सर्व दुखों से मुक्ति - 2 Disha Jain द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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सर्व दुखों से मुक्ति - 2

व्यवहार की खास दो बातें
प्रश्नकर्ता : हर एक आदमी जो जन्म लेता है, उसका व्यवहार में कर्तव्य क्या है?

दादाश्री : यह जो पेड़ होता है, उसका कर्तव्य क्या है? वह अपने आप ही ज़मीन में से पानी पीता है और फल दूसरों को देता है। पेड़ को फिर आप कुछ बदले में देते हैं? ऐसे आप सारा दिन सब को सुख देना, किसी को दु:ख मत देना। फिर आपको सुख मिल जायेगा। और कुछ नहीं, इतना ही समझना है। अब दु:ख आये तो समझ लेना कि यह पीछे का अपना कोई हिसाब है, उससे आया है मगर अब तो दूसरे को सुख देने का व्यापार ही करना है।

बुद्घि का दुरुपयोग करोगे तो बाद में मेन्टल (पागल) हो जाओगे। जो सभी लोगों को फँसाता है, वह बुद्घि के दुरूपयोग के बिना कोई आदमी को फँसा नहीं सकता। आँख का दुरुपयोग हुआ तो फिर अगले जन्म में आँख नहीं मिलेगी। कम दुरुपयोग किया तो आँख मिलेगी मगर उसका दु:ख ही रहेगा और पूरा दर्शन नहीं होगा (पूरी दृष्टि नहीं होगी), ऐसे पूरा फायदा नहीं मिलेगा। हाथ का दुरुपयोग किया तो हाथ नहीं मिलेगा और वाणी का दुरुपयोग किया तो सारी वाणी ही चली जाएगी। सभी इन्द्रियों का सदुपयोग होना चाहिये।

दूसरी बात भगवान ने क्या कही है कि बिना हक़ की कोई चीज़ मत लो। बिना हक़ यानी कोई भी चीज़ जो तुम्हारी मालिकी की नहीं है, वहाँ तुम दृष्टि भी मत बिगाड़ो। ये लोग रास्ते में घूमते हैं तो कोई औरत अच्छी देखी कि उनकी दृष्टि बिगड़ जाती है। जो आदमी भगवान को मानता है, वह आदमी ऐसा तो नहीं होना चाहिये। क्योंकि वह औरत दूसरे की है। तुम्हारे लिए बिना हक़ की है, तुम्हारा हक़ नहीं है उस पर। मनुष्य में भी बुरे विचार आयें, तो मनुष्य में और पशु में क्या फर्क है? दृष्टि भी बुरी नहीं होनी चाहिये, मन भी बिगड़ना नहीं चाहिये। नहीं तो उसकी बहुत जोखिमदारी है। बिना हक़ का विषय भोगना नहीं चाहिये। कुरान में भी लिखा है कि भले चार बार शादी करो मगर दूसरे की औरत पर दृष्टि मत बिगाड़ो। दूसरे की औरत पर दृष्टि बिगाड़े तो उसे बिना हक़ का भोगना बोला जाता है। हमारी इतनी ही बात सब की समझ में आ जाए तो हिन्दुस्तान देवलोक जैसा हो जायेगा।

(केवल) हक़ का विषय भोगना चाहिये। बिना हक़ के विषय से बहुत नुकसान हो जाता है, सब का माइन्ड फ्रैक्चर हो जाता है। औरत का माइन्ड फैक्चर हो जाता है और पुरुष का माइंड भी फ्रैक्चर हो जाता है। अपने हक़ का विषय भुगतने में फीयर (डर) नहीं लगता और बिना हक़ में बहुत फीअर लगता है, विश्वासघात होता है। जो बिना हक़ का पैसा है, वह भी नहीं लेना चाहिये। कुदरत ने जो कुछ दिया है वह ही तुम्हारे हक़ का है, वही तुम्हारे लिए है। ये सब सेकंडरी स्टेज की बात कही। जो रियल की बात है, वह स्टेज तो बहुत ऊँचा है। वह रियल जानना हो और आपकी समझ में आ जायें तो हमें कोई हरकत नहीं है, हम वह भी बता देंगे। सब बता देंगे। ज्ञान भी दे देंगे और सेल्फ रियलाइज़ेशन (आत्मसाक्षात्कार) भी हो जायेगा।

मारने का अधिकार किसे?
जो क्रियेशन है, उसके अंदर भगवान नहीं है। क्रियेशन तो मैन मेड (मानव निर्मित) होता है। मैन मेड में भगवान नहीं है। क्रीचर्स (प्राणी) के अंदर भगवान हैं, वह ज़िम्मेदारी समझ लेना। क्रियेशन को तोड़ डालोगे, उसके मालिक को पूछकर,तो कोई पाप नहीं लगेगा। क्रीचर्स को मार डालेगा तो पाप लगेगा, क्योंकि अंदर भगवान बैठे हैं। ये बग्स (खटमल) होते हैं न, उन्हें कभी मारते हो?

प्रश्नकर्ता : उन्हें तो देखते ही मार देता हूँ।

दादाश्री : ऐसा! इतना ज़ोरदार आदमी(!!)

प्रश्नकर्ता : ऐसे बहुत सारे लोग हैं लेकिन यहाँ पर बैठने के बाद ऐसा नहीं बोलते कि मैं मारता हूँ।

दादाश्री : मगर ज़िम्मेदारी तो उनकी ही है न, मारने की? खटमल मारने से फिर खटमल काटते नहीं कभी? काटना बंद हो जाता है?

प्रश्नकर्ता : दूसरे आ जाते हैं।

दादाश्री : वे बड़े बड़े मज़बूत लोग भी जब नींद में होते हैं, तब ये खटमल उनके पास खाना खाते हैं (खून चूसते हैं)। नींद में सारी रात काटते हैं। वो जागने के बाद नहीं खाने देता। पर कोई खटमल भूखा नहीं रहता! उनकी खुराक ही ब्लड (खून) है। सब लोग सो गये कि वे सारी रात खाते हैं, तो फिर जागते हुए भी खाने दो न! होटल चालू रखो। मच्छर भी काटते हैं? उसका क्या करते हो?

प्रश्नकर्ता : मार देता हूँ।

दादाश्री : वह किसकी ज़िम्मेदारी है? कोई साइन्टिस्ट एक भी मच्छर बना नहीं सकता। एक मच्छर भी कोई बना सकता है?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तो फिर, जो चीज़ हम बना नहीं सकते, उसे मारने का अधिकार नहीं है। जो बना सकता है, उसी को ही तोड़ने का अधिकार है। पुलिस वाला अगर गाली देता है, तो क्या करते हो? उसे मारते हो?

प्रश्नकर्ता : उसके सामने तो चुप रहना ही पड़ता है।

दादाश्री : और बाघ के पास, शेर के पास क्या होता है?

सभी जीव के अंदर भगवान हैं, तो किसी भी जीव को तुम मारोगे क्या?

प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिये।

दादाश्री : हाँ, अपने से किसी भी जीव को दु:ख न हो, ऐसा करने का। छोटे से छोटा जीव हो तो भी उसे दु:ख नहीं हो ऐसे चलने का, ऐसे रहने का। घर में किसी को दु:ख देते हो? मदर (माताजी) को, फादर (पिताजी) को?

प्रश्नकर्ता : बिलकुल नहीं।

दादाश्री : तो फिर किसको दु:ख देते हो?

प्रश्नकर्ता : किसी को भी नहीं।

दादाश्री : और तुम्हें कोई दु:ख देता है? कौन देता है?

प्रश्नकर्ता : घर में कोई नहीं देता, मगर बाहर सब दु:ख देते हैं।

दादाश्री : सौ-दो सौ आदमी दु:ख देते हैं या दो-चार आदमी दु:ख देते हैं?

प्रश्नकर्ता : दो-चार।

दादाश्री : ओहोहोहो! इतनी बड़ी दुनिया में दो-चार का क्या हिसाब?! यहाँ पूरे रूम (कमरे) में मच्छर हों और सब मच्छर काटें तो ठीक बात है। (पर) ये तो दो-चार मच्छर काटें तो कौन सी बड़ी बात है?!

प्रश्नकर्ता : दो ही आदमी दु:ख देनेवाले हों तो भी बहुत होता  है।

दादाश्री : ऐसा? तुम किसी को दु:ख नहीं दोगे तो बाहर वाला कोई भी दु:ख नहीं देगा। तूने कभी किसी को दु:ख दिया था? दु:ख दिये बिना तो अपने को कोई दु:ख नहीं देता। हमें कोई दु:ख नहीं देता।

प्रश्नकर्ता : मुझे विश्वास है कि इस जन्म में मैंने किसी को दु:ख नहीं दिया, फिर भी लोग मुझे दु:ख देते हैं।

दादाश्री : हाँ, वह इस जन्म का नहीं होगा, तो वह पीछे का हिसाब होगा। इस जन्म के बही-खाते में नहीं मिलता है, यह पिछले बही-खाते (खाते) का है। मगर कुछ न कुछ तो होगा न? वो सब पीछे का बही-खाता चल सकता है अभी। तुम्हें बहुत दु:ख देता है? मारता-पीटता है? जेल में रख देता है? क्या दु:ख देता है? देखो, दु:ख तो किसे कहा जाता है कि कोई आदमी आपको खाना नहीं दे तो अपने को दु:ख है, सोने की जगह नहीं मिले तो दु:ख है, कपड़े पहनने को नहीं मिले तो दु:ख है। तो फिर तुम्हें क्या कपड़े पहनने को नहीं मिलते?

प्रश्नकर्ता : वह सब तो मिलता है।

दादाश्री : तो फिर क्या दु:ख है तुम्हें? तुम्हें जो दु:ख देता है, उसको हमारे पास ले आओ, तो हम बोल देंगे कि इसका क्या हिसाब है, इसका हिसाब पूरा कर दो, सब जमा कर दो, खाता बंद कर दो। ऐसा करोगे न? हाँ, बुला लो। हम उसका खाता पूरा करा देंगे। तो सब दु:ख पूरा हो जायेगा।

इधर आया है, हमें मिला है, तो उसके पास कोई दु:ख रहता ही नहीं।

सुख-दु:ख का वास्तविक स्वरूप
इस दुनिया में दु:ख है ही नहीं। मगर हर कोई आदमी दु:खी है, वह रोंग बिलीफ से दु:खी है। और सारा दिन क्या बोलता है, ‘मैं कितना दु:खी हूँ, मैं कितना दु:खी हूँ।’ उससे पूछो कि ‘आज खाने का चावल है? तेल है? सब कुछ है, तो तुम्हें कोई दु:ख नहीं है।’ मगर वाइफ (पत्नी) के साथ झगड़ा करता है, लड़के के साथ झगड़ा करता है और दु:खी होता है।

दुनिया का कायदा क्या है? आपको अगले जन्म में क्या क्या चाहिये, उसका टेंडर भरो। क्योंकि आपका ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ) कोई नहीं है। जो है वह आप खुद ही हैं। मगर आप जिस माइल पर हैं, उस माइल की चीज़ ही आपको मिलेगी, दूसरे माइल की चीज़ नहीं मिलेगी! आप 97 माइल पर हैं तो 97 माइल पर जो कुछ आपको चाहिये, वह बोल दो, तो आप बता देंगे कि ‘हमें रहने का मकान भी चाहिये, तीन रूम चाहिये।’ वो सब लिख लिया। फिर उतनी ही चीज़ आपको मिलती है। तो फिर दु:ख कैसे होता है? कि हमारे पास तीन रूम (कमरे) हैं और हमारे फ्रेन्ड (मित्र) के पास नौ रूम हैं। यह दु:ख की शुरूआत हो गई, बिगिनिंग ऑफ मिज़री और टेंडर में सिर्फ पत्नीलिखी थी, मगर पूर्ति के समय सास-ससुर, साला-साली, वे सभी साथ आयेंगे। आपकी समझ में आया न? एक औरत के लिए कितनी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है।

प्रश्नकर्ता : इस संसार में प्राणी दु:खी क्यों हैं? इसका निदान क्या है? इससे छुटकारा किस तरह मिले?

दादाश्री : किसी भी प्राणी को जो दु:ख है, तो वह उसकी अज्ञानता से है। चार आदमी इस रास्ते के बदले उस रास्ते पर चले गये तो उनको दु:ख होता है या नहीं? बस, ऐसा ही दु:ख है। अज्ञानता से दु:ख है और ज्ञान से सुख है। अज्ञानता से माया का अपने पर राज हो जाता है और ज्ञान से भगवान का राज हो जाता है।

एक बड़ा सेठ है, उसने दारू नहीं पिया तब तक तो कैसी अच्छी बातें करता है। फिर दारू की एक बोतल पी ली, तो कोई अलग ही बातें बोलता है। वह कौन सी शक्ति काम करती है?

प्रश्नकर्ता : दारू काम करती है।

दादाश्री : तो यह जगत् भी दारू से चलता है, मगर ये मोह रूपी ब्रांडी (दारू) से चल रहा है। मनुष्य का मोह चला जाये, तो समाधि हो जाती है।

प्रश्नकर्ता : ट्रेन से आते वक्त प्लेटफोर्म पर एक अंधे को देखा, तब मेरे मन में हुआ कि दुनिया में सब दु:खी हैं।

दादाश्री : जगत् में दो प्रकार के अंधे मनुष्य हैं। एक तो अंधा जैसा आपने देखा था, जिसकी आँखे नहीं थी और अंधा हो गया था और दूसरे, इस वर्ल्ड में जो सब लोग हैं, वे भी अंधे हैं। आँख से अंधा है, वह अपना खुद का नुकसान नहीं करता है और ये दूसरे लोग अपना खुद का सारा दिन नुकसान ही करते रहते हैं। वे भगवान की भाषा में आँख से देखते हुए भी अंधे हैं।

भगवान की तो एक ही भाषा है और लोगों की सबकी अलग-अलग भाषा है। तुम औरत को डिवोर्स दोगे और दूसरा कहता है कि हमें औरत चाहिये। तुम्हारी लैंग्वेज (भाषा) में वह औरत बहुत बुरी है और दूसरे की लैंग्वेज में वह बहुत अच्छी है। मगर भगवान की भाषा में वे दोनों बातें गलत हैं। यह लोगों की भाषा की बात है।

दुनिया में दु:ख है ही नहीं। मगर अंधा है, इससे दु:ख लगता है। जब धीरे-धीरे आँखें खुलती है, तब थोड़ा-थोड़ा सुख लगता है। फिर जब पूरी आँख खुलती है तो दु:ख है ही नहीं दुनिया में। दुनिया में दु:ख होता ही नहीं कभी। सारे दु:ख अपनी अपनी ‘भाषा’ में है। अगर अंधा नहीं होता, तो दु:ख ही नहीं। इसलिए वीतराग भगवान ने बोला था कि समकित कर लो। समकित होने पर थोड़ी थोड़ी आँखे खुलेगी और थोड़ा थोड़ा सुख बढ़ेगा। पूरी आँखें खुल गईं कि मोक्ष हो गया।

रोंग बिलीफ को मिथ्या दर्शन बोलते हैं और राइट बिलीफ को सम्यक् दर्शन बोलते हैं। मिथ्या दर्शन से भौतिक सुख मिलता है। वह आरोपित सुख है, सच्चा सुख नहीं है। सच्चा सुख आत्मा में है। मगर यह क्या कहता है कि इस जलेबी में सुख है। जलेबी में सुख है ही नहीं। मगर कुछ लोग बोलेंगे कि जलेबी में सुख है और दूसरे लोग बोलेंगे कि जलेबी हमें पसंद नहीं है। कुछ लोग जलेबी को हाथ भी नहीं लगाते। यह तो जैसा भाव किया ऐसा अंदर से ही सुख निकलता है। आत्मा का सुख आरोपित करता है कि जलेबी में सुख है, फिर जलेबी खाता है तो उसको अच्छा लगता है। हम तो पूरी ज़िंदगी में एक घड़ी भी नहीं लाये। क्योंकि इसमें क्या सुख है? सुख तो आत्मा के अंदर है। वह स्वतंत्र सुख है। हमें जेल में ले जायें तो भी हमें अच्छा लगेगा कि हम घर पर होते हैं, तो दरवाजा भी हमें खुद ही बंद करना पड़ता है, इधर तो पुलिस वाला दरवाजा बंद करेगा। हमारा तो फायदा ही है। ऐसी दृष्टि बदल गयी तो कोई परेशानी है फिर? परेशानी सब लौकिक दृष्टि से है। वह लौकिक दृष्टि सब रोंग बिलीफ है। सब लोग जिसमें सुख मानते हैं, उसमें आप भी सुख मानते हैं, वो रोंग बिलीफ है। सब लोग जिसमें सुख मानते हैं, मगर उसमें से सुख तो मिलता ही नहीं और वह आरोपित भाव ही है। उस सुख के पीछे फिर दु:ख आता है। आपने दु:ख देखा है कभी? हमने पच्चीस साल से कभी दु:ख नहीं देखा है। सुख भी नहीं, दु:ख भी नहीं, हमें तो निरंतर परमानंद है। सुख और दु:ख है, वह तो वेदना है। जिसे आम पसंद है, वह आम खायेगा तो उसे ठंडक हो जाती है। वह शाता (सुख परिणाम) वेदनीय है और जिसे आम पसंद नहीं है, यदि उसे आम खिलायेंगे तो उसे अशाता (दु:ख परिणाम) होती है। यह अशाता वेदनीय है। यह वेदनीय सच्चा सुख नहीं है। वह सच्चा सुख तो सनातन सुख है।

जैसे मछ़ली तड़पती है, ऐसे सारा दिन पूरी दुनिया तड़प रही है। चिंता हो गयी तो फिर वह रिलेटिव एडजस्टमेन्ट करता है। नहीं तो दूसरी क्या मेडिसिन (दवा) लगायें? सिनेमा में चलो। लेकिन इनको मालूम नहीं है कि इस दवा से क्या फायदा है? इससे तो वह अधोगति में जायेगा। अंदर खराबी हो गई, चिंता हो गई, उस समय यदि कुछ योग में बैठ गया, भजन में बैठ गया और नहीं पसंद हो तो भी स्ट्रोंग रहा तो वो ऊपर चढ़ता है। जो पसंद है, वहाँ मूर्छित होता है और वह नीचे चला जाता है। ऐसे सिनेमा जाने से नीचे ही चला जायेगा। ‘नहीं पसंद आता’ वह सब आत्मा का विटामिन है मगर उसका खयाल नहीं है।

एक सेकन्ड भी क्लेश करने के लिए यह वर्ल्ड (जगत्)नहीं है। जो हो रहा है वह न्याय ही हो रहा है। कोर्ट का न्याय तो पक्षपाती होता है, गलत भी होता है। मगर कुदरत का न्याय तो दरअसल न्याय ही होता है। जो दिव्यचक्षु से देख रहे हैं, उनको बिल्कुल करेक्ट (सही) दिखाई देता है। मगर जिसके पास वह दृष्टि नहीं, उसकी समझ में नहीं आयेगा, तब तक वह दु:खी ही होता रहेगा।

केवल रियल व्यू पोइन्ट नहीं चलेगा, रिलेटिव व्यू पोइन्ट पहले चाहिये। दु:ख रिलेटिव में है और पूरी दुनिया ही दु:खी है। रियल में दु:ख नहीं है। रियल में दृष्टि मिल गई, फिर कोई दु:ख नहीं है। मगर अभी तक दृष्टि रिलेटिव में ही है। हम आपकी रिलेटिव दृष्टि को रियल कर देंगे, तो फिर आपको आनंद ही रहेगा। मात्र दृष्टि का फर्क है। हम यह साइड देखते हैं, आप वह साइड देखते हैं।

जहाँ सच्चिदानंद है, वहाँ कुछ भी दु:ख नहीं है और दु:ख है वहाँ सच्चिदानंद नहीं है।

प्रश्नकर्ता : अब मैं मानता हूँ कि दु:ख है ही नहीं।

दादाश्री : हाँ, दु:ख तो है ही नहीं। दु:ख तो सिर्फ रोंग बिलीफ ही है। जिसे रोंग बिलीफ है, वहाँ दु:ख है। जिसे रोंग बिलीफ नहीं, वहाँ दु:ख ही नहीं है।

प्रश्नकर्ता : आध्यात्मिक दृष्टि से तो दु:ख है ही नहीं।

दादाश्री : हाँ, मगर ऐसी बात बोलने से तो नहीं चलेगा। अध्यात्म में तो कुछ दु:ख ही नहीं है लेकिन ऐसा व्यवहार में नही चलेगा। हर एक आदमी को दु:ख होता है, यह फैक्ट (सच) बात है और ‘ज्ञानी पुरुष’ को तो आधि, व्याधि और उपाधि में भी समाधि रहती है, यह भी फैक्ट बात है। आपको कभी दु:ख हुआ है?

प्रश्नकर्ता : मैं मान रहा हूँ कि अध्यात्म में दु:ख है ही नहीं।

दादाश्री : वह तो आपकी मान्यता से है, आपकी बिलीफ में ऐसा है कि दु:ख है ही नहीं। मगर आपको तो दु:ख है या नहीं?

प्रश्नकर्ता : वह तो वेदना है।

दादाश्री : वेदना? तो वेदना ही दु:ख है।

प्रश्नकर्ता : दु:ख मन को होगा, वेदना शरीर को होगी।

दादाश्री : नहीं, वेदना मन को ही होती है। शरीर को भी वेदना होती है। मगर वेदना क्यों कहा? कि मन है इसलिए वेदना कहा, मन नहीं होता तो वेदना नहीं होती थी। मन को ही वेदना होती है।

सारा जगत् अंधश्रद्घा पर चलता है। यह पानी पीते हैं, तो उसमें किसी ने पोइज़न (ज़हर) नहीं डाला उसकी क्या गारन्टी है? मगर अंधश्रद्घा से पानी पीते हैं न?! ये खाना खाते हैं, उसमें क्या डाला है, उसकी क्या कुछ गारन्टी है? मगर जगत् में सब अंधश्रद्घा पर ही रहते हैं।

प्रश्नकर्ता : श्रद्घा के बल पर हमारे दु:ख हम भूल सकते हैं या नहीं?

दादाश्री : श्रद्घा दो प्रकार की है - एक रोंग बिलीफ है और एक राइट बिलीफ है। आपको रोंग बिलीफ की श्रद्घा से कुछ फायदा नहीं मिलेगा। थोड़ी देर शांति रहेगी, मगर पूरा फायदा नहीं मिलेगा, प्रोब्लम सोल्व नहीं हो जायेगा। आपका नाम क्या है?

प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र।

दादाश्री : क्या आप सचमुच रविन्द्र हैं? आप रविन्द्र हैं वह सच बात हैं?

प्रश्नकर्ता : हमें तो सच लगता है।

दादाश्री : यह तो आपका नाम है, यह पहचान के लिए है, मगर आप कौन हैं?

प्रश्नकर्ता : यह पहचानने की कहाँ ताकत (क्षमता) है?

दादाश्री : उसें पहचानने की ज़रूरत है। आप रवीन्द्र हैं, यह हम भी मानते हैं, वह पहचान के लिए है। मगर आपको ऐसी श्रद्घा हो गई है कि मैं रवीन्द्र ही हूँ। यह रोंग बिलीफ है।

प्रश्नकर्ता : तो सही बिलीफ क्या है?

दादाश्री : वह सही बिलीफ ‘ज्ञानी पुरुष’ दे देते हैं। सब रोंग बिलीफ फ्रेक्चर करते हैं और राइट बिलीफ दे देते हैं।

खुद का स्वरूप जान लिया, फिर बिलकुल शांति रहती है। जहाँ तक यह नहीं जाना, वहाँ तक दु:ख है। ‘ज्ञानी पुरुष’ की कृपा से खुद की पहचान हो सकती है। फिर सब दु:ख चले जाते हैं। आसपास दु:ख हो, उसमें भी समाधि रहे, उसका नाम वीतराग विज्ञान। कोई गाली दे तो भी सुख नहीं जाता। और इस संसार के सब लोग क्या करते हैं? किसी ने गाली दी तो बर्दाश्त कर लेते हैं। लेकिन जब खुद की पहचान हो गयी, तो फिर कुछ बर्दाश्त नहीं करना पड़ता। इतना आनंद होता है कि फिर कुछ दु:ख स्पर्श करता ही नहीं।

सुख प्राप्ति के कारण
किसी भी आदमी को परेशान नहीं करना चाहिये। मानवधर्म तो होना चाहिये न? मानवधर्म क्या कहता है कि आपको सुख कब मिलेगा? जब आप दूसरों को सुख देंगे तो आपको सुख मिलेगा। दूसरों को जब दु:ख देंगे तो आपको दु:ख मिलेगा। इसलिए सब को सुख दें। इसमें फर्स्ट प्रिफरेंस मनुष्य हैं। वही मानवधर्म है। इससे आगे भी धर्म है, वह लास्ट (अंतिम) धर्म है। उसमें मन में भी हिंसा नहीं होनी चाहिये।

एक आदमी रोड़ पर चल रहा है और सामने से एक स्कूटर वाला आया और टकरा गया, एक्सिडेन्ट हुआ। रास्ते पर जाने वाले लोग हैं, उन्हें अंदर दु:ख हो जायेगा, तो कोई आदमी तो अपनी धोती फाड़कर उसको बांध देता है। सौ रुपये की धोती है, मगर उस समय हिसाब नहीं देखता कि मैं क्या कर रहा हूँ। जब धोती फाड़कर बांधेगा, तब उसे आनंद होता है। धोती फाड़ दी, उसका बदला उसी समय मिल जाता है। क्योंकि तुम्हारी जो चीज़ है, वह दूसरे के लिए दी, उससे आनंद ही होता है। खुद के लिए लगाने पर आनंद नहीं होता है।

हमारी लाइफ ऐसे पहले से ही दूसरों के लिए ही है। हमने कभी हमारे लिए कुछ किया ही नहीं। तो हमें कितना आनंद होता होगा! उस समय हमें ज्ञान नहीं था, तो भी हम क्या करते थे कि ‘भई, आपको क्या तकलीफ है? आपको क्या तकलीफ है?’ ऐसा सब को पूछते थे और हेल्प करते थे।

प्रश्नकर्ता : भूतकाल भुलाया नहीं जाता तो क्या करना?

दादाश्री : भूतकाल, Past time gone for ever! Don't worry for past time! जो भूतकाल हो गया, उसके लिए तो कोई फूलिश (मूर्ख) आदमी भी नहीं सोचता। तो भूतकाल गोन, वह सोचने का नहीं और भविष्यकाल ‘व्यवस्थित’ के ताबे में है। तो हमें क्या करने का? वर्तमान में रहने का। अभी हम इधर आये न, तो हम तुम्हारे साथ बात करते हैं, उसे आराम से सुनना। दूसरी किसी भी चीज़ की तलाश नहीं करना। ऐसे वर्तमान में रहने का।

अंग्रेजी में जो बोलते हैं कि ‘work while you work & play while you play’. तो वहाँ फॉरेन में कई लोगों को ऐसा रहता है और इधर किसी आदमी को ऐसा नहीं रहता, क्योंकि यहाँ विकल्पी लोग हैं।

जिसके हाथ में वर्तमान आ गया, उसे भगवान से भी ऊँचा पद कहा जाता है।

क्या आपको दु:ख है?
प्रश्नकर्ता : हमने बड़ी प्रामाणिकता से नौकरी की है, फिर भी आजकल हमारे सिर पर परेशानियाँ बहुत हैं, कभी कभी रात को नींद भी नहीं आती। आप कुछ रास्ता दिखाइये।

दादाश्री : अरे, किसलिए परेशानियोंकी चिंता रखकर फिरते हो? सारी दुनिया की परेशानियाँ सिर पर रख लीं, यह तो ओवरवाइज़नेस है। Come to the wiseness!! और बोलो कि ‘हमें कोई तकलीफ नहीं। हमारे जैसा कोई सुखी आदमी नहीं है।’ रात को थोड़ी खिचड़ी और थोड़ी सब्जीमिली तो फिर सारी रात चैन से सो पायेंगे। आपने प्रामाणिकता से सर्विस की है, फिर आपके पास भगवान का सर्टिफिकेट है, नहीं तो इस काल में ऐसा सर्टिफिकेट कहाँ से लायें। देखो न, फिर भी सिर पर कितना बोझ लेकर फिरते हो! अब घर जा कर औरत को, बच्चों को बोल दो कि, ‘अपने को भगवान ने बहुत दिया है और अपने को बहुत सुख है।’ ऐसा बोलकर सब साथ में आराम से चाय पिओ। ये दुनिया अपनी ही है!!

कहाँ से ऐसा ज्ञान लाये? यह ओवरवाइज का ज्ञान आप कहाँ से लायें? सारे गाँव की चिंता लेकरफिरते हो!! किसलिए बुद्घि चलाते हो? बुद्घि के कहने पर चलोगे तो एक दिन बुद्घू हो जाओगे। जितने लोग बुद्घि को डेवेलप करने गये कि सब बुद्घू हो गये। बुद्घि तो लाइट (प्रकाश) है मात्र। लाइट से काम लेने का है। हम ज्ञानी होकरभी हमारे पास बुद्घि बिलकुल नहीं है, हम अबुध हैं और तुम तो बुद्घि चलाते हो, उसको डेवेलप करते हो। बुद्धि को ज़्यादा डेवेलप मत करो, नहीं तो बुद्धू हो जाओगे। बुद्घि तो अंदर बोले कि, ‘अपने को फ्लेट नहीं देगा, तो क्या होगा?’ इसमें क्या होने वाला है?! तुम्हारे फ्लेट में वह रहता है, तो वह उसकी मर्ज़ी की बात है? उसको संडास (पाखाना) जाने की शक्ति भी नहीं है। तो रहने वाला क्या करेगा? वह भी कर्म का गुलाम है। इस संसार में किसी का गुनाह नहीं है। जिसको अड़चन आती है, उसका गुनाह है। आपको परेशानी हुई तो वह आपका गुनाह है। इसमें आपका पाप है और सामनेवाले का गुनाह नहीं है, उसका पुण्य है। आज शाम को खाना तो मिल जायेगा न? आपको खाने-पीने की तकलीफ नहीं है न? वह मिल गया तो बहुत हो गया, आज तो हम दिल्ली के बादशाह हैं। कल की बात कल देखी जायेगी। कल यदि नींद से जागे और बिस्तर में से उठे तो समझ लेना कि आज का दिन मिल गया। दूसरा आगे का विचार ही नहीं करने का। भगवान क्या बोलते हैं, ‘मैं उसके लिए सोचता हूँ और यह अपने खुद के लिए सोचता है, तो फिर मैं छोड़ देता हूँ।’ भगवान के पास बच्चे की तरह रहना चाहिये। अपने हाथ में लगाम नहीं लेने की। और बुद्घि को बोलो कि, ‘अब तुम्हारी बात हम सुनने वाले नहीं। हमें तुम्हारी सलाह पसंद नहीं आती है,’ ऐसा बुद्घि का इन्सल्ट (अपमान) कर देने का। जो बुरी बात बताती है, जिसके साथ ठीक नहीं लगे तो उसका इन्सल्ट कर देने का। अपने पास कोई दु:ख ही नहीं है, दु:ख आने वाला भी नहीं। सिर्फ भड़कता ही रहता है कि ऐसा हो जायेगा, वैसा हो जायेगा। अरे, कुछ भी होने वाला नहीं, हम तो मालिक हैं। मालिक को क्या होने वाला है?

सुख भी क़ीमती है और दु:ख भी क़ीमती है। मुफ्त में तो किसी को सुख भी नहीं मिलता है और दु:ख भी नहीं मिलता है। दु:ख की क़ीमत देनी पड़ती है फिर दु:ख मिलता है। हमने क़ीमत भरी नहीं है, इसलिए हमें दु:ख आता नहीं है। ये क्रोध, मान, माया, लोभ सब आपके पास तैयार हैं, इसलिए तुम वे भर देते हो, हमारे पास ये कुछ नहीं है। हमें तो ये सुख भी नहीं चाहिये और दु:ख भी नहीं चाहिये। ये सब कल्पित हैं। वह तो कल्पना की है आपने। कोई आदमी बोले कि हमें लड्डू ठीक नहीं लगता है, तो उसको अच्छा नहीं लगेगा। और तुम्हें लड्डू ठीक लगता है, तो तुम्हें अच्छा लगेगा। तुमने कल्पना की तो तुम्हें अच्छा लगता है। आपने आत्मा का आनंद इसमें डाला, तो फिर आनंद लगा। किसी चीज़ में जो आनंद होता नहीं है, वो तो आपने कल्पना की, उसकी करामात है। बाहर की किसी भी चीज़ में आनंद नहीं है। आनंद तो, अपने खुद के अंदर ही है। खुद के स्वरूप में ही आनंद है।

रियली स्पीकिंग (वास्तव में), इस दुनिया में दु:ख और सुख नहीं है। ‘हमें यह दु:ख है, वह दु:ख है’ वह सब By relative view point से है, सिर्फ कल्पना है। आप बोलें कि, ‘हम पैसे की रिश्वत नहीं लेते।’ इसमें ही हमें सुख है। और दूसरा कहता है कि ‘पैसे की रिश्वत लेने में हमें सुख है।’ वो Relative view point है, not Real view point!

जब तक भौतिक सुख प्रिय है, तब तक भगवान नहीं मिलते हैं। हमें भौतिक सुख नहीं चाहिये, ऐसा यदि तय कर लिया तो भगवान मिल जाते हैं। हम भी खाते-पीते हैं मगर हमको नहीं चाहिये, फिर भी ऐसे ही आ जाता है। हमें अपना खुद का सुख मिला, फिर ओर क्या चाहिये? खुद का बहुत सुख आ जाये, उसे सनातन सुख बोला जाता है। अतीन्द्रिय सुख का किंचित्मात्र टेस्ट (स्वाद) कर लिया तो दूसरा सब इन्द्रिय सुख फीका लगेगा। अतीन्द्रिय सुख नहीं मिले, तब तक इन्द्रिय सुख अच्छा लगता है। इन्द्रिय सुख रिलेटिव सुख है।

सच्चा सुख किसे कहा जाता है कि जो सनातन है। एक बार आया तो फिर कभी जाता ही नहीं। हम अभी आधि में हैं, व्याधि में हैं कि उपाधि में हैं?

प्रश्नकर्ता :
ऐसा कहा जाता है कि संसारी आदमी आधि, व्याधि और उपाधि से घिरा हुआ है।

दादाश्री : हाँ, तो हम किस में हैं? आपको क्या लगता है? हम निरंतर समाधि में रहते हैं। कोई गाली दे तो भी हमारी समाधि नहीं जाती और कोई फूल चढ़ाये तो भी हमारी समाधि नहीं जाती। आपको तो फूल चढ़ायें, गाली दे तो समाधि चली जायेगी। आपको कोई पैर में गिरकर दर्शन करने आयेगा तो आप घबरा जाओगे। आप मान भी पचा नहीं सकते और अपमान भी पचा नहीं सकते। हमें तो मान मिले तो भी हरकत नहीं और अपमान मिले तो भी हरकत नहीं है। हमारे यहाँ वैल्यूएशन का डिवैल्यूएशन हो गया है। सब जगह अपमान की डिवैल्यूएशन थी, तो हमने उसका वैल्यूएशन कर दिया और मान की वैल्यूएशन थी, उसका डिवैल्यूएशन कर दिया। दोनों को नॉर्मल कर दिया।

ऊर्ध्वगति के Laws
प्रश्नकर्ता : ज़िंदगी में त्रास है और पीड़ा से परेशान हूँ, उसका कोई मार्ग चाहिये।

दादाश्री : परेशानी अच्छी नहीं लगती?

प्रश्नकर्ता : परेशानी से तो आदमी को अक्ल आती है, नहीं तो अक्ल कभी नहीं आये।

दादाश्री : हाँ, तो परेशानी आपके पास रखें। क्यों फेंक देते हो? आपको परेशानी पसंद है? परेशानी मार्ग पर रहना या तो शांति मार्ग पर रहना। दो मार्ग हैं। शांति में परेशानी नहीं रहती। आपको कौन सा मार्ग पसंद है?

प्रश्नकर्ता : हमें तो शांति मार्ग ही पसंद है। लेकिन इस समय परेशानी है।

दादाश्री : हाँ, तो परेशानी का उपाय है। मगर फिर शांति का मार्ग अपने हाथ में आ जाता है। शांति मार्ग और परेशानी मार्ग, दोनों का मिक्स्चर मत करना। मिक्स्चर करोगे तो आपको फायदा नहीं मिलेगा।

प्रश्नकर्ता : एक ही मार्ग शांति का रखूँगा।

दादाश्री : वह ठीक बात है।

प्रश्नकर्ता :
मगर जो भलाई करता है, उसके पर ही ज़्यादा परेशानियाँ, ज़्यादा दु:ख आता है। ऐसा क्यों?

दादाश्री : जो भलाई करता है, उधर परेशानी का फर्स्ट प्रिफरेंस है और जो चोर है, बदमाश है, उसके लिए परेशानी का प्रिफरेंस नहीं है।

कुदरत का काम कैसा है? कुदरत क्या कहती है कि जो अधोगति में जाने वाला है, उसे हेल्प करो और जो ऊर्ध्वगति में जाने वाला है, उसे पकड़ा दो। चोर ने गुनाह किया है और अधोगति में जाने वाला है, इसलिए उसे कुदरत नहीं पकड़वाती। स्ट्रेट फोरवार्ड (सीधे) आदमी को कुदरत पकड़वा देती है।

प्रश्नकर्ता : वह जो तकलीफ है, वह सिर्फ मेरे लिए सीमित रहे, लिमिटेड रहे तो ठीक है, लेकिन उससे मेरे बाल-बच्चे को, सब को परेशानी होती है, तो इसका यह तो मतलब नहीं कि कुदरत हम सब को ऊर्ध्वगति में ले जाना चाहती है?

दादाश्री :
हाँ, पूरी फैमिली (परिवार) ऊर्ध्वगति में जाने वाली है। ऊर्ध्वगति में जाने वाले को इस संसार में राग नहीं हो, ऐसी चीज़ें मिलती हैं। उसे पसंद नहीं हो, ऐसा होता है। अधोगति में जाने वाले का मोह ज़्यादा बढ़ता है और ऊर्ध्वगति में जाने वाले का मोह टूट जाता है। जैसे जिसका लड़का अच्छा हो, लड़की अच्छी हो, तो वह भगवान का नाम भूल जाता है।

प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसा नहीं है। अच्छे लड़के-लड़की वाले भी भगवान का नाम लेते हैं।

दादाश्री :
मगर इसमें मोह ज़्यादा बढ़ता है। ‘यह हमारा लड़का ऐसा है, यह हमारी लड़की ऐसी है’, ऐसा उसे मोह होता है। कुदरत का नियम क्या है कि जिसे ऊर्ध्वगति में ले जाने का है, उसे हेल्प करती है।

प्रश्नकर्ता : वह कैसे?

दादाश्री : राग न हो ऐसी चीज़ देती है कि जिससे यह संसार अच्छा नहीं है, ऐसी उसे बिलीफ हो जाती है। जिसे अधोगति में जाने का है, उसे तो इस संसार में इधर बहुत आनंद है कि मेरा लड़का भी अच्छा है, ये मकान भी अच्छा है, पैसा भी बहुत है।

प्रश्नकर्ता :
हमारे पास के जो लोग हैं, उनका नया धंधा है, उनको कमाई बहुत है, घर अच्छा है, सब मज़े में हैं और हमारे पास अगर कोई आये, तो उनको बिठाने के लिए ठीक सा आसन तक नहीं है, तो हमें शर्म महसूस होती है।

दादाश्री :
ऐसी कोई ज़रूरत नहीं। हमारा बड़ौदा में घर है, वहाँ हमारा बैठने का रूम 10x12 का है। हम ठेकेदारी का धंधा करते हैं, बहुत बड़ा धंधा करते हैं लेकिन हमारे यहाँ सोफासेट भी नहीं है। कहाँ से लायें वह? वह सच्चे पैसे से नहीं होता है। हमारी कंपनी बहुत कमाती है लेकिन घर में हम छ: सौ-सात सौ रुपये ही देते हैं।

हमारे पास एक बड़े जज आये थे। उनकी पत्नी उन्हें क्या कहती थी कि, ‘तुम्हारे फ्रेन्ड सर्कल में सब ने बंगला बना लिया है और हमें भाड़े के मकान में रहना पड़ता है।’ वह मुझ से पूछने लगे कि ‘मेरी पत्नी ऐसा कहती है, क्या करना चाहिये?’ उनकी पत्नी कहती है कि मकान क्यों नहीं बनाया? तो उसके मन में क्या आता है? ‘रिश्वत तो लेनी चाहिये’। ऐसे बिलीफ बदलती है। उसके सभी फ्रेन्ड्स रिश्वत लेते थे मगर वो कभी रिश्वत नहीं लेता था। तो हमने कहा, ‘तुम्हारी बिलीफ नहीं बदलनी चाहिये। यह तो इग्ज़ामिनेशन है।’

भगवान क्या कहते हैं, जो रिश्वत लेता है मगर कहता है, ‘ऐसा नहीं करना चाहिये, ऐसा क्यों हो जाता है?’ तो भगवान उसे छोड़ देते हैं। और जो रिश्वत नहीं लेता और कहता है, रिश्वत लेनी चाहिये, वह सच्चा गुनहगार है, वह पकड़ा जाता है। जो रिश्वत नहीं लेता लेकिन लेने का विचार किया वह कॉज़ेज़ हैं। फिर उसका इफेक्ट ऐसा आयेगा कि वह रिश्वत लेगा। जो रिश्वत लेता है मगर नहीं लेने का विचार है, ऐसे कॉज़ेज़ हैं, फिर इफेक्ट में वह रिश्वत लेगा ही नहीं।

सब ने रिश्वत ली और मकान बना लिया और इसने रिश्वत नहीं ली। अभी वह सारी ज़िंदगी कितनी भी कोशिश करे तो भी वह नहीं ले सकेगा। मगर उसकी पत्नी ने क्या बोल दिया, ‘तुम रिश्वत लेते नहीं, इसलिए हमारा मकान नहीं है’। तब उसकी बिलीफ बदल जायेगी कि रिश्वत लेनी चाहिये। यह कितनी जोखिमदारी है? जोखिमदारी है, यह तो समझना चाहिये न? ज़िम्मेदारी क्या है, उसे मालूम नहीं है, ऐसी ही कितनी ज़िम्मेदारियाँ लेता है। You are whole and sole responsible for yourself. God is not responsible for your life. दूसरा कोई आदमी, आपकी पत्नी, आपका लड़का आपकी ज़िंदगी के लिए जिम्मेदार नहीं है। तो जो विचार करने हैं, वे अच्छे विचार करना। जो काम करने हैं, वे अच्छे काम करना, क्योंकि ज़िम्मेदारी आपकी है। फिर भगवान भी इसमें से छुड़ा नहीं सकते।

यह जन्म तो मनुष्य का मिला है मगर ऐसे विचार करोगे तो दूसरा जन्म मनुष्य का आयेगा यानहीं भी आयेगा। ऐसा है, पूर्वजन्म के संस्कार अच्छे हों तो आज इसको तकलीफ नहीं होगी, रिश्वत नहीं लेगा। और अभी संस्कार बिगाड़ दिये तो अगले जन्म में सब परेशानी हो जायेगी।

घर ऐसी कम्पनी है कि उसमें सब का शेयर (हिस्सा) है, घर के सब मेम्बर (सदस्य) है, वे सब शेयरहोल्डर हैं। यह सब बोलते हैं कि, ‘हमें यह मिलना चाहिये, यह मिलना चाहिये।’ मगर सब को ऐसा नहीं मिलेगा। क्योंकि सब का शेयर है। कम्पनी एक ही है, मगर जिसका जितना शेयर है, उसे उतना ही मिलता है। ऐसे बात समझने की है।

प्रश्नकर्ता : ठीक से समझ में आ गया। अभी सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि हमें ये सब जो परेशानीहै, उसे बर्दाश्त करने के वास्ते शक्ति प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिये?

