कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 101 Neerja Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 101

भाग 101

सिंधौली से डोली महाराज गंज पहुंचने में शाम हो गई। कई बार रुक कर सुस्ताते सुस्ताते कहार चल रहे थे।

गुलाब ने बहू की अगवानी की पूरी तैयारी कर रक्खी थी। बस बहू बेटे के घर पहुंचने का इंतजार था।

जैसे ही डोली गांव में पहुंची। बच्चे हो हल्ला करते हुए उसके पीछे पीछे हो लिए। उन्हीं में से एक भाग कर ये खबर पहुंचाने घर गया कि कनिया आ गई है।

जैसे ही खबर मिली गुलाब सूप, लोढ़ा मूसल ले कर परिच्छन के लिए तैयार हो कर बाहर खड़ी हो गई।

डोली रखते ही पहले गुलाब गई और डोली का परदा हटा कर झांका। पुरवा घूंघट निकाले बैठी हुई थी। गुलाब ने घूंघट हटा कर उसे समझाया कि जब कोई भी उसे देखने के लिए घूंघट हटाए तो वो अपनी आंखे बंद कर ले। पुरवा ने धीरे से सिर हिला कर इशारा कर दिया कि वो उनकी बात समझ गई है।

इसके बाद डोली से बाहर सिर निकाल कर गुलाब ने पुरवा को भी अपने मजबूत बाजुओं में थाम कर उतारा। इतनी देर तक लगातार बैठने से उसकी कमर अकड़ गई थी। पांव में झुनझुनी चढ़ गई थी। किसी तरह गुलाब बुआ के सहारे से खड़ी हुई। फिर कुछ ठीक होने पर उसने खुद को गुलाब बुआ से अलग ठीक से खड़ी हो गई।

घर की महिलाएं मंगल गीत गाने लगी। महेश और पुरवा को साथ खड़ा कर के गुलाब परिच्छन करने लगी। गुलाब इस सुंदर जोड़ी को निहार कर खुशी से गदगद हुई जा रही थी। जैसा सजीला उसका बेटा था उससे इक्कीस बहू घर आई थी।

परिच्छन के बाद सिर पर कलश और दउरा में डग रखवाते हुए डगमगाती पुरवा को थाम कर गुलाब ने गृह प्रवेश करवाया।

तमाम पूजा पाठ पूरा होने के बाद वहां मौजूद औरतों को पुरवा का घूंघट उठा कर मुंह दिखाई करवाई। सब के जुबान पर बस एक ही शब्द था… कनिया बहुत छांट कर लाई है। ऐसी सुंदर तो पूरे गांव में कोई लड़की नहीं है। हीरा है हीरा गुलाब की बहु। ऐसे ही जितने मुंह उतनी तरह की तारीफे पुरवा के सुंदरता की हो रही थी।

महेश भी चुपचाप सुन रहा था। उसने तो पुरवा की ओर अब तक पुरवा की ओर देखने की कोशिश भी नही की थी। नाराज जो था इस तरह अचानक उसका ब्याह कर दिया गया था। पर अब तारीफ सुन कर उसके मन में भी जिज्ञासा हो रही थी आखिर कितनी सुंदर है…? जिसकी सब इतनी तारीफ कर रहे हैं। पर कैसे देखे..! अभी तक तो वो मुंह फुलाए मां पिताजी से हां ना में बस बातें कर रहा था।

पूजा पाठ निपटने के बाद गुलाब ने पुरवा को उसके कमरे में पहुंचा दिया। उनको पता था की पुरवा ने कल से ठीक से नही खाया होगा। उसके सामने बखीर और दाल भरी पूड़ी रखते हुए बोली,

"पुरवा..! तुम भूखी होगी। लो इसे खा लो।"

फिर खुद वहीं उसके बगल में बैठ गई।

पुरवा उनकी बात रखने के लिए धीरे धीरे बस टुंग रही थी।

गुलाब उसकी घबराहट और संकोच को समझ रही थी। कोई भी लड़की अपना मायका छोड़ कर तुरंत ही तो ससुराल को अपना घर नही समझने लगती। समय लगता है। धीरे धीरे फिर यही घर परिवार उसका अपना हो जाता है।

इस लिए पुरवा को समझाते हुए बोली,

"पुरवा..!तुम नई जगह समझ कर बिलकुल मत घबराना। हम हैं ना तुम्हारा साथ देने को। सब धीरे धीरे ठीक हो जायेगा। कुछ दिनों में तुम्हारा मन भी लगेगा और घर परिवार भी अपना सा महसूस होने लगेगा।"

पुरवा ने थोड़ा सा खा कर थाली बगल सरकने लगी कि अब नहीं खायेगी।

गुलाब ने लाड जताते हुए कहा,

"थोड़ा सा… बस.. थोड़ा सा और खा लो।"

पुरवा संकोच से बोली,

",बुआ..! अब नही खाया जायेगा मुझसे।"

इसका अपने लिए बुआ संबोधन सुन कर गुलाब हंस पड़ी और बोली,

"पगली…! अब मैं तुम्हारी बुआ थोड़ी ना हूं, जो बुआ कह रही हो। महेश की तरह तुम भी मुझे मां कहा करो। समझी…?"

पुरवा ने हां में सिर हिलाया।

गुलाब बोली,

"फिर कहो मां.."

संकोच से पुरवा ने धीरे से मां कहा।

गुलाब ने इस अभी अभी मां की आंचल की मीठी छांव से वंचित हुई बच्ची को प्यार से सीने से भींच लिया। और बोली,

*मेरी बहु…! मेरी लक्ष्मी…! मेरी पुरवा।"

पुरवा को महसूस हुआ कि वो एक ऐसी जगह आ गई है जहां पर उसे मां की ममता के लिए तरसना नही पड़ेगा। उसे हर दुख, परेशानी से दूर रखने के लिए गुलाब बुआ के आंचल की छाया हर दम उसके ऊपर रहेगी

उसे आराम करने को कह कर गुलाब अपना काम धाम देखने बाहर चली आई।

महेश की उत्कंठा चरम पर पहुंच रही थी। कैसे वो पुरवा की एक झलक पा जाए।

कभी पानी के बहाने तो कभी किसी को ढूंढने के बहाने बार बार आंगन में आता। पर फिर वापस लौट जाता।

इस बार आंगन में आया तो बहुत हिम्मत बटोर कर अपने कमरे की ओर जाने लगा। उसे उधर जाते देख एक रिश्ते की भाभी ने छेड़ते हुए कहा,

"उधर कहा.. बबुआ जी….! बिना कनिया को देखे नही रहा जा रहा है का..? जाइए .. जाइए.. बाहर। अभी नही जाना है अंदर।"

महेश झेंपते हुए बोला,

"अरे… भौजी…! जैसा आप सोच रही हैं ऐसा कोई बात नही है। वो मेरा इम्तहान है ना। इसी लिए किताब लेने जा रहे थे।"

भाभी ने अपनी चौदह साल की बेटी से कहा,

"देख बिट्टो..! चचा जो भी किताब कह रहे हो.. उसे चाची के कमरे से ला कर उनको दे दे।

बिट्टो ने महेश की बताई किताब ला कर उसको पकड़ा दी।

भौजी मजा लेते हुए हंस कर बोली,

"अब जाओ बबुआ..! मन लगा कर पढ़ो। जब बुलावें तब आना। ठीक..!"

महेश अपनी चोरी पकड़े जाने से खिसियाया सा किताब ले कर बाहर के कमरे में चला गया।

वहा मौजूद सभी औरतें मुंह दबा कर हंसने लगी।

अगले दिन वनदेवी की पूजा थी।

फिर उसके बाद ही महेश को पुरवा के पास जाना था।

अगला दिन भी पूजा पाठ रीति रिवाजों में बीता।

उसे बस साड़ी के बाहर गोरे गोरे पुरवा के हाथ ही नजर आते।

बहुत से लोग बारात नही जा पाए थे। इसलिए जवाहर जी ने आस पास के कई गांव के लोगों को दावत दी थी। तरह तरह के पकवान बने थे। सब ने खूब स्वाद ले कर छक कर खाया। फिर दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देते हुए अपने घर लौट गए।

जो आस पास के रिश्तेदार थे दावत के बाद वो भी आपने घर वापस चले गए। अब जो दूर से आए थे,

बस वही खास खास लोग ही बचे थे।

सब निपटते निपटाते देर रात हो गई।

सब के सो जाने पर गुलाब महेश के पास कमरे में गई। वो किताब खोले पढ़ाई कर रहा था।