भाग 102
सब के सो जाने पर गुलाब महेश के पास कमरे में गई। वो किताब खोले बाहर वाले कमरे में पढ़ाई कर रहा था। चार पांच महीने बाद ही उसकी फाइनल परीक्षा होने वाली थी। उसी की तैयारी में ध्यान केंद्रित कर रहा था।
भिड़े दरवाजे को खोल कर वो महेश के पास गई और बोली,
"बाबू….! चल अंदर वाले अपने कमरे में चल। वही सो जाना।"
महेश अनभिज्ञ बनता हुआ बोला,
"नही मां..! मुझे यहीं रहने दो। अभी पढूंगा मैं।"
गुलाब पास आ कर उसकी किताब बंद कर दी और बोली,
"जिंदगी भर पढ़ाई ही करनी है। चल अंदर.. बहू तेरा इंतजार करती होगी।"
महेश ने शर्म से सिर झुका लिया। वैसे ही बैठा रहा।
गुलाब समझ गई कि बेटा शरमा रहा है। अपने आप जाने से रहा। उसे जोर लगा कर बाजुओं से उठाते हुए बोली,
"चल.. अब ज्यादा मान मनौव्वल मत करवा।"
फिर खींच कर अंदर पुरवा के कमरे की ओर ले आईं।
उसे अंदर कर के दरवाजा बाहर से कुंडी लगा कर बंद कर दिया और बोली,
"सुबह जल्दी जाग जाना। मैं खोल दूंगी कुंडी।"
इतना कह कर दिन भर की भाग दौड़ से थकी गुलाब भी सोने चली गई।
गुलाब जब पुरवा से बात कर सब कुछ समझा कर, उसका बड़ा सा घूंघट निकाल कर बीच पलंग पर बिठा दिया था। ये कहा था कि जब तक महेश खुद घुघट ना उठाए वो अपना चेहरा ना खोले। फिर उसके पांव छू कर बात चीत शुरू करे। कैसा सब कुछ बता कर गुलाब ने महेश से पुरवा को दिलवाने के लिए अंगूठी बनवाई थी। उसे बक्से से निकलने और फिर बाहर जा कर महेश को अंदर लाने में कुछ समय लग गया था। दिन भर के पूजा पाठ और बनारसी साड़ी और गहनों से लदी पुरवा बेइंतहां थक गई थी। सास के जाने के कुछ देर बाद तक तो वो बैठी रही। फिर जाने कब उसकी आंखे लग गई और वो वहीं बिस्तर पर बैठे बैठे ही लुढ़क कर सो गई।
महेश मां के कमरे के अंदर कर के जाने बाद पलंग की ओर हाथ में अंगूठी की डिबिया थामे मुड़ा। देखा तो बिलकुल लाल गठरी बनी पुरवा बेधड़क सो रही है।
महेश ने धीरे धीरे, "पुरवा.. ! पुरवा..! आवाज लगाई। पर गहरी नींद में डूबी पुरवा उसकी आवाज से अनजान सोती ही रही।
महेश को लगा जगाना उचित नहीं है। पर अब बाहर भी नही जा सकता था क्योंकि मां कुंडी लगा कर चली गई थी। कुछ देर खड़ा रहा.. पुरवा बीच पलंग पर सो रही थी। वो सोए भी तो कैसे.!
जब कुछ समझ नही आया तो, चुपचाप उसने अपनी दूसरी किताब निकाली और लालटेन की रौशनी में जमीन पर बिछी डरी पर पढ़ने बैठ गया।
बीच बीच में जब पुरवा करवट बदलती तो चूड़ी पायल की छुन छन की आवाज से महेश का ध्यान उधर चला जाता।
सोते हुए उसका घूंघट सरक गया था। लाल लाल चुनरी के बीच से उसका दुग्ध धवल चेहरा चंद्रमा की भांति चमक रहा था। बेखबर सोई हुई किसी अबोध बच्ची जैसी प्रतीत हो रही थी।
महेश को अब महसूस हुआ कि जो सब औरतें पुरवा कि सुंदरता की तारीफ कर रही थीं वो झूठ नहीं था। अभी कुछ दिन पहले तक वो ब्याह करने को राजी नहीं था, बस मां पिताजी की इच्छा की वजह से उसे ब्याह करना पड़ा था। पर अब उसे पुरवा की सुंदरता ने ऐसा मुग्ध कर दिया था कि वो कुछ देर ही किताब में ध्यान लगा पाता। फिर बरबस ही उसकी नजर पुरवा की ओर चली जाती। चली तो जाती नजर पर वापस किताब पर लौटना भूल जाती।
पता नही कब दरी पर ही महेश की आंख लग गई। वो सो गया।
गुलाब किरण फूटने के पहले ही आई और कुंडी खटकाई। फिर कुछ देर रुक कर कुंडी खोल दिया
अंदर कमरे में देखा तो महेश जमीन पर सोया हुआ था और पुरवा कुंडी खटकने से अभी तुरंत ही जाग कर बिस्तर पर बैठी हुई थी। अपने खुले हुए सिर को ढापते हुए बिस्तर से उठ कर खड़ी हो गई।
गुलाब ने नीचे देखा तो महेश दरी पर किताब पर सिर रक्खे हुए सो रहा था।
गुलाब ने सवालिया नजरों से पुरवा को देखा और पूछा,
"बहू..! ये बाबू नीचे क्यों सो रहा है..?"
पुरवा ने विस्मय से नीचे देखा और बोली,
"मां..! मुझे नही पता..! ये कब आए..? और नीचे क्यों सोए हैं।"
गुलाब ने अंदाजा लगा लिया कि शायद पुरवा ही पहले सो गई होगी। बात को संभालते हुए महेश को जगाते हुए बोली,
"उठ बेटा..! नीचे क्यों सो रहा है..? अभी कोई देख लेगा तो हजार तरह की बातें बनाएगा। उठ चल पलंग पर सो जा।"
महेश नींद में ही उठा और पलंग पर फिर से सो गया।
गुलाब पुरवा को अपने साथ ले कर नहाने धोने के लिए ले कर चली गई।
आज रसोई छूना था पुरवा को इस लिए गुलाब नहाने के बाद पुरवा को तैयार कर के अपने साथ रसोई में ले गई।
पुरवा को तो सब कुछ आता ही था। फिर भी गुलाब उसकी मदद के लिए साथ साथ में लगी रही। नौ बजते बजते पूरा खाना तैयार हो गया।
घर में मौजूद सभी लोगों ने पुरवा के हाथ का पका खाना खा कर उसे उपहार स्वरूप कुछ रुपए और ढेर सारा आशीर्वाद दिया।
इधर महेश जाग गया था। पर सोने का नाटक किया हुए लेटा रहा। अगर उठ कर बाहर चला गया तो फिर जाने कब मां अंदर आने के लिए कहेगी..! लेटा हुआ इंतजार कर रहा था कि कब पुरवा आयेगी..?
जैसे ही पुरवा का काम खत्म हुआ गुलाब उसे कमरे के पास ले कर आई और आराम करने को बोल कर दरवाजा भिड़ा कर चली गई।
अंदर बिस्तर पर महेश सोया हुआ था। कैसे वो बिस्तर पर जा कर बैठे यही सोचती हुई पुरवा ठिठकी दरवाजे के पास ही खड़ी रही।
महेश कनखियों से सब देख रहा था।
कुछ देर यूं ही खड़ी रही।
महेश समझ गया कि ये पूरी मिट्टी की माधव है। ऐसे ही खड़ी रहेगी ये। इसलिए अचकचा कर उठ बैठा और अभिनय करते हुए बोला,
"अरे..! तुम कब आई…? वहां ऐसे बुत बनी खड़ी हुई हो जैसे सजा बोली गई हो। आओ यहां बैठ जाओ।"
पुरवा फिर भी वैसे ही सिर झुकाए खड़ी रही।
महेश उठ कर खड़ा हो गया और उसे कंधे से पकड़ कर बिस्तर पर बिठा दिया और बोला,
"बैठ जाओ.. आराम से। तुमको खा नही जाऊंगा।"
सहमी सी पुरवा सिर झुकाए बैठी रही।