दादाश्री : वह तो हम कर देंगे। ऐसा पाँच हज़ार लोगों को कर दिया है, फिर कभी कोई परेशानी ही न हो, ऐसा।

प्रश्नकर्ता : फिर भी मुझे बर्दाश्त करने के लिए कोई उपाय है?

दादाश्री : हाँ, उपाय तो बहुत हैं। जितने रोग हैं न, उतने उनके उपाय होते हैं, रेमिडी होती है। रेमिडी के बिना दुनियाँ है नहीं। वह सब कहते हैं कि हमें यह दु:ख है; यह दु:ख है, तो हमारे पास आ जाते हैं, तो सब का दु:ख निकल जाता है। क्योंकि हम दु:खी कभी नहीं हुए। हमने दु:ख कभी देखा ही नहीं। हम मोक्ष में, निरंतर मुक्त भाव से रहते हैं।

प्रश्नकर्ता :
वह मैंने मान लिया कि मुझे कोई दु:ख नहीं होगा। लेकिन मेरा छह साल का बच्चा है, वह चल भी नहीं सकता, बोल भी नहीं सकता, बीमार ही रहता है, उसे बहुत परेशानियाँ है, अगर मैं अकेला रहूँ और बच्चा अकेला रहे तो मैं एडजस्ट करके चला लूँ। लेकिन बच्चे की माँ को क्यों भुगतना पड़ता है? यह मुझ से देखा नहीं जाता।

दादाश्री : नहीं, वह भी पार्टनर है न? शेयरहोल्डर है न? तुम्हारे अकेले का कर्म नहीं, सब शेयरहोल्डर हैं। जो ज़्यादा भुगतता है, उसका शेयर ज़्यादा है।

प्रश्नकर्ता : और ऐसा होने से भगवान पर जो फेथ (श्रद्धा) है, विश्वास है, वह भी कम होना शुरू हो जाता है।

दादाश्री : आपको भगवान पर श्रद्घा कम हो जाती है लेकिन भगवान इसमें कुछ करता ही नहीं। उसके ऊपर यह आक्षेप लगाते हैं कि ‘भगवान ने हमारे लड़के को दु:ख दिया, ऐसा बना दिया, हमें ऐसा नुकसान किया।’ भगवान ऐसा कुछ करता ही नहीं। भगवान तो भगवान ही हैं, संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ हैं और आपके अंदर बैठा हुआ है। हम उसे देख सकते हैं।

The world is the puzzle itself! God has not puzzled this world at all. Itself puzzled हो गया है और उसमें से पज़ल ही होता है। आपको नहीं, हर एक आदमी को पज़ल ही होता है। जो ‘ज्ञानी’ हैं, उन्हें पज़ल नहीं होता और हमने जिनको ज्ञान दिया है, उनको पज़ल नहीं होता, क्योंकि वे ज्ञान में ही रहते हैं।

प्रश्नकर्ता :
हमारे जीवन में ऐसा प्रसंग भगवान क्यों लाये? यह हमारी समझ में नहीं आता।

दादाश्री : इस दुनियाँ में सभी प्रकार के लोग हैं, मगर तुम्हारे राग-द्वेष जहाँ पर हैं, उसके साथ तुम्हारा संबंध होता है। अच्छे आदमी के साथ राग करते हो, तो उसके साथ संबंध होता है और बुरे आदमी के साथ द्वेष करते हो, तो उसके साथ भी संबंध हो जाता है। द्वेष किया तो भी वह आपके यहाँ आयेगा और राग किया तो भी वह आपके यहाँ आयेगा। उस बच्चे के लिए पूर्वजन्म में आपने क्या किया था? दूसरे सब लोगों से उस बच्चे को परेशानी आ गयी, तब आपकी उससे कुछ पहचान नहीं थी, फिर भी वह प्रोटेक्शन के लिए आया तो आपने क्या बोला कि ‘हमारी पूरी ज़िंदगी जायेगी फिर भी उसे हम बचायेंगे’। वह हिसाब जोइंट हो गया। दूसरा कुछ नहीं, ऐसे संबंध में आ गये।

प्रश्नकर्ता : यह फर्ज़ जो हम निभाते हैं, उसके लिए सिर्फ शक्ति चाहते हैं, और कुछ नहीं।

दादाश्री : हाँ, सही है, वो शक्ति तो माँगनी ही चाहिये। क्यों कि फर्ज़ निभाना ही चाहिये। अपने इंडियन (भारतीय) संस्कार हैं, ऐसे छोड़ देने का नहीं। आपने पकड़ लिया, हाथ दिया, फिर छोड़ने का नहीं। औरत को डिवोर्स (तल्लाक) भी नहीं दे सकते हैं, क्योंकि अपना इंडियन कल्चर (भारतीय संस्कार) है न?

प्रश्नकर्ता : जब प्रेरणा हो गयी आपके पास आने के लिए, तो कोई अच्छी चीज़ होने वाली है।

दादाश्री : हम तो निमित्त हैं, हम किसी चीज़ के कर्ता नहीं हैं। मगर हमारा यह यशनाम कर्म है कि जिसका अच्छा होने का योग हो तो वह फिर हमारे पास आ जाता है, ऐसा हमारा यश है। हम कुछ करते नहीं, यश ही सब काम करता है।

कुदरत की व्यवस्था का प्रमाण.
प्रश्नकर्ता : आज तो दुनियाँ में हर जीव दु:खी है। हम इससे छुटकारा कैसे पायें?

दादाश्री : ‘ज्ञानी’ मिलें तो दु:ख से छुटकारा हो जाये।

प्रश्नकर्ता : सब को तो ज्ञानी मिल नहीं सकते, तो सब सुखी कैसे हो सकते हैं?

दादाश्री : नहीं, नहीं, सब के लिए सुख नहीं है। यह कलयुग है, दूषमकाल है। भगवान ने कहा था कि दुषमकाल में सुख की इच्छा ही मत करो, उसे मांगो ही मत। ऐसा बोलना कि भगवान, कुछ दु:ख कम करो। सुख तो ‘ज्ञानी पुरुष’ हो, तो ही सुख हो सकता है। नहीं तो इसमें सुख नहीं है। समकिती आदमी के पास बैठो तो सुख आयेगा। मिथ्यात्वी के पास से सुख नहीं आयेगा।

प्रश्नकर्ता : फॉरेन में लोग दु:खी हैं, पर उनसे भी ज़्यादा दु:खी यहाँ हैं।

दादाश्री : वह बात ठीक है। यहाँ के लोगों को ज़्यादा चिंता- वरीज़ है, क्योंकि यहाँ विकल्पी लोग हैं और वे लोग सहज हैं। सहज यानी बालक के जैसे और इधर बड़े बुजुर्ग (उम्र वाले) जैसे हैं। बड़ी उम्र वाले को ज़्यादा दु:ख रहता है।

प्रश्नकर्ता : अपने भारत में बहुत से लोगों को खाना भी पूरा नहीं मिलता।

दादाश्री : कौन कहता है कि खाना भी नहीं मिलता? यह सब गलत बात है। खाना न मिलने के कारण कोई आदमी मरा नहीं।

प्रश्नकर्ता : अभी गरीबी है वह सही है?

दादाश्री : वह गरीबी नहीं है, जो है वह सही है। कुदरत ने बिलकुल करेक्ट रखा है। कौन गरीब है? आपको गरीबी किसने बतायी ? गरीब कहाँ देखा आपने? और हमें बताओ कि कौन गरीब नहीं है? इस बड़ौदा शहर में कौन गरीब नहीं है? गरीब की डेफिनेशन ऐसी नहीं है। आप आँख से देखते हैं वह गरीब हैं, ऐसा मान लिया, यह ठीक नहीं है। अमुक जातवालों को खाने का ही मिलना चाहिये, उनके पास नगद रकम तो होनी ही नहीं चाहिये। यह कुदरत का ही खेल है। कुदरत ने ही ऐसा हिन्दुस्तान के लिए रखा है, बाहर के लिए कुछ भी हो। कुदरत ने जो हिन्दुस्तान के लिए किया है, वह सही है।

‘ज्ञानी’ मिले तो क्या लोगे?
दादाश्री : किसलिए धंधा करते हो? किसलिए पैसा बचाते हो? वह सब कभी सोचा है?

प्रश्नकर्ता : वह तो ज़िंदगी का एक भाग है।

दादाश्री : हाँ, मगर पैसे बचाकर क्या करने का? वे सब लोग तो चले जाते हैं न? लास्ट स्टेशन जाते हैं न? तो वे साथ में ले जाते हैं?

प्रश्नकर्ता : यहाँ अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए, शांति से जीने के लिए।

दादाश्री : हाँ, मगर उसका फायदा क्या? पैसा कमाना जरुरी है, यह तो हम भी स्वीकार करते हैं मगर किस हेतु के लिए है? खाने-पीने के लिए? शांति के लिए? तो शांति किसलिए? क्या फायदा ? कोई बुजुर्ग आदमी को पूछा नहीं?

प्रश्नकर्ता : तो आप बताइये।

दादाश्री : ‘ज्ञानी पुरुष’ मिलें तो उनके पास अपना ‘सेल्फ रियलाइज़ेशन’ हो जाये, तो फिर अपने को परमानेन्ट मुक्ति मिल जाती है। इस संसार से मुक्ति मिल जाती है। और ‘ज्ञानी पुरुष’ नहीं मिले तब तक क्या करने का? दूसरे सब लोगों को, कुछ न कुछ सुख देने का। इससे अपने को अगले जन्म में सुख मिलेगा। अच्छा ही काम करने का, तो इससे अपने को अच्छा मिलेगा।

‘ज्ञानी पुरुष’ मिले तो ‘मैं कौन हूँ’ यह समझ लेना है। फिर कभी चिंता नहीं होगी। क्रोध-मान-माया-लोभ सब चले जायेंगे और आपको परमानेन्ट शांति रहेगी।

प्रश्नकर्ता : पुण्य क्या चीज़ है?

दादाश्री : आपके पास बैंक में क्रेडिट है, तो आप जब भी चाहें तब पचास रुपये, सौ रुपये किसी को दे सकते हैं और जिसके पास क्रेडिट नहीं है वह क्या करेगा? पुण्य यानी आपकी मर्ज़ी के मुताबिक और पाप यानी आपकी मर्ज़ी के खिलाफ।

वे मज़दूर लोग सारा दिन बहुत मेहनत करते हैं लेकिन उनको ज़्यादा पैसे नहीं मिलते हैं। पैसा मज़दूरी से नहीं मिलता है, वह पुण्य का फल है। पिछले भव में तूमने जो पुण्य किया है, उसके फल स्वरूप यह है। इस संसार में खाना-पीना मिला, पैसा मिला, यह सब पाप और पुण्य का फल है और हमें जाना कहाँ है? मोक्ष में। तो मोक्ष में जाने के लिए पुरुषार्थ होना चाहिये। पैसा आदि सब चीज़ें तो आपको ऐसे ही मिलेंगी। अपने को तो काम करने का है सारा दिन। मगर मोक्ष में जाने के लिए तो बात अलग है।

व्यापार में धर्म रखा?
प्रश्नकर्ता : दादाजी, हमारा धंधा ऐसा है कि उसमें झूठ और छल-कपट करना पड़ता है, हमें वह पसंद नहीं है, फिर भी करना पड़ता है, तो इसके लिए क्या करना चाहिए? धंधा छोड़ देना है?

दादाश्री : धंधा ऐसे ही चालू रखना। अंदर बैठे हैं, वही भगवान सब सुनते हैं। अभी दूसरा बाहर वाला भगवान किसी की सुनता नहीं।

क्योंकि बाहर वाले को तो बहुत फोन आते हैं तो किसी की बात सुनता ही नहीं। इसलिए आप अंदर वाले को फोन करना। उनका नाम क्या है? ‘दादा भगवान’ है। रोज़ सुबह में पाँच बार बोलना कि, ‘हे दादा भगवान, हमें यह ऐसा बुरा धंधा अच्छा नहीं लगता। अभी परेशानी ऐसी आ गयी है और समाज भी ऐसा हो गया है मगर हमें बहुत बुरा लगता है। हम इसके लिए माफी माँगते हैं, फिर ऐसा कभी नहीं करेंगे।’ इतना बोलने से कोई अड़चन नहीं आयेगी। धंधे में तो तुम्हारे सब प्रतिस्पर्धी हैं, उन हरीफ़ के साथ चलना ही पड़ता है न? मगर ऐसे रोज़ माफी माँगना। तो तुम्हारी जोखिमदारी नहीं। बाद में तीन-चार साल में तुम्हारे हाथ से धंधे में बिलकुल कपट नहीं होगा।

व्यापार तो ऐसी चीज़ है कि दो साल अच्छे भी जातें हैं और दो साल बुरे भी जाते हैं। व्यापार के दो ही किनारे हैं, मुनाफा और घाटा। एलिवेट भी होता है और कभी डिप्रेस भी होता है। मगर खुद को रियलाइज़ हो गया तो अंदर शांति हो जायेगी। वह शांति बढ़ती बढ़ती फिर बिल्कुल समाधि ही रहेगी, सदा के लिए। फिर डिप्रेस नहीं होगा।

अपनी सेफसाइड के लिए धर्म समझना चाहिये। दुनिया में दो चीज़ें काम करती हैं, पाप और पुण्य। जब पुण्य प्रगट होता है तो अच्छी जगह मिलती है, सब जगह में अच्छा खाना-पीना मिलता है, सब संयोग अच्छे अच्छे मिलते हैं। जब पाप प्रगट होता है, तो सब संयोग बुरे हो जाते हैं। उस समय क्या करने का? सेफसाइड कैसे रहेगी? ऐसी सेफसाइड के लिए धर्म समझना चाहिये।

अन्डरहैन्ड के अन्डरहैन्ड बन सकोगे?
धर्म क्या है? वह रिलेटिव है। वह भौतिक सुख के लिए है। इससे आदमी आगे जाता (बढ़ता) है, मगर यही पूरी सच्ची बात नहीं है। सच्ची बात तो यही है कि जागृति पूरी होनी चाहिये। जागृतिपूर्वक आगे जाना चाहिये। जागृति के लिए ही हिन्दुस्तान में मनुष्य का जन्म है। यह तो लोग नींद में रहते हैं और हर रोज़ औरत के साथ झगड़ते हैं, बोस के साथ झगड़ते हैं, अन्डरहैन्ड के साथ झगड़ते हैं। आप कभी अन्डरहैन्ड के साथ झगड़ते हैं?

प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है कभी।

दादाश्री : जो अपना अन्डरहैन्ड है, उसकी तो रक्षा करनी चाहिये। जिसकी रक्षा करने की है, उसके साथ ही लड़ते हैं, तो उसे जागृत कैसे बोला जायेगा?

प्रश्नकर्ता : वह तो नींद में है, उसको जागृत करने के लिए हम लड़ते हैं।

दादाश्री : अरे, उसके साथ लड़ते हैं, वही अजागृति है। वह तो अपनी निर्बलता है। जो छोटे आदमी को दंड देता है, अपने अन्डरहैन्ड को दंड देता है, वह तो उसकी निर्बलता है। बॉस को क्यों दंड नहीं देते हो? बॉस जब भी बोलते हैं, तब सुन लेते हो। यह क्या तरीक़ा है? बॉस को भी दंड दो, उसे भी जागृत करो न! उसे बोलो कि ‘तुम तुम्हारी औरत के साथ लड़कर आये हो और इधर गुस्से में हमें क्यों सताते हो?’ ऐसा स्पष्ट बोलो!! लेकिन अन्डरहैन्ड को ही सब सताते हैं, यह जागृत की निशानी नहीं और इसमें सारा दिन बंधन ही हो रहा है, यह भी मालूम नहीं है। इसमें फिर आदमी जानवर में जायेगा, यह भी मालूम नहीं उसे। क्योंकि वह पशु होने का कॉज़ चार्ज करता है, तो इफेक्ट पशु का हो जायेगा। कॉज़ मनुष्य का करे तो मनुष्य होता है, देव का कॉज़ करे तो देवलोक में जाता है, नर्क का कॉज़ करे तो नर्कगति में जाता है। जैसा कॉज़ करता है, वैसा इफेक्ट होता है। आपने कभी पाशवता का कॉज़ किया था? अपने अन्डरहैन्ड को जो बोलता है और उसके साथ गुस्सा करता है, वह बिलकुल पाशवता है। अन्डरहैन्ड की तो रक्षा करनी चाहिये। वह हमें बड़ा मानता है, वह हम से तो बेचारा छोटा है, इसलिए उसकी रक्षा करनी चाहिये।

आपका बॉस है या नहीं?

प्रश्नकर्ता :
हाँ, बॉस है न।

दादाश्री : कभी गुस्सा करता है? बॉस का उसकी औरत के साथ कभी झगड़ा हो गया तो इधर ऑफिस में आकर उसका क्रोध हम पर निकालता है। देखो, ऐसी बात है। तो हम आपको ऐसी प्रोटेक्शन दे देंगे कि आपको कुछ दु:ख होगा ही नहीं। फिर ऑफिस में बैठकर भी समाधि रहेगी, बॉस गाली दे तो भी समाधि नहीं जायेगी। यह ज्ञान मिल जायेगा तो फिर तुम्हारा कोई बॉस ही नहीं रहेगा। वह ‘रवीन्द्र’ का बॉस रहेगा, तुम्हारा खुद का बॉस नहीं। तुम ‘खुद’ और ‘रवीन्द्र’ दोनों अलग हो जाओगे और अलग ही काम चलेगा सब। फिर औरत के साथ रह सकते हो, लडके की शादी भी करा सकते हो और सिनेमा देखने को भी जा सकते हो। व्यवहार सब कुछ कर सकते हो। कुछ भी त्याग करने की ज़रूरत नहीं। इधर त्याग तो अहंकार और ममत्व का हो जाता है, फिर त्याग करने की कोई ज़रूरत ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में रहकर भी अलिप्त रहना चाहिये।

दादाश्री : हाँ, ऐसा अलिप्त हो जाता है।

हिन्दुस्तान में लोगों को सच्चा मार्ग नहीं मिला। इसलिए सब मोह में डूब गये। इधर मार्ग नहीं मिलने से लोग उधर चले जाते हैं। सच्चा मार्ग मिले तो हिन्दुस्तान के लोग एक घंटे में भगवान बन सकते हैं। भगवान किसको बोला जाता है? आदमी धंधे वाला हो या कुछ भी करता हो, मगर जिस आदमी को ‘कुढऩ-बेचैनी’ नहीं होती, उसे भगवान बोला जाता है। ‘कढ़ापा-बेचैनी’ (कुढऩ-बेचैनी) तुम्हारी समझ में आता है? ‘कुढऩ-बेचैनी’ यानी आपको मैं समझाता हूँ।

तुम्हारे यहाँ कोई मेहमान बैठे हैं और नौकर चाय के दस कप ट्रे में लेकर आया और कहीं टक्कर लगी, तो उसके हाथ में से ट्रे गिर गयी तो आपको अंदर कुछ होता है?

प्रश्नकर्ता : मेरी चीज़ है तो इफेक्ट होता है। पड़ौसी की होगी तो मुझे कुछ नहीं होगा।

दादाश्री : आपकी चीज़ हो और आप विचारशील हों, तो आप मुँह से कुछ नहीं बोलेंगे, क्योंकि आप सोचते हैं कि सब लोगों के सामने मैं नौकर के साथ लडूँगा तो सब के सामने मेरी इज्ज़त चली जायेगी। इसलिए मुँह से कुछ नहीं बोलते, मगर अंदर बोलते हैं कि सब लोग जायेंगे फिर नौकर को मारूँगा। मन में जो इफेक्ट होता है, उसको ‘बेचैनी’ बोला जाता है और मुँह से लड़ने लगा तो उसे ‘कुढऩ’ बोला जाता है। किसी को दु:ख हो ऐसी स्पीच नहीं होनी चाहिये।

वर्तमान में रहोगे कैसे?
गोवा से खंभात आये तो थकान नहीं लगी? टायर्ड नहीं हो गये?

प्रश्नकर्ता : नहीं, आपके पास आने पर सारी थकान चली गयी।

दादाश्री : हाँ, मगर थकान लगी थी न? क्योंकि आप क्या बोलते हैं कि मैं गोवा से खंभात आया। सच में तो गाड़ी इधर आई है, मगर आप बोलते हैं कि मैं आया। लेकिन आप तो गाड़ी में सीट पर बैठे थे। आपकी समझ में ऐसा आये कि मैं नहीं आया, मुझे गाड़ी लेकर आयी। फिर साइकोलोजीकल इफेक्ट ऐसा हो जायेगा, तो थकान नहीं लगेगी।

हम बम्बई से गाड़ी में बैठते हैं और गाड़ी बड़ौदा आती है, तो हम देखते हैं कि सब लोग ऐसा बोलते हैं कि ‘बड़ौदा आया, बड़ौदा आया’। तो हम उतर जाते हैं, बस। बम्बई से हम नहीं आये, यह गाड़ी ले आयी। और जो बम्बई से आया वह घर पहुँचते ही क्या कहता है कि ‘अरे, अभी चाय रख दे, जल्दी चाय रख दे, मैं थक गया हूँ।’ अरे, तू तो गाड़ी में बैठकर आया था, तो फिर कैसे बोल सकता है कि मैं थक गया?


प्रश्नकर्ता :
This is real science!

दादाश्री : हाँ, मैं तो ऐसे ही करता हूँ। हमें जब ‘ज्ञान’ नहीं हुआ था, तब हम बम्बई से बड़ौदा आते थे, तो सब लोग हमें स्टेशन पर छोड़ने आते थे। गाड़ी रवाना हुई तो सब लोग चले जाते थे, तो ‘मैं’ इस ‘ए.एम.पटेल’ को क्या कहता था कि कॉन्ट्रैक्टर साब, बम्बई छूट गया और अभी बड़ौदा नहीं आया। गाड़ी ने व्हिसल मार दी तो बम्बई बिलकुल छूट गया, बड़ौदा अभी नहीं आया तो हम अभी मोक्ष में ही हैं। बम्बई से छूट गया, बड़ौदा से बंधन नहीं हुआ, तो अभी मुक्त हो गये, मोक्ष में ही हैं। देखो न, सोते सोते मोक्ष में रहने का!

अंतर सुख-बाह्य सुख का बैलेन्स
भौतिक सुख तो सब अपने हिसाब का लेकर आये हैं, वही भुगतने का है। मगर आंतरिक सुख की ज़रा भी कमी पड़े तो आनंद नहीं आता। भौतिक सुख के साथ अंतर सुख भी होना चाहिये।

भगवान ने क्या कहा था कि अंतर सुख और बाह्य सुख, दोनों सुख साथ होने चाहिये। उसमें अगर भौतिक सुख ज़्यादा बढ़ गया तो आंतरिक सुख कम हो जायेगा। आंतरिक सुख कम हो गया तो आदमी के दिमाग की खराबी हो जायेगी। यह भौतिक सुख थोड़ा कम हो तो चलेगा मगर आंतरिक सुख तो होना ही चाहिये। आंतरिक सुख होगा तो ही भौतिक सुख का मज़ा आयेगा। आंतरिक सुख नहीं होगा तो भौतिक सुख ‘पोइज़न’ जैसा हो जायेगा। भौतिक सुख ज़्यादा बढ़ गया तो फिर बाद में ब्रान्डी है, जुआ है, ऐसे दुराचार में चला जायेगा। नहीं तो मनुष्य को अंतर सुख तो बहुत है, बाहर के किसी भी सुख की ज़रूरत ही नहीं रहे, इतना अंतर में सुख है। ‘नेसेसिटी’ की इच्छा भी करने जैसी नहीं है। वह अंतर सुख यदि मिल गया, तो काम हो गया।

अभी जो लोग आंतरिक सुख के लिए खुद ही प्रयत्न करते हैं, वह कैसी बात है कि डॉक्टरी की पुस्तक में देखकर खुद ही प्रिस्क्रीप्शन बना लें तो चलेगा? उससे पूरा फायदा नहीं मिलता। मगर डॉक्टर के पास जायें तो फिर पूरा फायदा है। वह डॉक्टर कैसा होना चाहिये कि बगैर फी का होना चाहिये। जहाँ फी है, वहाँ सच्ची दवा नहीं है। जहाँ फी नहीं होती, वहाँ सच्ची दवा है।

प्रश्नकर्ता : फॉरेन कंट्रीज़ में बहुत से लोग दारू, चरस, गांजा लेते हैं आनंद के लिए, मौज करने के लिए और कहते हैं कि दूसरी दुनिया में जा सकते हैं। तो यह दूसरी दुनिया क्या है? वह जानना है।

दादाश्री : दूसरी दुनिया जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। वह जो नशा करते हैं, उससे अंदर जो संवेदन होता है, वह बिलकुल डार्कनेस हो जाता है। उसमें उसे आनंद दिखता है। उसे वह सेकन्ड वर्ल्ड (दूसरी दुनिया) का आनंद कहता है।

प्रश्नकर्ता :
मुझे ऐसा लगता है कि सेकन्ड वर्ल्ड जैसा कुछ होना चाहिये, क्योंकि पाँच-छ: महीने का छोटा बच्चा होता है, वह रोता है, हँसता है, उसे फीलिंग्स है, वह सेकन्ड वर्ल्ड को देखकर ही होनी चाहिये या मनुष्य मृत्यु के बाद सेकन्ड वर्ल्ड में जाता होगा ऐसा लगता है।

दादाश्री : सेकन्ड वर्ल्ड जैसी कोई चीज़ ही नहीं। हम ज्ञान में सब देखकरबोलते हैं। यह वर्ल्ड क्या है, उसका क्रियेटर कौन है, किसने यह सब बनाया, किस तरह से यह चलता है, ये सब कुछ हम देखकर बोलते हैं। किसी किताब में पढ़कर नहीं बोलते हैं। आपको वह सेकन्ड वर्ल्ड देखने में इन्टरेस्ट है और आपकी बिलीफ में यह फर्स्ट वर्ल्ड है, मगर ऐसा नहीं है।

फुल डार्कनेस में क्या होता है? गांजा-चरस जैसी कोई भी चीज़ से वह फुल डार्कनेस में चला जाता है, वहाँ बिलकुल इफेक्ट नहीं होता, अंदर कोई इफेक्ट नहीं होता है। वह जो दूसरी दुनिया की आपकी बिलीफ है, वह वर्ल्ड ऑफ डार्कनेस है। वह गांजा-चरस पीकर ये दूसरी दुनिया में चला जाता है। आदमी को इतना थोड़ा भी उजाला दिखाया कि अंदर बेचैनी चालू हो जाती है, क्योंकि लाइट इफेक्टिव है न? लाइट इज़ इफेक्टिव। जब फुल लाइट हो जाती है तो अनइफेक्टिव हो जाता है और फुल डार्कनेस हो गयी तो अनइफेक्टिव हो जाता है। फिर फुल डार्कनेस में दु:ख मालुम नहीं होता है, उसी को ही वह आनंद मानता है।

सारी दुनिया में हम अकेले आदमी अबुध हैं। हमारे पास बुद्घि नहीं है। हमारे पास इनडाइरेक्ट लाइट नहीं है। हमारे पास डाइरेक्ट लाइट है, फुल लाइट है, तब फुल समाधि हो जाती है। बुद्घि से समाधि नहीं रहती है। तो वह ब्रांडी, गांजा कुछ पीता है तो भी वह अबुध हो जाता है, तब भी समाधि होती है। मगर वह डार्कनेस की समाधि है। बुद्घि की लाइट आदमी को इमोशनल करती है। तो बात समझ गये न? लाइट इज़ इफेक्टिव! फुल लाइट इज़ अनइफेक्टिव और फुल डार्कनेस इज़ अनइफेक्टिव।

‘ज्ञानी पुरुष’ के पास सब बातें साइन्टीफिक होती हैं। हम मोटर में भी घूमते हैं फिर भी निरंतर समाधि में रहते हैं। हम बिलकुल फुल लाइट की दुनिया में ही रहते हैं। वह चरस-गांजा पीकर फुल डार्कनेस की दुनिया में चला जाता है। दूसरी दुनिया एन्ड वाली है और सच्ची दुनिया है, वह एन्डलेस है।

प्रश्नकर्ता :
जिसकी ज़रूरत है, वह चीज़ क्यों नहीं मिलती?

दादाश्री : आप अगर नॉर्मेलिटी में रहें तो जिस चीज़ की आपको ज़रूरत है वो चीज़ घंटे, दो घंटे, तीन घंटे में आप जहाँ बैठे हैं, वहाँ हाजिर हो जायेगी। भगवान अंदर बैठे हैं। मगर मनुष्य नोर्मालिटी में नहीं रहता। लोग लोभ करने को गये, अबव नॉर्मल लोभ करने को गये, उसे भगवान क्या कहते हैं, ‘अब हमारी शक्ति तुम्हें नहीं मिलेगी। अब अपनी शक्ति से जाओ, खुद की ज़िम्मेदारी पर जाओ। हम आपको लाइट देंगे।’ लाइट के बिना चलता ही नहीं न?! भगवान लाइट देने को तैयार हैं मगर ज़िम्मेदारी नहीं लेते। खुद की शक्ति से जाओ। भगवान को आप प्रार्थना करेंगे कि हे भगवान! हमें हेल्प करो, तो भगवान आपको जरूर हेल्प करते हैं। वे प्रकाश ही देने का काम करते हैं, दूसरा कुछ नहीं।

मनुष्य चिंता मुक्त हो सकता है?

दादाश्री : कभी चिंता होती है क्या?

प्रश्नकर्ता : होती है।

दादाश्री :
तो क्या मेडिसिन (दवाई) ली आपने?

प्रश्नकर्ता : चिंता की तो मेडिसिन ही नहीं है।

दादाश्री :
मगर मेन्टल वरीज़ तो उस डॉक्टर को भी रहती है न? सब को ही मेन्टल वरीज़ रहती है। हमें मेन्टल वरीज़ कभी नहीं होती है। आपको वरीज़ निकालने की है? कभी वरीज़ न हो ऐसा करने का है?

आप रात को नींद में किधर चले जाते हैं?

प्रश्नकर्ता : वह नहीं मालूम।

दादाश्री : अगर नींद चली ना जाये, नींद परमानेन्ट हो जाये तो आपकी क्या स्थिति हो जाएगी?

प्रश्नकर्ता : तो दूसरे लोग उसे डैड (मृत्यु) कहेंगे।

दादाश्री : सोते समय कभी चिंता होती है कि सवेरे नहीं उठ सका तो मैं क्या करूँगा?

प्रश्नकर्ता : नहीं, उसकी चिंता तो नहीं रहती।

दादाश्री : अगर इतनी चिंता हो जाये तो कल्याण हो जाये!

प्रश्नकर्ता : परमात्मा के साक्षात्कार के लिए क्या विधि है?

दादाश्री : क्या नाम है आपका?

प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र।

दादाश्री : क्या आप रियली स्पीकिंग रवीन्द्र हैं? सचमुच आप कौन हैं? रवीन्द्र तो आपका नाम है, पहचान करने के लिए। आप खुद कौन हैं?

प्रश्नकर्ता :
वह तो जैसे सब आत्मा है, वैसे मैं भी एक आत्मा हूँ।

दादाश्री : हाँ, उस आत्मा की पहचान होनी चाहिये। आत्मा की पहचान हो गयी, फिर रवीन्द्र् तो टेम्पररी एडजस्टमेन्ट है। वह पहचान हम करा देते हैं। फिर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। फिर कभी चिंता-वरीज़ कुछ नहीं होती है और एक-दो जन्म के बाद मोक्ष में चला जाता है।

इस दफा बोम्बे में जन्म लिया है, तो उसके पहले किधर जन्म लिया था? मालूम नहीं? और अगले जन्म में किधर जन्म लोगे यह भी मालूम नहीं। और अभी किधर जाने का है यह भी मालूम नहीं। ऐसा कैसे चलेगा?

कभी चिंता होती है? दवाई नहीं करते हैं? बिना दवाई ऐसे ही आराम हो जाता है?

प्रश्नकर्ता : आराम है ही कहाँ?

दादाश्री : किसी जगह पर आराम नहीं है? वह आराम हराम हो गया है? एक दिन भी चिंता बंद नहीं होती? दिवाली के दिन तो बंद रहती है किनहीं?

प्रश्नकर्ता : दिवाली में तो चिंता बढ़ती है।

दादाश्री : दिवाली के दिन चिंता ज़्यादा बढ़ती है? उस दिन तो खाना-पीना अच्छा मिलता है, कपड़े अच्छे मिलते हैं, फिर भी?

प्रश्नकर्ता : खाने-पीने के लिए तो हम महसूस ही नहीं करते।

दादाश्री : हाँ, मगर वह चिंता तो बढ़ती है। ऐसा कब तक चलेगा? कितना स्टॉक है? अभी खत्म नहीं हुआ? सारे दिन में चिंता नहीं हो, ऐसा एक दिन भी मिले तो कितना आनंद हो जाता है न! लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं मिलता है। तुम्हारे यहाँ सभी लोगों को ऐसा रहता है?

प्रश्नकर्ता :
सब का क्या पता?

दादाश्री : कितने लोग आनंद में रहते हैं, उसकी तलाश नहीं की? आप अकेले को ही नहीं, सारी दुनिया में सभी लोगों को चिंता है। सभी लोगों को आधि-व्याधि-उपाधि, वरीज़!! और पूछेंगे कि ‘क्यों भाई, कैसा है?’ तब वह कहता है कि, ‘बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है।’ मगर यह सब झूठी बातें हैं। ऐसा नहीं बोले, तो उसकी आबरू चली जाये। इसलिए आबरू रखने के लिए ऐसा बोलते हैं कि, कुछ परेशानीनहीं और खुद जानते हैं कि कितनी परेशानियाँ हैं। परेशानी कोई बता देता है? परेशानी गुप्त ही रखते हैं, वह भगवान ने ‘कीमिया’ कैसा अच्छा किया है(!) कि कोई परेशानी ही नहीं बताये। और औरत के साथ घर में झगड़ा होता है, तो वह थोड़े रोकर बाहर निकलता है? तब तो मुँह धोकर बाहर निकलता है। ऐसे दुनिया चल रही है।

ऐसा है, सच्ची बात जानने की है। वह सच्ची बात जानने को नहीं मिली लोगों को और जो लौकिक बात है वही बात सब लोग जानते हैं। अलौकिक बात क्या चीज़ है, कभी सुनी भी नहीं, पढ़ी भी नहीं और हमने बताया ऐसे जानी भी नहीं। अलौकिक बात जाने तो सब परेशानियाँचली जाती हैं। इधर अलौकिक बात जानने को मिलती है। सेल्फ का रियलाइज़ेशन हो सकता है, फिर चिंता कभी नहीं होती और बिज़नेस भी आप कर सकते हैं।

प्रश्नकर्ता : मानो या न मानो, मगर सब को वरीज़ तो रहती ही हैं।

दादाश्री : क्यों रहती हैं? आपने खुद को पहचाना नहीं और आप बोलते हैं, ‘मैं रवीन्द्र हूँ’। ऐसा इगोइज़म (अहंकार) करते हैं। ‘ये सब मैं चलाता हूँ’ ऐसा भी इगोइज़म करते हैं। और इससे वरीज़ ही रहती है। जो इगोइज़म नहीं करता, उसे कुछ वरीज़ नहीं हैं।

प्रश्नकर्ता : जिसे चिंता नहीं होती, वो तो भगवान ही बन गया।

दादाश्री : हमारे साथ वाले जो लोग हैं, उनको कभी एक भी चिंता ही नहीं होती। वरीज़ हैं नहीं बिलकुल। और जेब काट ले तो भी चिंता नहीं। यह बात मानने में आती है? क्या इस वर्ल्ड में बिना वरीज़ कोई आदमी कभी होता है? कभी चिंता नहीं हो ऐसा ज्ञान है, ऐसी अपनी इंडियन फिलोसॉफी है। जेब काट ले तो भी कुछ होता नहीं, गाली दे गया तो भी कुछ होता नहीं, नो डिप्रेशन, फूल चढ़ाये तो एलिवेशन नहीं, ऐसा अनइफेक्टिव हो जाता है (ज्ञान से)।

प्रश्नकर्ता : यह स्टेज कब आती है?

दादाश्री : वो स्टेज हम सिर पर हाथ रख कर कर देते हैं।

प्रश्नकर्ता : चिंता का कारण क्या है?

दादाश्री : चिंता का कारण इगोइज़म है। अपनी बिलीफ में ऐसा है कि ‘मैं ही चलाता हूँ’ ऐसा इगोइज़म है, इससे चिंता होती है। कौन चलाता है, वह मालूम हो जाये तो इसकी वरीज़ नहीं होगी। लेकिन सच मालूम होना चाहिये। लेकिन वह तो शंका है। इसलिए घड़ीमें कहता है, भगवान चलाते हैं। फिर थोड़ी देर में कहता है, ‘मैं चलाता हूँ’। फिर कहता है, ‘मी काय करूँ (मैं क्या करूं)।’ इसको शंका है। इस वर्ल्ड को भगवान चलाते ही नहीं और आप भी चलाते नहीं हैं। भगवान तो कुछ कर सकते ही नहीं। वो दूसरी शक्ति है, वही सब चलाती है। ये बात नहीं जानते इसलिए मन में ऐसा होता है कि मैं ही चलाता हूँ और इससे वरीज़ होती है, चिंता हो जाती है। चिंता इगोइज़म है एक प्रकार का।

चिंता किसलिए करते हो? कोई भी जानवर चिंता नहीं करता, तुम क्यों चिंता करते हो? सब को जो जरूरी चीज़ें हैं, वे मिल जाती हैं और आपको भी मिल जाती हैं। फिर ज़्यादा मिले ऐसी आशा रखते हो, वह गलत है। स्वार्थ के लिए बहुत आशा रखते हो, वही दु:ख है। नहीं तो देह के लिए सब चीज़ें ऐसे ही मिल जाती हैं।

दो मिल वाला सेठ होता है, तो उसे एक पल भी शांति नहीं रहती। वह तीसरी मिल बनाने के लिये तैयारी करता है। उसे खाने के लिए भी टाइम नहीं। एक सेठ ने तीसरी मिल बनायी थी, डिनर के लिए हमें बुलाया था। हम साथ में खाने बैठे थे और उनकी वाइफ सामने आकर बैठी। तो सेठ ने बोला कि ‘क्यों इधर आयी?’ तो वो बोली कि ‘आज आप ज्ञानी पुरुष के साथ बैठे हैं, तो आज तो आराम से खाना खाइए।’ तो मैं समझ गया कि आराम से कभी वह खाता नहीं। फिर सेठानी हमें बोली कि ‘हम खाना टेबल पर रख देते हैं, पर रखने के पहले ही सेठ मिल में पहुँच जाते हैं और फिर बॉडी (शरीर) ही इधर खाती है।’ फिर मैंने बोल दिया कि, ‘सेठ, आप खाना खाने के टाइम चित्त को एबसेंट (गेरहाजिर) मत रखो। चित्त को प्रेजेन्ट (हाजिर) रखें। नहीं तो आपको ब्लड प्रेशर हो जायेगा और हार्ट एटेक भी हो जायेगा!! कैसी ज़िम्मेदारी आप लेते हैं? किसके लिए यह करते हैं? कितना लोभ है आपको? आप आराम से खायें।’

कृष्ण भगवान क्या कहते हैं कि प्राप्त को भुगतो, अप्राप्त की चिंता मत करो। अपने पास है वह आराम से खाओ।

प्रश्नकर्ता : लेकिन चिंता-वरीज़ ये सब क्या है?

दादाश्री : चिंता-वरीज़ वे सब इगोइज़म है।

प्रश्नकर्ता :
तो What is egoism?

दादाश्री : आप जो हैं, वह जानते नहीं और आप नहीं हैं, वह नाम दिया है, तो वह मान लिया कि मैं रवीन्द्र हूँ, वह रोंग बिलीफ हो गयी, वही इगोइज़म है। ‘मैं रवीन्द्र हूँ’ ऐसा व्यवहार में तो बोलना चाहिये। मगर व्यवहार में तो ओन्ली ड्रामेटिक होना चाहिये और आप तो रियली बोलते हैं। रिलेटिवली बोलना चाहिये। ‘मैं रवीन्द्र हूँ’ यह बोलना तो चाहिये मगर ऐसी बिलीफ नहीं होनी चाहिये। ऐसी तुम्हारी बिलीफ हो गयी है, वही भूल है। दूसरी कोई भूल नहीं है। वही इगोइज़म है। ‘मैं इसका फादर (पिता) हूँ’, यह दूसरी रोंग बिलीफ है। ‘मैं इसका हसबन्ड (पति) हूँ’, यह तीसरी रोंग बिलीफ है। ऐसी कितनी रोंग बिलीफ हैं?

प्रश्नकर्ता : So I am nothing?

दादाश्री : नहीं, राइट बिलीफ है न। हम ये सब रोंग बिलीफ फ्रेक्चर कर देते हैं और राइट बिलीफ दे देते हैं।

क्या आप शंकर के भक्त हैं?
दादाश्री : चिंता-वरीज़ होती है, तो क्या दवाई ले आते हैं?

प्रश्नकर्ता : भगवान को याद करते हैं।

दादाश्री : कौन से भगवान?

प्रश्नकर्ता :
कोई भी दिल में आया, उनका नाम लेते हैं। कभी शंकर बोलते हैं, कभी विष्णु।

दादाश्री : भगवान तो एक ही तय करना चाहिये। सब भगवान को रखेंगे तो कौन तुम्हारा काम करेगा? आप एक भगवान को तय कर लें।

प्रश्नकर्ता : तो फिर शंकर भगवान।

दादाश्री : हाँ, तो विष पिया था कभी तुमने? वे शंकर भगवान तो ज़हर पीकर शंकर हो गये। तो आपको भी कुछ पीना चाहिये न? तो फिर आप भी शंकर हो जायेंगे। हमने ज़हर पिया, तो हम शंकर बन गये।

कभी तुम्हारी औरत तुम्हें ज़हर नहीं देती? तुम्हें ऐसा नहीं कहती कि, ‘तुम्हारे में अक्ल नहीं है। तुम मूर्ख आदमी हो, तुम अच्छे आदमी नहीं हो’ ऐसा तैसा?

प्रश्नकर्ता : कभी कभी ऐसा कहती है।

दादाश्री : वह राजीखुशी से पी लेना, वही ज़हर है। ऐसा ज़हर पी लेने का, तो आप भी शंकर हो जायेंगे। शंकर को कभी खुश करना हो तो अगर तुम्हें कोई गाली दे दे, तो उसका प्रतिकार नहीं करने का। उसको निगल जाने का। कोई कैसा भी ज़हर दे तो पी जाने का। तुम्हें कोई ज़हर का ग्लास देता है?

प्रश्नकर्ता : मतलब किसी न किसी तरह का दु:ख तो जीवन में होता रहता है।

दादाश्री : हाँ, तो जैसे कोल्ड ड्रिंक पी जाते हैं, वैसे यह ज़हर आराम से पी सकते हो? वह आराम से पी लेने का। उसके लिए खराब ध्यान भी नहीं करना चाहिये, प्रतिकार भी नहीं करना चाहिये और इसको कोल्ड ड्रिंक की तरह पी लेने का। तो फिर इससे शंकर हो जाओगे। It is also a cold drink to be a Shankar! धीरे धीरे जैसे कोल्ड ड्रिंक पीते हैं ऐसे आराम से पीने का। एकदम पीयेगा तो आपको उसके प्रति रुचि नहीं है, उसका भय लगता है, ऐसा मालूम होगा।

प्रश्नकर्ता : लोग कहते हैं कि शंकर भगवान की जटा है और उसमें से गंगा बहती है। लोग ये विश्वास करते हैं, मगर किसी ने देखा तो नहीं है।

दादाश्री : वह तो अवलंबन है। वे सब प्राकृतिक गुण हैं। वह हेल्प करता है। शंकर के स्वरूप को समझने की जरुरत है। जो लिंग हैं न, उसके दर्शन करते हैं। वह लिंग शंकर का स्वरूप नहीं है, शंकर का स्वरूप तो कल्याण स्वरूप है और मोक्ष स्वरूप है। ऐसे शंकर के दर्शन हो जायें तो काम हो जाता है। शंकर के दर्शन करने की सब को इच्छा होती है, किन्तु बात समझ में नहीं आती। हम शंकर के दर्शन करा देते हैं।

कोई शंकर की भक्ति करे, कोई माताजी की भक्ति करे, यह सब लोक व्यवहार है। बचपन में जो संजोग मिलते हैं, उसके अनुसार व्यवहार करता है और उससे संसार चलता है और अपना मन भी ठीक रहता है। मोक्ष में जाने के लिए तो अंदर बैठे हैं, वही भगवान को पहचानना होगा। अंदर जो हैं वही सब से बड़े महादेव हैं। अंदर वाले महादेवजी की कभी भक्ति की थी?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तो बाहर वाले महादेव जी की ही भक्ति की है?

प्रश्नकर्ता : सब बाहर वाले ही तो दिखाते हैं।

दादाश्री : मगर अंदर जो हैं न, वही सच्ची बात है। इससे बड़ा देव कोई नहीं है। जब तक इसकी पहचान न हो, तब तक दूसरे देव की भक्ति करनी चाहिये।

प्रश्नकर्ता : पहले बाहर का ही कुछ होगा तो अंदर जायेगा न?

दादाश्री : मगर अंदर का यदि साक्षात्कार हो गया तो काम पूरा हो जाता है। बाहर वाले की भक्ति तो बहुत दिन से करते हो, कितने जन्म से करते हो, फिर भी पूरी नहीं होगी। वह तो जन्मोजन्म चालू ही रहेगी। कितने जन्मों से बाहर का ही करते हो लेकिन अंदर वाले की पहचान कभी नहीं हुई।

प्रश्नकर्ता : वह अंदर वाले की पहचान कैसे हो?

दादाश्री : वह ‘ज्ञानी पुरुष’ करा सकते हैं। कृपा से सब कुछ होता है, फिर साक्षात्कार हो जाता है और वह कभी जाता नहीं है, फिर दिन-रात, पल-पल उसकी ही भक्ति होती है।

प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की पहचान कैसे हो कि यह ‘ज्ञानी’ हैं?

दादाश्री : वह हमें ऐसा साक्षात्कार करायें और वह साक्षात्कार सफल हो जायें तो हमें समझ जाने का कि यह ‘ज्ञानी’ हैं। सफल नहीं हुआ तो अज्ञानी है ऐसा समझ जाने का। दूसरी क्या परीक्षा करने की? साक्षात्कार तो होना चाहिये न? उधार नहीं चाहिये। नग़द ही चाहिये।

माँ-बाप की ज़िम्मेदारी कितनी?

प्रश्नकर्ता : अपना बच्चा हो, तो बाप को अपनी ड्यूटी समझकर उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये?

दादाश्री : पहले तो आप फादर कैसे हो गये? क्या सच्चे फादर हो गये? सर्टिफाइड फादर हैं आप?

फादर कैसे होने चाहिये? सर्टिफाइड फादर होने चाहिये और मदर भी सर्टिफाइड होनी चाहिये। यह तो विदाउट एनी सर्टिफिकेट, फादर-मदर हो गये। यदि बच्चे ने कुछ छोटी सी गलती की, तो उसको मार मारेंगे। अरे, फादर-मदर कैसे हो गये? जब कि आपके पास कोई भी सर्टिफिकेट नहीं है?

फादर-मदर की ज़िम्मेदारी कितनी है? कि जैसे यह प्राइम मिनिस्टर साहब हैं, उन पर सारे हिन्दुस्तान की ज़िम्मेदारी है, वैसे आप पर चार लड़कों की ज़िम्मेदारी है। वह ज़िम्मेदारी तो समझते नहीं और फादर हो गये हैं और बोलते हैं, हम लड़के के फादर हैं!

एक लड़के का फादर था। वह लड़के की मदर को कहता था कि, ‘देख, देख, देख। अरे, किधर गई, इधर आ। देख, यह अपना लड़का क्या कर रहा है! पाँव ऊँचा करके मेरी जेब में से दो आने निकाल लिए। कितना होशियार हो गया है।’ और फिर मदर आई और यह देखकरखुश हो जाती है कि अपना बेटा कितना होशियार हो गया है। ऐसा कौन बोलते हैं? लड़के के फादर-मदर बोलते हैं। वह बेटा समझता है कि ओहोहो! मैंने आज बहुत बड़ा काम किया। यह तो बेटे को चोर बना रहे हैं!! माँ-बाप की ज़िम्मेदारी का कुछ भान ही नहीं है और माँ-बाप बन बैठे हैं। रिस्पोन्सिविलिटी है या नहीं?

प्रश्नकर्ता :
हाँ। तो फिर सर्टिफाइड फादर-मदर यानी क्या?

दादाश्री : सर्टिफाइड यानी संस्कारी होने चाहिये। संस्कारी नहीं है, तो पहले संस्कार सीखने चाहिये। जहाँ संस्कारी पुरुष रहते हैं, वहाँ जाकर संस्कार समझ लेने चाहिये, कि बच्चों के साथ कैसा बर्ताव रखना, वाइफ के साथ कैसा बर्ताव रखना चाहिये। वो सब समझ लेना चाहिये। अभी तो अपने यहाँ संस्कार का कोई कॉलेज भी नहीं है न!!!

व्यवहार नि:शेष का इक्वेशन

आप लोग फादर को क्या कहते हो?

प्रश्नकर्ता : डैडी।

दादाश्री : और वह डैडी अपने लड़के को क्या कहता है?

प्रश्नकर्ता : बेटा।

दादाश्री : बेटा? हाँ, तो वो बेटा बड़ा हो तो डैडी उसे क्या कहते हैं? बेटा? और चालीस साल का हो जाये तो क्या कहते हैं?

प्रश्नकर्ता : बेटा ही बोलते हैं।

दादाश्री : वह बेटा हररोज डैडी को ‘डैडी, डैडी’ करके खुश करता है। एक दिन बेटा गुस्से में आ गया और डैडी को बोल दिया कि ‘तुम नालायक आदमी हो, तुम ऐसे हो, वैसे हो’ तो फिर? ये पज़ल कैसे सोल्व होगा? जैसे ऐल्जिब्रा में इक्वेशन करते हैं, तो इसमें कैसे इक्वेशन करेगा?

प्रश्नकर्ता : बेटे को फादर से माफी माँग लेनी चाहिये।

दादाश्री : मगर लड़का माफी माँगता नहीं। माफी माँगता तो काम हो जाता, तो इक्वेशन हो जाता। मगर चालीस साल का बेटा, वो डिप्टी कलेक्टर ऑफ गोआ है, तो क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : Problem will remain as it is, no settlement. वैसे ही रहेगा, या तो कोई ऐसा काम बाहर से आ जाये, कोई इंसिडेन्स हो जाये, उसमें दोनों की ज़रूरत हो तो दोनों एक हो जायेंगे।

दादाश्री : तो भी डैडी के मन में से नहीं जायेगा, वह तो डेबिट ही रहेगा। प्रोफिट एन्ड लोस अकाउन्ट भरपाई नहीं हो जायेगा। अकाउन्ट भरपाई होना चाहिये न? एलजब्रा में इक्वेशन होता है, तो व्यवहार में भी इक्वेशन चाहिये, नहीं तो बैलेन्स कैसे करेगा? तो व्यवहार में इक्वेशन कैसे करेगा? बेटा तो डैडी को क्या कहता है कि ‘आप जैसे थे वैसा मैंने बोल दिया।’ इसलिए उसे इक्वेशन नहीं मँगता। मगर डैडी को तो नींद नहीं आती है, तो क्या करने का?

एक आदमी किसी व्यापारी के पास से तीन हज़ार रुपये ले गया और फिर दस साल तक भरपाई नहीं किया तो व्यापारी क्या करता है? व्यापारी घाटे के खाते में उधार करके उस आदमी के नाम जमा कर देता है। वह उसके नाम पर जमा कर देता है या नहीं? इक्वेशन तो करना चाहिये न?

तो डैडी के माइन्ड में से वरीज़ निकल जाये, ऐसा कुछ करना चाहिये न? तो क्या करोगे? अगर वह डैडी हमें मिल जाये तो हम बता देंगे कि ‘तुम इक्वेशन कर दो।’ वो बोलेगा कि ‘कैसे इक्वेशन करने का?’ तो हम बतायेंगे कि You are not a permanent Daddy. You are a temporary Daddy. डैडी परमानेन्ट है कि टेम्पररी?

प्रश्नकर्ता : टेम्पररी।

दादाश्री : हाँ, और वह लड़का भी टेम्पररी है। डैडी भी टेम्पररी है और बेटा भी टेम्पररी है, तो इक्वेशन से डैडी कैसे हो गया? आई विटनेस से यह डैडी हो गया है और आई विटनेस से यह बेटा हो गया है मगर सच्चे विटनेस से, रियल विटनेस से कोई किसी का बेटा भी नहीं और डैडी भी नहीं है। फिर इक्वेशन कैसे करने का? इक्वेशन ऐसे करने का कि आई विटनेस से मैं इसका डैडी हूँ और दूसरे रिलिझन विटनेस से यह मेरे डैडी है और मैं उनका बेटा हूँ। ऐसा इक्वेशन किया तो बेटा भी खुश हो जायेगा। फिर बेटे को डैडी से प्रेम हो जायेगा। ऐसा इक्वेशन आप करेंगे कभी? आपकी लाइफ में इक्वेशन करना पड़ेगा या नहीं करना पड़ेगा?

प्रश्नकर्ता : करना है।

दादाश्री : तो यह समझ में आ गया, इक्वेशन कैसे करने का?

प्रश्नकर्ता : मगर फादर ऐसी रीत नहीं अपनाये, इस तरह से न सोचे तो?

दादाश्री : ऐसा करना ही पड़ेगा। इक्वेशन की रीत ही यह है और इस रीत से इक्वेशन नहीं करेगा तो सब रिलेशन टूट जायेंगे। क्योंकि बेटे के साथ फादर का रिलेटिव एडजस्टमेन्ट है, रियल एडजस्टमेन्ट नहीं है। माता, पिता, पत्नी, बेटा, सब रिलेटिव एडजस्टमेन्ट हैं। ये शरीर के साथ भी रिलेटिव एडजस्टमेन्ट हैं, तो माँ के साथ कैसे रियल होगा? All these are relative adjustment, वो सब आई विटनेस से है।

जब आपकी शादी हो जायेगी और कभी आपकी औरत बहुत गुस्सा हो गई, तो फिर क्या दवाई लगायेंगे? आपको बोलेगी कि यु आर अनफिट। ऐसा-वैसा बोलेगी, तो आप क्या मेडेसीन करेंगे?

प्रश्नकर्ता : सेइम इक्वेशन आ गया?

दादाश्री : हाँ, Husband is wife's wife. यह इक्वेशन लगा देने का, फिर कोई परेशानी नहीं। हम ज्ञानी नहीं हुए थे, तब तक हम इक्वेशन से सब जगह ऐसे ही रहते थे।

हमारा भतीजा हमें ‘काका, काका’ बोलता था। क्या बोलते हैं आपकी भाषा में? चाचा बोलते हैं न? तो हमें ‘चाचा’ बोले तो बोझ बढ़ जाता था। हमें ज़्यादा मान दे दिया, तो मान का बोझ लगेगा न? तो फिर मैं मन में ऐसा बोलता कि ‘वह मेरा चाचा है, मैं उसका भतीजा हूँ।’ तब बोझ कम हो गया।

ऐसा इक्वेशन कर देगें न? तो लोग क्या बोलेंगे कि ‘मैंने इतना कुछ बोल दिया तो भी इनके मुँह पर कुछ असर नहीं है। हमने इतना बोल दिया, तो भी आपको कुछ नहीं लगता?’ तो आपको बोलने का, कि ‘मेरे को लगता तो है, मगर तेरे प्रेम की वजह से मेरे को कुछ नहीं लगता।’ तो फिर वह तुम्हारे पर ज़्यादा प्रेम रखेगा।

चौबीस तीर्थंकरों का मार्ग कैसा है? उसका फाउन्डेशन व्यवहार का है। पहले व्यवहार चाहिये। व्यवहार बिलकुल करेक्ट चाहिये, आदर्श व्यवहार चाहिये।

हिसाबी व्यवहार को कब तक रियल मानोगे?
प्रश्नकर्ता : हमारा पौत्र गुजर गया है, उसका दु:ख दूर हो जाये और मन को शांति मिले, इतना ही चाहिये।

दादाश्री : हम सब रोना शुरू करें तो वह बच्चा वापस आ जायेगा?

प्रश्नकर्ता : ऐसा तो नहीं होता। आज तक ऐसा नहीं हुआ है।

दादाश्री : तो फिर कुदरत की मरजी के खिलाफ क्यों चलते हो? और दूसरे बच्चे हो जायेंगे, इसमें क्या घबराने का?

प्रश्नकर्ता : ऐसा लगता है कि इतने थोड़े समय के लिए हमारे पास आकर हमको दु:ख देकर क्यों चला गया?

दादाश्री : वह खाते में जितना हिसाब था, वह सब हिसाब चुकता कर दिया और जितना दु:ख देने का था, उतना दु:ख देकर चला गया।

प्रश्नकर्ता : हिसाब क्या चीज़ है?

दादाश्री : वह तो पूर्वजन्म का लेन-देन है, और कुछ नहीं है, कोई संबंध ही नहीं है। कोई रियल फादर भी नहीं है और कोई रियल लड़का भी नहीं। वह तो सब रिलेटिव हैं। रियल लड़का हो तो फादर जब मर जाता है, तो लड़के को भी उसके साथ जाना चाहिये। मगर कोई नहीं जाता उनके साथ, यह तो सब रिलेटिव हैं। सिर्फ हिसाब ही है। उसका थोड़ा तो दु:ख होता है, मगर इतना ज़्यादा दु:ख नहीं होना चाहिये।

आप रोते हैं तो भगवान को बुरा लगता है। आज रो रहा है, कल रोयेगा, परसों रोयेगा, चाहे कितना भी रोयेगा तो भी एक दिन रोना तो बंद करना ही पड़ेगा न?! इसमें क्या फायदा? घर में पाँच आदमी इक्टठे होते हैं, उन सब का हिसाब ही है मात्र। दूसरा कोई संबंध नहीं। व्यापारी और ग्राहक के जैसे संबंध हैं। दूसरा कोई संबंध है नहीं। यह तो आपने संबंध बनाया है कि, ‘यह हमारी मदर है। यह हमारी वाइफ है।’ वे सब विकल्प है। यह तो खाली एडजस्टमेन्ट लिया है आपने। सब सब का हिसाब लेने के लिए जमा हुए हैं। जिसका हिसाब पूरा हो गया, वह चला जाता है। फादर भी चले जाते हैं। सच्चा लड़का कभी आपने देखा है? जो मर गया, वह आपका सच्चा लड़का था?

प्रश्नकर्ता : भौतिक देह में ऐसे कह सकते हैं कि वह सच्चा था।

दादाश्री : वो रियल लड़का नहीं था आपका। अगर रियल लड़का होता तो उसे जब जला दिया, तब आप भी उसके साथ बैठे होते। क्यों नहीं बैठे? वो रियल नहीं है, वह रिलेटिव है। सच्चा संबंध नहीं है, रिलेटिव संबंध है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उसकी आत्मा चली जाती है, फिर अपना उसके साथ संबंध नहीं रहा न?

दादाश्री : हाँ, मगर वह संबंध रिलेटिव संबंध था और आप के साथ कुछ हिसाब बाकी था, वह ऋणानुबंध था। और उससे ही सारा जगत् चलता है।

प्रश्नकर्ता : यह ऋणानुबंध क्या है? कैसे होता है?

दादाश्री : आपका और आपके लड़के का जो व्यापार (संबंध) चल रहा है, उसमें आप अतिरेक करते हो, इससे फिर ऋणानुबंध शुरु हो जाता है। साधारण व्यवहार हो तो कुछ हर्ज नहीं है। आपने लड़के को गाली दिया, तो वो भी तय करता है कि, ‘मैं भी उनको मार दूँ।’ इससे सब दूसरे जन्म में इक्टठे होते हैं और जो दिया था, वह फिर वापस आता है। जो लिया था, वही वापस देता है। बस, वही धंधा है।

प्रश्नकर्ता : कोई लड़का बाईस साल का या चौबीस साल का होकर मर जाये और दु:ख पहुँचाकर जाये तो वह कौन से कर्म का फल है?

दादाश्री : यह दुनियाँ ऐसी है, आप दूसरों को दु:ख देंगे तो वो लोग आपको दु:ख देंगे। आप दूसरों को सुख देंगे तो लोग आपको सुख देंगे। यह सब ऐसी ही व्यवहार की बात है। जैसा आप करते हैं, उसका वैसा ही बदला मिलता है।

प्रश्नकर्ता : मगर यह तो छोटा बच्चा था, निर्दोष था, मासूम था।

दादाश्री : वह तो आपका जो थोड़ा हिसाब था, वह कम्पलीट हो गया। थोड़ा खर्चा कराने का और दु:ख देने का भी थोड़ा हिसाब था। उतना पूरा हो गया, तो फिर वो चला गया। अगर बाईस साल का होकर फिर मर गया होता तो आपको कितना दु:ख होता?

दूसरे आदमी का लड़का नहीं मरता? जब आपका पौत्र मर जाये तो आपको दु:ख लगता है, तो दूसरे का लड़का मर जाये तब भी उतना ही दु:ख होना चाहिये। हमें तो समान होना चाहिए न? आपको कैसा लगता है? यह तो अपने खुद के लिए रोते हैं। दूसरों के लिए आपको कुछ नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : नहीं, सब के लिए होता है।

दादाश्री : सब का? इस वर्ल्ड में सब के लिए आपको ऐसा दु:ख होता है? नहीं, आपको सब के लिए ऐसा नहीं होता है। समानता होनी चाहिये। समानता हो जाये तो सब तुम्हारी इच्छा के मुताबिक हो जाये। ऐसी समानता नहीं होती है आपको, इसलिए ऐसा दु:ख होता है। समानता चाहिये न? यह तो स्वार्थ की बात है कि जो दूसरे का है, वहाँ आपको समानता नहीं रहती।

ये जो दुनियाँ के संबंध हैं, वे तो रिलेटिव संबंध हैं, रियल नहीं हैं। All these relatives are temporary adjustments. जो आँख से देख सकते हैं, कान से सुन सकते हैं, वे सब टेम्पररी एडजस्टमेन्ट हैं और आप परमानेन्ट हैं। जो रिलेटिव एडजस्टमेन्ट हैं, वह तो टेम्पररी ही है। कोई जल्दी जाता है, कोई देरी से, वह भी रिलेटिव है। सब रिलेटिव है। उसमें कोई रियल है, परमानेन्ट है, ऐसा मान लेना ही नहीं।

जितना आपका इसके साथ संबंध था, हिसाब था, उतना हिसाब पूरा हो गया, चुकता हो गया तो वह चला गया। ये तो गेस्ट हैं सब। अपने घर गेस्ट आते हैं, वह फिर चले जाते हैं या नहीं चले जाते? अच्छा गेस्ट हो, आप उसको बोलें कि ‘आप मत जायें, आपके घर मत जायें, हमारे यहाँ रहो’ तो क्या वह रहेगा? नहीं रहेगा। ऐसे ये सब कुदरत के गेस्ट हैं। आप भी कुदरत के गेस्ट हैं। कोई किसी का लड़का नहीं है। यह सब ड्रामेटिक है। जैसे ड्रामा में लड़का होता है, तो वह ड्रामा के टाइम तक ही होता है। इस तरह लड़का कोई किसी का होता ही नहीं।

ये जो बिलीफ हैं, कि मेरे पास मकान नहीं है, मुझे लड़का नहीं है, मुझे लड़की नहीं है, ये सब रोंग बिलीफ हैं।

1928 में हमारे पहला लड़का हुआ था। उसका जन्म हुआ, तब हमने फ्रेन्ड सर्कल को बड़ी पार्टी दी थी। बच्चा भी ऐसा रूप वाला था, ब्युटिफुल था। सब लोग बोलते थे कि हमने जो संतो की सेवा की थी, उसका फल मिला है। डेढ़ साल के बाद वो मर गया। इधर हमने फ्रेन्ड सर्कल को फिर से बड़ी पार्टी दी, जलसा करवाया। सब लोग समझने लगे कि दूसरा लड़का आ गया। वे सब पूछने लगे। पार्टी पूरी होने के बाद हमने बोल दिया कि जो गेस्ट आया था, वह चला गया!!! इसके बदले में मैंने पार्टी दी है। उसके थोड़े साल बाद लड़की आई। वह भी चली गयी। फिर उसके लिए भी पार्टी दी !!! क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई आत्मा किसी का लड़का हो नहीं सकता। यह सिर्फ रोंग बिलीफ ही है। आपका लड़का हो तो उसको तुम एक घंटे खूब गाली दो, मारपीट करो, तो फिर वह क्या बोलेगा?

प्रश्नकर्ता : बाप का नहीं मानेगा।

दादाश्री : नहीं, वह आपके साथ झगड़ा करेगा और कोर्ट में चला जायेगा। अपना लड़का हो तो ऐसा नहीं करेगा। उसे मार डालो तो भी ऐसा नहीं करेगा। मगर अपना लड़का होता नहीं न? सिर्फ रोंग बिलीफ है और रिलेटिव व्यू पोइन्ट है। यह रियल व्यू पोइन्ट नहीं। इधर कोई आदमी मर जाता है तो फिर उसके पीछे उसका लड़का कोई मर जाता है क्या?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तो यह रियल बात नहीं है। ये सब रिलेटिव बातें हैं। आपका लड़का हो, उसको एक घंटा गाली दो तो वह एक घंटे में अलग हो जाता है न? और वाइफ के साथ झगड़ा हो जाये तो? डिवोर्स भी हो जाता है न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, हो जाता है।

दादाश्री : फिर यह करेक्ट नहीं है, टेम्पररी है। मगर टेम्पररी भी नहीं पूरा। टेम्पररी भी जो 50 साल, 60 साल करेक्ट होता तो फिर हर्ज नहीं। मगर टेम्पररी भी करेक्ट नहीं है। यह खाट है, इसके साथ ऐसे आधार रखकरबैठें तो इसका आधार अच्छा है कि हम कभी गिर नहीं जाते। मगर यह जिन्दे आदमी का आधार रखा तो कभी भी गिर जाते हैं। मगर नेचर का अरेन्जमेन्ट ऐसा है कि एक दूसरे के बिना चलता ही नहीं। ऐसा टेम्पररी भी थोड़े टाइम के लिए रहता है, एकदम चला नहीं जाता। मगर वह खाट भी कभी तो टूट जाती है न? यानी ये भी रिलेटिव है। ये सब एडजस्टमेन्ट है और वो सब रिलेटिव है। और ये बॉडी के साथ भी अपना रिलेटिव एडजस्टमेन्ट है, रियल एडजस्टमेन्ट नहीं है। ये बॉडी भी एकदम चली नहीं जाती, मगर वह भी रियल एडजस्टमेन्ट तो नहीं है।

यह मनुष्य का शरीर (मिला) है, तो इससे अपना काम कर लेना है। सेल्फ रियलाइज़ेशन कर लो। फिर यह शरीर चला जाये तो कोई हर्ज नहीं। यह काम कर लो। काम नहीं कर लिया (निकाला) तो मनुष्य जन्म ऐसे ही व्यर्थ चला जाता है, वेस्ट चला जाता है।

यह जो आपका लड़का है, उसका आपके साथ ग्राहक और व्यापारी के जैसा संबंध है। व्यापारी को पैसा नहीं दिया तो माल नहीं देगा और व्यापारी माल अच्छा देगा तो ग्राहक लेगा, ऐसा व्यापारी-ग्राहक का संबंध है। आप लड़के को प्रेम देंगे तो वह भी आपके साथ अच्छा रहेगा, आपको नुकसान नहीं करेगा। उसे आप गाली दोगे, तो वह भी आपको मारेगा। ये लड़का-लड़की, सच्चे लड़का-लड़की नहीं रहते किसी के।

आज के लड़के कैसे हैं कि यदि बाप उन्हें थोड़ी भी गाली दे, गुस्सा करे तो वे क्या करेंगे? बाप को छोड़कर चले जायेंगे। अरे, कोर्ट में दावा भी करेंगे। एक लड़का उसके बाप के सामने केस जीत गया। बाद में बहुत खुश हो गया। वह लड़का फिर वकील को बोलने लगा, ‘वकील साहब, एक काम करो तो आपको तीन सौ रुपये ज़्यादा दे दूँगा।’ वकील ने पूछा, ‘क्या काम करना है?’ तब लड़के ने बताया, मेरे फादर की कोर्ट में थोड़ी नाक कटनी चाहिये!!! वकील ने बोला कि, ‘यह तो सरल बात है, हम नाककटाई करा देंगे।’

बोलिये, अब खुद का लड़का कैसा हो सकता है? यह तो ऋणानुबंध है, हिसाब है। हिसाब में कुछ बाकी हो तो जरूर आयेगा और हिसाब नहीं हो, बहीखाता क्लीयर हो तो कोई नहीं आयेगा!

प्रश्नकर्ता : पत्नी के प्रति फर्ज है, पुत्र के प्रति फर्ज है, वे सब फर्ज़ तो अदा करने पड़ेंगे न?

दादाश्री : फर्ज़ यानी फरजियात। आप नहीं करें, आपके विचार में नहीं हो तो भी करना पड़ेगा। वह सब फरज़ियात है।

कोई चीज़ इस दुनिया में वोलन्टरी नहीं है। जन्म से मृत्यु तक कोई चीज़ वोलन्टरी नहीं है। सब उसे मानते हैं वोलन्टरी है, मगर एक्ज़ेक्टली ऐसा नहीं है।

प्रश्नकर्ता : तो वोलन्टरी कुछ नहीं है?

दादाश्री : वोलन्टरी है, मगर ऐसा जानते नहीं। वोलन्टरी अंदर है, वह मालूम नहीं है और जो वोलन्टरी नहीं है, फरज़ियात है, उसको वे अपनी ड्यूटी बोलते हैं।

प्रश्नकर्ता : सोसायटी में रहते हैं तो ये सब रिलेशन मेन्टेन करने चाहिये।

दादाश्री : हाँ, संसार में रहना ही चाहिये और औरत के साथ सिनेमा में जाना चाहिये, लड़के के साथ बैठना चाहिये, साथ में खाना-पीना चाहिये। मगर सच्ची बात समझकर करनी चाहिये। मगर सच्ची बात क्या है, वह तो समझनी चाहिये न? एक आदमी ने ब्रांडी पी तो वह नाज़-नखरे करता है न? ऐसे यह भी सब नाज़-नखरे हैं। और अगर ब्रांडी नहीं पी तो कोई परेशानी नहीं रहती है। ऐसी बात समझ गये तो ब्रांडी के जैसी कोई परेशानी नहीं रहती है। सच्ची बात तो समझनी चाहिये न? ऐसी झूठी बात कहाँ तक चलेगी?

प्रश्नकर्ता : यह लाइफ भौतिक है और भौतिकवाद में कुछ टेन्शन होना जरूरी है। टेन्शन के बिना तो कुछ नया हो नहीं सकता, कुछ प्राप्ति नहीं कर सकते।

दादाश्री : आप क्या नया करेंगे? क्या नया आविष्कार करेंगे? नयी दुनियाँ बनायेंगे? जो आविष्कार करते हैं, उसे टेन्शन रहता ही नहीं। जो मेहनत करता है, उसको ही टेन्शन रहता है। मैं सारी दुनियाँ में घूमता हूँ मगर मेरे को बिलकुल टेन्शन नहीं है।

प्रश्नकर्ता : आपकी स्टेज तो अलग है।

दादाश्री : नहीं, मगर वह रियलाइज़ हो गया तो क्या होता है कि संसार का कोई टेन्शन नहीं रहता और संसार में सब को बहुत अच्छा प्रेम, सच्चा प्रेम मिलता है। अभी तो आपके पास प्रेम नहीं है, आसक्ति है, इसीलिए तो थोड़े-थोड़े टाइम पर गुस्सा हो जाते हो। यह क्या तरीका है? सच्चा प्रेम होना चाहिये। गुस्सा कभी भी नहीं होना चाहिये।

व्यवहार के हिसाबी संबंध में समाधान कैसे
?
प्रश्नकर्ता : यह संसार है, उसमें हम घर में रहते हैं, मोटर-बंगले हैं, इन सब में रहते हुए भी, हम धर्म कर सकें ऐसा हो सकता है क्या?

दादाश्री : धर्म के बिना तो संसार चलता ही नहीं। पहले धर्म चाहिये और संसार उसके साथ रहना चाहिये।

प्रश्नकर्ता : लोग तो ऐसा कहते हैं कि धर्म ही चाहिये और संसार को छोड़ देना चाहिये। यह सब है क्या?

दादाश्री : नहीं, धर्म के बिना संसार ही नहीं। पहले धर्म चाहिये। किस चीज़ को धर्म कहती हो? आपके भाई के साथ आप धर्म रखोगी या अधर्म रखोगी? भाई को गाली दोगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : क्योंकि गाली देना अधर्म है और गाली नहीं देना, मेरा भाई अच्छा है, ऐसा वह कहना धर्म है। धर्म तो होना ही चाहिये।

संसार को व्यवहार बोला जाता है। हम व्यवहार में आदर्श रहते हैं और सारा दिन धर्म में ही रहते हैं। हम किसी को गाली नहीं देते, किसी का बुरा नहीं करते। हमें कोई पत्थर मारे तो भी हम गाली नहीं देते और आपको कोई पत्थर मारे, तो आप क्या करोगी?

प्रश्नकर्ता : मैं भी पत्थर लेकर मारूँगी।

दादाश्री : हमें कोई पत्थर मारे तो हम गाली नहीं देते और खुदा को बोलते हैं कि इसको सद्बुद्घि दो। दो नुकसान नहीं होने चाहिये। एक तो पत्थर लग गया, फिर गाली देकर दूसरा नुकसान क्यों करें?

प्रश्नकर्ता :
पहला नुकसान फिजिकल और दूसरा स्पिरिचुअल !

दादाश्री : हाँ, जेब काट ली तो पाँच हज़ार तो गये फिर उसके साथ झगड़ा क्यों करें? झगड़ा करने से दो नुकसान होते हैं। एक तो नुकसान हो गया और फिर दूसरा झगड़ा किया। उससे नींद भी नहीं आयेगी। उसको आशीर्वाद दे दिया तो अपने को नींद आयेगी। ये बात पसंद आयी आपको?

और शादी करेगी, फिर हसबन्ड के साथ कैसे रहोगी?

प्रश्नकर्ता : धर्म के साथ।

दादाश्री : हाँ, कभी हसबन्ड का दिमाग गर्म हो गया तो हमें शांत रहने का। हसबन्ड दो गाली दे दे तो भी शांत रहने का। हम क्या बोलते हैं कि ‘Adjust everywhere’. सास अच्छी न हो तो उसके साथ भी एडजस्ट हो जाना।

प्रश्नकर्ता :
चुप हो जाने का?

दादाश्री : चुप नहीं होना, एडजस्ट हो जाना। उसके अंदर खुदा बैठे हैं, उनसे प्रार्थना करना कि ‘हे खुदा, उसको अच्छा दिमाग दो, सद्बुद्घि दो।’ तो उनको फोन पहुँच जायेगा। खुदा सब के अंदर बैठे हैं न? और गाली देगी तो बुद्घि अच्छी नहीं रहेगी। हमने बताया ऐसा करोगी तो सास भी खुश हो जायेगी। वह कहेगी, ‘ऐसी बहू तो देखी ही नहीं हमने।’ वह जो कुछ दु:ख हमें देगी, वह तो उसके साथ हमने अधर्म किया था वही होगा। तुम फिर से उनके साथ अब अधर्म नहीं करना।

हसबन्ड मुझे कायम के लिए दबा देगा, ऐसा डर मन में नहीं रखना। ऐसे कोई दबा नहीं सकता। हसबन्ड गाली दे और आप एडजस्ट हो गईं तो वह आप से डर जायेगा, घबरा जायेगा। तब आप बोलना कि, ‘घबराना मत, मैं आपकी ही हूँ’, ऐसा करने से आपका चारित्रबल उत्पन्न होगा। जिसका चारित्रबल है, उससे सब आदमी घबराते हैं।

प्रश्नकर्ता : यह चाबी मुझे बहुत पसंद आयी।

दादाश्री : हाँ, इससे ही चारित्र उत्पन्न होता है, इससे ही शील उत्पन्न होता है। शील से सामने वाले पर अपना प्रभाव पड़ता है, सामने वाला घबराता है।

कोई आदमी हमें पत्थर मारे और फिर हमारे पास आये, बोले कि ‘मेरी भूल हो गयी।’ फिर हम कुछ नहीं करें, तो हमारे साथ फिर ऐसा कभी नहीं करेगा। कोई दूसरा हमें पत्थर मारने को आयेगा तो भी वह उसको भगा देगा और बोलेगा कि ‘ये बड़े आदमी हैं।’ बड़ा आदमी किसे कहते हैं? जो गाली देता है उसे?

प्रश्नकर्ता : नहीं, वह तो बहुत छोटा होता है।

दादाश्री : जिसमें चारित्रबल है, वही बड़ा है।

वाइफ और हसबन्ड का झगड़ा होता है या नहीं होता? बहुत होता है, तो आपने सोचा नहीं कि हसबन्ड के साथ क्या करूँगी? पहले से सोचा नहीं था?

प्रश्नकर्ता : मैं वही सोचती थी कि मैं क्या करूँ?

दादाश्री : हाँ, तो हमने जो बता दिया है, ऐसे रखना। कभी मन में ऐसा नहीं सोचो कि हमें हसबन्ड दबा देगा। कोई भी बात हो, आप छोड़ देना। जितना आप छोड़ दोगी, उतना चारित्रबल प्रगट होगा। दूसरी बात यह है कि कभी कोई गाली दे तो उसको आशीर्वाद देना। गाली देने वाला कितनी गाली देगा? जितना आपका हिसाब है, उतनी ही गाली देगा। उससे ज़्यादा गाली नहीं देगा। उसकी भी हद होती है। हसबन्ड के साथ झगड़ा हुआ तो फिर संसार फ्रेक्चर हो जायेगा। फिर भले ही दोनों साथ में रहते हैं मगर मन टूट जाते हैं।

इतनी बात समझ में आ गयी तो बहुत हो गया।

गृहस्थी में मतभेद, सॉल्यूशन कैसे?

दादाश्री : आपको कृष्ण भगवान के साथ झगड़ा नहीं है न?

प्रश्नकर्ता : नहीं है।

दादाश्री : कृष्ण भगवान को तीर लगा था, यह मालूम है? तो यह कैसी दुनियाँ है? और रामचंद्रजी को क्या कुछ कम अड़चनें आयीं थीं?

प्रश्नकर्ता :
हाँ, उन्हें बनवास जाना पड़ा था और ‘सीता, सीता’ करके घूम रहे थे।

दादाश्री : बनवास का तो ठीक है। अभी तो ये सब लोग बैठे हैं न, इन सब को क़ायम का बनवास है। जन्मे तब से ही बनवास है। मगर रामचंद्रजी की पत्नी को तो हरण करके ले गया था। ऐसा इधर इन सब के साथ तो नहीं होता न? कितना आनंद है! ऐसी कोई तकलीफ तो आपको नहीं आयी न?

प्रश्नकर्ता :
अभी तक तो नहीं आयी।

दादाश्री : आपका औरत के साथ किसी दिन झगड़ा नहीं हुआ था?

प्रश्नकर्ता : सांसारिक जीवन में होता ही रहता है।

दादाश्री :
ऐसा झगड़ा होता है तो फिर शादी करने का क्या फायदा? एक आदमी हमारे पास आया, वह हमें बोलने लगा कि, ‘मेरी औरत ने मुझे मारा।’ तो उसका क्या न्याय करने का? आप कहें, आपकी दृष्टि में क्या न्याय लगता है? औरत को फाँसी पर चढ़ाना चाहिये?

प्रश्नकर्ता :
फाँसी पर क्यों चढ़ाने का! मर्द और औरत का तो आपस का संजोग है।

दादाश्री : तो फिर मार खाने का? ऐसी शादी में क्या फायदा कि जहाँ मार भी खाने का! मगर सब लोग शादी करते हैं न? फिर ‘यह मेरी वाइफ, यह मेरी वाइफ’ करता है मगर वह पिछले जन्म की वाइफ का क्या हुआ? यह सब पिछले जन्म के लड़कों का क्या हुआ ? वे सब उधर छोड़कर आया और ऐसे ही यहाँ छोड़कर आगे जायेगा। क्या यही धंधा है? यह पज़ल सोल्व तो करना चाहिये न? कब तक ऐसे पज़ल में रहोगे?

कभी औरत पर क्रोध हो जाता है?

प्रश्नकर्ता :
हाँ।

दादाश्री : जो अच्छा अच्छा लड्डू देती है खाने को, उसके पर भी क्रोध करते हो? वहाँ तो क्रोध नहीं करना चाहिये। बाहर पुलिस वाले पर क्रोध करो तो कोई हर्ज नहीं है। वहाँ क्रोध नहीं करते? वहाँ क्यों कंट्रोल में रहते हैं?

प्रश्नकर्ता : वहाँ डर है।

दादाश्री : पुलिस वाले के पास निडर हो जाओ और इधर घर में डरो। जो खाना खिलाती है, सवेरे में चाय-नाश्ता देती है, वहाँ क्रोध करोगे तो खाने-पीने का सब बिगड़ जायेगा। वाइफ का धनी हो जाता है? धनी होने में हर्ज नहीं है मगर धनीपन नहीं करना चाहिये। It is a drama, तो आप ड्रामा के धनी हो। The world is the drama itself!

प्रश्नकर्ता : हम गृहस्थ हैं, हमें लोकाचार का पालन तो करना पड़ता है।

दादाश्री :
लोकाचार भी तुम्हारा अच्छा नहीं है। कभी कभी औरत के साथ मतभेद हो जाता है, फ्रेन्ड के साथ मतभेद हो जाता है न? लोकाचार आदर्श होना चाहिये। हमारी भी औरत है, मगर वह तो ‘पटेल’ की है, ‘हमारी’ तो कोई औरत नहीं है। इस ‘पटेल’ की औरत है, मगर एक भी मतभेद उसके साथ नहीं है।

प्रश्नकर्ता : यह कैसे संभव है? मतभेद तो रहेगा ही।

दादाश्री : मतभेद तो कभी हुआ ही नहीं। वह कभी बोले कि, ‘आप ऐसे हैं, वैसे हैं, भोले हैं, लोगों को सब दे देते हैं’। तो मैं कहता हूँ कि, भाई, पहले से ही मैं ऐसा था, आज से नहीं। फिर कैसे मतभेद होगा? अभी तो ऐसा कुछ बोलती ही नहीं है और हमारा दर्शन करती है।

बीवी से एडजस्टमेन्ट की चाबी
प्रश्नकर्ता : अपनी बीवी-बच्चों से एडजस्टमेन्ट कैसे करना?

दादाश्री : बीवी के साथ कभी झगड़ा नहीं करने का। बीवी झगड़ा करे तो आपको कहने का कि किसलिए झगड़ा करती है? इसमें क्या फायदा है? फिर भी वह बोलती है तो बोलने दो, कोई एतराज नहीं।

प्रश्नकर्ता : वह बोलेगी और हम रोकेंगे नहीं तो उसमें और खराबी हो जायेगी न?

दादाश्री : उसे क्या मूछें आ जायेंगी? वह क्या पुरुष हो जायेगी? यह तो खाली डर है। यह तो डर से जग में झगड़े चलते हैं। हमने देखा है कि एक जन्म का किसी के हाथ में नहीं है। आप उसको मार-मार करेंगे तो भी वह बोलेगी। इसमें आपका भी नुकसान होता है और बीवी का भी नुकसान है। यह सब छोड़ दो और क्या होता है, क्या हो रहा है, वह ‘देखो’। हम सब को क्या बोलते हैं कि Adjust everywhere!

एक मियांभाई हमारा पहचान वाला था। मैंने उसे बोल दिया कि ‘भाई, औरत के साथ ठीक रहता है या नहीं?’ तो कहने लगा कि ‘हमारा सब ठीक है।’ मैंने पूछा कि ‘इन सब का बीवी के साथ झगड़ा होता है और तुम्हारा कभी झगड़ा नहीं होता?’ तो बोला कि, ‘हमारा कभी नहीं होता। बीवी के साथ झगड़ा करके क्या फायदा?’ मैंने पूछा कि, ‘बीबी किसी दिन गुस्सा नहीं हो जाती?’ तो बोलने लगा कि, ‘कभी गुस्सा हो जाती है। मगर बीवी के साथ झगड़ा करने में तो, देखो न, हमारे तो दो ही रूम हैं, तो इधर झगड़ा करेगा तो सारी रात जिस रूम में वह जागेगी और उसी रूम में मैं जागूँगा। इसमें फायदा क्या है? बीवी हमें गाली देगी, मगर बीवी को हम गाली नहीं देंगे। बीवी को हम नहीं मारेगा।’ मैंने कहा, ‘क्यों?’ तो कहता है कि, ‘बीबी तो हमें सुख देती है। बीवी कितना अच्छा खाना बनाती है, अच्छा मटन भी बनाती है। फिर उसके साथ ही क्यों झगड़ने का? हम तो पुलिस वाले को मारेगा, बाहर वाले को मारेगा, घर में किसी को नहीं मारेगा।’ अपने लोग क्या करते हैं कि बाहर से मार खाकर आते हैं और घर में औरत को मारते हैं।

औरत तो देवी है। उसके साथ झगड़ा कैसे हो सकता है? उसका दिमाग गरम हो जाये, तो भी कोई हर्ज नहीं। थोड़ी देर में दिमाग ठंडा हो जायेगा। फिर समझाना कि ‘तुम क्या क्या चाहती हो, हमें एक बार बता दो’, इस तरह उसे पटाना। आप दुकान में कैसे सब को खुश कर देते हो, वैसे घर में सब को खुश कर देना है।

यह अपनी वाइफ है, ऐसा मत मानो और यह अपने पर चढ़ बैठेगी ऐसा मत मानो। अरे, क्या चढ़ बैठेगी? उसे मूछें नहीं आ जायेंगी, वह औरत ही रहेगी। एक जन्म में जो तय किया है, वही होगा, ऐसा ही करेगा। तो औरत के साथ आराम से रहने का, फाइल का निपटारा (सॉल्यूशन) समभाव से करने का।

एक जन्म की बात आपकी समझ में आ गयी? देखो, हम घर में अकेले हो और बाहर निकलने का हो गया, तो हम दरवाजा खुल्ला नहीं रखेंगे, ताला लगायेंगे। क्यों ऐसा करते हैं? कि इस ज़िंदगी में तो कुछ होने वाला नहीं, मगर दरवाजा खुला देखकर दूसरे किसी को विचार आयेगा चोरी करने का। आज तो कुछ नहीं होगा, मगर वह अगले जन्म में चोर हो जायेगा। इसलिए ऐसे दरवाजा खुला नहीं रखने का, ताला लगाकर जाने का।

‘यह मेरी औरत है’ बोलते हैं न, वह रिलेटिव में है। रियल में अपने कोई सगे ही नहीं होते। बोलते हैं न कि यह मेरी माँँ है, तो वह भी रियल सगापन (संबंध) नहीं है। इस बॉडी के साथ भी रियल सगापन नहीं है, तो माँ के साथ रियल सगापन कैसे हो सकता है? वह सब रिलेटिव है।

माँ के साथ रियल सगापन हो तो माँ मर जाये, तो उसके दो-चार लड़के हों तो वे भी उसके साथ मर जाते। मगर कोई माँ के साथ नहीं मरता न! वह रिलेटिव सगाई है। रिलेटिव यानी बॉडी का आधार है। यह बॉडी भी रिलेटिव है और उसका आधार भी रिलेटिव है, रियल नहीं है। मदर के साथ ब्लड रिलेशन है और फ्रेन्ड होगा तो उसके साथ नेबर रिलेशन है। मगर सब रिलेशन ही हैं, केवल।

व्यवहार में शंका? समाधान, विज्ञान से
कोई आदमी अपने यहाँ आता रहता है और एक दिन हमारे कोट की जेब में से दो सौ रुपये ले गया और इस भाई ने देख लिया। मगर दूसरे किसी ने नहीं देखा। इस भाई ने बोल दिया कि यह आदमी आपकी जेब में हाथ डाल के कुछ रुपये ले गया। तो मेरी समझ में आ जायेगा कि यह आदमी हमारे दो सौ रुपये ले गया। मगर दूसरे दिन वह फिर हमारे पास आयेगा तो भी हमें उसके लिए शंका नहीं होगी। ऐसे कितने लोगों को शंका नहीं होगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं, सब को शंका तो हो ही जायेगी।

दादाश्री : तो जब तक शंका है, तब तक आपको ज्ञान नहीं है। यह आदमी आया और कुछ ले गया, मगर हमको शंका नहीं होगी। कोई ले सकता ही नहीं, ये दुनिया ऐसी है। वह आदमी अगर दूसरी दफे भी ले जायेगा, तो उसका कुछ पासपोर्ट है, उससे ही लेता है। नहीं तो कोई कुछ भी ले सकता ही नहीं। इस दुनिया में किसी के पास संडास जाने की खुद की शक्ति नहीं है। All are tops!! जो खुद की शक्ति है, वह उसको मालूम नहीं है। हम नि:शंक हैं, कौन से आधार से वह करता है, यह हम जानते हैं। कोई आदमी कुछ भी ले सकता है तो उसके पीछे कुछ आधार है। नहीं तो कोई आदमी कुछ ले सकता ही नहीं। वह आधार जिसे मालूम पड़ गया, फिर उसे क्या परेशानी ? उसे किसी के साथ झगड़ा करने की ज़रूरत ही नहीं है। आपको अभी थोड़ी शंका हो जाती है? पूरे नि:शंक नहीं हो जायें, तब तक शंका होती रहेगी।

इस वर्ल्ड में किसी से कोई चीज़ हो सकती ही नहीं। क्योंकि this is a result. जन्म हुआ, वहाँ से लास्ट स्टेशन तक रिजल्ट ही है खाली। परीक्षा अंदर हो रही है, मगर उसको मालूम नहीं है। जब रिजल्ट आता है तो झगड़ा करता है, कि यह आदमी हमारा पैसा ले गया। इसी से संसार खड़ा है। सच्ची दृष्टि नहीं है, इसलिये सब दु:ख है।

कोई आदमी कुछ भी कर सकता ही नहीं। जो पहले से टाइप हो गया है वही बात है इसमें। हमारा किसी के साथ मतभेद नहीं है। कोई रुपये ले जाये, उसके साथ भी मतभेद नहीं है। वह आदमी फिर आये तो हम उससे कहेंगे, ‘आओ, बैठो!’ यदि ऐसा नहीं बोलेंगे तो हमें उसके साथ द्वेष हो जायेगा और हमारी समाधि चली जायेगी। जहाँ द्वेष है, वहाँ समाधि नहीं है। मगर हमको निरंतर समाधि रहती है। ऐसा ‘अक्रम विज्ञान’ आज प्रकट हुआ है। यह वर्ल्ड क्या चीज़ है? कैसे चल रहा है? कौन चलाता है? वह दो सौ रुपये ले गया है, वह कैसे ले गया? वे सब चाबियाँ हमारे पास है। क्योंकि यह विज्ञान सर्व-समाधानी विज्ञान है। सर्व-समाधानी यानी at any place, at any time, in any circumstance. सांप आयें, बड़े लुटेरे आयें, तो भी यह विज्ञान वहाँ समाधान देता है।

पिछले जन्म की पत्नी का क्या ?
प्रश्नकर्ता : यह भाई गृहस्थी में ब्रह्मचारी है, ‘सात प्रतिमा’धारी हैं (ब्रह्मचर्यव्रतधारी), लेकिन उनका दु:ख ऐसा है कि मेरे मरने के बाद पत्नी का क्या होगा, इसकी बड़ी चिंता है। आप इनका समाधान करवाइए।

दादाश्री : वह पिछले जन्म की पत्नी का क्या हुआ?

प्रश्नकर्ता : पिछले जन्म का क्या मालूम?

दादाश्री : तो फिर किसलिए चिंता करते हो? वह आपकी पत्नी कैसे है? वह तो सब व्यवहार से है। वह कर्म के उदय से है। जब तक उसने डिवोर्स नहीं लिया, तब तक आपकी पत्नी है और डिवोर्स ले ले तो?

प्रश्नकर्ता : यूं तो डिवोर्स जैसा ही है। ब्रह्मचर्य का मतलब ही यह है कि पति-पत्नी का संबंध ही नहीं है।

दादाश्री :
ब्रह्मचर्य वाला पत्नी की परवाह नहीं करता। आप खुद की परवाह करें। जहाँ तक पत्नी अपने साथ है, वहाँ तक उसकी सेवा करना, दूसरों की भी सेवा करना। तुम्हारे पीछे क्या होगा यह क्या मालूम? आपका ‘वहाँ’ जाकर क्या होगा यह भी क्या मालूम? आपके पास कोई सर्टिफिकेट है कि वहाँ जायेंगे तो कुछ स्थान मिलेगा? और औरत को पूछेंगे तो औरत कहती है कि ‘तुम हमारी फिकर मत करो।’ आप खुद ही ऐसा करते हैं। ब्रह्मचारी को ऐसा नहीं होना चाहिये।

व्यू पोइन्ट का मतभेद, उपाय क्या?
यह वर्ल्ड मेन्टल होस्पिटल हो गया है। हमें कोई कहे कि ‘आप मेन्टल हैं।’ तो हम कहेंगे, ‘भाई, तुम्हारी बात सही है। तुमने हमें बताया, यह भी तुम्हारा उपकार है।’ आप मेन्टल हैं, इतना शब्द बोलकर छोड़ दिया, वह तो हम पर कितना उपकार किया। नहीं तो दूसरा तो मेन्टल इतने शब्द से ही नहीं छोड़ देता, वह तो लकड़ी लेकर मारता, सब कुछ कर सकता। मेन्टल का क्या गुनाह? कोई गुनाह नहीं न!

एक बैल खड़ा है उधर, तो हर एक को आप पूछेंगे कि क्या दिखता है उधर? तो कोई बोलेगा कि बैल दिखता है। कोई बोलेगा, हमें गाय दिखती है। कोई बोलेगा, हमें घोड़ा दिखता है। जिसकी जैसी दृष्टि पहुँचे, वैसा वह बोलेगा। दृष्टि नहीं पहुँचे तो फिर क्या करेगा? फिर बोलेगा, हमें गधा दिखता है। तो क्या बुरा मानने का? क्या हमें उस पर गुस्सा हो जाने का कि बैल है और तुम क्यों गधा बोलते हो? उसको दिखता नहीं, फिर उसका क्या गुनाह है बेचारे का? ऐसी ही सब भूल है दुनिया में। सच्चा दिखता नहीं, इसलिए भूल होती है।

कोई आदमी हमसे कहे कि आप गधे हो, तो हम समझ जायेंगे कि यह बात सही है। उसको जैसा दिखता है, ऐसा ही बोलता है। उसको मार-मार के उसका व्यू पोइन्ट बदलवाना अच्छा नहीं है। उसको समझाकर व्यू पोइन्ट बदलवा सकते हैं। जैसा जिसका व्यू पोइन्ट है, ऐसा ही वह करता है। कुत्ता, गधा, सभी जीव और सभी आदमी भी जिसका जो व्यू पोइन्ट है, ऐसा ही करता हैं।

प्रश्नकर्ता : यह दूसरी योनि में से मनुष्य में वापस आ सकते हैं क्या?

दादाश्री : वे सब दूसरी योनि में से ही इधर आते हैं। पशु में से कुत्ता, गधा वे सब इधर ही आते हैं। 32% से गधा होता है और 33% से मनुष्य होता है। 33% से पास होता है।

प्रश्नकर्ता : मनुष्य के सिवा दूसरे जो प्राणी हैं, वे प्रामाणिक हैं। उनकी योनि में भी बहुत अच्छे गुण हैं।

दादाश्री : हाँ। उनके परसेन्ट अच्छे रहते हैं। जो 32% से नापास हुआ हो वह मनुष्य जैसा ही दिखता है और 33% से पास हुआ हो, वह मनुष्य में होते हुए भी जानवर जैसा दिखता है। 33% से पास वाला तुमने देखा है या नहीं देखा?

प्रश्नकर्ता : देखा है।

दादाश्री : उनके साथ झगड़ा मत करो। जो 33% से पास हुआ है, उसके साथ क्या झगड़ा करना?! जो 50% से पास हुआ है, उसके साथ झगड़ा करो न!

प्रश्नकर्ता : जहाँ देखो वहाँ लोग स्वार्थी ही दिखाई देते हैं, ऐसा क्यों?

दादाश्री : कभी स्वार्थी आदमी तुमने कोई देखा है? हम अकेले ही स्वार्थी हैं!!! क्योंकि हम ‘स्व’ के अर्थ के लिए जीते हैं। आप जिसे स्वार्थी कहते हैं, वह स्वार्थ तो भ्रांति का स्वार्थ है यानी स्वार्थ नहीं, परार्थ है। परायों के लिए सच्चा-झूठा करता है, दखलबाजी करता है और अपार दु:ख सहन करता है। वो सब परार्थी हैं। परार्थी तो खुद का स्वार्थ बिगाड़ता है।

संसार - अपनी ही दखलों का प्रतिघोष
प्रश्नकर्ता : आपने कहा है कि कोई जीव दूसरे किसी जीव में दख़ल नहीं देता है, वह कैसे?

दादाश्री : वर्ल्ड में दखल करने वाला कोई जीव है ही नहीं। वह जो दखल करता है, वह तुम्हारी दखल का प्रतिघोष है। तुम्हारी समझ में आ गया न?

प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, और समझाइये!

दादाश्री : हमने कुछ दखल नहीं की है, तो हममें कोई दखल नहीं करता। वह तुमको जो दखल करता है, वह तुम्हारा पहले के जन्म का हिसाब है। आपको किसी ने दो गाली दी, तो आप सोचना कि दो ही गाली क्यों देता है? तीन क्यों नहीं देता है? एक क्यों नहीं देता है? फिर आप बोलेंगे कि ‘भाई, दो गाली दी, अभी और दूसरी दो गाली दे दो।’ तो वह बोलेगा कि क्या हम नालायक आदमी हैं? हम गाली नहीं देगा। गाली देना भी उसके हाथ में नहीं है। आपका हिसाब है, उतना ही मिलेगा। अगर आपको व्यापार चालू रखने का हो तो आप फिर से गाली दो और बंद करने का है तो गाली मत दो।

प्रश्नकर्ता : भगवान का न्याय और जगत् का न्याय अलग है क्या?

दादाश्री : दोनों अलग हैं। जगत् का न्याय भ्रांति से होता है। ये सब भ्रांति वाले न्यायाधीश हैं और भगवान का न्याय शुद्घ है। जैसा है वैसा ही न्याय करते हैं। दोनों न्याय अलग हैं।

जगत् का न्याय तो क्या कहेगा कि, जिसने जेब काट ली, उसकी भूल है और भगवान का न्याय कहता है कि जिसकी जेब कट गयी, उसकी भूल है। भगवान का सरल न्याय है। वास्तविक न्याय!! एक सेकन्ड भी यह जगत् न्याय बिना नहीं होता है। ‘जैसा है वैसा’ ही न्याय देता है। तुममें दखल करने वाला कोई वर्ल्ड में नहीं है। तुम्हारी दखल एक अवतार बंद हो जायेगी, फिर कोई दखल करने वाला नहीं है। सारे बम्बई में गुंडागर्दी चलती है, मगर आपको कोई हाथ नहीं लगायेगा।

प्रश्नकर्ता : यह दखल बंद कैसे करने की?

दादाश्री : कोई गुंडा तुम्हारी होटल में आ गया, उसे तुमने झगड़ा करके निकाल दिया। बाद में तुम ‘दादा भगवान’ को नमस्कार कर के बोलना कि, ‘हे भगवान! मुझे ऐसा करने का विचार नहीं था, मगर मुझे करना पड़ा’, तो ऐसे हमारे सामने आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान वहाँ घर पर बैठकर भी याद करके करोगे, तो तुम्हारी दखल पूरी हो जायेगी।

क्या करने का, समझ गये न? देखो, ऐसा बोलने का, ‘हे दादा भगवान, हमने गुंडे को बहुत मार दिया। हमको पश्चाताप होता है। उसकी मैं माफी माँगता हूँ, फिर ऐसा नहीं करूँगा’ ऐसे बोलेगा तो बहुत हो गया।

आपकी दखल कब कही जायेगी कि जब गुंडे को आपने मार दिया और पीछे बोलो कि गुंडे को तो मारना ही चाहिये। तो यह दखल हो गई। तुम्हारा अभिप्राय फिट हो गया कि मारना ही चाहिये। तो दखल चालू रहेगी और अगर तुम्हारा ओपिनियन ऐसा फिट हो गया कि मारना नहीं चाहिये और ऊपर से प्रतिक्रमण किया तो तुम्हारी दख़ल बंद हो जायेगी।

यह सब वीतराग भगवान की बात है। चौबीस तीर्थंकरों की बात है। कितनी अच्छी यह बात है!!!

आपकी जेब जो काटता है, वह सचमुच गुनहगार नहीं है। वह तो निमित्त है। गुनाह आपका है। आपको आपके गुनाह का फल मिलने का (समय) हुआ, तब वह निमित्त मिला है। उसका कोई गुनाह नहीं है। आज आपके गुनाह से वह निमित्त आ गया है। वह (जेब) काटने वाला तो अभी इधर से पैसा काट कर ले गया। उसको तो बहुत आनंद है, होटल में जायेगा, खाना खायेगा। दु:ख किसे होता है? जिसे दु:ख है उसका ही गुनाह है और वो आदमी (जेबकतरा) जब पुलिस के हाथ में पकड़ा जायेगा, तब उसका गुनाह पकड़ा जायेगा। आज आपको दु:ख होता है, तो आपका गुनाह पकड़ा गया। ऐसा हर एक मामले में है। आपको कोई गाली दे तो वह गुनाह आपका है, गाली देने वाले का नहीं। लोग क्या मानते हैं कि ये गाली देता है, इसका ही गुनाह है। चोर ने जेब काटी तो चोर ही गुनहगार है ऐसा बोलते हैं न सब लोग?

प्रश्नकर्ता :
अभी तक तो मैं भी वही मानता था कि गुनहगार चोर ही है।

दादाश्री : आप ही मानते हैं ऐसा नहीं, सारी दुनिया मानती है। मगर आप सोचेंगे तो आपको खयाल में आ जायेगा कि इसका गुनाह नहीं है।

प्रश्नकर्ता : चोर का गुनाह तो अभी नहीं है, लेकिन जब पकड़ा जाता है, तब गुनाह क्यों हो जाता है?

दादाश्री : नहीं, उस टाइम तो उसका गुनाह पकड़ा गया। तुमने पहले चोरी की थी, तो आज पकड़े गये। ऐसा उसने चोरी आज की मगर पुलिस पकड़ेगी तब उसका गुनाह पकड़ा जायेगा। ‘भुगते उसी की भूल’, जो भुगतता है उसी की भूल है।

प्रश्नकर्ता : फिर भी कभी कभी ऐसा लगता है, इस संसार में बहुत बड़ा अन्याय होता है।

दादाश्री : इस संसार में कभी अन्याय नहीं होता। जो भी कुछ होता है, वह न्याय ही होता है। हर एक जीव अपना खुद का हॉल एन्ड सॉल रिस्पोन्सिबल है। दूसरा कोई इसमें दखलंदाजी नहीं करता है। दूसरा कोई जो कुछ करता है, वह निमित्त है। कोई किसी को कुछ कर सकने वाला ही नहीं है। मगर अपनी ही भूल से वह निमित्त मिलता है। जिसकी भूल नहीं, उसको निमित्त नहीं मिलता। भगवान महावीर को कोई निमित्त नहीं था। क्योंकि उनकी भूल खत्म हो गयी थी। भूल थी तब तक उनके भी निमित्त थे और तब तक उन्हें उपसर्ग भी आये थे। किसी भी जीव को कुछ भी दु:ख नहीं देना चाहिये। कोई अपने को दु:ख दे तो सहन कर लेना चाहिये। किसी को दु:ख देने से बहुत रिस्पोन्सिबिलिटी आती है।

कितने नुकसान झेलोगे? एक या दो?
किसी ने तुम्हारी जेब काट ली और पचास हज़ार चले गये फिर तुम चोर को गाली देते हो मगर वह रुपये फिर वापस आते हैं या नहीं आते ?

प्रश्नकर्ता :
नहीं आयेगा।

दादाश्री : नहीं? तो तुम एक नुकसान में दो नुकसान झेलते हो। एक नुकसान तो निर्माण हुआ था और आप दूसरा भी खाते हो। किसी का एक ही लड़का हो, वह मर जाये तो लड़का गया, वह एक नुकसान तो हुआ और पीछे रोता है, सर फोड़ता है, कितना दु:खी होता है मगर लड़का क्या वापस आता है? घर के सभी आदमी रोने लगें तो भी वापस नहीं आता? ऐसे सभी लोग दोहरा नुकसान झेलते हैं।

पाँच लाख का मकान हो, वो ‘मेरा मकान, मेरा मकान’ कहता है मगर मकान जल जाये तो कितना दु:ख होता है? मकान जल गया वो एक नुकसान है, फिर रोता है वो दूसरा नुकसान है।

पाँच लाख का मकान हो और बनाने के बाद जल गया तो दु:ख होता है। कितना दु:ख होता है? पाँच लाख के हिसाब में दु:ख होता है। वह मकान बेच दिया, दस दिन के बाद वह मकान जल गया तो ? उसके पाँच लाख रुपये ले लिये, फिर मकान जल गया तो क्या होगा ?

प्रश्नकर्ता : तब कुछ नहीं, अब अपना क्या?

दादाश्री : पाँच लाख रुपये अपने घर लाये, और सब रुपये चोरी हो गये, फिर दूसरे दिन मकान जल जाये तो? तो भी असर नहीं होता न? पाँच लाख रुपये उसके हाथ में नहीं रहे, मकान बेच दिया था, फिर मकान जल गया मगर उसको कुछ असर नहीं होता, क्यों? वो ममता दु:ख देती है। तुम्हें ममता है? यह घड़ी तुम्हारी है, उसकी ममता तुम्हें है? ऐसी कितनी सारी चीज़ों में तुम्हारी ममता है? ऐसी सब चीज़ें लिख लें, लिस्ट बना दे तो कितने काग़ज़ हो जायेंगे?

प्रश्नकर्ता : बोल नहीं सकते कि कितने काग़ज़ हो जायेंगे?

दादाश्री : और जब मरने की तैयारी होती है, तब यह सब इधर ही छोड़करजाने का। तो दु:ख कौन देता है? सभी जगह पर ममता की वही दु:ख देती है। मगर तुम पहले से जानते नहीं कि यह सब छोड़ कर जाने का है? अपने फादर भी छोड़कर चले गये थे, वह आप जानते नहीं है?

प्रश्नकर्ता : फिर भी जो आँख से दिखता है, उसे मिथ्या कैसे मानें?

दादाश्री :
जब एक्सपीरियेन्स हो जाता है, तब मिथ्या मालूम हो जाता है। अभी एक लड़के ने शादी की तो उसकी वाइफ आयी, वह मिथ्या नहीं लगती है। वह सत्य ही लगता है। और छह महिने के बाद डिवोर्स दिया फिर ? तो मिथ्या हो गया। जब तक एकस्पिरियन्स नहीं हुआ, तब तक मिथ्या नहीं लगता। आँख से दिखता है, बुद्घि से समझ में आता है, वह सब मिथ्या है। आँख से जो दिखता है वह सब भ्रांति है, सच्ची बात नहीं है। जैसे एक आदमी ने दारू पी हो, खूब दारू पी, फिर जो बोलता है, वो दारू के नशे में बोलता है। ऐसे ही ये सब लोग भी नशे में ही बात करते हैं। मोह के नशे में हैं। मोह की दारू बहुत भारी है। ये सब लोग सारा दिन मोह के नशे में ही घूमते हैं।

यह वाइफ को ‘मेरी है, मेरी है’ करता है, मगर जब उसके साथ एक घंटा झगड़ा हो जाये फिर? फिर क्या होता है? डिवोर्स. और बाप-बेटे का एक घंटा झगड़ा हो गया तो? तो दोनों कोर्ट में चले जायेंगे। ऐसा ये सब मिथ्या है। मिथ्या सत्य कैसे हो जायेगा? कभी नहीं होगा। All these relatives are only temporary adjustment, not permanent adjustment! कोई परमानेन्ट एडजस्टमेन्ट तुमने देखा ? नहीं? सब टेम्पररी? क्योंकि यह देह भी टेम्पररी है, तो वह टेम्पररी में से परमानेन्ट कैसे हो जायेगा? और आप खुद आत्मा हैं, वो परमानेन्ट है। उसका रियलाइज़ेशन हो जाये तो फिर परमानेन्ट का अनुभव होता है। फिर ये मोह चला जाता है, निरंतर परमानेन्ट सुख, निरंतर परमानंद ही रहता है।

निमित्त को निमित्त समझें, तो?

एक आदमी जानबूझकर पत्थर मारता है और एक बन्दर है, वह आपके ऊपर पत्थर गिराता है। वो पत्थर आपको बहुत ज़ोर से लग जाता है। दोनों पर आपका भाव बिगड़ता है, दोनों पर आपको गुस्सा आता है? पर आपने देखा कि ये तो बन्दर है, तो आप क्या करते हैं?

प्रश्नकर्ता : उसे भगा देते हैं।

दादाश्री : मगर उस पर गुस्सा क्यों नहीं किया?

प्रश्नकर्ता : कुछ परपजली (इरादा से) तो नहीं किया है उसने।

दादाश्री :
और वह आदमी जानबूझकर पत्थर मारता है तो?

प्रश्नकर्ता : वहाँ गुस्सा आ जाता है।

दादाश्री :
वह जो पत्थर मारता है न, वे सभी बन्दर की तरह ही हैं। आपको यह ख्याल नहीं है। आपको लगता है कि वह जानबूझकर मारता है मगर ऐसा नहीं है। वह भी बन्दर की तरह ही है। हम देखते हैं कि सब बंदर की तरह ही हैं। इतना समझ गये तो कितनी गलती कम हो जायेगी !

जहाँ झगड़ा है, वहाँ पशुता है। भगवान ने क्या कहा है कि तुम्हें दो गाली तुम्हारा पड़ौसी दे, तो (वास्तव में) वो देता ही नहीं। बन्दर पत्थर मारता है, उस तरह समझ जाने का है। वह तुम्हारे ही कर्म का फल मिलता है और वह तो निमित्त है। तुम को गाली पसंद हो तो फिर तुम व्यापार करना। उसको तीन गाली दोगे तो तीन गाली वापस आयेगी। पाँच गाली दोगे तो फिर पाँच आयेगी। जितनी गाली दोगे उतनी ही वापस आयेगी। एक दफे कुछ भी नहीं बोला तो ये तुम्हारा खाता पूरा हो गया। मोक्ष में जाना है, तो सब खाते बंद तो करने पड़ेंगे न? कोई भी आदमी नुकसान करे तो वह निमित्त ही है और निमित्त को मारने से क्या फायदा?

इस जन्म का नहीं होगा तो पिछले जन्म का है। यह दुनिया ऐसी ही है। नयी कोई चीज़ नहीं मिलेगी। जो दिया है वही मिलेगा। तुम्हें पसंद नहीं हो तो वह फिर मत दो। पसंद हो तो ही दो। वही धर्म समझने का है। ऐसा धर्म समझ कर आगे कभी साक्षात्कार के संजोग मिलते हैं। मगर धर्म ही समझे नहीं तो फिर क्या करें? पाशवता ही हो जाये। पड़ौसी के साथ झगड़ा करता है, लड़ाई करता है, यह क्या मानवता है ?

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में कभी कभी करना पड़ता है।

दादाश्री :
व्यवहार में जो करना पड़े, वो न्याय से होना चाहिये। व्यवहार में कोई हर्ज नहीं, पर न्याय से होना चाहिये। न्याय के बाहर नहीं होना चाहिये।

कुदरत का असल न्याय
प्रश्नकर्ता : किसी आदमी में हार्ट की प्यॉरिटी रहती है, वह अच्छा है, प्रामाणिक है, फिर भी उसे संसार में प्रमोशन क्यों नहीं मिलता ?

दादाश्री : नहीं, वह प्रमोशन तो नहीं मिले मगर उसको खाना भी नहीं मिले, क्योंकि वह प्रारब्ध के हाथ में है। खाना मिलना, प्रमोशन मिलना, वह सब प्रारब्ध के हाथ में है।

प्रश्नकर्ता : वह प्रारब्ध कौन लिखता है?

दादाश्री : कोई लिखने वाला नहीं है। वह ऐसे (स्वत:) ही लिखा जाता है, जैसे मशीन चलता है न? ऐसे ही चलता है।

प्रश्नकर्ता :
अपने प्रारब्ध में ऐसे दु:ख भुगतने का क्यों आता है? इसमें भूल कहाँ होती है?

दादाश्री :
दूसरे को दु:ख देने का भाव किया, उसका फल दु:ख ही आयेगा और दूसरे को सुख देने का भाव किया तो उसका फल सुख ही आयेगा।

प्रश्नकर्ता : मगर हम सुख देने का भाव करते हैं, फिर भी ऐसा तो नहीं होता।

दादाश्री : नहीं, यह पहले जो भाव हो गये थे, उसका फल इस भव में मिलता है और अभी नये भाव करते हैं, उसका आगे के भव में फल आयेगा, इस भव में नहीं आयेगा। पीछे जो भाव किये थे, उसका फल तैयार हो गया और फल परिपक्व होने के बाद में मिलता है।

प्रश्नकर्ता : पिछले भव के कर्म के फल से आज कोई आदमी चोरी करता है, पर उसको आगे के जन्म में कुछ बिगड़े नहीं, ऐसा हो सकता है?

दादाश्री : हाँ, चोरी करने के बाद यदि वह बहुत पश्चाताप करे कि, ‘मैंने बहुत खराब किया, ऐसा नहीं करना चाहिये।’ तो आगे के भव के लिए बहुत अच्छा होगा।

प्रश्नकर्ता :
पश्चाताप तो मन का है न?

दादाश्री :
हाँ, बस ऐसा पश्चाताप हो गया, तो बहुत हो गया।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उसे जेल में भी तो जाना पड़े न?

दादाश्री : जेल में गया, वह तो चोरी की, उसका फल मिला।

प्रश्नकर्ता : ऐसे फल मिलने से उसका समाज में जो मान है, इज्ज़त है, वो तो चले जायेंगे न?

दादाश्री : हाँ, चोरी की तो समाज में मान रहता ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : एक बेटा दारू पीकर आता है और घर में आने के बाद अपने माँ-बाप को मारता है, तो उसमें भूल किसकी है?

दादाश्री : माँ-बाप की। जो मार खाता है, उसकी ही भूल है। दूसरे माँ-बाप को क्यों मार नहीं पड़ती? इनको क्यों मारता है? वह माँ-बाप की भूल है।

प्रश्नकर्ता :
तो माँ-बाप को मार नहीं खानी चाहिये न फिर?

दादाश्री : मार नहीं खायेगा तो क्या करेगा?

प्रश्नकर्ता : अगर कुछ कर सकता है तो मार नहीं खाना न!

दादाश्री : मार नहीं खायेगा, तो क्या करेगा? वह मार ही मारेगा। वह दारू पियेगा, सब कुछ करेगा और पीने के पानी के अन्दर ज़हर भी डाल देगा और तुम सब को मार डालेगा।

प्रश्नकर्ता : तो इसमें बाप का क्या गुनाह है?

दादाश्री : माँ-बाप का बहुत ही गुनाह है।

प्रश्नकर्ता : कैसे?

दादाश्री : वह पूर्वजन्म का हिसाब है। देखो, मैं तुम्हें समझाता हूँ। किसी ने आपकी जेब काट ली और पाँच हज़ार लेकर भाग गया और वह फिर आप के हाथ में नहीं आया। सब लोग क्या बोलेंगे कि ‘जो भाग गया उसकी भूल है।’ आप तो यहाँ रोते हैं। कौन रोता है? जिसकी भूल है, वो ही रोता हैं। चोर तो अभी मौज कर रहा है, वो जब पकड़ा जायेगा तब रोयेगा, तब उसकी भूल है। आज तो जो रोता है, वही पकड़ा गया है। यह तो ‘भुगतता है उसी की भूल’। ऐसे ये फादर-मदर आज पकड़े गये हैं।

आपकी होटेल में किसी आदमी ने सौ रुपये का चाय-नाश्ता किया और रुपये आपको नहीं दिये, तो वह आपकी भूल है, उसकी भूल नहीं है। आप आज पकड़े गये। इसलिए उसको गाली मत दो। भगवान ऐसा बोलते हैं कि आपकी भूल से ही वो आपको मिला। वो तो आपके सौ रुपये का नुकसान करने के लिए निमित्त है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, इस संसार में हम रहते हैं तो ऐसा हर बार छोड़ देने से काम कैसे चलेगा?

दादाश्री :
नहीं चलेगा तो फिर क्या करोगे तुम?

प्रश्नकर्ता : देखिए, हमारा होटल है। उसमें झगड़े करने वाले लोग भी आते हैं। अगर उन्हें रोकेंगे नहीं, तो वे हमेशा झगड़े करते ही रहेंगे।

दादाश्री : उनको तो रोकना ही चाहिये। रोकने में कोई हर्ज नहीं है। मगर जिसने मार खाई उसकी भूल है। आपको मारा तो आपकी भूल है। जो सहन (बर्दाश्त) करता है, उसकी भूल है।

प्रश्नकर्ता : तो फिर सहनशीलता कितनी हद तक आदमी को रखनी चाहिये?

दादाश्री : सहनशीलता रखने की ज़रूरत ही नहीं। सहनशीलता ज़्यादा रखेंगे तो स्प्रिंग की तरह उछलेगी और झगड़े हो जायेंगे। सहनशीलता कायदेसर (नियमानुसार) नहीं है।

प्रश्नकर्ता : इसका मतलब यह कि कर्म तो करते ही जाना?

दादाश्री : कर्म तो करना ही है। कोई गुंडा आये तो बोलने का कि ‘हम तुमको मार देगा।’ हम खुद मार खायें ऐसा नहीं करने का। लेकिन उसके सामने हो गये, फिर जिसने मार खाया उसकी भूल है।

एक आदमी स्कूटर पर जाता है और सामने से एक कार आकर उसको टकरा गई और उसका पाँव तोड़ दिया, तो वहाँ पर किसकी भूल है? जिसका पाँव टूट गया उसकी भूल है। कार वाला तो जब पकड़ा जायेगा तब उसकी भूल है। मगर स्कूटर वाले को, उसकी भूल हो गयी थी, उसका फल मिल गया।

प्रश्नकर्ता :
लेकिन उसकी भूल कैसे, दादाजी?

दादाश्री :
पूर्वभव की भूल है, आज उसको फल मिल गया। वह सब को क्यों नहीं मिलता? यह हिसाब है। यह सब आपको मिला है, हम आपको मिले हैं, यह पूर्वभव का हिसाब है। आपको कुछ समाधान हुआ क्या?

प्रश्नकर्ता :
हाँ, हो गया।

दादाश्री : यह जो मच्छर है वह कभी काटते हैं, तो आदमी क्या करता है? उसको मार देता है। और वह ‘बबूल का शूल’ ऐसे रास्ते में पड़ा है और आप बिना चप्पल चल रहे हैं, तो आपका पाँव ऐसे उसके ऊपर आ गया तो पाँव में लगा, तो उसके लिए कौन गुनहगार है? वहाँ पर तो मच्छर गुनहगार है, इसके लिए उसको मार दिया लेकिन इधर वह शूल पाँव के अंदर चला गया, वहाँ कौन गुनहगार है?

प्रश्नकर्ता :
हम खुद ही गुनहगार हैं।

दादाश्री :
हाँ, ऐसे ही है। आपकी ही भूल है। जो कोई आपको दु:ख देता है यह सब आपकी भूल से ही देता है और सुख देता है वह भी आपने जो सुख दिया है, तो सुख आता है। आपकी कुछ भूल है, इसलिए दु:ख है। हमें कोई दु:ख नहीं है क्योंकि हमारी कोई भूल नहीं है।

अपनी भूल से छूटना कैसे?
दूसरे को कोई तकलीफ नहीं हो ऐसा होना चाहिये और अपनी भूल से किसी को परेशानीहो गई तो क्या करने का, कि उसके अंदर शुद्घात्मा भगवान है, उनके पास माफी माँगने का कि, ‘हे शुद्घात्मा भगवान, आज मेरे से उस आदमी को बहुत परेशानी हो गई, बहुत नुकसान हो गया। हे भगवान, उसकी मैं माफी माँगता हूं, मेरी इच्छा नहीं थी, फिर भी ऐसा हो गया है, मुझे माफ करो। फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा। ऐसा नहीं होना चाहिये।’ ऐसा आप भगवान से बोलो। क्योंकि दुनिया में सभी जीव मात्र के अंदर भगवान बैठे हैं। सभीदेहधारी के अंदर शुद्घ चेतन रूप बैठे हैं। भगवान ये नोंध(नोट) करते हैं कि ‘रवीन्द्र ने ये बुरा किया, इसको नुकसान किया’ और फिर इसका आपको फल मिलता है। रोज़ सुबह में ऐसा बोलने का कि ‘मुझसे किसी भी जीव को किंचित्मात्र दु:ख न हो’। ऐसी भावना करके बाहर निकलने का। इतना करेगा? तो कल से ही चालू कर देना। फिर किसी को दु:ख हो गया तो, ‘हे शुद्घात्मा भगवान, ये इतनी मेरी गलती हो गई, मुझे माफ कर दो, फिर गलती नहीं करेंगे।’ इतना ही बोलने का, दूसरा कुछ नहीं बोलने का। बाहर मूर्ति के पास जाना-नहीं जाना, वो तो आपकी मर्ज़ी की बात है, मगर सच्चे भगवान तो अंदर ही है।

प्रश्नकर्ता : समझ लो मेरे से गलती नहीं हुई है, तो?

दादाश्री : सारा दिन गलती ही होती है। आपकी कितनी गलती होती है, मालूम है? रोज़ की पाँच हज़ार गलतियाँ होती हैं लेकिन आपको गलती का पता ही नहीं है। क्योंकि गलती की तलाश कैसे करते हो? गलती तो, इतनी बड़ी बड़ी गलतियाँ है, बहुत गलतियाँ हैं। किसी के साथ गुस्सा हो गया, किसी की कोई चीज़़ लेने का भाव हो गया, व्यापार में कपट करके ज़्यादा ले लेने का विचार हो गया, ऐसा विचार भी हो तो भी गलती है और उसकी भगवान के पास माफी माँग लेने की।

ऐसी गलती होती है या नहीं होती है?

प्रश्नकर्ता : हाँ, ऐसी गलती तो करता हूँ।

दादाश्री : आप तो कोई कोई बड़ी गलती देख सकते हैं, मगर आज से आप ज़्यादा देखेंगे। जब हम आत्मसाक्षात्कार करा देंगे फिर बहुत दिखेगा, सूक्ष्म भी दिखेगा। और जितनी गलतियाँ देखोगे, उतनी गलती की माफी माँग लो, तो वो गलती चली जायेगी, खत्म हो जायेगी। बस वही धर्म है, चौबीस तीर्थंकरों का। बाकी, शास्त्र तो एक आदमी के लिए नहीं लिखे हैं, सब के लिए लिखे हैं। उसमें जो लिखा है, वे सब चीज़ें आपके लिए नहीं हैं। आपको जिसकी ज़रूरत है, उतनी ही बात आपके लिए है। आपको क्या ज़रूरत है, आपकी प्रकृति को क्या अनुकूल है, वही बात ले लेने की है। दूसरी सब बात अपने को क्या करनी है? भगवान ने शास्त्र तो सब के लिए लिखे हैं। अपनी प्रकृति को अनशन अनुकूल आये तो अनशन करना, अनुकूल न आये तो मत करना।

‘निजदोष क्षय’ का साधन
प्रश्नकर्ता : स्वरूप का ज्ञान न मिले, तब तक क्या करना चाहिये ?

दादाश्री : तब तक भगवान की बात है, उसकी आराधना करनी है। वीतराग भगवान की दो बातें करने की हैं। एक तो आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान करने चाहिये। भूल से अपने हाथ से दूसरे को लग जाये, तो हमे तुरंत ही आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान करना चाहिये। जितना आक्रमण या अतिक्रमण हुआ, उन सबकी आलोचना, अपने गुरू हों, उन्हें लक्ष्य में रखकर, अपनी भूल को कबूल करनी चाहिये। फिर प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करना चाहिये। प्रतिक्रमण केश, ऑन द मोमेन्ट करना चाहिये। और दूसरी बात ये दुषमकाल है, आर्तध्यान और रौद्रध्यान के विचार होते हैं। उसमें विचार नहीं करना होता है तो भी हो जाता है, तो उसका भी आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान करना चाहिये। श्रीमद् राजचंद्र ने लिखा है, ‘मैं तो दोष अनंत का पात्र हूँ करूणार।’ और दूसरा क्या कहते हैं कि ‘देखे नहीं स्व दोष तो तैरे किस उपाय?’ अपने दोष अपने को नहीं दिखे तो पार उतरने का मार्ग ही नहीं है। ये लोग दो सौ-दो सौ, पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण हर रोज़ करते हैं, तो आपके दोष आपको क्यों नहीं दिखते? मैं आपको बता दूँ? दोष होते हैं, फिर भी आपको नहीं दिखते तो उसका क्या कारण है?

प्रश्नकर्ता : आप बताइये।

दादाश्री : आपने दोष किये हैं, इसलिए आप ‘आरोपी’ है और आप जज भी है और आप वकील भी है। खुद ही वकील, खुद ही जज और खुद ही आरोपी। बोलिए, कितना गुनाह मालूम पड़ेगा? खुद जज है, इसलिए कहता है कि, ‘तू आरोपी हो या नहीं?’ तो वकील क्या प्लीडिंग करता है कि, ‘सब लोग ऐसा करते हैं, उसमें मेरा क्या गुनाह है?’ प्लीडर है या नहीं तुम्हारे पास? और इन ‘महात्माओं’ को प्लीडिंग नहीं होती, क्योंकि ये दोष होते ही ‘शूट ऑन साइट’ प्रतिक्रमण करते हैं। ‘शूट ऑन साइट’ इधर होता है न? जब हुल्लड़ होता है, तब डी.एस.पी. वहाँ ‘शूट ऑन साइट’ करने को कहता है। लेकिन अंदर जब हुल्लड़ होता है, तब ‘शूट ऑन साइट’ होना चाहिये। जो दोष होता है, उसका प्रतिक्रमण करो। जितने प्रतिक्रमण किये उतने शुद्घ हो गये और प्रतिक्रमण नहीं किया तो फिर क्या होता है?

प्रश्नकर्ता :
मल्टीप्लिकेशन होता है।

दादाश्री : ‘ज्ञानी पुरुष’ के अंदर तो दोष ही नहीं रहते, इसलिए उन्हें निग्र्रंथ बोला जाता है। स्वरूप का ज्ञान होने के बाद वकील नहीं रहता। आप खुद जज है, आप ही आरोपी है और वकील भी आप है, तो कितना गुनाह आपको दिखेगा? तुम्हारी कितनी गलती दिखेगी ?

प्रश्नकर्ता : अपनी गलती नहीं दिखेगी।

दादाश्री : क्यों नहीं दिखती?

प्रश्नकर्ता : क्योंकि अज्ञान है।

दादाश्री : हाँ, मगर आप वकील रखते हैं, वह वकालत करता है कि, सब लोग तो ऐसा करते हैं, इसमें मेरी क्या गलती है? ऐसा बोलता है कि ‘अपना कोई गुनाह नहीं है’।

प्रश्नकर्ता : ये वकील अपनी गलती को छिपाते हैं।

दादाश्री : हाँ, वकील सब गलतियों को छिपाते हैं। इन सभी ‘महात्माओं’ को हर रोज़ सौ-दो सौ गलतियाँ दिखती है और उतने प्रतिक्रमण भी करते हैं। आपने कितने प्रतिक्रमण किये?

प्रश्नकर्ता : कभी-कभी पश्चात्ताप हो जाता है।

दादाश्री :
हाँ, ठीक है मगर पश्चात्ताप तो फॉरेन वाले के लिए है। अपने लोगों को तो प्रतिक्रमण करने हैं। ये साधु लोग जो प्रतिक्रमण करते हैं वह तो पुस्तक में अर्धमागधी भाषा में लिखा है, वही प्रतिक्रमण बोलते हैं। प्रतिक्रमण का यथार्थ अर्थ क्या है कि तुमने किसी के साथ अतिक्रमण किया तो फिर तुम्हारे को प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। अतिक्रमण नहीं किया, तो प्रतिक्रमण करने की कोई ज़रूरत नहीं है। सहज भाव से, क्रमण से दुनिया चल रही है मगर अतिक्रमण यानी किसी को दु:ख हो जाये ऐसा तुम कुछ करोगे, तो फिर तुम्हारे को प्रतिक्रमण करना पड़ेगा।

- जय सच्चिदानंद



दुःख तो only wrong belief ही है। जिसको wrong belief है, वहाँ दुःख है। जिसको wrong belief नहीं, वहाँ दुःख ही नहीं है। - दादाश्री