लेखक: प्रफुल शाह
प्रकरण-137
‘क्या? वाकई तुम्हें ऐसा लगता है?’
‘नहीं, मुझे केवल ऐसा लगता ही नहीं है तो वास्तव में वैसा है भी। इसी लिए तुम निश्चिंत होकर घूमती-फिरती नहीं हो। कभी-कभी कहीं खो जाती हो...तुम अपनी वेदनाओं को किसी के साथ बांटो। तुम्हारी वेदनाओं में कोई सहभागी नहीं हो सकता, ये सच है फिर भी अपने मन की बातें कहने के बाद तुम्हारा जी हल्का हो जाएगा। मैडम उपाध्याय उम्र में काफी बड़ी हैं, और भावना बहुत छोटी, इस लिए शायद इन दोनों से तुम अपने मन की बात न कह पाओ, लेकिन मुझ पर विश्वास रखो, तुमने यदि अपनी बातें मुझसे साझा कीं तो मुझे खुशी होगी, और खुद पर गर्व भी होगा।’
केतकी प्रसन्न की तरफ देखती रही, ‘थैंक्स, मेरे बारे में सोचने के लिए। मुझे एक दिन का समय दो।’ बाद में हंस कर बोली, ‘ पहले मुझे मेरे उत्साह के समुद्र का तल तलाशना होगा, उसमें लावा है या नहीं, वह देखना होगा।’
‘मुझे बिलकुल जल्दी नहीं है। मेरी चिंता बस इतनी है कि वह लावा तुम्हें और अधिक न जलाए। क्योंकि, लावा का उल्लेख करते हुए भी तुम हंसी, उस हंसी में भी मुझे लावे की उष्णता का आभास हुआ।’
अगले दिन स्कूल समाप्त होने के बाद केतकी ने प्रसन्न के हाथ में एक लिफाफा दिया। ‘तुम पहले ऐसे व्यक्ति हो, जिससे मैंने अपनी सभी बातें साझा की हैं। परंतु मुझे ऐसा करना चाहिए था या नहीं, यह मुझे अब तक समझ में नहीं आया है...एनी वे...हैप्पी रीडिंग कहने जैसा ये बिलकुल नहीं है।’
प्रसन्न ने अर्थपूर्ण उत्तर देते हुए कहा, ‘हैप्पी अंडरस्टैडिंग तो कह सकोगी मुझे।’ केतकी बिना कुछ कहे उसकी तरफ देखती रही। उसके बाद मंद मुस्कान के साथ अपनी स्कूटी की तरफ बढ़ गयी।
प्रसन्न ने घर जाकर चाय-नाश्ता किए बिना ही लिफाफा खोला। उसके लिए धीरज धरना मुश्किल हो गया था। उस लिफाफे में केतकी के डायरी के पन्नों की फोटोकॉपी थी। प्रसन्न जैसे-जैसे पढ़ता जा रहा था, गंभीर होता चला जा रहा था। भूख-प्यास भूलकर केतकी की व्यथा, वेदनाओं की कहानी पढ़ रहा था। सबकुछ पढ़कर वह स्तब्ध रह गया। उसका मन विदीर्ण हो गया। उसे लगा कि तुरंत केतकी के पास पहुंचा जाए। उसके पास जाकर उसे भरोसा दिलाया जाए कि उसके जीवन का यह लावा बाहर निकालने में वह उसकी मदद करेगा। वह हमेशा उसके साथ रहेगा। जरूरत पड़ी तो इस लावा को वह पी लेगा। उसे ऐसा शांतिपूर्ण जीवन प्रदान करेगा कि उसके भीतर का यह लावा जमकर बर्फ हो जाएगा, और धीरे-धीरे पिघलकर नष्ट हो जाएगा। उसे फोन करूं क्या? उन कागजों को वापस डालने के लिए उसने लिफाफा उठाया, तो उसके भीतर से एक चिट्ठी निकली, जिस पर आज की तारीख और सुबह का समय नोट किया गया था। प्रसन्न ने उस चिट्ठी को पढ़ना शुरू किया. ‘हमारे जीवन में ऐसे व्यक्ति क्यों आते हैं जो आपको जीवन के उस भाग को याद करने के लिए मजबूर करते हैं, जिन्हें आप याद करना नहीं चाहते? पिछले ढाई तप मैं जिन जख्मों को अपने भीतर तालाबंद करके रखी हुई थी, उस व्यक्ति के प्रेम और मेहनत ने उस ताले तक पहुंचने के लिए मजबूर किया। क्योंकि केवल मुझे ही मालूम है कि इन कटु स्मृतियों के घने जंगल के पास मैं फिर से एक बार पहुंच गयी, जहां केवल वेदना, व्यथा और यातनाएं ही नहीं तो बजबजाते दुर्गंध फैलाते जख्म भी हैं। वहां गंदगी के सिवाय कुछ भी नहीं। कल रात को मैं उन कठोर स्मृतियों के दरवाजे के पास जाकर खड़ी हुई और उन जख्मों को देखती रही। उन पर असंख्य कीड़े बिलबिला रहे थे। वे सभी मेरी तरफ मुक्ति की आशा से ताक रहे थे मानो याचना कर रहे हों और मैंने उन्हें कह दिया, जाओ मैंने तुम्हें माफ किया। आज से तुम मुक्त हो। उसके बाद रात भर नींद नहीं थी...ओह...आज याद आया कि किसी भी समय होने वाला सिरदर्द, बदन दर्द का कारण यही मेरे जख्म थे। मैं उन क्षणों में कैसे जीती रही, इसका मुझे आज आश्चर्य होता है। मैं जिंदा थी ही कहां। मैं एक नौकरानी से भी बदतर जीवन जी रही थी। इस यादों के झरोखों को खोलने के लिए प्रसन्न जैसे मित्र की सच्ची दोस्ती हीं नहीं तो एक मासूम जिंदगी ने भी मदद की। कल रात को भावना ने मुझे अचानक पूछा, बहन तुमको पोहे बनाना आता है क्या? उसका सवाल सुनकर मेरे दिमाग में विचारों का चक्र चालू हो गया। मैंने कहां, हां आता है। और मैंने उसे बनाकर दिए भी, वह खाकर तृप्त भी हो गयी। लेकिन यह पूछते समय उसके चेहरे पर मासूमियत थी। उसके यह पूछने के बाद मैं कोई उत्तर दिए बिना उसकी तरफ एकटक देखती रही। उसे लगा था कि मुझे नहीं आता। इस पर वह बोली, नो प्रॉब्लम, इट्स ओके। मैंने उसे हंसकर कहां, भावना, पोहे क्यों नहीं बना पाऊंगी? उसमें न बना पाने जैसा है क्या? लेकिन मैं उसे ये कैसे बता सकती थी कि तुम्हारी यह बहन नौवीं कक्षा में थी तबसे कभी-कभी दस-बारह लोगों का खाना पकाकर उन्हें खिलाती थी? इतना ही नहीं तो उसके साथ सुबह से घर के बाकी काम भी निपटाती थी? छोटी सी उम्र में जयश्री को होस्टल में भेजने के लिए सौ-सौ खाखरे सेंकती थी...इतना करने के बाद भी दो वक्त का खाना नहीं मिलता था. खाना पकाते हुए ही चुपचाप चोरी से खा लेती थी? कैसे दादी नपा-तुला अनाज देती थी पकाने के लिए? यदि उसमें से कुछ चोरी-छिपे खा लिया जाए तो कैसे मार पड़ती थी? ऐसी तो सैकड़ों यादें मेरे अस्तित्व को विदीर्ण कर चुकी हैं। नानी के घर से जब इस घर में आयी तो दिन में पचास बार सुनाया जाता था कि काम नहीं आता...आता भी भला कैसे? ननिहाल में कुछ सिखाया गया हो तब आता न? आलसी कहीं की। किसी को भी मुझ पर रहम नहीं आता था। मेरे जीवन के वे नर्क समान दिनों को चुपचाप देखती रहने वाली अपनी मां को मैं कभी माफ नहीं करूंगी। उस घर का वातावरण ऐसा था कि वहां से बाहर निकल पाना आसान नहीं था। खाना, पीना, सोना और बाहर निकलना...सभी पर प्रतिबंध था। पर्याप्त केवल हवा थी, सांस लेने के लिए। बाकी मेरे लिए वहां कुछ भी नहीं था। आज मैं बड़े चैन से जी रही हूं फिर भी मेरे तन-बदन में आग लग जाती है। इसका कारण मेरा नर्क समान भूतकाल है। छोटी उम्र में इतनी मोल-मजदूरी कर ली है कि आज मुझे घर का कोई काम करने का मन नहीं करता।’
प्रसन्न का जी भी आया। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। इतनी सी जिंदगानी में क्या कुछ सहन कर लिया इसने...कितनी वेदना, कितने अत्याचार? वह भी अपना कहे जाने वाले लोगों द्वारा ? किसी सिनेमा, नाटक या उपन्यास में भी दिखाई न दे ऐसा कठिन जीवन इस छोटी सी उम्र में जिया है इस लड़की ने। फिर भी वह जिंदा है...सिर ऊंचा करके...उन वेदनाओं, अत्याचारों के कारण उसकी जड़ें मजबूत हो गयी हैं और उनसे जो बेल आज फूल रही है, वह मजबूत है, ताकतवर है। लेकिन आगे चलकर उसे एक मजबूत आधार की आवश्यकता है। एक मजबूत दीवार चाहिए इस बेल को। मैं वह दीवार बनूंगा। दीवार बनकर हमेशा केतकी के साथ खड़ा रहूंगा।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह