नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
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मोहित के पिता बड़ी देर तक अपने सोच-विचारों में, अपने सिर को झुकाए हुए, एक हाथ से सहारा लिए खोये रहे. मोहित भी जैसे एक प्रतिमा बना हुआ कभी वह मोहिनी को चोर नज़रों से देखता तो कभी अपने पिता को विचारों में गुमसुम पाया हुआ देख, जैसे चिंतित हो जाता था.
फिर काफी देर के बाद उन्होंने जब अपनी आँखें खोली तो सामने मोहिनी को अपने सिर पर साड़ी का पल्लू डाले हुए, चुपचाप खड़ी देख वे उससे सम्बोधित हुए. वे बोले कि,
'अरे ! बेटी, तुम अभी तक यूँ ही खड़ी हुई हो? बैठ क्यों नहीं जाती हो?' कहते हुये उन्होंने अपने पास में पड़ी हुई तीसरी कुर्सी की ओर इशारा किया तो मोहिनी चुपचाप उस पर बैठ गई.
'तुम कब से आई हो? कुछ भोजन आदि भी किया है, या सुबह से भूखी ही हो?'
'मैंने सुबह नाश्ता कर लिया था.' मोहिनी ने बताया.
'लेकिन, अब तो दिन के डेढ़ बजते हैं. दोपहर के भोजन का समय हो चुका है. चलो, पहले तुम भोजन करो, बाद में मैं तुमसे इस विषय पर बात करूंगा.'
फिर वे मोहित से बोले कि,
'जाओ इसे घर में ले जाओ और इसके खाने का तथा यहाँ ठहरने का इंतजाम करो.'
तब मोहित उसे लेकर घर के अंदर की तरफ जाने लगा. पास में आकर वह उससे बोला कि,
'वह आखिर वाला दरवाज़ा बैठक का है. हम वहीं पहले चलते हैं.'
'मुझे मालुम है.' मोहिनी बोली तो मोहित जैसे सकपका गया. वह बोला कि,
'तुम तो ऐसे बताती हो कि, जैसे तुम यहाँ पहले ही से रह रही हो?'
'तो इसमें भी तुम्हें कोई संदेह है?'
'?'- मोहित अनुत्तरित रह गया.
'?'- मोहित के द्वारा सशोपंज में इस प्रकार से हैरान होने पर मोहिनी नीचे मुंह झुकाते हुए मुस्कराने लगी तो मोहित ने उसे देखा. एक संशय और भेद-भरी दृष्टि से, फिर बोला कि,
'मुझे तो तुम सचमुच कोई बला या दुष्ट पिशाचनी-सी लगती हो, जो इस तरह से मुझे बर्बाद कर देना चाहती हो?'
'नहीं, ऐसी बात हो ही नहीं सकती है. ज़रा सोचो कि, जबसे मैंने तुम्हें जाना है, कॉलेज के दिनों से, अब तक मैंने तुम्हारा कोई भी नुक्सान किया है? हमेशा तुम्हारा ख्याल रखा है. मैंने तुमसे प्यार किया है, कोई दुश्मनी नहीं. आखिर, मैं तुम्हारी मंगेतर हूँ. हमारी तो शादी कब की हो चुकी होती, अगर तुम्हारे पिता जी की साज़िश सामने नहीं आती?'
मोहिनी, यह सब कह ही रही थी, कि अचानक मोहित के पिताजी, उन दोनों के पीछे से बोल पड़े,
'कैसी साजिश? किसकी साजिश?'
'?'- मोहिनी और मोहित, दोनों अपने स्थान पर अवाक से खड़े रह गये. दोनों से कुछ भी नहीं कहा गया.
'क्या उसी साजिश की बात तो नहीं हो रही है, जिसके तहत मेरा समूचा खानदान खत्म होता जा रहा है?'
'?'- उनके ऐसा कहने पर भी, उन दोनों में से कोई भी कुछ नहीं बोला.
'बोलो? पहले मेरा भाई गया. कल उसके भी दोनों लड़कों को मार दिया गया है. और अब किसकी बारी है? मेरी या मोहित की, या फिर मेरी पत्नि की?'
'आप ठीक कहते हैं. मैं भी यही सारी बातें मोहित को समझाना चाह रही थी. अब तक जो कुछ भी हुआ है, उसमें या यूँ कहिये कि, इस कहानी की शुरुआत आपने ही की थी.' मोहिनी बोली तो मोहित के पिता के पैरों से जैसे धरती खिसक गई. वे जैसे किसी अज्ञात भय के मारे मन-ही-मन डर गये. लेकिन, फिर भी वे साहस जुटाकर बोले,
'क्यों, मैंने इसमें क्या किया है?'
'मैं बताती हूँ. ज़रा हिम्मत से, सांस रोक कर सुनियेगा.'
'?'- खामोशी.
तब मोहिनी ने कहना आरम्भ किया. वह बोली कि,
'पिता जी ! क्या यह सच नहीं कि, आपने हम दोनों के विवाह की रजामंदी दिखाकर मेरी ह्त्या अपनी ही कार में, मेरी ही साड़ी से मेरा गला घोंटकर नहीं करवाई थी. और इस खूनी अपराधिक तांडव में आपने अपने भाई, अर्थात, मोहित के चाचा और उनके दोनों लड़कों का भी हाथ और सहयोग नहीं था? फिर इतना ही नहीं, आपके भाई और उनके दोनों लड़के, जिनकी कल हत्या हो चुकी है, ने मेरी लाश को अंग्रेजों के ईसाई कब्रिस्थान में, एक वर्षों पुरानी कब्र में नहीं दबा दिया था? जब यह सारी बातें और सच्चाई मैनें एक दिन, अपनी भटकती हुई परेशान आत्मा के द्वारा मोहित को बताई तो वह भी इस बात की सच्चाई का पता लगाने के लिए गोरों के कब्रिस्थान में, मेरी लाश खोदकर देखने के लिए गया था. और जब बाद में मोहित ने यह सारी बातें आपके चाचा और आपको बताईं थीं तो आप लोगों ने उलटा उसी पर मुकद्दमा ठोंक दिया था?'
'ठीक है. तुम्हारी सारी बातें सच हो सकती हैं, लेकिन तुम वह मोहिनी नहीं हो, जो मर चुकी है?'
'मैं वही मोहिनी हूँ. अगर नहीं होती तो यह सारी सच्चाई कैसे उगलती?'
'मेरा मतलब है कि, तुम्हारी शक्ल उस मोहिनी से नहीं मिलती है, जिसके कत्ल का इलज़ाम तुम हम पर ठोंक देना चाहती हो' मोहित के पिता ने तर्क किया तो मोहिनी ने आगे कहा कि,
'यही बात तो मैं आपको समझाना चाहती हूँ और मैंने आपको बताया भी है. अब फिर से बताती हूँ, लेकिन मैं जानती हूँ कि, आप उस बात की सच्चाई पर कभी भी विश्वास नहीं करेंगे.'
'देखो, बेटी ! हम केवल यही जानना चाहते हैं कि, दूसरी औरत की शक्ल में तुम मोहिनी कैसे बन गई और तुमको हमारे बारे में यह सब बातें किस प्रकार से पता हुई हैं?' मोहित के पिता बोले तो मोहिनी ने आगे कहा कि,
'मरने के पश्चात जब मेरी भटकती हुई आत्मा, आकाश में 'आत्माओं के संसार' में पहुँची तो मुझे उस संसार में तब तक यूँ ही भटकना था जब तक कि, मेरी उम्र पूरी नहीं हो जाती. आपको तो मालुम ही है कि, मेरी हत्या हुई थी और मुझको मरने से पहले ही गला घोंटकर मार दिया गया था, इसलिए मेरा कोई भी न्याय नहीं किया गया और मुझे अपनी उम्र पूरी होने तक आत्माओं के संसार में रहने को कहा गया था.'
'उसके बाद?'
'उसके बाद मैं एक दिन इस संसार और आकाश के राजा, जिसका नाम उसके सोने की दीवारों से सजे हुए राजमहल, और राजगढ़ की दीवारों पर, 'मनुष्य का पुत्र,' 'शान्ति का राजकुमार,' और 'शान्ति का राज्य,' लिखा हुआ था, से मिली. वह बहुत ही दयालु राजा है. उसको कभी भी क्रोध नहीं आता है. मैं उसका चेहरा इसलिए नहीं देख सकती थी, क्योंकि उसके मुखमंडल पर सूर्य से भी अत्यधिक तीव्र रोशनी की किरणें चमक रही थीं. इतना ही नहीं, उसके सोने के महल की दीवारों पर मैंने बहुत से शब्द लिखे देखे थे. उनमें से कुछेक जैसे, 'सत्य, मार्ग और जीवन मैं हूँ,' 'संसार की ज्योति मैं हूँ,' 'पाप की मजदूरी आत्मिक मृत्यु है,' 'मैं फिर से शीघ्र आऊँगा,' आदि. सबसे आश्चर्य की बात यही है कि, वहां पर संसार की अन्य आत्माएं भी थीं जो ये सारे नि:शब्द, शब्दों को अपनी-अपनी भाषा में पढ़ती थीं.'
'इसके अलावा, तुमने और किसकी महिमा वहां आसमानी प्रदेश में देखी है?'
'जो मैंने देखा था, वही आपको बताया है.' मोहिनी बोली तो मोहित के पिता अपने विषय पर वापस आये. बोले कि,
'हमारा मुख्य प्रश्न यही है कि, तुम दूसरी शक्ल और शरीर में मोहिनी कैसे बनकर आ गई हो? अगर यह तुम्हारा पुनर्जन्म है तो तुम्हारा रूप क्यों बदला है? अगर तुम्हारे उत्तर से हम संतुष्ट हो गये तो मैं तुम्हें मोहिनी मानकर तुम्हारा विवाह अपने पुत्र से करवा दूंगा.'
'वही, मैं आपको बताने जा रही हूँ.'
इतना कहकर मोहिनी ने अपनी बात आगे बढ़ाई. उसने कहा कि,
'अपने आत्मिक संसार के दौरान मैंने जब मोहित को अत्यंत उदास और परेशान देखा तो फिर मैंने आकाश के राजा से बिनती की कि, वह मुझे फिर से संसार में भेज दे, क्योंकि मुझसे अपने प्रेमी मोहित का दुःख देखा नहीं जाता है. वह राजा बहुत दयालु है. उसने मेरे आंसू देखे और तब उसने मुझसे कहा था कि, 'पुत्री, मैं तुम्हें भेज तो दूँ, मगर तुम्हारा शरीर कहाँ से लाऊंगा? तुम्हारा अपना शरीर तो धूल-मिट्टी में सड़कर नाश हो चुका है'
'आपके लिए कुछ भी ना-मुमकिन नहीं है?' मैंने रोते हुए कहा था.
'हां, ना-मुमकिन तो नहीं है, फिर भी ह्मारे राज्य के कुछ ऐसे कायदे-क़ानून हैं, जिन्हें मैं भी अपने बड़े राजा की मर्जी के बगैर नहीं तोड़ सकता हूँ.'
'?'- तब मैं, हताश और निराश होकर रोने लगी थी तो उस मनुष्य के पुत्र के राजा ने मुझे ढांढ़स दिलाया और कहा कि,
'पुत्री रो मत. मुझसे तुम मानव जाति के आंसू देखे नहीं जाते हैं. मेरे पास एक युक्ति है. मैं तुमको, तुम्हारी ही उम्र के किसी स्त्री के शरीर में तब भेज सकता हूँ जबकि, उसकी आत्मा यहाँ आयेगी.'
'मुझे मंजूर है.'
'लेकिन, यहाँ से दूसरे के शरीर में जाने के पश्चात तुमको, बहुत दुःख उठाने पड़ सकते हैं. लोग तुमको, मोहिनी मानने और पहचानने से इनकार करेंगे.'
'मुझे यह भी मंजूर है.'
इतनी वार्ता के बाद हमारी वह भेंट समाप्त हो गई थी. और फिर काफी दिनों के बाद, लगभग दो वर्षों के पश्चात जब मैंअपने आत्माओं के संसार में यूँ, ही दुखी और परेशान-सी बैठी थी कि, तभी उस राजा के दो सफेद सैनिक मेरे पास आये और उन्होंने मुझसे कहा कि, 'तुम्हारे यहाँ से जाने का समय हो चुका है.' यह कहते हुए उन्होंने मुझे नीचे धक्का दिया तो मुझे लगा कि, मैं जैसे किसी सुरंग के अंदर चली जा रही हूँ. जब मैं उस सुरंग से निकल कर बाहर आई तो मुझे बहुत से लोग कब्रिस्थान में दफनाने के लिए खड़े थे और मैं तब उटकर बैठ गई थी. बाद में मैंने देखा था कि, एक आदमी जिसका नाम हामिद गुलामुद्दीन था, उसके हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई थीं. यह आदमी इकरा का पति था, जिसने अपनी स्त्री इकरा को समय से पहले ही मार डाला था. तब बहुत दिनों के बाद मैं समझ सकी थी कि, मुझे इकरा के बदन में भेज दिया गया था, इसीलिये आज भी इकरा की आत्मा भटकती फिर रही है. आत्मा से मैं मोहिनी हूँ, मगर शरीर से मैं इकरा हामिद हूँ. यही कारण है कि, आप लोग मुझे पहचानने से इनकार करते हैं.'
'हूँ. . .!' मोहिनी की कहानी सुनकर मोहित के पिता ने जैसे गहरी सांस ली. फिर बोले कि,
'तुम्हारी इस कहानी पर विश्वास कैसे किया जाए? अगर तुम्हारी किसी बात पर विश्वास किया जा सकता है तो वह है कि, तुम हमारे परिवार के सारी छुपी-अन्छुपी बातों के बारे में बखूबी जानती हो. मगर इन बातों के सहारे तुम्हें मोहिनी नहीं माना जा सकता है.'
'?'- मोहिनी सुनकर दंग रह गई. वह कुछ कहती, इससे पहले ही मोहित के पिता बोले कि,
'तुमने कहा है कि, तुमने मेरे चाचा के दोनों लड़कों को कत्ल होते हुए देखा है. इसलिए हमें तुमको पुलिस में भी देना होगा.'
'हां देखा है और उन्हें इकरा हामिद की आत्मा ने ही इसलिए मारा था क्योंकि, वे दोनों उसके बदन के साथ, अर्थात मेरे साथ, मेरी इज्ज़त से खिलवाड़ करना चाहते थे.' मोहिनी बोली तो मोहित के पिता बोले कि,
'बेटे, ज़रा पुलिस को तो फोन लगाओ. यह लड़की यूँ ही बकवास करती है.'
'देखिये, यह काम भूलकर भी मत करना. इकरा भी यहीं खड़ी हुई है. अगर आपने आज तो क्या, भविष्य में कभी भी पुलिस को बताया तो आप दोनों भी अपनी मौत के जिम्मेदार खुद ही होगे.'
'यह धमकी किसी और को देना.' मोहिनी की बात पर मोहित के पिता अंदर फोन की तरफ लपके तो लगा कि, जैसे किसी ने उनकी टांग में ऐसी ठोकर मार दी है कि, वे असंतुलित होकर नीचे फर्श पर जा पड़े और लगे कराहने.
'?'- पिता जी, मैंने कहा था कि, यह लड़की नहीं, बल्कि बहुत खतरनाक बला है. पिशाच है. जरुर किसी-न-किसी जिन्न आदि से इसका सम्बन्ध है. इसके मुंह मत पड़ियेगा.'
'अरे, मुझे तुम उठाओ तो पहले.' उसके पिता चिल्लाए तो मोहित उनकी तरफ सहायता के लिए बढ़ा. इसी मध्य मोहिनी उनको घर में अकेला छोड़कर बाहर निकल आई. फिर कुछ ही पलों के अंतर में वह उस गाँव से ही ओझल हो गई.
दूसरे दिन की संध्या तक मोहिनी अपने निवास पर पहुंची और थकी-हारी अपने बिस्तर पर गिर कर फूट-फूटकर रोने लगी. मोहित के अलगाववादी रवैये से उसका दिल बुरी तरह से टूट चुका था. और फिर टूटता भी क्यों नहीं, एक ही उम्मीद तो उसे थी. एक ही आशा थी. एक ही विश्वास उसे था कि, चाहे सब उसे ठुकरा दें, सारी दुनिया उसका तिरस्कार कर दे, कोई भी उसे मोहिनी न माने मगर मोहित उसके साथ कभी भी ऐसा तीखा और अनजानेपन का व्यवहार कतई नहीं कर सकेगा. मोहित और उसके पिता के अमानवीय जैसे व्यवहार ने एक बार फिर से उसके दिल की समस्त आस्थाओं पर पानी डाल कर उसके चैन से जीने के सारे मार्ग बंद कर दिए थे.
मोहिनी के कुछेक दिन इसी प्रकार, इन्हीं सोच-विचारों में बीत गये. उसने किसी प्रकार कुछ दिनों के लिए इस विषय और इन बातों से अपने दिल-दिमाग को अलग रखना चाह. किसी तरह से अपनी नौकरी और काम में मन लगाया. अपने बॉस रोनित को उसने अब तक की सारी बातें खुलकर बता दी थीं. उसने भी उसे अपने काम में मन लगाने और समय आने पर मोहित से भी अच्छे किसी लड़के से विवाह करके अपना घर बसाने सलाह दी थी. फिर भी मोहिनी के समक्ष अब केवल एक ही आस और उम्मीद थी कि, उसके मां-बाप, भाई-बहन तथा अन्य पारिवारिक लोग उसे अवश्य ही पहचान लेंगे. मगर उसके इस 'अवश्य' में भी एक बड़ा-सा प्रश्न चिन्ह जब वह देखती थी तो फिर उसके सारे सपने हवा में मिलकर बिखर जाते थे.
सो इस तरह-से मोहिनी अपना समय काटने लगी. वह अपने काम पर जाती और सीधे काम से वापस आकर अपने कमरे में बंद भी हो जाती थी. हां, एक सहारा उसके पास अवश्य ही था- इकरा की आत्मा जब कभी उसके घर और उसके आस-पास जरुर चक्कर काटती प्रतीत हो जाती थी.
तब अपने दुखेरे दिनों की मौसमी हवाओं के मध्य एक दिन जब मोहिनी अपना काम कर रही थी कि, तभी पुलिस की चार-पांच गाड़ियां अचानक-से उसके कार्यालय में आईं और मोहिनी को बगैर कोई भी सम्मन या वारंट दिखाए हुए उसे गिरफ्तार करके ले गई और उसे हवालात में बंद कर दिया. दूसरे दिन उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और उस पर मोहित के दोनों भाइयों के कत्ल का आरोप लगाकर हिरासत में अतिरिक्त डिमांड पर पुलिस वालों ने ले लिया. मोहिनी को समझते देर नहीं लगी कि पुलिस की यह सारी कार्यवाही मोहित के पिता के द्वारा लिखवाई गई प्राथमिक रिपोर्ट के तहत की गई थी. लेकिन, मोहिनी की इस गिरफ्तारी के दिन रोनित भी अपने कार्यालय में नहीं था. उसकी इस गिरफ्तारी का अंजाम भी बेहद दुखद हो चुका था. प्रथम, मोहिनी की गिरफ्तारी के ठीक दूसरी रात को मोहित के पिता की लाश उनके अपने ही कमरे में बिजली के पंखे से लटकी हुई पाई गई. साथ ही नीचे फर्श पर उनके बदन का सारा रक्त उनके ही मुंह से निकल-निकल कर बह रहा था. दूसरा, जिस पुलिस इंस्पेक्टर और स्त्री सिपाहियों ने उस पर कार्यवाही की थी, वे तीन पुलिस के कर्मचारी भी अपने-अपने स्थान पर मृत पाए गये थे. उन तीनों के मरने का तरीका भी एक जैसा ही था. तीनों की गला घोंटकर हत्या कर दी गई थी. शहर के मशहूर थाने में एक ही रात को तीन-तीन पुलिस वालों की आकस्मिक और बेदर्दी के साथ हुई हत्याओं के कारण समूचे थाने में बबाल और हंगामा मचा हुआ था. मगर थाने की हिरासत में बंद मोहिनी को यह सब सुनकर कोई भी आश्चर्य नहीं हो सका था. वह जानती थी कि, जो इस संसार में नि:शब्द हैं, उन्हीं के शब्दों की ये बे-रहम वे आवाजें थीं कि जिन पर आज का मनुष्य सहज ही विश्वास नहीं कर पाता है. विश्वास करना तो अलग, वह उपहास उड़ाने से भी नहीं चूकता है.
क्रमश: