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लाज...

ये कहानी लगभग आज से पचास साल पहले की है,जो मेरी नानी ने मुझे सुनाई थी,उनके समय में ऐसा हुआ था...
तो कहानी कुछ इस प्रकार है....

"बिंदिया!पता है मैं क्या सोच रहा था?,"बिंदिया के पति मदन ने कहा...
"क्या सोच रहे थे जी"?,बिंदिया ने पूछा...
"यही कि इस साल फसल अच्छी हो गई है,तुमने पाँच नई साड़ियाँ भी ले लीं हैं और नया मंगलसूत्र भी तो बनवा लिया है तो क्यों हम दोनों शहर घूमकर आएं,तुम कितनी बार कह चुकी हो शहर घुमाने को तो कभी मेरे पास समय नहीं रहता तो कभी पैसें और वैसें भी शादी के दो साल होने को आए हैं हम लोग कहीं घूमने भी नहीं गए,बताओ चलोगी शहर",मदन ने पूछा...
"नेकी और पूछ पूछ",कब ले चलोगे शहर"?बिंदिया बोली....
"बस परसों ही चलते हैं",मदन बोला...
और फिर वो दिन आ ही गया जब दोनों पति-पत्नी दस मील का कच्चा रास्ता पैदल पार करके सड़क के किनारे बस की प्रतीक्षा में खड़े थे,मदन के लिए शहर आना-जाना कोई नई बात नहीं थी, किंतु बिंदिया पहली बार किसी नगर में जा रही थी,उसका मन उत्साह और उमंगों से भरा था,भर्र-भर् की आवाज करती बस वहाँ आई और खड़ी हो गई,महिला को बस में सवार होता देखा तो कंडक्टर ने कुछ नम्रता दिखाई और उस के लिए अपने पास की सीट खाली करवा दी,बिंदिया ने आदर के साथ पति की ओर देखा, जैसे कि कह रही हो कि तुम इस सीट पर बैठ जाओ,लेकिन जैसे ही मदन उस सीट की ओर बढ़ा तो कंडक्टर ने उपेक्षापूर्वक कहा....
"कहाँ चले आ रहे हो?तुम्हारी पत्नी को कोई उठा नहीं ले जाएगा।"
बिंदिया को कंडक्टर के व्यवहार पर बहुत गुस्सा लेकिन वो बोली कुछ नहीं,लेकिन उसने कंडक्टर को गुस्से से घूरा तो बिंदिया के तिरस्कार भरे नेत्रों से कंडक्टर सहम गया और फिर कंडक्टर ने मदन के लिए भी जगह खाली करवा दी, पति-पत्नी दोनों आमने सामने की ओर बैठ गए,लेकिन बिंदिया पहली बार किसी परपुरुष के बगल में बैठी थी,इसलिए मारे लज्जा के गड़ी जा रही थी,उसकी आँखें लज्जा से झुकी जा रहीं थीं, दोनों हाथों को जाँघों के बीच समेटकर वह चुपचाप बैठ गई और बस पों—पों करती चल दी,
थोड़ी देर में बस रुकी और लंबी पगड़ी और काला कोट पहने हुए एक बूढ़ा आदमी सामने आ खड़ा हुआ,उसकी बड़ी-बड़ी मूँछे थीं ,उसने कंडक्टर से कहा,
"मुझे भी सीट चाहिए"
कंडक्टर ने मदन से कहा,
"तुम पीछे चले जाओ।"
और मदन चुपचाप पीछे जाने लगा तो बिंदिया भी उठ खड़ी हुई,तब कंडक्टर बोला...
"बहनजी! तुम्हारे लिए पीछे जगह नहीं है,तुम यहीं बैठो।"
मदन पीछे जाकर बैठ गया और इधर बिंदिया को बहुत गुस्सा आ रहा था और उसने अपने पति की ओर देखा,जिस तरह कौरवों की द्यूत-सभा में द्रौपदी जिस तरह लज्जा के मारे मरी जा रही थी, वही हाल यहाँ बिंदिया का था,लज्जित द्रौपदी की भाँति उसे अपनी स्थिति पर क्रोध आ रहा था और उसने अपना सिर नीचे झुका लिया,बस फिर से आगे बढ़ी और बिंदिया ने महसूस किया कि इस संसार में दुःख के अलावा कुछ भी नहीं ,उसने अपनी स्थिति को देखकर महसूस किया कि जैसे वह उस स्नेह पालित बछड़े के समान है, जिसे अचानक हिंसक पशुओं से भरे जंगल में छोड़ दिया गया हो और यही सोचते सोचते बिंदिया शहर आ पहुँची,दोनों बस से उतरे,
बिंदिया की यह धारणा बहुत दृढ हो गई कि उसका पति खेती के अतिरिक्त कोई दूसरा काम नहीं जानता,वो अपने पति को आज तक साहसी और सर्वश्रेष्ठ मनुष्य समझती रही,गाँव के लोग उसके पति का सम्मान करते हैं,नौकर-चाकर उसके पति के आगे थर-थर काँपते हैं,किंतु उसका वही पति, यहाँ भीड़ में, सड़क पर या बस में कितना असहाय बन गया है,
होटल में जाने पर बिंदिया ने देखा कि सभी लोगों को टेबल के पास कुरसियों पर बैठाया गया है, किंतु उसके प्राणेश्वर को एक कोने में जमीन पर जगह दी गई है,उसे वहीं नाश्ता दिया गया,बिंदिया ने अनुभव किया कि उसके पति की आँखों में कितनी सरलता है, खेल-खेल में वह दस आदमियों को पछाड़ देता है,वह सच्चरित्र होने के साथ-साथ प्राणियों पर कितनी दया भी करता है, बिंदिया की आँखों के सामने उसके गाँव का जीवन घूम गया, ग्रामवासी उसके प्रति कितनी श्रद्धा रखते हैं, किंतु यहाँ उसे कोई जानता तक नहीं,इस शहर का एक व्यक्ति भी तो यह नहीं जानता कि बिंदिया बहुत पतिव्रता स्त्री है, सास-ससुर पर उसकी अगाध भक्ति है, व्रत-उद्यापन में उसकी दृढनिष्ठा है और उसके पास मनमानी जमीन है, हाँ!लेकिन शहर का प्रत्येक व्यक्ति केवल उसके सौंदर्य पर मुग्ध होता दिखाई देता है, बिंदिया ने पहली बार यह भी अनुभव किया कि उसमें आकर्षण की शक्ति है,
वें दोनों सिनेमा देखने घुस गए,सिनेमा खतम होने के बाद अचानक वहाँ बत्तियाँ जल उठीं,सिनेमा घर का पहला शो समाप्त हो चुका था, दो-ढाई घंटे तक बिंदिया सिनेमा की नायिका के सुख-दुःख में डूबी रही, सिनेमा समाप्त होते ही वह आँखें मलती बाहर आई,उसे आरंभ में इस बात पर आश्चर्य हुआ था कि सिनेमाघर की बत्तियाँ एक साथ जलीं और एक साथ बंद हो गई, परदे पर किस तरह ऐसी तसवीरें नाचती हैं, जिस समय नायक ने अपनी प्रेमिका को आलिंगन में जकड़ा,बिंदिया का रोम-रोम पुलकित हो गया, सिनेमा समाप्त होने पर पति ने चलने के लिए कहा था तो वह चौंक पड़ी थी, उसने प्रश्न किया...
"कहाँ चलना होगा?"
"अब नाटक देखने चलेंगे।"मदन बोला....
रात में एक बजे बिंदिया अपने पति मदन के साथ थियेटर से बाहर निकली, उन्नीस वर्ष की आयु में बिंदिया पहली बार शहर में आई थी और ना जाने फिर कब इस शहर में आने का सौभाग्य प्राप्त हो, गाँव लौटते ही उसे देहाती जीवन व्यतीत करना पड़ेगा, उसने जो नाटक देखा था, उसमें भगवान कृष्ण की कहानी थी, उस नाटक में जो अभिनेता कृष्ण बना था, उसका स्मरण करते ही बिंदिया का हृदय भारी हो गया, पाँव काँपने लगे थे,बिंदिया बचपन से भगवान् कृष्ण को अपना आराध्य देवता मानती आई थी,उसने कभी कृष्ण को अपना पति माना था, कृष्ण के चित्र के सामने न जाने कितनी बार उसने अपने मन की गुप्त बात प्रकट की थी,कृष्ण के सम्मुख बिदिंया अपनी इच्छाएँ खोलकर रख देती थी, आज नाटक में जो अभिनेता कृष्ण बना हुआ था, वह बिंदिया को आराध्य दिखाई दिया,बिंदिया ये सब सोच ही रही थी कि तभी मदन उसे आवाज दी,वह आवाज सुनकर भी चुप रही क्योंकि वो कृष्ण के बारें में सोच रही थी,उसके जवाब ना देने पर मदन गरजकर बोला,
"तुम्हारा मंगलसूत्र कहाँ गया?"
बिंदिया ने पति की ओर नेत्र उठाए, कल्पना-लोक से धरती पर उतर आई और मदन से बोली,
"ओह.... मेरा मंगलसूत्र ना जाने कहाँ गिर गया?"
वो अब ना कुछ कहना चाहती और ना सुनना चाहती थी,कुछ कहने सुनने की स्थिति में उसका मन था भी नहीं, यंत्र–चालित सवारी की तरह वह अपने पति के पीछे चलने लगी, मार्ग के दोनों ओर पंक्तिबद्ध बड़े-बड़े भवन, मार्ग पर चलनेवाली गाड़ियाँ, आने-जानेवाले मनुष्य सब कुछ नदी के प्रवाह की भाँति बहे चले जा रहे है और बिंदिया के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे, वह किसी अनिर्वचनीय सुख के लिए छटपटा रही थी, पति-पत्नी थियेटर के बगल में जा कर खड़े हो गए तब मदन ने बिंदिया से कहा,
"तुम यहीं खड़ी रहो, मैं मंगलसूत्र ढ़ढ़ता हूँ।"
बिंदिया को वहाँ खड़ा करके मदन मंगलसूत्र ढूँढ़ने चला गया,तभी बिदिंया से किसी ने पूछा....
"यहाँ क्यों खड़ी हो?"
"कृष्ण से मिलना चाहती हूँ",बिंदिया बोली...
"कृष्ण! कौन कृष्ण?" उस आदमी ने आश्चर्य से पूछा....
तब बिंदिया ने सोचा, कितना मूर्ख है? कृष्ण को नहीं जानता? फिर सोचकर बोली.....
"जो थियेटर में कृष्ण थे उसी से मिलना चाहती हूँ।"
"तो तुम नारायण से मिलना चाहती हो?"आदमी ने कहा...
तब बिंदिया ने हाँ में सिर हिलाया तब उस आदमी ने कहा...
"इस ओर चली आओ"
बिंदिया के पाँव काँपने लगे और उसने मन में सोचा कि क्या सचमुच कृष्ण के दर्शन होने जा रहे हैं? और वो भी इसी समय?
"यहाँ खड़ी रहना"
ऐसा आदेश देकर वह आदमी स्वयं भीतर चला गया,बिंदिया ने चारों ओर दृष्टि डाली,रंगमंच के भीतरी भाग में रस्से, परदे, अंधकार, उसने सोचा यह क्या है? क्या कृष्ण यहीं रहते हैं? फिर उसने स्वयं को उत्तर दिया, नहीं! कृष्ण ऐसी जगह नहीं रह सकते,उससे कुछ भूल हुई है शायद,
तभी वो आदमी बोला देखो आ रहे हैं, कृष्ण आ रहे हैं और बिंदिया ने मारे लज्जा के मुँह मोड़ लिया और एक कोने में सिमट गई, उसका पूरा शरीर काँप रहा था, कृष्ण का अभिनय करनेवाला अभिनेता वहाँ आ पहुँचा था,उसने अपना मेकअप नहीं उतारा था,उसके लाल रंग से रंगे होंठों में सिगरेट थी और धीरे-धीरे सिगरेट का धुआँ बाहर निकल रहा था...
"कौन हो तुम?किस गाँव की रहनेवाली हो? तुम्हारा परिचय क्या है?"अभिनेता ने पूछा...
लेकिन बिंदिया ने कोई उत्तर नहीं दिया और वो सोचने लगी कि क्या यही कृष्ण है?उस का मन विकल होने लगा और साहस बटोरकर बोली...
"आपके दर्शन करने आई हूँ।"
"इधर आओ, बैठो",अभिनेता बोला...
"अब मुझे जाना चाहिए" बिंदिया बोली...
"इतनी जल्दी!”अभिनेता बोला..
"हाँ, वे मेरी प्रतीक्षा करते होंगे",बिंदिया बोली...
थियेटर पर जलनेवाली बत्तियों के प्रकाश में लज्जा के भार से झुकी उस की पतली कमर, कपोलों की स्निग्धता और सुंदर केश–राशि ने अभिनेता को आकर्षित कर लिया था,बिंदिया जाने लगी तो अभिनेता ने उसका हाथ पकड़ लिया और शराब पिए हुए अभिनेता ने उसे अपने पास खींचा, वह दुर्गंध बिंदिया सहन नहीं कर सकी,उसका पूरा शरीर काँप रहा था और इधर अभिनेता शैतान की तरह उसे अपनी ओर खींचता चला जा रहा था,बिदिंया ने पूरा जोर लगाकर कहा....
"बचाओ...बचाओ...कोई है"
लेकिन उसकी पुकार सुनकर कोई नहीं आया, वह छटपटाने लगी,उसने अभिनेता पर लात से प्रहार किया, किंतु...
द्यूत क्रीड़ा में तो कृष्ण प्रकट हो चुके थे, किंतु आज बिंदिया के लिए सारे देवता आँख-कान बंद किए हुए थे, जिन भगवान पर विश्वास करके बिंदिया रंगमंच पर चली आई थी उसी भगवान का अभिनय करनेवाला व्यक्ति उसके साथ क्या करने जा रहा है? क्या भगवान को बिंदिया का आर्तनाद सुनाई नहीं दे रहा है?वो चिल्लाती रही....
"मुझे छोड़ दीजिए"
असहाय बिंदिया की प्रार्थना सुनने के लिए सचमुच वहाँ कोई नहीं था, अगल-बगल के परदों पर लटकनेवाले चित्रों में सरस्वती और पार्वती इस अन्याय को चुपचाप देख रही थीं,बिंदिया के किसी आराध्य देव ने आज उसकी रक्षा नहीं की और आज वो अपनी लाज ना बचा सकी....

समाप्त....
सरोज वर्मा.....


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