं करना होता। सिर्फ यदि ज्ञानी पुरुष मिल जाएँ तो ज्ञानी की आज्ञा वही धर्म और आज्ञा वही तप और वही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है, जिसका प्रत्यक्ष फल मोक्ष है।

‘ज्ञानी’ के पास पड़े रहना
ज्ञानी पर कभी भी प्रेमभाव नहीं आया और ज्ञानी पर प्रेमभाव आए न तभी से सारा हल आ जाएगा। हर एक जन्म में बीवी-बच्चों के अलावा और कुछ होता ही नहीं न!

भगवान ने कहा है कि ज्ञानी पुरुष के पास से समकित प्राप्त होने के बाद ज्ञानी पुरुष के पीछे पड़ना।

प्रश्नकर्ता : किस अर्थ में पीछे पड़ना?

दादाश्री : पीछे पड़ना यानी यह ज्ञान मिलने के बाद और कोई आराधना न रहे। लेकिन, यह तो हम जानते हैं कि यह अक्रम है। ये लोग अनगिनत ‘फाइलें’ लेकर आए हैं। इसलिए आपको फाइलों की खातिर मुक्त रखा है लेकिन उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि कार्य पूरा हो गया। आज कल फाइलें बहुत हैं, इसलिए अगर आपको मेरे यहाँ रखँू तो आपकी ‘फाइलें’ बुलाने आ जाएँगी। इसलिए छूट दी है कि घर जाकर फाइलों का समभाव से निकाल (निपटारा) करो। नहीं तो फिर ज्ञानी के पास ही पड़े रहना चाहिए।

बाकी, यह तो निरंतर रात-दिन खटकते रहना चाहिए कि हम पूर्ण रूप से लाभ नहीं ले पा रहे हैं। भले ही फाइलें हैं और ज्ञानी पुरुष ने कहा है न, आज्ञा दी है न कि ‘फाइलों का समभाव से निकाल करना’ वह आज्ञा वही धर्म है न ? वह तो हमारा धर्म है। लेकिन यह खटकते रहना तो चाहिए कि ऐसी फाइलें कम हों, ताकि मैं लाभ उठा पाऊँ।

उसके लिए तो महाविदेह क्षेत्र सामने आएगा
जिसे शुद्धात्मा का लक्ष (जागृति) बैठ गया है, वह यहाँ पर भरतक्षेत्र में रह ही नहीं सकता। जिसे आत्मा का लक्ष बैठ गया है, वह महाविदेह क्षेत्र में पहुँच ही जाएगा, ऐसा नियम है! यहाँ इस दुषमकाल में रह ही नहीं सकेगा। जिन्हें यह शुद्धात्मा का लक्ष बैठ गया है, वे महाविदेह क्षेत्र में एक जन्म अथवा दो जन्म लेकर, तीर्थंकर के दर्शन करके मोक्ष में चले जाएँगे, ऐसा आसान व सरल मार्ग है यह! हमारी आज्ञा में रहना। आज्ञा ही धर्म और आज्ञा ही तप! समभाव से निकाल करना होगा। वे जो आज्ञाएँ बताई हैं, उसमें जितना रह सको उतना रहो। यदि पूर्ण रूप से रह सके तो भगवान महावीर जैसी दशा में रह सकते हो! आप ‘रियल’ और ‘रिलेटिव’ देखते-देखते जाओ, आपका चित्त दूसरी जगह नहीं जाएगा, लेकिन उस समय मन में से कुछ निकले तो आप उलझन में पड़ जाते हो।


(13) पाँच आज्ञा की महत्ता

‘ज्ञान’ के बाद कौन सी साधना?
प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान के बाद अब किस प्रकार की साधना करनी चाहिए?

दादाश्री : साधना तो, इन पाँच आज्ञाओं का पालन करते हैं न, वही! अब और कोई साधना नहीं रहती। दूसरी साधना बंधनकर्ता है। ये पाँच आज्ञाएँ छुड़वाए ऐसी है।

समाधि बर्ताएँ, ऐसी आज्ञाएँ
प्रश्नकर्ता : अपनी जो पाँच आज्ञाएँ हैं, इनसे परे भी और कुछ है?

दादाश्री : पाँच आज्ञा आपके लिए एक बाड़ हैं, ताकि कोई आपके भीतर से माल न चुरा ले। यह बाड़ रखने से आपके भीतर, हमने जो दिया है वह एक्ज़ेक्ट, वही का वही रहेगा, और अगर बाड़ कमज़ोर हो गई तो कोई अंदर घुसकर बिगाड़ देगा। तब फिर मुझे रिपेयर करने आना पड़ेगा। अत: जब तक इन पाँच आज्ञाओं में रहोगे, तब तक निरंतर समाधि की हम गारन्टी देते हैं।

मैं पाँच वाक्य आपको प्रोटेक्शन के लिए देता हूँ। यह ज्ञान तो मैंने आपको दिया और ‘भेदज्ञान’ से ‘अलग’ भी किया। लेकिन अब वह ‘अलग’ ही रहे, इसलिए प्रोटेक्शन देता हूँ ताकि यह काल, जो कलियुग है, इस कलियुग वाले कहीं उसे लूट न लें। ‘बोधबीज’ उगने पर पानी वगैरह तो सब छिड़कना होगा न? बाड़ बनानी होगी या नहीं?

दृढ़ निश्चय ही करवाए पालन, आज्ञा का
दादा की आज्ञा का पालन करना है, यही सब से बड़ी चीज़ है। हमारी आज्ञा का पालन करने का निश्चय करना चाहिए। आपको यह नहीं देखना है कि आज्ञा का पालन हो रहा है या नहीं। आज्ञा का पालन जितना हो पाए उतना सही, लेकिन हमें निश्चय करना है कि आज्ञा का पालन करना है।

प्रश्नकर्ता : कम-ज़्यादा पालन हो, उसमें कोई दिक्कत नहीं है न?

दादाश्री : ‘दिक्कत नहीं है’, ऐसा नहीं। आपको निश्चय करना है कि आज्ञा का पालन करना ही है। सवेरे से ही निश्चय करना कि ‘पाँच आज्ञा में ही रहना है, पालन करना ही है’। जब से निश्चय करते हो, तभी से हमारी आज्ञा में आ जाते हो, मुझे बस इतना ही चाहिए। पालन नहीं हो पाता, उसके कॉज़ेज़ (कारण) मुझे मालूम हैं। हमें पालन करना है, ऐसा निश्चय ही करना है।

अपने ज्ञान से तो मोक्ष होने वाला ही है। यदि कोई आज्ञा में रहेगा न, तो उसका मोक्ष हो जाएगा, इसमें दो राय नहीं हैं। फिर यदि कोई पालन नहीं करे, लेकिन उसने ज्ञान लिया है न, तो कभी न कभी वह उगे बिना रहेगा नहीं। लोग मुझसे कहते हैं, ‘ज्ञान पाए हुए कुछ लोग आज्ञा का पालन नहीं करते हैं, उसका क्या?’ मैंने कहा, ‘तुझे यह देखने की ज़रूरत नहीं है, मुझे यह देखने की ज़रूरत है। मुझसे ज्ञान ले गए हैं न! तुझे घाटा तो नहीं हुआ न!’ क्योंकि (मुझसे ज्ञान लेने पर) पाप भस्मीभूत हुए बिना नहीं रहते। अंदर जगह खाली हो गई है। हमारे इन पाँच वाक्यों में रहोगे तो पहुँच पाओगे। हम निरंतर पाँच वाक्यों में ही रहते हैं और हम जिसमें रहते हैं, वही ‘दशा’ आपको दी है। आज्ञा में रहोगे तो काम होगा। खुद की समझ से लाख जन्म सिर फोड़ोगे तो भी कुछ नहीं होगा। ये तो आज्ञा भी खुद की अक़्ल से पालते हैं। फिर, आज्ञा को समझते भी अपनी समझ से ही हैं न! इसलिए वहाँ पर भी थोड़ा-थोड़ा लीकेज होता रहता है। फिर भी वह आज्ञा पालन करने के पीछे उनका अपना भाव तो ऐसा ही है कि ‘आज्ञा पालन करना ही है’। अत: जागृति रहनी चाहिए।

आज्ञा पालन करना भूल जाएँ तो प्रतिक्रमण करना। भूल तो सकता है, इंसान है। लेकिन भूल गए उसके लिए प्रतिक्रमण करना कि ‘हे दादा, ये दो घंटे भूल गया, आपकी आज्ञा भूल गया। लेकिन मुझे तो आज्ञा पालन करना ही है। मुझे क्षमा करें’। तो पिछला सारा माफ। सौ में से सौ मार्क पूरे। इसलिए जोखिमदारी नहीं रही। आज्ञा में आ जाएँ तो पूरा वल्र्ड उसे नहीं छू सकता। हमारी आज्ञा का पालन करो तो आपको कुछ भी स्पर्श नहीं करेगा। आज्ञा, देने वाले को स्पर्श करेगा? नहीं, क्योंकि परहेतु के लिए है, इसलिए उन्हें स्पर्श नहीं करेगा और डिज़ोल्व हो जाएगा।

ये तो हैं भगवान की आज्ञाएँ
दादा की आज्ञा का पालन करना अर्थात् ये आज्ञाएँ ‘ए.एम.पटेल’ की नहीं हैं। खुद ‘दादा भगवान’ की हैं, जो चौदह लोक के नाथ हैं, उनकी आज्ञाएँ हैं। इसकी गारन्टी देता हूँ। यह तो मेरे माध्यम से ये सब बातें निकली हैं। इसलिए आपको इन आज्ञाओं का पालन करना है। ‘मेरी आज्ञा’ नहीं है, ये दादा भगवान की आज्ञाएँ हैं। मैं भी भगवान की इन आज्ञाओं में रहता हूँ न!

जय सच्चिदानंद



जीवन का ध्येय
“यदि यह संसार आपको पुसाता (जंचता) हो तो आगे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है और यदि यह संसार आपको परेशान करता हो तो अध्यात्म जानने की जरूरत है। अध्यात्म में ‘स्व-रूप’ को जानने की जरूरत है। ‘मैं कौन हूँ.’ यह जानने पर सारे पज़ल सोल्व हो जाते हैं।” -दादाश्री