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विनायक दामोदर सावरकर

दो बार आजीवन कारावास की सजा पाने वाले स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर...

विनायक दामोदर सावरकर स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ कवि और लेखक भी थे । सावरकर दुनिया के शायद अकेले स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्हें दो - दो बार आजीवन कारावास की सजा मिली । वे हिंदू धर्म में जातिवाद की परंपरा का विनाश करना चाहते थे, इसके लिये उन्होंने अपने जीवन में काफी प्रयत्न भी किए ।
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म मराठी चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम दामोदर और माता का नाम राधाबाई सावरकर था । उनका परिवार महाराष्ट्र के नासिक शहर के पास भगुर ग्राम में रहता था । उनके और तीन भाई – बहन भी है, जिनमे से दो भाई गणेश और नारायण एवं एक बहन मैना है।

सबसे पहले विदेशी वस्तुओं व कपड़ों का बहिष्कार...

1901 में विनायक का विवाह यमुनाबाई से हुआ, जो रामचंद्र त्रिंबक चिपलूनकर की बेटी थी, और उन्होंने ही विनायक की यूनिवर्सिटी पढाई में सहायता की थी। बाद में 1902 में उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में एडमिशन लिया। एक युवा व्यक्ति के रूप में उन्हें नयी पीढ़ी के राजनेता जैसे बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चन्द्र पाल और लाला लाजपत राय से काफी प्रेरणा मिली, जो उस समय बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी अभियान चला रहे थे। सावरकर भी स्वतंत्रता अभियान में शामिल हुए थे। 1905 में दशहरा उत्सव के समय विनायक ने विदेशी वस्तुओ और कपड़ो का बहिष्कार करने की ठानी और उन्हें जलाया। इसी के साथ उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों और मित्रो के साथ मिलकर राजनैतिक दल अभिनव भारत की स्थापना की। बाद में विनायक के कामो को देखते हुए उन्हें कॉलेज से निकाला गया लेकिन अभी भी उन्हें बैचलर ऑफ़ आर्ट की डिग्री लेने की इज़ाज़त थी। और अपनी डिग्री की पढाई पूरी करने के बाद, राष्ट्रीय कार्यकर्त्ता श्यामजी कृष्णा वर्मा ने कानून की पढाई पूरी करने के लिए विनायक को इंग्लैंड भेजने में सहायता की, उन्होंने विनायक को छात्रवृत्ति भी दिलवाई। उसी समय तिलक के नेतृत्व में गरम दल की स्थापना की गयी थी। तिलक भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के उग्रवादी नेता थे और साथ ही गरम दल के सदस्य भी थे। उनके द्वारा स्थापित किये गये दल का उद्देश्य भारत से ब्रिटिश राज को खत्म करना ही था।

इंडिया हाउस से जुड़कर क्रांतिकारियों के संपर्क में आए...

सावरकर के क्रांतिकारी अभियान की शुरुआत तब हुई जब वे भारत और इंग्लैंड में पढ़ रहे थे, वहा वे इंडिया हाउस से जुड़े हुए थे और उन्होंने अभिनव भारत सोसाइटी और फ्री इंडिया सोसाइटी के साथ मिलकर स्टूडेंट सोसाइटी की भी स्थापना की। उस समय देश को ब्रिटिश शासन ने अपनी बेड़ियों में जकड़ा हुआ था इसी को देखते हुए देश को आज़ादी दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने द इंडियन वॉर का प्रकाशन किया और उसमें 1857 की स्वतंत्रता की पहली क्रांति के बारे में भी लेख प्रकाशित किए। उसे ब्रिटिश कर्मचारियों ने बैन कर दिया। क्रांतिकारी समूह इंडिया हाउस के साथ उनके संबंध होने के कारण 1910 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।

अंडमान की सेलुलर जेल भेजा गया...

जेल में रहते हुए जेल से बाहर आने की सावरकर ने कई असफल कोशिश की लेकिन वे बाहर आने में असफल होते गये। उनकी कोशिशो को देखते हुए उन्हें अंडमान निकोबार की सेलुलर जेल में कैद किया गया। जेल में उन्होंने हिंदुत्व के बारे में लिखा। 1921 में उन्हें प्रतिबंधित समझौते के तहत छोड़ दिया था की वे दोबारा स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी नही होंगे। बाद में सावरकर ने काफी यात्रा की और वे एक अच्छे लेखक भी बने, अपने लेखो के माध्यम से वे लोगो में हिंदू धर्म और हिंदु एकता के ज्ञान को बढ़ाने का काम करते थे। सावरकर ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए भी सेवा की है, सावरकर भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे लेकिन बाद में उन्होंने 1942 में भारत छोडो आन्दोलन में अपने साथियो का साथ दिया और वे भी इस आन्दोलन में शामिल हो गये। उस समय वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक बने थे और उन्होंने कांग्रेस द्वारा भारत विभाजन के विषय में लिये गये निर्णय की काफी आलोचना भी की। उन्हें भारतीय नेता मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या का दोषी भी ठहराया गया था लेकिन बाद में कोर्ट ने उन्हें निर्दोष पाया।

गांधी की हत्या की साजिश के आरोप से दोषमुक्त हुए...

जब सावरकर को गांधीजी की हत्या का दोषी माना गया तो मुंबई के दादर में स्थित उनके घर पर गुस्से में आयी भीड़ ने पत्थर फेंके थे, लेकिन बाद में कोर्ट की करवाई में उन्हें निर्दोष पाया गया और उन्हें रिहा कर दिया गया, उनपर ये आरोप भी लगाया गया था की वे “भड़काऊ भाषण” देते है लेकिन कुछ समय बाद उन्हें पुनः निर्दोष पाया गया और रिहा कर दिया गया। लेकिन उन्होंने हिंदुत्व के प्रति कभी भी लोगों को जागृत करना नहीं छोड़ा, अंतिम समय तक वे हिंदू धर्म का प्रचार करते रहे।

उनके भाषणों पर बैन लगने के बावजूद उन्होंने राजनीतिक गतिविधियां नही छोड़ीं। 1966 में अपनी मृत्यु तक वे सामाजिक कार्य करते रहे। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उन्हें काफी सम्मानित किया और जब वे जीवित थे तब उन्हें पुरस्कार भी दिए गये थे।
उनकी मृत्यु:- 26 फ़रवरी 1966, मुम्बई में हुई थी।
उनकी अंतिम यात्रा पर 2000 आरएसएस के सदस्यों ने उन्हें अंतिम विदाई दी थी और उनके सम्मान में "गार्ड ऑफ़ ओनर" भी दिया था।

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