महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 22 Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 22

[ प्रथम विश्वयुद्ध और रामानुजन के शोध में प्रगति ]

रामानुजन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को ठीक से समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने कैंब्रिज पहुँचकर किस वातावरण में कार्य किया। यह सही है कि रामानुजन जब कैंब्रिज पहुँचे तब उन्हें वहाँ शोध के लिए बहुत ही आदर्श वातावरण प्राप्त हुआ। वहाँ बहुत से उच्च कोटि के गणितज्ञ थे। परंतु यह वातावरण शीघ्र ही बदल गया। कैंब्रिज के गणितज्ञ बिखरे। रामानुजन के छोटे जीवन काल में बहुत कुछ आकस्मिक हुआ है। इस पर उनका कोई वश नहीं था। परंतु वह गणित से विमुख नहीं हुए। विषम परिस्थितियों में पूरी निष्ठा से कार्य करते रहना उनके जीवन चरित्र को और भी श्रद्धा का पात्र बना देता है।
यूरोप के विभिन्न देशों में सदा ही तनाव और प्रतिस्पर्धा रही है, यह तो सभी जानते हैं। बीसवीं शताब्दी के दो विश्वयुद्ध वहाँ की देन रहे। रामानुजन के समय में यूरोप, विशेष रूप से इंग्लैंड, प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका से गुजरा। यूरोप के देशों में काफी तनाव की परिस्थितियाँ बन गई थीं। सन् 1913 से यूरोप उबल रहा था। वहाँ युद्ध के बादल मँडरा रहे थे। 28 जून, 1914 को ऑस्ट्रिया के युवराज फ्रैंस फरडिनंद की हत्या हो गई। जर्मनी और फ्रांस ने अपनी-अपनी गुटबंदियाँ पक्की कर ली थीं। जर्मनी ने फ्रांस पर हमला करने के लिए शैलिफ्फन प्लान के अनुसार बेल्जियम को कुचल दिया। फ्रांस ने भी प्लान-सेब्निंटीन के अनुसार सीधे बर्लिन पर आक्रमण कर दिया। दोनों सेनाएँ टकराई, और खून-खराबा हुआ।
इंग्लैंड ने 4 अगस्त 1914 को जर्मनी के साथ युद्ध की घोषणा कर दी। अभी रामानुजन को वहाँ पहुँचे लगभग चार मास ही हुए थे। कैंब्रिज पर युद्ध का सीधा प्रभाव पड़ा। चेस्टर-टाउन में नेविल के घर के सामने ही आयरलैंड की छठी-डिवीजन ने अपने शिविर स्थापित कर लिये। ‘कोर्पस क्रिस्टी कॉलेज’ सेना अधिकारियों के प्रशिक्षण का अस्थायी केंद्र बन गया। ट्रिनिटी कॉलेज का विशाल ‘रेन-पुस्तकालय’ अस्पताल में परिवर्तित कर दिया गया। जहाँ लिटिलवुड रहते थे वहाँ ‘शल्य चिकित्सा का कक्ष’ बन गया और प्रो. हार्डी के ‘न्यूकोर्ट’ में सेना के कार्यालय बना दिए गए। विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाएँ भी चिकित्सालय बना दी गई। खाद्य पदार्थों का मूल्य 32 प्रतिशत बढ़ गया।
इंग्लैंड द्वारा युद्ध की घोषणा करते ही इंग्लैंड भी जर्मनी के कोप का भाजन बना। अगस्त के उत्तरार्ध में ही जर्मनी की सेनाओं ने लौऊवेन नगर को जला दिया। ब्रिटेन की सेना के दो डिवीजनों को पीछे हटना पड़ा। पीछे लौटने से पूर्व हुए नौ घंटों के घमासान युद्ध में ब्रिटेन के लगभग 1600 सैनिक हताहत हुए। पूरे इंग्लैंड में जर्मनी के विरुद्ध रोष भड़क रहा था। कैंब्रिज में हर ओर घायलों का दृश्य उपस्थित होने लगा था।
वहाँ सेना में नवयुवकों की भरती आरंभ हो गई। प्रो. लिटिलवुड रॉयल गैरिसन आर्टलरी में ‘सेकंड लेफ्टिनेंट’ बन गए। वह अपने शोध से दूर प्रक्षेपास्त्रों के लिए गणितीय विषयों में सहायता करने लगे। वह इसमें लगभग विफल रहे। ‘बैलास्टिक’ के कार्य में वह कुछ नया नहीं दे पाए। यह विदित ही है कि रामानुजन को इंग्लैंड बुलाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही थी। परंतु अब वह रामानुजन से बहुत दूर चले गए थे। कई अन्य गणितज्ञ भी सेना में भरती हो गए। सौभाग्य से प्रो. हार्डी को सेना में सेवा के लिए अनुपयुक्त पाया गया और वह युद्धकाल में कैब्रिज में ही बने रहे। परंतु युद्ध के कारण उनका ध्यान गणित में लगने के बजाय अन्य चिंताओं की तरफ लग गया।
इसके ठीक विपरीत रामानुजन युद्ध के प्रभाव से अछूते रहकर अपने कार्य में लगे रहे। प्रतिष्ठित जरनलों में अपने शोध-लेखों को प्रकाशित करके ही गणित-जगत् में वह प्रतिष्ठा पा सकेंगे, यह उनके मन में सदैव रहता था। आने के कुछ समय बाद तक उनके संकोची स्वभाव के कारण अन्य भारतीय विद्यार्थी उनके मित्र बनने से कतराते थे; परंतु बाद में उनका यश फैलता गया और उनकी मित्रता का दायरा बढ़ता ही गया।
भारत में वे अपने परिजनों एवं मित्रों को नियमत पत्र लिखते रहते थे। एक-दो पत्रों को छोड़कर और पत्रों में युद्ध का उल्लेख न करके वह अपने शोध एवं उनके प्रकाशन के विषय में ही प्रायः लिखते थे। जून 1914 में उन्होंने लिखा— ‘‘मैंने दो लेख अब तक तैयार कर लिये हैं। आज मिस्टर हार्डी मेरे एक शोध-लेख को लंदन में लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी के सम्मुख प्रस्तुत करने जा रहे हैं।”
अगस्त 1914 में उन्होंने लिखा— “अब तक तीन लेख लिखकर तैयार कर चुका हूँ। प्रूफ भी आ गए हैं। मैं तीन और लेख लिखने में लगा हूँ। सभी लेख अवकाश के बाद अथवा अक्तूबर में प्रकाशित हो जाएँगे।”
नवंबर में उन्होंने लिखा— “युद्ध के चलते मैं धीरे-धीरे अपने निष्कर्ष प्रकाशित करने में लगा हूँ।”
सन् 1915 तक उनके नौ शोध-लेख प्रकाशित हो गए थे, जिनमें से छह ‘जरनल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ में तथा चार इंग्लैंड में छपे थे। यह पूरा समय इंग्लैंड के प्रथम विश्वयुद्ध में लगे रहने का था।
प्रो. हार्डी ने जून 1916 में युद्ध के इस प्रभाव को रामानुजन के संदर्भ में इन शब्दों में चित्रित किया है—
“एक तरह से रामानुजन का बड़ा दुर्भाग्य रहा है। युद्ध ने गणितीय शोध की प्रगति पर कुठाराघात किया है। उनके कार्य में जो रुचि ली जानी चाहिए थी, युद्ध के कारण उसका 75 प्रतिशत ह्रास हुआ है। उसे अपने निकाले निष्कर्षों के कारण जो कीर्ति मिलनी चाहिए थी, वह मिलनी असंभव रही। इसके अतिरिक्त उसे इंग्लैंड आकर लिटिलवुड के शिक्षण से जो लाभ मिलना निश्चित था, उससे भी वंचित रहना पड़ा। इस सबके होने पर भी यह कहा जा सकता है कि रामानुजन ने भारत में किए अपने कार्य से यहाँ आकर कार्य करने के औचित्य को पूर्णरूप से सिद्ध कर दिया है और आज के जीवित गणितज्ञों में उसने सबसे अधिक असाधारण क्षमता का प्रदर्शन किया है।”


[ रामानुजन की छात्रवृत्ति का बढ़ना और उन्हें बी. ए. की उपाधि ]

सन् 1915 के समाप्त होने के साथ-साथ रामानुजन की छात्रवृत्ति के दो वर्ष पूरे होने को थे। छात्रवृत्ति आगे बढ़ाने के लिए संस्तुतियों का जाना आवश्यक था। कैंब्रिज में प्रत्येक विद्यार्थी के साथ संरक्षक-शिक्षक, जिसे वहाँ उस विद्यार्थी का ‘ट्यूटर’ कहते हैं, को नियत किया जाता है। इस निजी संरक्षक-शिक्षक का यह दायित्व होता है कि वह अपने संरक्षित विद्यार्थी की और उसकी प्रगति की देख-भाल करे। रामानुजन के संरक्षक शिक्षक थे श्री ई. डब्ल्यू. बार्नस। ट्राइपोस में परिवर्तन लाने में वह प्रो. हार्डी के समर्थक थे। वह रामानुजन को ट्रिनिटी का अब तक का सबसे मेधावी छात्र मानते थे।
रामानुजन को, जैसा पहले लिख आए हैं, 250 पाउंड प्रतिवर्ष की छात्रवृत्ति मिलती थी, जिसमें से 50 पाउंड उनके परिवार के पास भेजा जाता था। इसके अतिरिक्त उन्हें 60 पाउंड प्रतिवर्ष 'एक्जीबिशन' के नाम से ट्रिनिटी कॉलेज से मिलता था। यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि तब इंग्लैंड में किसी उद्योग के कर्मचारी को 75 पाउंड प्रतिवर्ष वेतन मिलता था। आयकर देने के लिए न्यूनतम आय 160 पाउंड प्रतिवर्ष थी और केवल 7 प्रतिशत व्यक्ति ही इस श्रेणी में आते थे। इन आँकड़ों से रामानुजन की आय को अच्छा कहा जा सकता है।
नवंबर 1915 में श्री बार्नस ने मद्रास विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार फ्रांसिस ड्यूबरी को लिखा—“रामानुजन की प्रगति अति उत्तम है। उससे जो आशाएँ थीं, यहाँ उन सभी को वह समुचित रूप से पूरा कर रहा है। उसकी दो वर्ष की छात्र-वृत्ति, जिसका समय निकट में ही समाप्त होने को है, तब तक के लिए बढ़ा दें जब तक कॉलेज के फेलोशिप के लिए उसे नहीं चुना जाता। मैं यह चुनाव अक्तूबर 1917 में होने की आशा करता हूँ।”
कुछ ही दिन पश्चात् हार्डी ने भी ड्यूसबरी को लिख—
“आधुनिक भारतीय गणितज्ञों में रामानुजन के सर्वोपरि होने में कोई संदेह नहीं है। हाँ, अपने शोध के विषयों के चयन और उनपर काम करने के मामले में वह सदा से सनकी है, परंतु अपनी अद्भुत देन के कारण निस्संदेह वह मेरे परिचित गणितज्ञों में सबसे असाधारण है।”
मद्रास में सर फ्रांसिस स्प्रिंग ने भी दो वर्ष के लिए छात्रवृत्ति बढ़ाने के लिए अपनी स्वीकृति दी। विश्वविद्यालय ने ट्रिनिटी की फेलोशिप मिलने की संभावना को ध्यान में रखते हुए छात्रवृत्ति एक वर्ष के लिए बढ़ा दी तथा और आगे बढ़ाने की संभावना का भी उल्लेख किया।
रामानुजन का स्थान ट्रिनिटी कॉलेज में ‘शोध-छात्र’ का था, परंतु उसमें एक प्रावधानिक समस्या थी । इस स्थान के लिए छात्र के पास विश्वविद्यालय की डिग्री होना आवश्यक था, जिसे उनके प्रति छोड़ दिया गया था; परंतु यह समस्या बार-बार सिर उठाती थी।
मार्च 1916 में उन्हें अपने 62 पृष्ठ के प्रकाशित शोध-लेख ‘हाइली कंपोजिट नंबर्स’ के आधार पर बी. ए. (बाई रिसर्च) की उपाधि प्रदान कर दी गई। 18 मार्च को डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् अन्य विद्यार्थियों के साथ उनका एक सामूहिक चित्र प्राप्त है।