खुली हवा में Deepak sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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खुली हवा में

तारीख और साल उषा को याद है.....10 दिसंबर, 1975.....

आपरेशन की पूर्व-संध्या डॉः सत्या दुबे ने उसे अस्पताल के कमरे में बुला लिया था।

उसे एनीमा, एन्टीबायोटिक और मैगनीशियम साइट्रेट दिलाने हेतु।

उसी रात उसे वह सपना दिखाई दिया था....

पूरी नींद में?

आधी नींद में?

या फिर जागते में ही?

………………

वह सुरेश के बँगले पर है.....

अन्दर के बरामदे के फ़र्श पर बिछी बर्फ़ के बीच...

और घर-भर में सुरेश समेत पुलिस वर्दियों की आवाज़ाही चालू है......

’मार्क्स का वह बंदा आ पहुँचा है,’ उषा के बाबूजी को सुरेश इसी तरह लक्षित करता है, ’उषा के चेहरे से यह बिंदी, लिपस्टिक, सब पोंछ डालो....’

’पति के द्वार से अर्थी उठ रही है,’ बड़ी ननद ने हाथ नचाया है, ’हम जैसी चाहें, वैसी सजाएँ....’

’सुहागिन मरी है,’ मँझली ननद ने मुँह बिचकाया है, ’तो सुहागिन की तरह ही फूँकी जानी चाहिए.....’

’डोली के समय बिंदी- लिपस्टिक के लिए उसने आँख तरेरीं सो तरेर लीं,’ छोटी ननद ने मुँह खोला है, ’अब कैसी दखलंदाजी?’

अपने चेहरे को उषा ने मेकअप के सामान से हमेशा अनछुआ रखा था, शादी से पहले भी और शादी के बाद भी....

’न,’ सुरेश ने प्रतिवाद किया है, ’तुम इसकी बिंदी-लिपस्टिक पोंछ ही डालो....’

’हत् तेरे की!, उषा की सास ने सुरेश की पीठ पर एक हल्का धौल जमाया है, ’डरते हो? अब भी डरते हो? उससे जिसे जेल में ठूँसने के लिए तुम्हारा एक इशारा ही काफ़ी है?’

कांग्रेस सरकार द्वारा लाए गए आपातकाल के उन दिनों में पुलिस-अफ़सरों के अधिकार क्षेत्र में ’मीसा’ में शामिल हो जाने से किसी भी गैर-कांग्रेसी राजनैतिक पार्टी के सदस्य के संग ज़्यादती वैध थी।

’आप चले जाइए, बाबूजी,’ बर्फ़ के बीच से उषा बैठी है, ’आपसे मिलने कस्बापुर मैं आपके पास आऊँगी। आप चले जाइए, चले जाइए......’

…………………..

सुबह आपरेशन से कुछ पहले दो परिचारिकाएँ उषा को अस्पताल के कपड़े पहनाने आईं।

पेटीकोटनुमा एक स्कर्ट, कुर्तेनुमा एक टाॅप और पगड़ीनुमा एक स्कार्फ।

लंबे दोनों मोजे एड़ियों से फटे थे।

’’हाथ, कान और गले का सामान भी उतार दीजिए,’’ दोनों में से लंबी आया ने कहा।

’’अरे!’’ नाटी आया ने आश्चर्य जतलाया, ’’कान में आपने कुछ भी नहीं पहन रखा? बल्कि कान तो आपके छिदे भी नहीं?’’ नाटी आया की हैरानी लंबी आया की दिशा में उछल ली।

उषा कुल जमा दस बरस की थी जब उसकी माँ स्वर्ग सिधार गई थीं और माँ के बाद बाबूजी ने उसे लड़की की मान्यता दी ही न थी।

अपना मंगलसूत्र, घड़ी और कंगन पर्स में रखते समय एक पर्ची उषा के हाथ से आ टकराई।

’’मेरा एक काम है,’’ पर्ची के साथ उषा ने सौ रूपए का एक नोट भी अपने पर्स से बाहर निकाल लिया।

’’बताइए,’’ दोनों ने उत्सुकता दिखाई।

’’इस पर्ची पर मेरा एक टेलीफ़ोन नम्बर है......’’

पिछले चार महीनों से भूमिगत बाबूजी इस नम्बर से सम्बद्ध कस्बापुर वाले चाचा के पास रह रहे थे।

’’यहाँ कोई ख़बर भेजनी है क्या?’’ नाटी ने पूछा।

’’हाँ,’’ उषा का गला भर आया, ’’तभी जब मेरा आपरेशन गड़बड़ हो जाए...’’

’’आपका आपरेशन हरगिज गड़बड़ न होगा। न होना चाहिए। हम तो आपसे अपने इनाम की कयास लगाए बैठी हैं,’’लंबी आया ने कहा।

’’तुम दोनों में टेलीफ़ोन के दफ्तर कौन जा सकती है?’’ उषा ने पूछा।

उस साल सबस्क्राइबर ट्रंक डायलिंग का चलन अभी तक आया न था। बाद में आए    एसटीडी बूथ अथवा आज के मोबाइल की कल्पना तक न थी। दूसरे शहर में फोन मिलाने के लिए बाकायदा ट्रंक ’काल’ बुक करानी पड़ती थी।

’’हम चली जाएँगी,’’ नाटी ने कहा, ’’टेलीफ़ोन विभाग में हमारा घरवाला जान-पहचान रखता भी है।’’

’’ठीक है,’’ उषा ने पर्ची और नोट नाटी के हवाले कर दिए, ’’मगर इसे बहुत ध्यान से रखना। बाहर कहीं साहब को न पकड़ा देना। बेध्यानी से वे इसे खो सकते हैं....’’

’’हम समझ रही हैं,’’ नाटी की उत्सुकता बढ़ ली, ’’यह किसका नम्बर है भला?’’

’’मेरे चाचा का,’’ उषा ने कहा, ’’और अगर मेरा आपरेशन ठीक-ठाक हो जाता है तो फिर यह पर्ची मुझी को ज्यों की त्यों लौटा देना......अपनी राजी-खुशी की ख़बर मैं आप ही फिर उन्हें दे दूँगी......’’

’’यह सब क्या है?’’ सुरेश ने कमरे में आते ही उषा की बदली वेशभूषा पर अपनी निगाह फेरी।

वह अपनी पुलिस वर्दी में था। उषा के रात के सपने वाली पुलिस वर्दी में। अपने नाम और ओहदे के बिल्लों के साथ। अपने स्टार्ज़ और अपनी रिवाल्वर के साथ।

’’क्यों?’’ उसकी पोशाक की छोटी सी छोटी तबदीली पर ध्यान देने वाले सुरेश की हैरानी उषा समझ सकती थी, ’’बहुत खराब लग रही हूँ?’’

’’नहीं । खराब नहीं। सिर्फ़ अजीब और अजनबी......’’

’’यह मेरा पर्स है,’’ उषा ने अपना बटुआ सुरेश को सौंप दिया, ’’इसमें मेरी सभी चीजे़ं रखी हैं.....मेरे बैंक की पास-बुक, चेक-बुक......मेरी अलमारी की चाबी.....

मेरा मंगलसूत्र.....मेरी घड़ी.....मेरा ब्रेसलेट....’’

’’तुम्हारी डाॅ. दुबे से मिलकर आ रहा हूँ,’’ सुरेश ने उषा का बटुआ अपने सरकारी ब्रीफकेस में सँभालकर रख दिया, ’’उसकी प्रिंसिपल ने, विभागाध्यक्ष ने, हेल्थ डायरेक्टर ने सभी ने उसे सतर्क कर दिया है, तुम शहर के एसएसपी की पत्नी हो; उसे तुम्हारा विशेष ध्यान रखना होगा....’’

’’थैंक यू,’’ उषा का दिल डूब गया। अपनी पदवी और अपने पद के प्रति उषा को सचेत रखने का एक भी अवसर सुरेश अपने हाथ से जाने क्यों नहीं देता?

’’चलें?’’ अस्पताल की दो और परिचारिकाएँ व्हील चेयर ले आईं।

’’इस पर बैठना ज़रूरी है क्या?’’ उषा ने पूछा, ’’अभी तो मैं चल सकती हूँ.....’’

’’आपरेशन थिएटर में जूते-चप्पल ले जाने की मनाही है,’’ नाटी आया ने उषा के कंधे थपथपाए।

’’बहादुरी का तमगा अभी भी तुमसे दूर ही रहा,’’ सुरेश हँसने लगा।

’’अपना ध्यान रखिएगा,’’ अनायास उमड़ आए अपने आँसू उषा ने पीछे धकेल दिए।

’’लास्ट फेमस वर्डज़ (तुम्हारे आखि़री शब्द)?’’ सुरेश फिर हँस पड़ा।

’’मेरे बाबूजी का भी।’’

’’क्यों भाई?’’ सुरेश की हास्यकर मुद्रा तुरंत लुप्त हो ली, ’’उसने मेरा क्या सँवारा है? बल्कि तुमसे कोई पूछे तुम्हारा भी उसने क्या सँवारा है? तुम्हारी पढ़ाई तुम्हारे वजीफों ने निबटा दी और तुम्हारी शादी मेरी मूढ़मति ने......’’

’’चलें?’’ व्हील चेयर के साथ चारों परिचारिकाएँ उषा को कमरे से बाहर ले आईं।

’’नमस्कार, सर,’’ कमरे के दरवाजे़ को घेरे वर्दीधारी एक पूरी पलटन ने उषा को सलाम ठोंका और सुरेश के मंडलाकार आ खड़ी हुईं। सरकार द्वारा मिला सुरक्षा-घेरा सुरेश के साथ-साथ बना रहता।

व्हील चेयर आपरेशन थिएटर जा पहुँची।

’’उषा पाठक?’’ स्त्रियों का एक और झुंड उषा की ओर बढ़ आया।

उनमें से किसी को भी उषा पहचानती न थी। वह डाॅ. सत्या दुबे के निजी नर्सिंग होम की मरीज रही थी और यहाँ सिर्फ़ आपरेशन के लिए लाई गई थी।

’’जी,’’ उषा ने कहा।

’’आप इधर मेज़ पर आ जाइए,’’ उनमें से एक स्वर मुखरित हुआ, ’’डाॅ. दुबे के लिए आपको तैयार करना है....’’

’’जी....’’

’’लाएसिस आव एन्डोमीट्रियौमा?’’ किसी ने पूछा ।

’’आव द लेफ्ट ओवरी,’’ दूसरी ने जवाब दिया।

दो साल के उसके बाँझपन और पेट के कष्ट को देखकर सुरेश जब उषा को डाॅ. सत्या दुबे के पास लेकर गया था तो तरह-तरह की जाँच-परख के दौरान उषा की अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट ने उसकी बीमारी खोज निकाली थी। उषा की बायीं डिम्बग्रंथि में एन्डोमिट्रियम नाम के टिश्यू का अनियमित अवरोध। जिसे दूर करने के लिए आपरेशन अनिवार्य था। अपने बाबूजी के लिए अपने को बचाव-जंगला मान रही उषा ने अपना यह आपरेशन टाल जाना चाहा था किंतु सुरेश ने उसकी बात न मानी थी, ’मैं एक्शन में यकीन रखता हूँ। प्रौम्पट एक्शन में। तत्काल कार्यवाही में। सिर्फ़ एक्शन ही गड़बड़ी खत्म करने का एकमात्र चारा है.....’

’’उम्र? छब्बीस साल?’’ उषा की नाक की तरफ़ एक हाथ बढ़ आया।

तिक्त और मुलायम।

’’जी....’’

’’कहीं काम करती हैं कोई?’’

’’जी......’’

जिस सरकारी प्रयोगशाला में उषा पिछले तीन वर्षों से काम कर रही थी वह उसकी आँखों के सामने आन प्रकट हुई।

साथ में उसे दिखाई दी अपनी ही आकृति, विभिन्न रस-द्रव्यों के बीच.....

’’कैमिस्ट (रसायनज्ञ) हैं?’’

’’जी....’’

एक झटके के साथ उषा के सामने का दृश्य बदल गया.......

…………………

………………………..

 

कस्बापुर के अपने चाचा के घर का गेट वह लाँघ रही है......

’कौन है?’’ बाबूजी हाथ धो रहे हैं.....जाने कैसे वह जब भी उन्हें उनसे दूर देखती है, वे उसे अपने हाथ धो रहे मिलते हैं.....बस्तीपुर में जीव-विज्ञान के अध्यापक रहे उसके बाबूजी अपने काम से लौटने पर हाथ धोने में ढेरों समय लगाया भी करते.....

’मैं आई हूँ,’ वह कहती है....

’मैं आ रहा हूँ,’ बाबू कहते हैं, ’बस, हाथ धो लूँ....’

’तुम्हारा सामान कहाँ है?’ उसकी चाची उसके पास आ खड़ी हुई हैं.....

’नहीं है,’ वह रोने लगी है.....

’ऐसा ही होता है,’ चाची कहती हैं, ’कचहरी में हुई शादी के बाद होता ही ऐसा है.....कचहरी दोबारा जाना ही पड़ता है फिर......पहले शादी की रजिस्ट्री के लिए, फिर तलाक़नामे के लिए......’

’उषा,’ जल्दी में आधे-धुले साबुन-लगे हाथों के साथ बाबूजी उसके पास आ पहुँचते हैं, ’इधर आना पहले......’

वे उसे चाची से अलग बैठक में ले गए हैं....

’तुमने कोई फैसला लिया क्या?’ उसके कंधों पर टिकाने जा रहे अपने गीले हाथ बाबूजी रास्ते में रोक लेते हैं, ’या सुरेश का कोई फैसला तुम्हें पसन्द नहीं आया?’

वह रोती चली जाती है......

’मैंने आपको चेताया था न?’ चाचा अपनी बैठक में आ घुसते हैं, ’सुरेश सही नहीं रहेगा। छुरी-काँटे वाले उस कल्वर में उषा का निबाह न होगा। वहाँ ये चीजें सिर्फ़ खाने के लिए ही इस्तेमाल नहीं होतीं....’

’मैं हर स्थिति के लिए तैयार हूँ,’ बाबूजी की आवाज़ लरज जी है.....जब भी वह आपा सँभाल कर बात करते हैं उनकी आवाज़ थर्रा जाती है, ’अपने मीसा-वारंट के लिए, उषा के तलाक़ के लिए.....’

……………………….

’’हम न कहती थीं,’’ चेतना लौटने पर उषा ने अपने को अस्पताल के कमरे में वापस पाया; उसकी नाटी आया के साथ, जिसे उसने वह पर्ची और सौ रूपए का नोट दिया था, ’’आप आपरेशन से सही-सलामत लौटेंगी...’’

’’वह पर्ची कहाँ है?’’ पेट में हो रहे तेज़ दर्द के बावजूद उषा ने अपना हाथ नाटी आया की दिशा में बढ़ा दिया।

’’अभी दे रही हैं, मेम साहब,’’ नाटी आया अपनी साड़ी के पल्लू में बँधी गिरह खोलने लगी, ’’मगर एक बात हमें पूछनी रही....अपनी शादी आपने अपनी मरजी से करी क्या?’’

’’क्यों?’’ उषा ने पूछा।

’’सारी दुनिया दंग है, इतना बड़ा आपरेशन रहा आपका और मायके से एक जन नहीं आया.....’’

’’मैंने उन्हें बताया न था.....’’

’’फिर ज़रूर आपकी शादी आपके पिता की मरजी से नहीं हुई रही.....’’

’’मेरे पिता आज़ाद ख़याल हैं,’’ उषा ने कहा, ’’वे कहते हैं आज़ादी पर हम सबका हक़ बराबर है......’’

’’और दान-दहेज? वह सब दिया दिलाया उन्होंने, कायदेवार?’’

’’वे ऐसे कायदों को नहीं मानते.....’’

’’मगर आपके कप्तान साहब तो मानते होंगे! इतनी ऊँची अफ़सरी है उनकी!! वे तो सब मानते ही होंगे!! चाहते ही होंगे!! बल्कि माँगते भी होंगे.!!! …....’’

’’सौ रूपया, वह मत लौटाना,’’ उषा ने बात बदल दी, ’’इनाम समझकर रख लेना....’’

’’शुक्रिया, मेम साहब,’’ नाटी आया ने अपनी गिरह से उषा की पर्ची उसे लौटा दी, ’’हम जानती हैं आप इस अस्पताल में फिर जल्दी आने वाली हैं...और जब अगली बार आएँगी तो माँ बनकर लौटेंगी.....’’

’’दूसरी आया लोग को भी मेरे पास भेज देना,’’ उषा ने समापक मुद्रा में कहा-वह अब आराम करना चाहती थी-’’उन्हें भी मैं इनाम देना चाहूँगी....’’

’’जी, मेम साहब,’’ नाटी आया कमरे से बाहर हो ली।

काँपते हाथों से उषा ने वह टेलीफ़ोन वाली पर्ची अपने बिस्तर के गद्दे के नीचे छिपा दी।