लेखक: प्रफुल शाह
प्रकरण-147
दुबई में सौंदर्य प्रतियोगिता का दूसरा और महत्त्वपूर्ण राउंड था। शाम को दुबई के लिए फ्लाइट थी। उससे पहले रविवार को सभी दोपहर को बारह बजे एक अच्छे होटल में लंच के लिए इकट्टा हुए। केतकी, भावना, प्रसन्न, उपाध्याय मैडम और कीर्ति सर। सभी का एकमत था कि इस प्रतियोगिता में केतकी का स्थान अनोखा है। सबसे अलग। प्रसन्न बोला, ‘पेजेन्ट का नतीजा चाहे जो निकले, केतकी को चिंता करने की जरूरत नहीं। इस प्रतियोगिता में यहां तक पहुंचना, वह भी एक एलोपेशियन व्यक्ति का, अपने आप में बहुत बड़ी बात है। यही जीत है। अन्य एलोपेशियन लोगों के लिए आशा की किरण है। विश्वास और आत्मविश्वास की प्रेरणा है. ’
उपाध्याय मैडम ने केतकी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘सभी लोग प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए पहुंचेंगी लेकिन तुमको विजेता की तरह व्यवहार करना है वहां पर। क्योंकि तुम पहले ही जीत चुकी हो। इस लिए टेंशन मत लेना...जस्ट एंजॉय इट..’
कीर्ति सर ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाल कर केतकी को देते हुए कहा, ‘ये मेरी शुभकामनाएं हैं। बधाई और आशीर्वाद। प्लीज ओपन इट...’ केतकी ने वह बॉक्स खोला तो उसमें गणपति और शंकर भगवान की बहुत सुंदर छोटी छोटी प्रतिमाएं थीं। केतकी गदगद हो गयी, ‘थैंक्यू सर, आप सभी की वजह से मैं आज यहां तक पहुंची हूं।’ वह रुमाल से अपनी आंखें पोंछ ही रही थी कि भावना ने वातावरण को हल्का करने के उद्देश्य से कहा, ‘मैं तो एकदम छोटी और किसी काम की नहीं हूं न..मैंने कहां कुछ किया है?’ केतकी ने उसके मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘तुम तो नानी हो..मेरी नानी...मेरी आज तक की सफलता का सबसे बड़ा हिस्सा तो तुम्हारा ही है। लेकिन यदि तुम्हें धन्यवाद कहूं तो मेरी खैर नहीं। लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि तुम्हारी जैसी बहन भाग्यवान लोगों को मिलती है। ऐसी बहन के लिए बाल तो क्या...सिर भी चला गया तो गम नहीं...’
भावना ने वेटर को बुला कर कहा, ‘भाई, खाना जल्दी से लेकर आ आओ। ये दीदी और कुछ देर तक बोलती रही तो मेरी भूख ही मर जाएगी।’
अचानक केतकी का मोबाइल बजा। उसने फोन उठा कर हैलो हैलो किया, लेकिन सामने से कोई कुछ नहीं बोल रहा था। चिढ़ कर केतकी ने फोट काट दिया। कॉलर नेम में केवल नंबर दिखाई दे रहा था,नाम नहीं। लोग भी कमाल करते हैं...
सभी खाना खा रहे थे। केतकी एकदम शांत और निश्चिंत थी। इन लोगों ने उसका मिशन तय कर दिया था। एलोपेशिया की बीमारी के लिए जनजागृति लाने का। लेकिन इस प्रतियोगिता में मैं जितनी आगे जाऊंगी, उतनी अधिक लोगों की नजरों में आऊंगी। सौंदर्य की पुरानी और संकुचित धारणाएं बदलनी थीं उसे। क्या बाल हों तो ही स्त्री को सुंदर कहा जाए? जीतने के लिए मैं अधीर नहीं होने वाली। उल्टी-सीधी हरकतें भी नहीं करूंगी। लेकिन आवश्यक सभी कोशिशें सौ प्रतिशत करूंगी। यह बहुत बड़ा अवसर है। इसका जितना अधिक से अधिक सही लाभ उठाना है। लंच और खरीदारी निपटा कर केतकी और भावना घर पहुंचीं तभी दरवाजे की बेल बजी। दरवाजा खोलते साथ भावना चौंक गयी। सामने रणछोड़ और यशोदा खडे थे। भावना ने यशोदा के पैर छूते हुए कहा, ‘आइए, भीतर आइए।’ दुबई जाने के लिए खरीदी गयी दो ट्रॉली बैग और बाकी का सामान वहीं पड़ा हुआ था। यशोदा बैठ गयी लेकिन रणछोड़ खड़ा ही रहा। रसोई घर से केतकी ने पूछा, ‘कौन आया है भावना?’
भावना ने कोई उत्तर नहीं दिया तो केतकी बाहर निकलकर आयी। वह भाग कर यशोदा के पास गयी और उससे लिपट गयी। यशोदा उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी। रणछोड़ दास ने गला खखारा। यह सुनकर यशोदा ने केतकी को किनारे ले जाकर पूछा, ‘बेटा, ये प्रसन्न कौन है?’
‘मां, वह मेरे साथ स्कूल में शिक्षक है और मेरा बहुत अच्छा दोस्त है। बहुत अच्छा।’
‘बहुत अच्छा और सज्जन।’ भावना ने कहा।
रणछोड़ बीच में ही बोल पड़ा, ‘वो जो कोई हो...लेकिन यहां क्यों आकर रहता है हमेशा?’
भावना बोली, ‘ऐसा कुछ नहीं है, वो...’
केतकी ने उसे बीच में ही रोक दिया, ‘एक मिनट... पहली बात तो यह कि वह यहां नहीं रहता। दोस्त है इस लिए आते-जाते रहता है। दूसरी बात, यहां कौन आयेगा, कौन रहेगा, ये मेरा फैसला होगा, ये मेरा घर है।’
रणछोड़ दास गुस्से पर काबून नही रख पाया, ‘देखो...देखों ये तुम्हारी लड़की...मन जैसा कहे वैसा रहना...जो मन में आए वह बोला...कोई संस्कार हैं उस पर?’
‘बस...मेरे नाना-नानी के संस्कार हैं मुझ पर, इसी लिए चुप हूं और आप यहां पर खड़े हैं। जीतू ने आपके कान भर दिए और आप यहां दौड़े चले आए..मां तुम दो दिन के लिए रहो यहां पर, मुझे दो दिनों के लिए बाहर जाना है..रहोगी तो भावना को साथ मिल जाएगा। ’
‘कहां जा रही हो बेटा?’
‘दुबई...’
‘ऑफिस के काम से इतनी दूर?’
भावना उत्साह से कहने लगी, ‘ऑफिस का काम नहीं है। केतकी बहन सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग ले रही है।’
‘मतलब क्या? मुझे ठीक से समझाओ।’
‘अरे मां, सौंदर्य प्रतियोगिता...’
रणछोड़ दास हंसा, ‘बाल तो हैं नहीं सिर पर...और ये नखरे.. अच्छा नहीं मालूम पड़ता..लोग तुम पर हंसेंगे...अपना जाना रद्द करो। ’
‘नहीं, ये सब आपकी समझ से परे है।’
‘बेटा...पर सीधे परदेस ही क्यों जाना उसके लिए? वह भी अकेले?’
‘मां वहां मेरी जैसी साठ लड़कियां होंगी। लेकिन तुम तो यहां ठहर रही हो ना?’
यशोदा ने रणछोड़ दास की तरफ देखा, लेकिन वह कुछ बोला नहीं। उनसे मुंह फेर लिया यशोदा ने केतकी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘दादी की तबीयत ठीक नहीं रहती इन दिनों। इन्हें भी बहुत सर्दी-खांसी हो गयी है। भावना, तुम मेरे साथ वहीं चलो न।’ भावना ने दो कदम पीछे जाते हुए बोली, ‘नहीं...अब मैं उस घर में कभी वापस नहीं जाने वाली। और तुम मेरी चिंता मत करो। मैं यहां पर अकेली बड़े आराम से रह सकती हूं।’ रणछोड़ दास ने यशोदा की तरफ देखा, ‘तुम्हारी एक भी बेटी तुम्हारी बात नहीं सुनने वाली...चलो निकलो मेरे पीछे-पीछे।’ यशोदा तुंरत उठ खड़ी हुई। केतकी ने उसके पैर छुए। यशोदा ने धीरे से आशीर्वाद दिया, ‘सुखी रहो बेटा...’ यह सुन कर रणछोड़ दास ने पीछे मुड़ कर गुस्से से देखा। ‘तुम भी यहीं रहना चाहती हो तो रह जाओ। तो मुझे छुटकारा मिल जाएगा।’ यशोदा जल्दी-जल्दी उसके पीछे चल पड़ी। उन दोनों के जाने के बाद केतकी और भावना एकदूसरी की तरफ देखती रहीं। बाद में दोनों गले लगीं। केतकी रुंधे गले से बोली, ‘तुम न होती तो मेरा क्या हुआ होता? ’
‘और तुम न होती, तो जो आज भावना है वैसी न होती...केवल सांस लेने वाली एक गुड़िया भर रहती शायद..तुमने भले ही मुझे जन्म नहीं दिया, लेकिन तुमही मेरी मां, बहन और सहेली हो।’
अचानक तालियों की आवाज आई और दोनों ने चौंक कर देखा तो उपाध्याय मैडम और प्रसन्न दरवाजे पर खड़े दिखाई दिए। प्रसन्न ने एक बहुत बड़ा बैग सामने रखकर कहा, ‘इसमें भावना के अकेले रहने की समस्या का समाधान है। उपाध्याय मैडम के तीन दिनों का सामान।’ बाद में एक छोटे लिफाफे के आकार का बैग केतकी के हाथों में देते हुए उसने कहा, ‘इसमें हम दोनों की ओर से तुम्हारे लिए गिफ्ट है। इसका उपयोग तुम दुबई में कर सकोगी।’ केतकी कुछ बोलती इसके पहले ही फोन की घंटी बजी। अननोन नंबर था। सामने से कोई बोल नहीं रहा था।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह