वीर सावरकर - 8 - कालापानी के बाद Veer Savarkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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वीर सावरकर - 8 - कालापानी के बाद



मैं अब शीघ्र ही अपनी प्यारी मातृभूमि के दर्शन करूंगा इसका सावरकर जी को स्वप्न में भी ध्यान न था । २१ जनवरी सन् १९२१ के दिन उनका डी० टिकट निकाल लिया गया। इससे सावरकर जी को कुछ सन्देह तो अवश्य हुआ किन्तु फिर भी उन्हें यह विश्वास न था कि वे भारत ले जाये जायेंगे। एक दिन
अकस्मात एक वार्डर ने सावरकर जी को एक पत्र लाकर दिया जिसमे यह लिखा था कि अब आपको बम्बई की जेल में रखा जायेगा । सावरकर जी के हृदय में भारतभूमि के दर्शनों की कुछ आशा उत्पन्न हो गई और उनकी दर्शनों के लिये उत्कण्ठा भी
प्रवल होती गई। सावरकर जी ने अपनी पुस्तकें आदि बांधकर चलने की तैयारी कर ली । १० फरवरी को सावरकर जी और उनके बड़े भाई बाबा गणेश दामोदर सावरकर दोनों ने अन्दमान से प्यारी भारत भूमि के लिये प्रस्थान किया। प्रस्थान करते समय
सावरकर जी ने अपने बड़े भाई से कहा- बाबा, अन्दमान की सीमा जीवन और मरण की देहली है। अब हम यहां से बाहर जा रहे हैं, देखें वहां क्या होगा। जब आप अन्दमान के कैदियों से विदा लेने लगे तो एक क़ैदी जो बाग़ में जमादार था, उसने सब कैदियों की ओर से सावरकरजी के गले में पुष्पहार पहिनाये
और अभिनन्दनपूर्वक सबने विदा दी। महाराजा वोट से सावरकर जी भारत के लिये अन्दमान से विदा हुए। जहाज के किसी अन्य कमरे में स्थान न होने के कारण सावरकर जी को पहले तो पागलों के एक कमरे में ही रख दिया गया किन्तु पीछे से उन्हें वहां से पृथक् करके दूसरे कमरे में पहुँचाया गया। जहाज में भी दोनों बन्धु अलग-अलग रखे गये थे । जहाज में यात्रा करते हुए तीन दिन व्यतीत हो चुके और चौथे दिन सावरकर जी को मातृभूमि के तट का दर्शन हुआ। भारत का दर्शन होते ही सावरकर जी के हृदय में मातृभूमि का प्रेम हिलोरे मारने लगा और वही पुरानी भावनायें सब एकदम फिर जागृत हो उठीं। सावरकर जी को पहले तो कलकत्ता की अलीपुर जेल में बन्द रखा गया और तदनन्तर इन्हें सन् १९२७ में रत्नागिरि जिले की जेल में भेज दिया गया। सन् १९२७ तक ये वहीं नजरबंन्द रहे।
रत्नागिरि आकर सावरकर जी को कुछ थोड़ी सी स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई और आपको जिले भर में घूमने की आज्ञा मिल गई। आपने सारे जिले में हिन्दू महासभा का ऐसा कार्य किया कि लोगों के हृदयों में हिन्दू धर्म तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति असीम श्रद्धा उत्पन्न हो गई। यहां पर इन्होंने शुद्धि तथा अछूतोद्धार का कार्य भी पर्याप्त मात्रा में किया। गद्य तथा पद्य में अनेक पुस्तके लिखीं जो मराठी साहित्य में बड़ी उच्च कोटि की समझी जाती हैं। ‘हिंदुत्व’ लिखकर इन्होंने 'हिन्दू' शब्द की ऐसी परिभाषा हिन्दुओं के समक्ष रखी जिससे सभी सम्प्रदायों के लोग सभी हिन्दुओं को एक समझने लगे तथा उनके अन्दर एक दूसरे के प्रति प्रेम की भावना जागृत हो गई। यह पुस्तक सभी हिंदू भाइयों को एक बार अवश्य करनी चाहिए। सावरकर जी को साहित्य में भी रुचि थी, इस कारण आपने नाटक और कवि की भी कई पुस्तकें लिखीं। आपकी लिखी हुई पुस्तकों में मुख्य ये समझी में जाती है—
(मराठी में) —
१. जोसेफ मेझिनी यांचे आत्मचरित्र व
राजकारण (जब्त)
२. शिखांचा इतिहास (अप्रकाशित: नष्ट),
३. माझी जन्मठेप (जब्त),
४. कालेपाणी (कादंबरी),
५ सं० उःशाप (नाटक),
६. सं० संन्यस्त खड़ग (नाटक),
७-सं० उत्तर क्रिया (नाटक),
८ - मला काय त्यांचे (कथा),
९- नेपाली आंदोलनांचा उपक्रम, १३
१०- सावरकर साहित्य, भाग १-५

(अंग्रेजी में)—
१ - इण्डियन वार आफ इण्डिपेण्डेन्स (जब्त),
२ - हिन्दुत्व,
३- हिन्दू पाद पादशाही (कविता में)— १. राव फुलें, २.-गोमांतक।
सावरकर जी के साहित्य का हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी आदि अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है। इनकी बनाई हुई कवितायें आज महाराष्ट्र भर की जिह्वा पर विराजमान हैं।
सावरकर जी के दिन इसी प्रकार रत्नागिरि की नजरबन्दी में ही बीतते गये । सन् १९३७ में पार्लियामेण्ट से नया विधान
आया। उसके अनुसार प्रांतीय सरकार की बागडोर बहुत कुछ प्रजा के प्रतिनिधियों के हाथ में आ चुकी थी। सारे देश में चुनाव हुआ। सात प्रान्तों में कांग्रेस का बहुमत रहा किन्तु कुछ दिनों तक आफिस स्वीकार करने के विषय में कांग्रेस में वाद-विवाद होता रहा। इस समय के लिये गवर्नरों ने 'अस्थायी मन्त्रिमण्डल बना लिये और इस कार्य को अन्य प्रति- निधियों ने सॅभाला। हिन्दुओं के सौभाग्य से बम्बई में श्री जमनादास मेहता भी उसमें भाग लेने के लिये बुलाये गये। उन्होंने कुछ शर्तों पर मन्त्रिमण्डल के साथ सहयोग करना स्वीकार कर लिया। उन शर्तो में श्री वीर सावरकर जी का छुटकारा एक शर्त थी । इस प्रकार श्री जमनादास मेहता के उद्योग से वीर सावरकर १० मई १९३७ को सब बन्धनों से मुक्त कर दिये गये और फिर ये अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगे।