अग्निजा - 144 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 144

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-154

प्रसन्न की ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद की तरफ दौड़ रही थी। प्रसन्न केतकी को फोन लगाने का लगातार प्रयास कर रहा था...उसकी हैलो...हैलो सुनकर आजू बाजू के यात्री उसकी तरफ देखने लगे तो वह उठकर दरवाजे के पास पैसेज में आकर खड़ा हो गया...प्रेम से बोलने लगा... ‘हैलो केतकी...प्लीज टॉक टू मी...हैलो केतकी... ’ अचानक उसे लगा कि केतकी ने फोन उठा लिया है। ‘प्रसन्न तुमने जो वाइन दी थी मैं उसके सहारे अपना दुःख दूर करने की कोशिश कर रही हूं। लेकिन वह जाता है और फिर आ जाता है। आते समय पुरानी यादें लेकर ही आता है। लगता है ये तुम्हारी स्पेशल वाइन है...बताओ न प्रसन्न। ’ फोन नीचे गिरने की आवाज आयी और केतकी की आवाज सुनायी देना बंद हो गया। लेकिन पुकु निकी के भौंकने की आवाज आ रही थी। फोन चालू रखकर वह फिर से अपनी जगह पर आ गया। एक युवक से बिनती करके उसका फोन मांग लिया।

प्रसन्न ने भावना को फोन लगाया। जैसे ही भावना ने फोन उठाया, वह बोला,‘मैं प्रसन्न...मैं ठीक हूं...तुम अभी कहां हो? ...ओह...तुरंत वहां से निकलो और घर पहुंचो। चिंता की कोई बात नहीं है। मेरे फोन पर केतकी बात कर रही है...लेकिन तुम तुरंत घर पहुंचो।’ इतना कहकर प्रसन्न ने फोन काट दिया और उस युवक को वापस दे दिया। बाद में प्रसन्न फिर हैलो...हैलो केतकी....का जाप करने लगा। अचानक सामने से केतकी की आवाज सुनाई दी। ‘प्रसन्न तुम भी कमाल के आदमी हो...सपने देखने की बुरी आदत लगा देते हो...वाइन की बोतल गिफ्ट के तौर पर देते हो...लेकिन उसका सदुपयोग करने नहीं देते। तीनों पैग का नशा तुमने उतार दिया...फोन रख रही हूं अब...बाय...गुडबाय...फॉर एवर... ’

‘देखो केतकी, तुमने यदि फोन रख दिया तो मैं यशोदा बहन को फोन लगाऊंगा, रणछोड़दास को फोन करूंगा...’

‘क्या फालतू बातें कर रहे हो...मेरे पास कुछ नहीं है, फिर मुझसे तुम्हें क्या चाहिए?’

‘कुछ नहीं...बस मुझसे बातें करती रहो...ट्रेन में मुझे नींद नहीं आ रही है..’

‘यार...तुमने मुझे जीना सिखाया, सपने देखना सिखाया, मुझे प्रपोज किया...अब क्या बच गया है जो तुम्हें नींद नहीं आ रही?’ केतकी बहुत देर तक बिना किसी तारतम्य के बातें करती रही। खुद को दोष देती रही। प्रसन्न को ताने मारती रही। करीब एक घंटे तक सा ही चलता रहा। प्रसन्न को ध्यान में आया कि उसके मोबाइल की बैटरी बड़ी तेजी से खतम हो रही है, लेकिन उसे अभी और बातें करनी थीं। उसे फोन देने वाला वह युवक उसकी तरफ बहुत देर से देख रहा था। ये बंदा किसी बड़ी  समस्या में फंस गया है, उसे समझ में आ रहा था। फोन पर हाथ रखकर प्रसन्न ने उससे धीरे से पूछा, ‘पोर्टेबल चार्जर है क्या?’ उस युवक ने अपने स्लिंग बैग से चार्जर निकालकर दे दिया और फिर से अपने मोबाइल गेम में मशगूल हो गया।

केतकी आधी अधूरी बातें कर रही थी। वह क्या कह रही थी, उसका ठीक ठीक अर्थ निकाल पाना मुश्किल था। ‘पुकु निकी बेस्ट...बावना भी...मेरे पिता, पिता नहीं...वो पिता अच्छे थे...लेकिन अब मेरे साथ कहां हैं....मैं एक अच्छी टीचर नहीं...मेरे सिर पर बाल नहीं है...पूरी टकली...आई एम टोटल टकली...हाहाहा...मैं केतकी जानी...मेरे से बच के रहना रे बाबा...प्रसन्न...सुनो...मैंने क्या लिखा है...कहां गयी डायरी...ये यहां पर है...गौर से सुनो...

‘लम्हा लम्हा हो के सरकती जा रही है

जिंदगी की राख हाथों से आहिस्ता आहिस्ता..’

 

सुना? अरे वाह वा तो कहो न फिर और एक सुनो ... प्रसन्न..

‘तुम अपने जुल्म की इंतिहा कर दो..

फिर हम सा कोई बेजुबां मिले ना मिले...’

प्रसन्न ने बिना कुछ सुने, समझे वाह वाह... कह दिया...सामने से केतकी ने पूछा, ‘इसमें वाह वाह करने जैसा क्या है? ये तो आह है...आह...मेरी वेदना है, प्रसन्न तुम्हें मालूम भी है? मेरे साथ सबसे पहले अन्याय किया उस भगवान ने ..मुझे स्त्री के रूप में पैदा करके...दूसरा अन्याय किया मेरे सगे बाप ने जो मेरा मुंह देखने तक भी जिंदा नहीं रह पाया...और तीसरा अन्याय किया मेरे सौतेले बाप ने...सबसे बड़ा अन्याय तो मुझ पर मेरी मां ने किया...वह यह सब कुछ चुपचाप देखती रही। एक शब्द से भी विरोध नहीं किया...इसी लिए तो जिसे जब मौका मिला, मुझ पर अन्याय करता चला गया..और मुझे अब आदत पड़ गयी अन्याय सहन करने की और जीवन इसी तरह आगे बढ़ता रहा...लेकिन वह कोई जीवन नहीं था...मैं सांस लेने वाली एक कठपुतली थी कठपुतली..तभी तुमको शौक चढ़ा कि इस कठपुतली को संजीवनी पिलायी जाए...यह तुमने अच्छा नहीं किया हां...अब मैं थक गयी हूं...हार गयी हूं इस जीवन से...फोन रखती हूं...ओके? ...उत्तर तो दो...’

‘केतकी, यदि तुमने फोन रख दिया तो मैं तुरंत यशोदा बहन, उपाध्याय मैडम और रणछोड़दास को फोन लगा दूंगा...’

‘नहीं...मुझे उन लोगों से नहीं मिलना है...रहने दो प्लीज...’

‘तो फिर मुझसे बातें करती रहो...’

‘मैं क्या बोलूं....? मुझे अधिक बातें करना अच्छा नहीं लगता. ये तुम्हें नहीं पता क्या? मुझे अकेले जीना है...तुम सच्चे दोस्त होगे तो इतना करना प्लीज...’

‘केतकी, तुम कहोगी वो सबकुछ करूंगा...प्लीज...अभी मुझसे बातें करती रहो..मुझे नींद नहीं आ रही...और नींद नहीं आती तो मेरा सिर दर्द करने लगता है...दिमाग चकराने लगता है...’

‘दिमाग चकराने लगता है? अरे बाप रे...लेकिन मुझे तो यह परेशानी नहीं हो सकती...पूछो क्यों?’

‘क्यों?’

‘मेरे पास दिमाग ही कहां है? दिल भी नहीं...फिर भी जीती जा रही हूं ...’

अचानक दरवाजे की घंटी बजने लगी। ‘एक मिनट प्रसन्न...दूधवाला नहीं तो पेपरवाला होगा शायद...दरवाजा खोलती हूं...तुम्हारा सिर दर्द नहीं होने दूंगी मैं...’ केतकी ने दरवाजा खोला तो सामने भावना खड़ी थी।

‘अरे भावना...तुम आ भी गयी...?इतनी जल्दी सुबह भी हो गयी? ये प्रसन्न की समस्या पर बात करते करते रात खत्म हो गयी।’ भावना ने केतकी के हाथ से फोन ले लिया, ‘मैं आ गयी हूं..आप चिंता न करें। जरूरत पड़ी तो आपको फोन करूंगी।’

भावना ने केतकी को अपने पास बिठा लिया लेकिन केतकी उसकी गोद में सिर रखकर सो गयी। कुछ ही पलों में वह खर्राटे भरने लगी। भावना की आंखों से आंसू बहने लगे और केतकी के गालों पर गिर गये। लेकिन उसे अहसास नहीं हुआ। वह गहरी नींद में थी।

भावन को समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि केतकी को इतना पीने की जरूरत पड़ गयी। उसे भी नहीं बता सके, ऐसा कौन सा दुःख है उसे? और ऐसे दुःख के क्षण में वह उसके पास नहीं थी। प्रसन्न भाई ने यदि उसे फोन नहीं किया होता तो क्या हुआ होता? भावना, केतकी की तरफ देखते हुए उसे केशरहित सिर और चेहरे से हाथ फेरती रही...बड़ी देर तक...

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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