कजरी
दीपावली के बाद दिसंबर के प्रथम सप्ताह में ठीक ठंड पड़ने लगी थी। राते थोड़ी बड़ी हो गई थी। जल्दी सुबह जब भ्रमण के लिए निकला तो कस्बे के मुख्य बाजार वाली सड़क पर अंधेरे में मुझे तीन साये से नजर आए। रोड़ लाइट का खंबा उनसे कुछ दूरी पर था। वह सड़क के किनारे से दुकानों के आस-पास से रुक-रुक कर कुछ उठा रहे थे। जैसे ही पास गया तो देखा उनमें दो महिलाएं और एक उनके साथ 10-12 साल की लड़की थी। तीनों ने अपनी क्षमतानुसार आकार के प्लास्टिक के कट्टे थैला नुमा बनाकर पीठ पर लाद रखे थे। शायद कुछ रद्दी या खाली बोतले उठा रही थी । चेहरे ज्यादा इस स्पष्टता से नहीं देखे, किंतु चाल- ढाल से उनमें एक अधेड़ उम्र की थी, दूसरी हिरणी की तरह कुलांचे मार- मार कर चल रही थी, 20- 25 वर्ष की होगी और तीसरी छोटी लड़की थी। उन्होंने ऊंचे- ऊंचे घाघरे, पैरों में चांदी के कड़े और चमड़े की सी जूतियां पहन रखी थी। प्रथम दृष्टया वे गाड़ियां लुहारों की सी महिलाएं प्रतीत होती थी। सोचते हुए मैं आगे बढ़ गया कि कई लोग कितनी कठिनाई से जिंदगी जीते होंगे।
कस्बे से बाहर निकलते ही लगा हुआ चौराहा था, जो दिल्ली हाईवे बायपास को कस्बे की सड़क से जोड़ता था और एक अन्य सड़क जिला मुख्यालय की ओर जाती थी। मैं रोज मुख्य बाजार से होता हुआ इस बाईपास सड़क की तरफ प्रातः भ्रमण को आया करता था। कभी-कभी तो रात्रि भोजन करने के बाद भी चौराहे तक टहलने आ जाता था। इस चौराहे के पास ही सड़क के किनारे कुछ तंबूनुमा टेंट के से घर बने थे । 1-2 लुहारों की गाड़ियां खड़ी रहती थी । समाज के पढ़े-लिखे तथाकथित सभ्य नागरिकों की तरह , मेरा भी कभी उधर विशेष ध्यान नहीं गया। शायद वे एक -दो साल से रह रहे होंगे । हमारे देश में गाड़ियां लुहारों, कंजरो, भाटो और मजदूरों के ऐसे अस्थाई घर सड़क और रेल पटरियों के किनारे भी सामान्यतया खूब देखने को मिल जाते हैं। इसलिए दिमाग ने उनको गौर से देखने के लिए कभी जोर ही नहीं दिया। चौराहे से एक लिंक रोड़ किन्हीं गांवों की ओर जाता था, मैं उस पर 3-4 किलोमीटर तक चला जाता था । उस पर कभी कभार ही कोई साधन गुजरता था।
आज जो वापस लौटा तो भोर हो चुकी थी । रक्त रवि की सुनहरी किरणें जैसे लोगों की तंद्रा तोड़ रही थी और उनमें नवीन ऊर्जा का संचार कर रही थी। घास के छोरो पर ओस की बूंदे मोतियों का आभास कराती थी । पक्षियों का कलरव उस शांत सड़क पर स्पष्ट सुनाई देता था । दिमाग में उन तीनों महिलाओं की छवि बार-बार उभरती थी। जैसे ही चौराहे के पास आया, मेरे कदम अपने आप उन गाड़ियां लुहारों के तंबुओं की ओर मुड़ गए । वही तीनों महिलाएं एक तंबू के पीछे अपनी पीठ पर लगे प्लास्टिक के कट्टों के बोझ को उतार रही थी। मैं उसी तंबू के पास पहुंच गया। बाहर एक38 -40 वर्ष का आदमी हुक्का गुड़-गुड़ा रहा था। धोती- कमीज पहने, सिर पर पगड़ी, कानों में बालियां और बड़ी मूछें। पास में आग जल रही थी । वह एक मूढी पर बैठा हुआ था। आपके पास तीन -चार बच्चे 5-10 की उम्र के रहे होंगे, अधनंगे से बैठे- खड़े थे । उनके मेल से फटे हाथों में मोटी- मोटी आधी- पूरी रोटियां थी। शायद रात की रही होंगी। पेट किसी कुपोषित की तरह बाहर निकले हुए थे। किसी के कमर के ऊपर वस्त्र न था, तो किसी के कमर के नीचे, जबकि प्रातः मौसम काफी ठंडा था। मुझे रुक कर उनकी ओर देखते हुए देखकर हुक्का गुड़गुड़ाते आदमी ने पूछा,- " कांई बात है बाबूजी ? कंया देख रहया हो ?कुछ चाहो हो कांई दरात- फावड़ो?"
मैं कुछ अनपेक्षित से प्रश्न को सुनकर थोड़ा हड़बड़ा सा गया और अप्रत्याशित रूप से यूं ही मुंह से निकल गया ,"हां- हां एक फावड़ा चाहिए था।"
"सुबह-सुबह कांई जुररत पड़ग्यी साहब जी।"
मैं थोड़ा संभल गया था,- " अरे नहीं इधर सड़क पर घूमने आता हूं ,सोचा लेता ही चलूं, दुबारा कौन आएगा ।"
"आओ बैठो।" उसने पास पड़ी एक मूढी मेरी ओर खिसका दी । जिस पर मैं बैठ गया। अक्सर लौटते समय कई बार सब्जी मंडी से सब्जी ले लेता था , तो ट्रैक सूट की जेब में पैसे पड़े होते थे । तब तक वह महिलाएं भी बोझा उतार कर आ गई । वह बोला,- " अरे कजरी बाबूजी ण फावड़ो चावे है, देख ल्या तो भींतर सूं ,4-5 फावड़ा पड़या हैं और चावड़ी भी बना ले।"
शायद उसने चाय को चावड़ी कहा था ।
"यह तुम्हारी घरवाली है?"
"जी साहब, और या म्हारी मां है, और यह म्हारी छोरी है और वा म्हारो छोरो।" एक बच्चे की ओर इशारा करते हुए बोला।
" और तुम्हारा क्या नाम है?"
"हरवीर है बाबूजी।"
कजरी हाथों में तीन-चार फावड़े तंबू से लेकर आई तो उसको नजरें उठाकर गौर से देखा। शायद कम उम्र में अधिक उम्र वाले के साथ विवाह हो गया था। रंग थोड़ा सांवला था लेकिन नैन- नक्श भगवान ने बहुत करीने से गढ़े थे। बड़ी-बड़ी हिरनी जैसी आंखें, जिनमें रात्रि की नींद के बाद भी काजल समाया हुआ था, लंबी कटारी जैसी नाक , जिसमें लटकती हुई नथ चेहरे की शोभा बढ़ाती थी, जैसे नील कमल पर बैठी हुई तितली पंख हिलाती हो, गुथे हुए लंबे केशों की चोटी कमर तक नागिन की तरह लहराती थी, कसा हुआ बदन किसी एथलीट की तरह उसके मेहनतकश होने का प्रमाण था, उभरी हुई छातियों पर जैसे दो पहाड़ों की नुकीली चोटिया कढ़ाई की हुई अंगरखी जो पीठ की तरफ डोरियों से बंधी थी और पीठ का अधिकांश भाग अनावृत था। दो बच्चे पैदा करने के बाद भी शरीर फुर्तीला, एकदम फिट था, चाल ऐसी की रैम्प पर चलने वाली मॉडल भी मात खा जाए, हाथों में सफेद प्लास्टिक की सी चूड़ियां और चांदी का बाजूबंद, लंबी गर्दन में झूलती हुई काले मोतियों की माला उसके अल्हड़पन का एहसास सास कराती थी, पैरों में चांदी के कड़े और शरीर पर कई जगह गोदने गुदवा रखे थे, जैसे किसी ऐतिहासिक धरोहर पर कोई इबारत लिखी हो। कुल मिलाकर यदि कोई राहगीर भी उसको गौर से देख ले तो नजर हटाने का मन नहीं करे। वह बोली- " यह देख लो साहब, हल्को- भारी अपणा हिसाब सूं।"।
मैं बात करने को समय निकालने के लिए यूं ही फावड़ों को उलट- पलट कर देखने लगा और कजरी से पूछा- " तुम यह सुबह-सुबह प्लास्टिक के बोरा में क्या करती हो ?"
" या पेट है णा साहब जी, घणा काम करबो सिखा देवें, खाली बोतल, रद्दी, छोटी- मोटी लकड़ियां इकट्ठा करती फिरां।"
"तुम लोगों का कोई काम धंधा नहीं है क्या?"
बीच में हरवीर में जवाब दिया- " पुश्तैनी काम की तो बखत कोणी रही साहब, पहली खेती-बाड़ी का औजार खूब बणे-बिके था, अब तो मशीणी जुग आग्यो है। छोटी-मोटी खुरपा, दरांत, फावड़ी ही कोई ले के जावे,वासू कांई पार पड़े साहब, अब तो इधर- उधर का काम भी करबा लाग ग्या,या सामणे भट्टी देख रहया हो ण साहब, चणा, मूंगफली, भूंगड़ा भी भूण देंवें। घणी मांग होवे तो खुद भी यहां सड़क किनारा पै बैच देवें।"
कजरी पास ही ईंटों के चूल्हे पर जो चावड़ी चढ़ाई थी, उसमें कुछ डालकर तैयार करने लगी। हरवीर की मां भी पास ही लोहे के बने पट्टे पर आकर बैठ गई और उसके साथ ही हुक्का गुड़गुड़ाने लगी। बच्चे अभी भी आग के इर्द-गिर्द बैठे रोटी खा रहे थे। पड़ोस के तंबू से भी एक अधक्कड़ सा वृद्ध पुरुष बाहर निकल कर हमारे पास आ बैठा और तीनों साथ हुक्का पीने लगे। इतने में कजरी 4-5 बड़े-बड़े स्टील के गिलास में चाय छान कर ले आई। "लो साहब जी चाय पी लो।"
"नहीं-नहीं कजरी, अभी नहीं, घर जाकर हाथ मुंह धो कर फिर चाय लेता हूं।"
"अरे बाबूजी गंदी णा है, मैंने पहले ही साबुन सूं हाथ- मुंह धो कर बणाई है, मैं जाणू हूं, क्यों णा पी रहया हो।"
"अरे नहीं कजरी, ऐसी बात नहीं।" मुझे उनमें रुचि पैदा हो रही थी ।उनके रहन-सहन के बारे में जानना चाहता था । कजरी के आग्रह को टाल न सका और चाय के बहाने घुलने- मिलने -जानने का वक्त भी मिल रहा था। " यह बच्चे कहीं स्कूल बगैरह नहीं जाते क्या?"। "
कांई का सकूल साहब, आज यहां, कल वहां और यह पढ़-लिख कर कांई अफसर बणेगा ।"दूसरे पुरुष ने जवाब दिया जिसने शायद 65- 70 साल की उम्र के अनुभव के थपेड़े झेले थे ।
"अरे! यह क्या बात हुई , जमाना बदल रहा है भाई, तुम लोग आज भी स्थाई घर बनाकर नहीं रहने की प्रतिज्ञा का पालन करते हो क्या?"
" काहे की परतिज्ञा साहब, पण घर बणाय कांईसू? खाबा कू रोटी रो जुगाड़ घणी आफ़त सू होवे है, पुरखा री बात सारी आई ग्यी होग्यी,णा उ जमाणों रयहो, णा वु लोग, सारो समाज म्हारो शेहरा -कस्बा रोड़ किनारे ऐसे ही बखत काटे।" वह बुजुर्ग सा व्यक्ति बोला।
"तुम लोग कुछ और काम क्यों नहीं करते हो?"
" कांई करा साहब या आग जड़ाबो ही आवे हमकूं।"
" अच्छा कितने रुपए दूं इस फावड़े के?" मैंने यह सोच कर कि घर के लांन , किचन गार्डन में कुछ काम आ जाएगा । उसका मूल्य पूछा।
" दुनिया कू तो सवा दो सौ रुपया में बेचां, तुम कांई भला आदमी दिखो हो , दो सौ रुपया दे दो साहब।"
मैं पैसे चुका कर फावड़ा उठाकर घर की ओर चल पड़ा। दिमाग में कजरी की छवि और उनके बच्चों की शक्ल घूम रही थी। अनायास ही दिमाग इतिहास के पन्नों में चला गया, महाराणा प्रताप जी के साथ की गई है प्रतिज्ञा, सदियों बाद भी आज तक इनके समाज को कितनी भारी पड़ी है? कोई आकलन नहीं कर सकता। ये लोग पहले गांव-गांव की धूल फांकते रहे और अब दर-दर की ठोकरे, आज तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि ये साधनहीन वेवश दीन से नजर आते हैं। यहां तक की औरतें कचरे में खाली बोतलें और रद्दी इकट्टा करती हैं और पता नहीं क्या-क्या कुछ और । सरकारी भी इनके बारे में ज्यादा नहीं सोचती हैं, नेताओं के स्थाई वोटर जो नहीं है, फिर इनकी जिंदगी से उनको क्या फर्क पड़ता है? इनके समाज में शिक्षा ना होने और इसलिए बच्चों की शिक्षा और उनके भविष्य के बारे में भी इनकी सोच बिल्कुल छोटी सी हो गई है। क्या कर सकता था, पढ़े लिखे लोगों की तरह खेद जताया और दिमाग से झटकने की कोशिश की।
अब जब प्रातः भ्रमण को जाता था तो किसी अनजानी सी उत्सुकतावश यूं ही कदम उनके तंबू के पास से गुजारना चाहते थे। कई बार हरवीर या उसकी पत्नी कजरी बाहर दिख जाते , तो देखते ही मुझे " राम- राम बाबू जी" कहते और मैं नमस्कार करते हुए औपचारिकता सी निभाने के लिए, "कैसे हो ?क्या हाल है?" यूं ही पूछ लेता। लेकिन कई सप्ताह में पता नहीं उनसे एक परिचित सा संबंध स्थापित हो गया था। कई बार तो लौटते समय उनका चाय का समय होता था और कजरी हंसते हुए पूछ लेती , "चाय पी ल्यो बाबूजी ।" और मैं मुस्कुरा कर मना कर कर देता था। वे जानते थे कि मैं चाय नहीं लूंगा । लेकिन हंस देते थे । अजीब सा रिश्ता कायम हो गया था उनसे।
ठंड बहुत बढ़ गई थी, कोहरा भी पड़ने लगा था । मैं भी थोड़ा देर से प्रातः भ्रमण को जाने लगा था। एक दिन लौटते समय उन बच्चों को देख कर कह दिया ,- "अरे हरवीर ! इन बच्चों को ठंड नहीं लगती है क्या ? "
"कहा करें बाबूजी, सबको रखवाड़ो राम है , कहां सू ल्यावें इनकूं जाकट? कोई थारे बाड़कां रा पुराना कपड़ा हो तो दे दीज्यो साहब, भगवान भलो करेगो।"
मैं निरुत्तर सा हो गया । शायद भगवान जिसको साधन नहीं देता उसे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देता होगा। घर जाकर धर्मपत्नी को उनकी दास्तान सुनाई और बच्चों के पुराने गर्म कपड़े देने को कहा , मेरी पुरानी जैकेट और उसका स्वयं का भी कोई स्वेटर हो तो लाने को कहा। शाम को खाना खाने के बाद टहलने के बहाने उन कपड़ों को देने में हरवीर के तंबू तक पहुंच गया । " कुछ पुराने गर्म कपड़े हैं, ये तुम्हारे या बच्चों के काम आ सके तो ।"
"भगवान थारो भलो करे साहब।" कहते हुए हरवीर ने लेकर मां को तंबू के अंदर पकड़ा दिए और कजरी को जो तंबू के अंदर थी आवाज देकर कहा,- " रे कजरी! साहबजी देख आछा ऊंणी कपड़ा ल्याया हैं बाड़कान कू।"
" बाबूजी, भीतर आ जाओ णा, बाहर ठंडो है।"
मैं वहां ज्यादा रुकना तो नहीं चाहता था , किंतु अंदर से तंबू को देखने की उत्सुकता थी । जैसे ही मैंने तंबू में प्रवेश किया तो आंखों के सामने जैसे अलग ही दुनिया थी ।अंदर एक अजीब सी गंध या कहें सड़ांध थी , तंबू का आकार 8/ 10 फीट का होगा, जिसके अंदर एक बल्ब जल रहा था जो शायद सीधे ही खम्बे से तार से डालकर टांग दिया था, अंदर से तंबू को कपड़े के परदे से तीन भागों में बांट रखा था, बीच में से दो हिस्से करके फटे- पुराने गुदड़ी- गद्दे से पढड़े थे और पीछे की तरफ कपड़े की पोटलियों में कपड़े या कुछ अन्य सामान बंधा हुआ रखा था, चार- पांच डिब्बे -कनस्तर से रखे थे, शायद यह उनका शयनकक्ष था। दूसरा आधे हिस्से को पुनः दो भागों में बांटा था, पीछे का छोटा हिस्सा रसोई में तब्दील था, उसके कोने में टेंट में से एक जाली सी काटकर खिड़कीनुमा बनाई गई थी, कुछ खाने- पीने मिर्च- मसाले के से डिब्बे पड़े थे, एक-दो प्लास्टिक के कट्टों में आटा या कुछ सामान था, एक तेल की सी पीपी और एक स्टोव था, कुछ संबंधित बर्तन भांडे से पढ़े थे। दूसरे आधे बड़े हिस्से में दरी बिछी थी, शायद मां सोती होगी, कोने में दो छोटी सरकंडे की मूढी पड़ी थी जिनमें से एक पर मैं बैठ गया था । कजरी रसोई वाले हिस्से में कुछ कर रही थी। वह भी पास आ गई और कपड़ों की पॉलिथीन बैग को खोल कर देखा तो उसकी आंखों में चमक आ गई । उसमें से मेरी पुरानी जैकेट निकालते हुए हरवीर से बोली,- " तेरे कू भी साहब जी जाकाट ल्याया हैं और मेम साहब ने म्हारे कू भी दी है।"
हरवीर ने उसी समय जाकिट को शरीर में डालकर देखा और बड़ा खुश दिखाई दिया। मुझे मन में थोड़ी ग्लानी महसूस हो रही थी। उनके चेहरे की खुशी देखकर कि काश! मैं इनके लिए कुछ नए वस्त्र ले आता , लेकिन मुझे ईश्वर ने शायद इतना उदार दिल कहां बनाया है ? मैं कुछ बोल ना सका। वही आपस में खुश होते हुए बातें करते रहे और उन पुराने वस्त्रों को देखने में इतने मशगूल थे कि मेरे ऊपर उनका ध्यान ही नहीं गया। मुश्किल से 5 मिनट बाद ही मैंने कहा, " अच्छा, मैं चलता हूं ।"
उन्होंने बड़ी आदर भरी नजरों से मुझे देखा और हाथ जोड़कर कहा,- " थारो भलो हो साहब, या सर्दी को घणो चोखो इंतजाम होग्यो। "
जब घर की ओर वापस चले लगा तो रात्रि हो गई थी। कदम भारी-भारी से हो गए थे। मन उद्विग्न था । जैसे ही मुख्य बाजार वाली सड़क पर पहुंचा तो बाजार रोशन था। विभिन्न ब्रांडेड चीजों के शोरूम रंग- बिरंगी रोशनी से जगमग हो रहे थे। विभिन्न अलग-अलग स्वादों के रेस्त्रां और मिठाई की दुकानों से लजीज पकवानों की महक हवा के साथ घुलकर नथुनों में प्रवेश कर रही थी । लोग खाने और खरीदने में एकदम व्यस्त थे, जैसे जीवन को बड़ी बेफिक्री से जिए जा रहे थे। मेरा मन बहुत अशांत हो चला था। सोच रहा था इन शहरों की जगमगाहट के तले कितना अंधेरा है , एक तरफ इंसान दिन के दो वक्त खाने के दो निवाले और बदन ढकने के लिए एक अदना वस्त्र को तरसता है , दूसरी तरफ दो निवाले खाने और तन की बाहरी आवरण से सुंदरता बढ़ाने के लिए लोग दिनके लाखों रुपए खर्च कर देते हैं । इतना भेद क्यों किया है विधाता ने ? क्या उनको सलीके से जीने का हक नहीं है या यह असमानता वास्तव में समाज द्वारा कर्मानुसार पैदा की जाती है... .. सोचते हुए दिमाग थक गया।
सफर जिंदगी का यूं ही चलता रहा । उनसे ऐसे ही मुलाकात हो जाती थी। कभी मैं भी ज्यादा ध्यान देने की कोशिश नहीं करता था । उनके जीवन में जितना घुसता, मन को वेदना होती, इसलिए मैंने थोड़ी दूरी बनाने की कोशिश की। एक दिन शाम को किसी ने घर के मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई और आवाज सी आई,- " ए बहन जी! अरे! बाबूजी !" कुछ सुना हुआ सा स्वर था । पत्नी दरवाजा खोलकर बाहर गई तो देखा एक महिला और उसकी बच्ची कह रही थी,- " अरे बहन जी कुछ खाणे कू दे दो णा, सुबह की बची रोटी-सब्जी कछु !" मैंने पूछा मैंने पत्नी से पूछा,- " अर्चना कौन है?" " कुछ नहीं जी ,कोई भिखारिन खाना मांग रही है ।"
मेरे दिमाग में कुछ कोंधा और बाहर निकलकर आया तो देखा कि कजरी और उसकी लड़की थी, जो गलियों से शायद ठंडा खाना या कुछ मांग रही थी । "अरे कजरी! तुम!"
"अरे बाबूजी! यो थारो घर है का? घणा भाग हमारा ...!" इतने में पत्नी सुबह की बची हुई कुछ पुड़िया और सब्जी एक अखबार में लपेट कर ले आई । मैं थोड़ा भावुक सा हो गया था,- " अर्चना ! यह कजरी है, जिसको तुमने पुराने कपड़े दिए थे ना, मैंने बताया था ना इनके बारे में तुमको।" "हां "पत्नी ने संक्षिप्त जवाब दिया।
"भलो हो बहन जी थारो, भगवान थारो घणो ध्यान रक्खे।" कजरी दुआ की।
" अरे अर्चना! इसको कच्ची सब्जी, दाल- चावल भी दे दो ना, देखो दिल से दुआ कर रही है तुम्हारे लिए!" मैंने निवेदन भरे स्वर में कहा ।
पत्नी ने मेरी ओर घूर कर ऐसे देखा मानो मैं उसको किसी आपराधिक कृत्य में भागीदार बना रहा था, किंतु कजरी के सामने मेरी इज्जत रख ली । कुछ कह नहीं पाई और अंदर जाकर एक पॉलिथीन में बैग में अलग-अलग थैलियों में कुछ सामान लाकर कजरी को ऐसे थमाया, मानो मन से उसको तुरंत जाने की कह रही थी । कजरी हाथ जोड़कर दुआ करते हुए निकल गई। कई महीने निकल गए । मैं उनके जीवन में ज्यादा रुचि नहीं रखना चाहता था या यूं कहें कि मुझ में उनसे परिचय बढ़ाने की हिम्मत नहीं थी। हफ्ते-दस दिन में कभी सड़क पर मिल जाते तो हाथ जोड़कर अभिवादन जरूर करते। किंतु पिछले कई सप्ताहों से कजरी बाहर दिखाई नहीं देती थी। फिर एक दिन जिज्ञासावश हरवीर के तंबू पहुंच ही गया । उसने देखते ही कहा,- " बाबू जी राम- राम, आजकल तो दिखो ही कोणी, सीधा निकड़ जाता होगा, कहीं हरवीर कुछ मांग णा ले। "
"अरे नहीं हरवीर! ऐसी बात नहीं है, मैं थोड़ा जल्दी घूमने आता हूं।" थोड़ा रुक कर पूछा,-" कजरी नहीं दिखाई दे रही है?"
हरबीर चुप हो गया। पता नहीं क्यों, उसने नज़रे नीचे झुकाली, मानो वह वह कुछ छुपा रहा था। फिर झुकी नजरों से ही थोड़ा रुक कर बोला,-" सो रही है साहब ,"
" सो रही है मतलब? तबीयत तो सही है उसकी? क्या हुआ ? वह तो बहुत जल्दी ही काम करने लग जाती थी?"
" नहीं.... आछी है साहब, रात घणी देर सू सोई थी णा।" फिर चुप हो गया । उसके चेहरे पर आज स्वाभाविक भाव नहीं थे ।वह किसी अंतर्द्वंद में लगता था। मैंने कुरेदा,- " क्या बात है हरवीर? तुम कुछ छुपा रहे हो! बताओ ना क्या समस्या है ?"
और अचानक उसकी आंखें डबडबा आई, जैसे फूट पड़ा था, रुंधे गले से बोला,- " सब कुछ लुट ग्यो साहब , जीवन बिगड़ ग्यो म्हारो।"
" क्या हुआ भाई बताना? मैं कुछ मदद कर सकूं तो?"
फिर भर्राती सी आवाज में हिचकी लेते हुए उसने जो दास्तान सुनाएं, रोंगटे खड़े कर देने वाली थी, बहुत ही पीड़ादायक और आज के जागृत शिक्षित समाज में भी किसी बेवश दीनहीन व्यक्ति के लिए आजादी, न्याय, अधिकार जैसे मानक कितने बेमानी हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण थी। कांपती आवाज में उसने बताया कि हमारे पुलिस स्टेशन के थानाधिकारी साहब की नजर कजरी पर पड़ गई । वह चौराहे पर गश्त के बहाने गाड़ी लेकर खड़ा हो जाता था। कई बार देर रात जब यहां दुकानें बंद हो जाती थी तो चाय बनाकर लाने को कहता। कभी-कभी बच्चों के लिए फल और मिठाई भी लेकर आता था । उसको तो शुरू में भला आदमी लगा किंतु कजरी उसकी नजर और नियत को खूब समझती थी । एक दिन कजरी को खर्चे- पानी के लिए कुछ रुपए देने लगा, तो कजरी ने साफ इंकार कर दिया और हाथ जोड़कर उनके यहां आने से मना कर दिया। लेकिन जब आदमी गिरता है, तो उसकी सीमाएं कहां होती हैं? थानाधिकारी साहब एक दिन चार- पांच पुलिस वालों के साथ गाड़ी में लेकर आए और बाजार की किसी दुकान में चोरी के आरोप में हरवीर को पकड़कर ले गए। उसको बहुत पीटा , डंडों से, बेल्ट से, रोती बिलखती हरवीर की मां और कजरी थाना पहुंची, तो उनको खूब उनको भी खूब धमकाया और पूछने लगा कि चोरी का माल कहां छुपाया है? फिर मां को तो घर भेज दिया और कजरी को पूछताछ के बहाने वही रोक लिया और अपने क्वार्टर पर ले गया। रात भर कजरी को अपने बिस्तर पर ही रखा और धमकी दी कि पति को छुड़ाना है तो उसका भी ध्यान रखना पड़ेगा। चार दिनों तक वह कजरी को रोज बुलाता, फिर पांचवें दिन उसने हरवीर को छोड़ा और कजरी को एक नोटों की गड्डी भी जबरदस्ती थमा दी। हरवीर को भी धमकाया कि ज्यादा चू-चपड़ की तो फिर जेल में डाल देगा और अब की बार लंबा जाएगा। ऐसा आदमी कभी कितनी लाचार हो सकता है, हरवीर इसका एक नमूना था । आज के आधुनिक जगत से बिल्कुल अनभिज्ञ , अपना दुखड़ा किससे रोए? फिर ऐसे व्यक्ति को ईश्वर सहन करने, सब्र करने की अकूत क्षमता देता है। उसने भी शायद वही सहज रास्ता अपना लिया था । अब कजरी थानेदार साहब की आदत बन गई थी और कभी भी उनकी गाड़ी आ जाती थी और कजरी को ले जाती थी और फिर देर रात छोड़ जाती थी । वे उस निरीह पक्षी और उसके छोटे-छोटे पखेरुओं की तरह ताकते रहते थे, बरसात में जिन का घोंसला किसी बंदर ने तोड़ दिया था।
मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा,- "तुमने कजरी को रोकने की कोशिश नहीं की?"
"कांई जतन करूं साहब ? कजरी कू भी अब घणी आफ़त कोणी, वाकी भी अब गरस्ती की तंगाई सूं ज्याण छूट ग्यी, वाको हाथ खुलग्यो।"
आगे उससे क्या कहता? क्या करने की सलाह देता? दिमाग चकराने लगा। जीवन का यह कैसा पहलू है ? मैं उसको सांत्वना भी क्या दे सकता था?- "अपना और बच्चों का ध्यान रखना, कभी तुझे मेरी मदद की आवश्यकता लगे तो बता देना!" झूठा दिलासा देते हुए मैं बोला।
"जी साहब, विधाता ने जो लेख लिख्यां है या जूण तो पूरी करनी पड़ेगी ।"
मैं घर आ गया। बहुत बेचैनी हो रही थी इस दास्तान को किसी के साथ बांट भी नहीं सकता था। सोच रहा था जीवन के क्या मायने हैं अलग-अलग लोग, अलग-अलग जीवन मानक, अलग-अलग आवश्यकता है और सबकी अलग-अलग तकलीफ है। अब हरबीर के तंबू की तरफ मेरा जाने का बिल्कुल मन नहीं करता था। कई बार प्रातः भ्रमण के लिए मैं उधर जाता ही नहीं था। यदा-कदा जाता भी तो ऊपर से मुंह फेर कर दूसरी सड़क की तरफ चला जाता था ।पता नहीं हिम्मत ही नहीं होती थी कि मिल गए तो क्या बात करूंगा। कई महीनों बाद में दूसरे शहर से लौट रहा था। शाम ढलने को थी। रवि अपने रथ को अस्ताचल की ओर ले चला था । रश्मि रूपी घोड़ों की लगाम जैसे अपनी ओर खींच रहा था। कार चलाते हुए मुझे हरवीर के तंबू वाली सड़क से ही मुड़ना था । थोड़ा नजदीक आते ही अनचाहे उसका ख्याल दिमाग में आ गया। जैसे ही उसके तंबू के पास पहुंचा, कजरी बाहर खड़ी दिख रही थी । अनायास ही पैर ब्रेक पर पड़ गए । गाड़ी रुकते ही कजरी ने मुझे ताड़ लिया और राम राम की। मैं रुक गया, देखा कि कजरी का रंग- रूप कुछ बदला हुआ था, कुछ बनाव-शृंगार कृत्रिम सा हो गया था, चेहरे पर क्रीम, हॉट लिपस्टिक से लाल किए हुए थे , साफ सुथरा नया सा लहंगा, आधी बाजू का ब्लाउज नुमा वस्त्र और चुनरी सितारों वाली, गले में एक लाल मोतियों की माला, जिसमें शायद पीला सोने का लॉकेट लगा था, गुलाबी नाखून पॉलिश और उंगलियों में दो-तीन अंगूठी भी, जैसे सौंदर्य वृद्धि के समस्त साधनों का उपयोग कर रखा था, किंतु आज मुझे वह सुंदर नहीं लग रही थी। सुंदरता का भी हमारे मन से कितना गहरा संबंध है ना, अनुकूल हो तो प्राणी की हर अदा, हर चीज सुंदर लगने लगती है, मन प्रतिकूल हो तो अच्छी शक्ल सूरत बनाव- श्रृंगार भी भद्दे और विद्रूप लगने लगते हैं । कार की खिड़की खोल कर मैंने पूछ लिया,- " कैसी हो कजरी?"
" घणी चंगी साहब ।" शायद उसको पता नहीं होगा कि हरबीर ने मुझे पूरी कहानी बता दी थी । "हां कजरी, तुम्हारा तो रंग ही बदल गया है, क्या बात है?" "घणा दिना में मिल्या हो णा साहब, जा सू खैह रहया हो।" "और बच्चे कैसे हैं? हरवीर कहां हैं ?" "हरवीर शहर में ग्यों है, बाड़क बढ़िया है साहब जी।" बच्चे पास ही खेल रहे थे। उसके लड़के ने भी साफ-सुथरे नये से कपड़े पहन रखे थे, पैरों में जूते भी थे। एक क्रिकेट बैट और रबड़ की गेंद से खेल रहे थे। तभी उसकी लड़की तंबू से बाहर निकली ।नई सलवार- कमीज पहने, हाथों में कांच की चूड़ियां और करीने से कारढे गए बाल, नहा- धोकर साफ सुथरी लग रही थी । "अच्छा मैं चलता हूं।" "कांई साहब, आज तो चाय पी ल्यो, घणा दिनन में आया है।" "नहीं- नहीं, मैं बाहर से आया हूं घर पहुंचना है।" मैं चल दिया।
मन में सोच रहा था कि चलो बच्चों की दशा शायद ठीक हो गई। फिर दिमाग ने इस किस्से को पूर्णतया दफन करने का निर्णय किया। मुझे क्या, बहुत से लोग ऐसे ही जिंदगी जीते हैं। इन बातों को वर्ष भर से ज्यादा बीत गया होगा। मैं फिर कभी हरबीर के तंबू की ओर नहीं गया। प्रातः भ्रमण को जाता तो चौराहे के उस तरफ तंबू वाली सड़क की ओर नहीं जा कर, विपरीत दिशा में घूमने चला जाता था । यदि गलती से कभी कस्बे में हरवीर से सामना हो गया तो दूर से ही हाथ जोड़कर उसका अभिवादन स्वीकार कर लिया। उसने भी फिर कभी जानबूझकर रोककर मुझसे दुखड़ा नहीं रोया। शायद समझ गया था कि खुद की लड़ाई खुद को ही लड़नी पड़ती है । या वह बदले हुए हालातों का अभ्यस्त हो गया था पता नहीं।
किंतु आज जब मैं प्रातः भ्रमण से लौट रहा था तो दूर से ही दिखाई दे रहा था कि कजरी के तंबू के पास सारे गाड़ियां लोहारों के परिवार खड़े थे, दो -चार लोग और भी खड़े होंगे, मैं भी अपने को रोक नहीं सका, हृदय में परिचय की जो रेखाएं खिंच जाती हैं, वे ब्लैक बोर्ड पर लिखी हुई चाक की लकीरों की तरह डस्टर से कहां मिटती हैं? पास जाकर देखा तो पता चला कि कजरी दुनिया छोड़ चुकी थी। उसका बेटा और बेटी बिलख-बिलख कर रो रहे थे, हरवीर घुटनों में सिर दिए, उसको दोनों हाथों से पकड़े उकड़ू बैठा था। कुछ लोग चिता पर ले जाने की काठी तैयार कर रहे थे। मैं सन्न रह गया यह सब कैसे हो गया। हरबीर के पास बैठकर उसे जानना चाहा,- " हरवीर यह क्या हो गया? अचानक कजरी.. .. ?" "णा साहब अचानक कहां ? कई माह सू बीमार थी, पाप को घड़ो भरग्यो साहब, फूटणो ही तो।" " क्या बीमारी हुई?" " कोई जणानी वाली बीमारी थी साहब।" उस समय मैं हरवीर से ज्यादा बात नहीं करना चाहता था । लोगों की कानाफूसी से पता लगा कि कजरी को कोई यौन रोग, शायद ऐडस हो गया था, जिसकी उचित दवा भी वह समय पर लेना सकी होगी, थानेदार साहब ने कजरी को पेशेवर बना दिया था। और फिर रातों में वह कई प्रभावशाली और समृद्धशाली सभ्य लोगों के बिस्तरों की शोभा बनती थी। कई महीनों से तंबू के अंदर ही पड़ी थी । सब कुछ जमा रकम खत्म हो गयी। जनाजा उठ गया , चिता जल रही थी।
मैं सोच नहीं पा रहा था कि कजरी के गुनाह का बोझ ज्यादा था या उसकी आर्थिक बदहाली का या हरवीर जैसे लोगों की लाचारी का, जो वह और उठा न सकी या फिर उस दबंग थानेदार का या फिर हमारे समाज के बेतरतीब ढांचे का ? इस वहशी दुनियां ने उसे जीने नहीं दिया और उसने थक कर जीवन सफर की बीच राह में ही ही दम तोड़ दिया और पता नहीं रोज सूरज डूबने के साथ कितनी कजरियां दम तोड़ती हैं। फिर कई दिनों बाद वहां से गुजरा तो देखा कि वही अधनंगे बच्चे तंबू के बाहर बैठे- खड़े थे , हरवीर की बूढ़ी मां और बेटी पीठ से कचरे की रद्दी के बोझ उतार रही थी, सोच रहा था जिंदगी के रथ का पहिया भी ना, रुकता ही नहीं है , चाहे किसी अच्छे राष्ट्रीय राजमार्ग पर चले , या ऊबड़-खाबड़ गड्ढे वाले रास्तों पर, रुकता है तो तभी, जब सफर खत्म होता है।