ईमानदारी और शराफत पर ठहाके
एक ही शहर में रहने वाले आदर्श और अशोक ने साथ-साथ पढ़ाई की थी। संयोगवश अशोक अपने दबंग पिताजी की धन-संपत्ति और राजनीतिक रौब के चलते एक चर्चित नेता बन गया। वहीं आदर्श अपनी स्वच्छ छवि और निश्छल समाजसेवा से लोकप्रिय हो चला था। बावजूद इसके दोनों की दोस्ती में न कभी दरार नहीं आई, न ही दोनों ने किसी के उसूलों पर उँगुली उठाई।
वक्त गुजरता गया। राजनीति और समाजसेवा जैसे चलती हैं, चलती रहीं। समय साक्षी है कि कल का किसी को पता नहीं होता। फिर भी हम जिंदगी और भविष्य के ताने-बाने बुनने में इतने संलिप्त हो जाते हैं कि अपनी बातों और अपने निर्णयों के अतिरिक्त हम किसी सत्यता को स्वीकार ही नहीं करते। बुद्धि और विवेक के भटकाव में इंसानियत कहीं खो सी जाती है। स्वार्थपरक, संवेदनाहीन और निरंतर क्षरित हो रहे मानवीय मूल्यों के चलते आज हम अच्छे और निर्भीक समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते।
ऐसे में एक भले और नेक इंसान के हाल का अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं कि वह भ्रष्ट और अराजक समाज में अपने तथा अपने परिवार को कैसे और कितना सुरक्षित रख पाता होगा।
आदर्श भले ही पढ़ा लिखा और नेक दिल इंसान था, लेकिन ये आज के समाज में गुण नहीं अवगुण कहलाते हैं। ऐसे लोग सदैव ही कुख्यात राजनीतिक लोगों और गुंडे-बदमाशों के निशाने पर रहते ही हैं। हर कोई उन्हें अपने रास्ते का काँटा समझते हैं। ऐसी परिस्थितियों का आदर्श भुक्तभोगी था, लेकिन इस बार इन्हीं कुख्यात लोगों ने आदर्श को ऐसे जटिल प्रकरणों में फँसाया कि उसका जीवन ही दाँव पर लग गया। आदर्श ने बहुत सुन रखा था कि साँच को आँच नहीं, लेकिन आज तो उसकी सच्चाई धू-धू कर जल रही थी।
ऐसी विषम परिस्थितियों को भाँपकर उसका मित्र अशोक एक दिन आदर्श से मिलने उसके घर आया। आपन्न जटिलता पर उन दोनों ने काफी विचार-विमर्श किया और तर्क-वितर्क भी किए। कुछ हल निकलते न देख अशोक अपना आपा खोने लगा। वह किसी भी तरह अपने दोस्त आदर्श को इस प्रकरण से बाहर निकालना चाहता था। वह समझ चुका था कि अब सीधी उँगली से घी नहीं निकलेगा और न ही कानूनी प्रक्रिया से हल निकलने वाला। वह समझ चुका था कि आगे की परिस्थितियाँ सम्हालने हेतु अब उसे खुद ही कोई निर्णय लेना होगा। बार-बार समझाने के बाद भी जब आदर्श उसके अनुसार आगे बढ़ने हेतु तैयार नहीं हुआ तो अशोक चिल्ला पड़ा-
'अब आगे कुछ मत कहना आदर्श।'
तुझे क्या पता कि कितनी बार इन लोगों ने तुझे अपने रास्ते से हटाना चाहा लेकिन मैंने कभी ऐसा होने नहीं दिया। मेरी व्यस्तताओं के कारण इस बार इन लोगों को मौका मिल गया और तुझे अभिमन्यु के चक्रव्यूह में फँसा लिया। मैं जानता हूँ अभिमन्यु का क्या हश्र हुआ था, लेकिन मैं यह भी अच्छी तरह से जानता हूँ कि वह द्वापर युग था, कलयुग नहीं। इस कलयुग में हर मुसीबत का निदान है। कैसे सरकार बनाना है, कैसे सरकार गिराना है। किसका कैरियर चौपट करना है और किसका बनाना है। और तो और किसके साथ कब तथा कैसा सलूक होता है मुझे सब पता है। मेरा तो इस बदलते समाज में अब यह मानना है कि एक अन्याय, एक झूठ और एक हिंसा यदि किसी सच्चे इंसान को बचा ले तो वह आज के समय में गलत नहीं कहलाता। जमाना अब भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला ही है।
हम तुम्हें बहुत अच्छे से जानते हैं आदर्श! तुमने कभी एक चींटी तो मारी नहीं, इन कुख्यात भेड़ियों से मुकाबला करने निकले हो।
अशोक के क्रोधातिरेक को देखते हुए आदर्श बोला- भाई इस दुनिया में ईमानदारी और शराफत भी कोई चीज है कि नहीं। जब वक्त करवट बदलता है तो ये दबंगई, हत्याएँ, लूटमार और आतंकी ख़ौफ़ सब चूहे की तरह किसी बिल में छिप जाते हैं।
तब अशोक ने बड़े निराशा भरे भाव से कहा- मेरे भाई आदर्श! तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और यही लोग तेरी ईमानदारी और शराफत पर ठहाके लगाएँगे। यह भी तो शाश्वत सच है कि जब जीवन रहेगा तभी तो कुछ कर पाओगे। इसलिए अब मुझे मत रोकना।
-डॉ विजय तिवारी 'किसलय' जबलपुर- 482002
मो. 94 253 253 53