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सतरंगी दोस्ती

      

 

दिसंबर का महीना मेरे परिवार के लिए उत्सव का महीना होता है क्योंकि मेरे दोनों बच्चों का जन्मदिन और शादी की सालगिरह भी इसी महीने में आती है | 9 दिसंबर, मेरी शादी की सालगिरह का दिन था जब मैं शैलोम विद्यालय में अपना साक्षात्कार देने पहुँची थी | प्रधानाचार्या जी के कक्ष में पहुँचते ही एक सशक्त, ओजमय एवं शालीन व्यक्तित्व से मेरा परिचय हुआ | वैसे तो ये पद ही इन गुणों को परिलक्षित करता है परंतु प्रधानाचार्या जी का हिंदी भाषा के प्रति सजगता ने मुझे खासा प्रभावित किया | आजकल लोग अंग्रेजी भाषा में बातचीत करने में अपना वर्चस्व समझते हैं | उन्होंने मुझे स्पष्ट तौर पर कहा कि मैं बच्चों को हिंदी / संस्कृत भाषा में सुदृढ़ बनाऊँ | मेरे लिए ये प्रसन्नता का विषय रहा क्योंकि ‘अंग्रेजी मुझे आती नहीं और हिंदी मेरी जाती नहीं |’

अब मैं स्वयं को सहज महसूस कर रही थी | तभी मुझे कहा गया कि अब उप – प्रधानाचार्या जी आपका ‘डेमो’ लेंगी | मैं कक्ष में आकर बैठी ही थी, तभी एक अनुशासित, सशक्त एवं सधी हुई महोदया ने कक्ष में प्रवेश किया | उन्होंने मुझे अपनी पसंद से व्याकरण का विषय पढ़ाने के लिए कहा | मैंने मेरा पसंदीदा विषय ‘संधि’ लिया | मैंने संधि को कहानी विधि के माध्यम से पढ़ाना शुरू किया | उसके पश्चात उन्होंने मुझे समास के विषय में, अन्य व्याकरणिक तथा साहित्यिक प्रश्नों के विषय में पूछा |

मैं ये जानकार हैरान थी कि हिंदी विषय के बारे में मुझसे इतनी बारीकियाँ कैसे पूछ रहीं हैं एवं प्रत्येक विषय में इतनी रूचि कैसे दिखा रही हैं ? मुझे विद्यालय जॉइन करने के बाद पता चला कि उप प्रधानाचार्या जी हिंदी विषय की शिक्षिका हैं | उप प्रधानाचार्या जी पूरी तरह से नारियल के समान थीं | बाह्य रूप से सख्त जो कि उनके पद हेतु आवश्यक भी है | अंतःकरण से मृदु, बिल्कुल एक अच्छे दोस्त  की तरह | मुझे जब भी कोई परेशानी होती तो वे बहुत ही आत्मीयता से उसे सुनतीं और समाधान करने का पूरा प्रयास करतीं |

डेमो के बाद पुनः आवश्यक मुद्दों पर विचार – विमर्श के बाद प्रधानाचार्या जी ने बधाई देते हुए शैलोम परिवार में मेरा स्वागत किया | वैसे तो अध्यापन के क्षेत्र में मुझे सोलह वर्षों का अनुभव है लेकिन फिर भी प्रत्येक विद्यालय के अपने कुछ नियम एवं रीतियाँ होती हैं जिन्हें समझना आवश्यक एवं उनका अनुकरण करना अनिवार्य होता है | खैर 10 जनवरी 2022 को विद्यालय में मेरा पहला दिन था | मैं विद्यालय का निरीक्षण करते हुए यथानिर्धारित स्थान पर पहुँची |

उप – प्रधानाचार्या जी ने मुझे मेरे विभागाध्यक्षा जी से मिलवाते हुए कहा कि बाकी के नियमों से ये आपको अवगत करा देंगी | मेरी विभागाध्यक्षा जी बहुत ही विनम्र स्वभाव की हैं | पहली ही मुलाक़ात में उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत किया तो मैं स्वयं को काफी सहज महसूस करने लगी | टीम्स पर एक सभा द्वारा उन्होंने हिंदी विभाग के बाकी सदस्यों से मेरा परिचय करवाया | सभी काफी मिलनसार प्रतीत हुए |

सब कुछ सही था फिर भी विद्यालय में मेरा मन नहीं लग रहा था क्योंकि कोरोना के कारण बच्चे नहीं आ रहे थे | सभी  अपने – अपने घर से ऑनलाइन कक्षा ले रहे थे, केवल नव – आगंतुक शिक्षक – शिक्षिकाओं को विद्यालय में बुलाया जा रहा था ताकि वे विद्यालय के विषय में भलीभांति समझ सकें |

खैर, कुछ दिनों के बाद बच्चे विद्यालय में आने वाले हैं, ये जानकार मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा | दो दिन बाद ही  विभागाध्यक्षा जी ने मुझे समय - सारिणी देते हुए कहा कि आपका विषय संस्कृत है और छठी से दसवीं तक आपको संस्कृत ही पढ़ानी है | मेरे पैरों के नीचे से मानो ज़मीन खिसक गई हो | हिंदी मेरा प्रिय विषय रहा है जिसे पढ़ाने में मुझे जीवन का आनंद मिल जाता है | संस्कृत मेरा विषय रहा है परंतु इस विषय के अध्यापन में मैंने कभी अपनी रूचि नहीं दिखाई | कुछ अच्छा सुनने की आशा में मैंने समय सारिणी मैम को देते हुए कहा कि उन्होंने मुझे किसी और का टाइम – टेबल दे दिया है क्योंकि उस पर दीपमाला नाम लिखा था | लगभग सप्ताह भर तक मैं इसी असमंजस में रही कि अब मैं ये नौकरी करूँ या न करूँ ?

एक दिन शाम को साहस करके विभागाध्यक्षा जी को फ़ोन कर ही दिया कि मुझे संस्कृत नहीं पढ़ानी है | विभागाध्यक्षा जी ने मेरी योग्यता पर विश्वास जताते हुए कहा कि मैं जानती हूँ आप संस्कृत भी बहुत अच्छे से पढ़ा लेंगीं | उनका विश्वास बनाए रखने एवं स्वयं के शिक्षण को बेहतर बनाने हेतु मैं अनवरत लगी रहती और फिर धीरे – धीरे मुझे संस्कृत पढ़ाना अच्छा लगने लगा | धीरे – धीरे मैं अपने विभाग के साथ – साथ विद्यालय के अन्य सदस्यों से भी चिर – परिचित हो गई | अब मैं संस्कृत विषय में  स्वयं को एक स्थापित एवं आत्मविश्वासी शिक्षिका के रूप में महसूस करने लगी थी | हालांकि दसवीं कक्षा में केवल एक ही छात्रा थी पर उसके परीक्षा परिणाम ने मेरा आत्मविश्वास और बढ़ा दिया | नया सत्र शुरू हुआ और अब मैं पूर्ण रूप से संस्कृत शिक्षिका के रूप में अध्यापन करा रही थी | समय के साथ – साथ मेरी विषय पर पकड़ और अच्छी होती चली गई |

बच्चों की वार्षिक परीक्षा के बाद विद्यालय में हम सभी सहकर्मियों को एक – दूसरे के साथ काफी समय मिला जिसमें हम सभी व्यक्तिगत रूप से एक – दूसरे को समझने लगे थे | सभी भावनात्मक रूप से जुड़ने लगे थे | अपना काम करने के साथ – साथ हम थोड़ी हँसी – ठिठोली भी कर लिया करते थे | प्रतिदिन सभी स्वादिष्ट भोजन का लुत्फ़ उठाते, मस्ती – मजाक करते और तस्वीरें खिंचवाते और इसी तरह काम के साथ – साथ हमारा मनोरंजन भी हो जाता था | हमारे ‘मनोरंजन समूह’ में प्रत्येक काम के लिए अलग – अलग सदस्य मनोनीत थे |

सबसे पहले बात करते हैं हमारी ‘सेल्फी स्टिक’ दीप्ति मैडम की | ऊँचा – लंबा कद, हँसमुख चेहरा, सदैव दूसरों की मदद के लिए तैयार, होनहार पर दिल से एकदम बच्ची | वैसे तो वह अपने काम में माहिर है पर उसके पेट में कुछ पचता ही नहीं, फिर चाहे वह लज़ीज़ खाना हो या कोई बात | बस अपनी अल्हड़ – सी बातों से काम के बीच हँसी के फव्वारे चलती रहती थी | विद्यालय में मेरे और दीप्ति को अपनी पसंद के विपरीत विषय मिले थे | वैसे तो हिंदी और संस्कृत दोनों ही हमारे विषय थे पर मेरा अनुभव हिंदी शिक्षिका के तौर पर रहा था और दीप्ति का संस्कृत शिक्षिका के तौर पर | इसलिए अक्सर हम दोनों अपने विषय बदलने की बात कहकर एक – दूसरे को चिढ़ाते रहते थे

दीप्ति जितनी चंचल थी राज मैम उतनी ही गहरी | ऐसा लगता था जैसे वह अपने मन में अथाह सागर समाए हुए है | सादगी से परिपूर्ण, चेहरे पर फैली फूल – सी मुस्कान ओढ़े हुए हर रोज विद्यालय में आते ही दूर से हाथ हिलाकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देती थी | मुझे याद है जब वह एक दिन साड़ी पहनकर आई तो मैं अवाक – सी उन्हें देखती ही रह गई | कसम से ऐसा लग रहा था जैसे आज सादगी में ही बहार आ गई हो | जब भी कभी वह अपने में खोये – से दिखते तो मैं उन्हें एक ही बात कहती – “राज मैम ! मुस्कुराइए, आप शैलोम में हैं |”

हमारी इंदु मैडम का तो कहना ही क्या ? बिलकुल सतसईया के दोहरे की तरह | देखने में कम बोलने वाली लगती है पर जब बोलती है तो मर्म की बात कह जाती है | हमारी साड़ी वाली मैडम को यदि यूनिफ़ॉर्म पहना दें तो पता ही नहीं चलेगा कि बच्चा कौन है और इंदु मैडम कौन ? कोरोना के कारण सभी के लिए वर्क फ्रॉम होम किया हुआ था | मैंने 4–5 दिनों में टीम्स पर काम सीखा तो था पर अचानक मेरी कक्षा में कुछ समस्या आ गई थी | मुझे अब तक याद है तब इंदु मैम मेरी कक्षा में थी और उन्होंने सहजतापूर्वक मेरी समस्या का समाधान कर दिया |

इसके बाद बात करते हैं पंडिताइन मैडम जी - किरण की | जैसा नाम, रंग – रूप में वैसी ही दूध – सी उजली किरण | उसे पूजा – पाठ, विधि – विधान,  धर्म – कर्म की बातों का विशेष ज्ञान था | हर तरह के उपवास करते हुए स्वयं को फिट रखती थी | स्टाफरूम में कुर्सी पर पैर फैलाकर स्कूल में भी घर का – सा आराम ढूँढ लेती थी | बिंदास ठहाके लगाकर बात करती | हमारे हिंदी विभाग का स्टाफरूम फर्स्ट फ्लोर पर था जहाँ प्रत्येक के बैठने की जगह निर्धारित थी | पर वह घर का – सा आनंद लेने के लिए हमेशा थर्ड फ्लोर पर ही बैठती थी | हाँ, दीप्ति और उसका याराना कुछ ख़ास ही था इसलिए जब भी मैं और दीप्ति अपने – अपने विषय को लेकर किसी मुद्दे पर बात करते हुए बहस करने लग जाते तो तो अक्सर किरण को अच्छा नहीं लगता था इसलिए मैं जानबूझकर दीप्ति को चिढ़ाती थी |

मेरे ऐसा करने पर प्रोमिला मैडम मुझे “अरे !, छोड़ो ना यार |” कहकर कभी चुप रहने के लिए बोलती तो कभी “म्हारी के झोटी खोलैगी” बोलकर हँसने लगती | प्रोमिला हमारे विभाग की ‘सुरेंद्र शर्मा’ | खुद बिना हँसे औरों की हँसी के छक्के छुड़ा देती हैं | सच कहूँ तो जब वह विद्यालय में आई तब से हमारे विभाग में बहार – सी आ गई थी | काम के वक्त पूरी गंभीरता से काम करती थी | हम दोनों के जीवन की कई बातों में समानताएँ हैं और हम दोनों का काम करने का तरीका भी | शायद इसलिए काफी कम समय में ही हम एक – दूसरे को बेहतर समझने लगे थे | शनिवार का दिन हमारे लिए सबसे ख़ास होता था | यही वो दिन था जिसने हम सबको व्यवसायिकता के साथ – साथ व्यक्तिगत रूप से करीब ला दिया था | हमेशा काम में उलझे कर्मशील मनुष्यों को जीवन के सतरंगी रंगों में डुबोकर सराबोर करने वाली हमारी प्रोमिला ही थी | उसकी बातें कभी गुद्गुदाने लगती तो कभी किसी के सुप्त भावों को जागृत कर देती थी | उनकी बातों से इंदु मैडम तो अक्सर ऐसे शरमा जाती थी जैसे चाँद घनेरे बादलों में जाकर छुप गया हो |

बस इसी तरह हम सब मिलजुलकर काम भी करते और हँसी – मजाक भी | इसी दौरान हमने गुरुग्राम में ही अपना घर ले लिया जो शैलोम से काफी दूरी पर था इसलिए न चाहते हुए भी सत्र समाप्त होने पर मुझे विद्यालय छोड़ना पड़ा | 31 मार्च को मेरा विद्यालय में आखिरी दिन था | मेरे विभाग के सभी सदस्य सच में इंद्रधनुष के सतरंगी रंगों से भरे थे | इस दोस्ती में वो सारे रंग थे जो जीवन में रंग भर देते थे | मैं इन सारे रंगों को समेटकर अपने साथ सदा के लिए संजोकर वहाँ से विदा हो गई |

 

स्वरचित एवं मौलिक रचना

उषा जरवाल (गुरुग्राम – हरियाणा)

 

 

 

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