कालवाची--प्रेतनी रहस्य--भाग(७) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कालवाची--प्रेतनी रहस्य--भाग(७)

तभी कालवाची बोल पड़ी....
महाराज!ये तो आपके राज्य में ही निवास करते हैं,मैंने देखा है इनका निवासस्थान,क्योंकि एक दिन मैं इनके निवास पर काम माँगने गई थी तो इनकी पत्नी ने मुझसे बड़ी निर्दयता से बात की और मुझे वहाँ से भगा दिया,मुझे उनका स्वाभाव तनिक भी नहीं भाया....
कौत्रेय!क्या तुम्हारी पत्नी इतनी निर्दयी है?कुशाग्रसेन ने पूछा....
महाराज!वो क्या है ना!मेरी पत्नी अत्यधिक कुरूप है,तन हथिनी की भाँति भारी एवं बैडौल हो गया है,रूप के नाम पर ईश्वर ने ना नैन-नक्श दिए एवं ना रंग ,सो किसी रूपवान युवती को देखकर उसे सहन नहीं होता इसलिए अपने समक्ष वो ऐसे सुन्दर युवतियों को रहने ही नहीं देती,कदाचित इसलिए उसने कालिन्दी को निवास स्थान से भगा दिया हो,कौत्रेय अभिनय करते हुए बोला....
तो तुमने कैसें ऐसी कुरूप कन्या से विवाह कर लिया?कुशाग्रसेन ने पूछा...
महाराज!विवशता थी,मैं उसके पिता के यहाँ कार्य करता था,उसके पिताश्री धनवान थे एवं मैं निर्धन,उन्होंने मुझे धन का लालच दिया एवं मैंने धन के लालच में आकर उनकी कुरूप कन्या से विवाह कर लिया,अब अपने निर्णय पर पछतावा हो रहा है,कौत्रेय बोला....
ओह...कदाचित इसलिए तुम अपने निवासस्थान नहीं जाना चाहते ?कुशाग्रसेन बोलें....
तब कौत्रेय बोला....
अब क्या बताऊँ महाराज!वो कुरूप होती तो वो सह लेता किन्तु उसकी वाणी इतनी कर्कश है कि कानों में रूई डालनी पड़ती है एवं स्वाभाव ऐसा कि जितने समय तक मैं अपने निवासस्थान पर रहता हूँ तो वो मुझसे झगड़ती ही रहती है,इसलिए मैं ने अपनी पत्नी से झूठ कह दिया है कि मुझे अब से राजमहल में काम मिल गया है एवं मैं अब महाराज की सेवा किया करूँगा.....
तो तुम भी राजमहल जाना चाहते हो,कुशाग्रसेन ने पूछा....
महाराज!यदि आप चाहे तो ले जा सकते हैं मुझे,किन्तु ऐसी कोई विवशता नहीं है,आपका जैसा आदेश होगा तो मुझे उसका पालन करना ही पड़ेगा,कौत्रेय बोला...
यदि तुम्हारी पत्नी इतनी निर्दयी है तो तुम भी राजमहल चल सकते हो,कुशाग्रसेन बोलें...
कुशाग्रसेन की बात सुनकर कौत्रेय प्रसन्नता से झूम उठा एवं बोला....
महाराज की जय हो,मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी,आज मैं कितना प्रसन्न हूँ ,ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था,कम से कम वो हथिनी मेरी आँखों के समक्ष तो नहीं रहेगी,कौत्रेय बोला...
यदि तुमने अपनी पत्नी को अब हथिनी कहा तो मैं तुम्हें अपने संग राजमहल नहीं ले जाऊँगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
ना....महाराज!मैं तो परिहास कर रहा था,वो तो साक्षात् कामदेवी का अवतार है,स्वर्ग की अप्सरा है,उसके जैसी सुन्दर और कोई कहाँ?कौत्रेय बोला....
बस...बस..बहुत हुआ,इतनी अतिशयोक्ति देने की कोई आवश्यकता नहीं,कुशाग्रसेन बोलें...
अब आपने कहा कि उसे हथिनी मत कहो तो मैं उसकी प्रसंशा कर रहा था,कौत्रेय बोला...
चलो....अधिक वार्तालाप का अर्थ नहीं....हमें अब राजमहल की ओर प्रस्थान करना चाहिए,कुशाग्रसेन बोलें...
जी!महाराज!मैं भी आपसे यही कहने वाली थी,कालिन्दी बनी कालवाची बोली....
कालिन्दी के मधुभरे शब्दों ने राजा का मन मोह लिया एवं वें उस से बोलें....
देख लो कौत्रेय!ये कालिन्दी देखो ना कितनी सुशील है और एक तुम हो जिसे ठीक से बात करनी भी नहीं आती...
क्षमा करें महाराज!भूल हो गई,कौत्रेय बोला...
चलो !अब राजमहल चलो,याद रखना ऐसी भूल आगें ना हो,कुशाग्रसेन बोले...
जी!महाराज!कौत्रेय बोला...
और सभी राजमहल की ओर चल पड़े,कुछ समय पश्चात वें सब राजमहल के समीप पहुँचे,राजा कुशाग्रसेन ने कालिन्दी और कौत्रेय को राजमहल के समीप ही कुछ दूरी पर बनें शीशमहल में ठहराने का सोचा,शीशमहल में राजमहल की राजनर्तकी मत्स्यगन्धा और उसके दास दासियाँ रहती थीं,क्योंकि कुशाग्रसेन कालिन्दी को राजमहल नहीं ले जाना चाहते थे ,वें चाहते थे कि किसी को ये ज्ञात ना हो कि कालिन्दी उस हत्यारे के विषय में जानती है एवं वें कालिन्दी और कौत्रेय को शीशमहल ले गए,वें शीशमहल पहुँचे और उन्होंने मत्स्यगन्धा को अपने समक्ष बुलवाया,मत्स्यगन्धा उनके समक्ष उपस्थित हुई और महाराज से बोली....
जी!महाराज!क्या आज्ञा है?
तब कुशाग्रसेन बोलें....
राजनर्तकी मत्स्यगन्धा ये कालिन्दी है एवं मैं चाहता हूँ कि आप इसे शीशमहल में शरण दें....
जी!जैसी आपकी आज्ञा महाराज!किन्तु क्षमा करें,आपका राजमहल तो इतना भव्य है,वहाँ इसे शरण देने में क्या आपत्ति है?मत्स्यगन्धा ने पूछा...
राजनर्तकी मत्स्यगन्धा!ये मेरा व्यक्तिगत विवाद है,इस विषय में आप ना ही पूछे तो अच्छा,वैसें भी मैं इस वैतालिक राज्य का राजा हूँ और मेरी आज्ञा का पालन करना इस राज्य के निवासियों का कर्तव्य होना चाहिए,कुशाग्रसेन बोलें...
जी!महाराज!आपकी आज्ञा का पालन अवश्य होगा,मत्स्यगन्धा बोली...
और कोई प्रश्न राजनर्तकी मत्स्यगन्धा !कुशाग्रसेन बोले...
जी!नहीं!महाराज!अब कोई प्रश्न नहीं,मत्स्यगन्धा बोली...
और उस दिन कालिन्दी एवं कौत्रेय को शीशमहल में शरण मिल गई,दोनों शीशहमल में आकर अत्यधिक प्रसन्न थे,कालिन्दी को अपना अलग कक्ष मिल गया एवं कुशाग्रसेन ने उसके लिए बहुमूल्य आभूषण एवं रेशमी वस्त्र भी भिजवाएँ,किन्तु जब दासी कालिन्दी के कक्ष में भोजन लेकर पहुँची तो कालिन्दी ने भोजन लेने से मना कर दिया ,उधर कौत्रेय ने भी भोजन लेने से मना कर दिया क्योंकि दोनों को भोजन की आवश्यकता ही नहीं थी,ये सुनकर मत्स्यगन्धा कुछ अचम्भित सी हुई किन्तु उसने सोचा निर्धन जन हैं,कदाचित उन्हें ऐसा स्वादिष्ट भोजन करने की प्रवृत्ति ना होगी,इसलिए कल से दोनों के लिए साधारण भोजन ही बनेगा,मत्स्यगन्धा ने दूसरे दिन दोनों के कक्ष में साधारण भोजन भिजवाया,किन्तु उन्होंने उस दिन भी भोजन ग्रहण ना किया,कालिन्दी(कालवाची) भोजन ग्रहण कैसे कर सकती थी क्योंकि वो तो प्रेतनी थी एवं कौत्रेय एक कठफोड़वा था,ये मत्स्यगन्धा को ज्ञात ही नहीं था,इसलिए ये बात मत्स्यगन्धा को चिन्ता में डाल गई एवं उसने इस विषय में राजा से वार्तालाप करने का विचार किया एवं वो राजमहल पहुँची,कुशाग्रसेन उसके समक्ष आएं तब उसने सारी बात राजा से कह सुनाई....
किन्तु राजा कुशाग्रसेन इस बात को सुनकर तनिक भी अचम्भित ना हुए और वें मत्स्यगन्धा से बोलें....
राजनर्तकी मत्स्यगन्धा!वो एक निर्धन युवती है,उसके भाग्य में दो समय का भोजन ही नहीं लिखा था,वो तो सदैव भूखी ही सो जाया करती रही होगी,एकाएक इतना अत्यधिक एवं पर्याप्त मात्रा में भोजन देखकर उसका भोजन ग्रहण करने को मन नहीं किया होगा...
किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है महाराज! दो दिन हो गए,उन दोनों ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया,कोई बिन खाएं कैसें रह सकता है,मत्स्यगन्धा बोली...
ये तो चिन्ता का विषय है,कुशाग्रसेन बोलें...
यही तो मैं आपसे कहना चाहती थी इसलिए तो आपके पास आई हूँ,मत्स्यगन्धा बोली....
तभी कक्ष में रानी कुमुदिनी का प्रवेश हुआ और उन्होंने मत्स्यगन्धा से उसके आने का कारण पूछा,तब मत्स्यगन्धा ने उनसे सब कह दिया,ये बात सुनकर कुमुदिनी भी आश्चर्यचकित थी एवं वो महाराज से बोली....
महाराज!कहीं ऐसा तो नहीं कि कालिन्दी के रूप में आपने संकट को आमंत्रण दे दिया हो...
ये तो गम्भीर संदर्भ हो गया,अब मैं भी कालिन्दी को लेकर चिन्तित हूँ,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
हाँ!तो अब क्या करना चाहिए महाराज!मत्स्यगन्धा बोली...
यही तो सोच रहा हूँ,मैं आज ही सेनापति व्योमकेश से इस विषय में विचार विमर्श करता हूँ,कुशाग्रसेन बोलें...
जी!महाराज!यही उचित रहेगा,कुमुदिनी बोली....
सभी के मध्य वार्तालाप चल ही रहा था कि सेनापति व्योमकेश ने कक्ष में प्रवेश करने की अनुमति माँगी,कुशाग्रसेन ने उन्हें अनुमति दी,व्योमकेश कक्ष के भीतर आएं और राजा बोलें....
महाराज!कल रात्रि एक हत्या और हो गई,उस युवक के हृदय का हत्यारे ने भक्षण कर लिया...
ये सुनकर महाराज कुशाग्रसेन की चिन्ता का पार ना रहा....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....