अग्निजा - 128 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 128

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-128

सभी बैठ गये। उपाध्याय मैडम, कीर्ति चंदाराणा, भावना और केतकी। उसके बाजू में पुकु और निकी। प्रसन्न ने उठकर सोफे के सामने रखी सुपारी की डिबिया, रिमोट कंट्रोल, पुस्तकें वगैरह उठाकर किनारे रख दिए। पानी के खाली ग्लास रसोई घर में रखे। उसकी इस हलचल का अर्थ किसी को भी समझ में नहीं आ रहा था। ‘मैं चांस नहीं लेना चाहता...किसी ने कुछ फेंक के मार दिया तो?’फिर हंसते हुए उसने एक झटका और दिया। ‘प्लीज सभी अपने अपने मोबाइल मेरे हाथों में दे दें। मैं अपनी कविताओं की रेकॉर्डिंग नहीं करने देना चाहता...नाराज मत होइएगा...लेकिन मैं क्रिएटिव राइट प्रोटेक्ट करना चाहता हूं...’ उसने चारों से मोबाइल लेकर टीवी की ट्रॉली पर रख दिये। बाद में कुर्सी खींचकर सभी के सामने आकर बैठ गया। ‘पहले मैं आप सभी का आभार मानता हूं। नवोदित कवि के लिए इतने श्रोता काफी हैं ऐसा मुझे लगता है। उस पर भी मैं संख्या से अधिक गुणवत्ता को महत्व देता हूं। इसलिए मुझे लगता है कि दुनिया के किसी भी कवि को शुरुआत में इतने समझदार और जानकार श्रोतावर्ग शायद प्राप्त नहीं हुआ होगा। मेरी चार कविताएं पढ़ने के बाद भी आप सभी आराम से और पुकु निकी शांति से बैठे रहेंगे ऐसी आशा है।’ सबने हंसकर तालियां बजायीं। चंदाराणा सर ने कहा, ‘अब अपनी कविताएं सुनाइए...’ उपाध्याय मैडम ने भी ‘इरशाद...इरशाद..’ कहा। प्रसन्न ने दाहिने हाथ से अपनी कॉलर ठीक करते हुए कहा, ‘ ये कवि सम्मेलन एकदम अलग तरह का है इसलिए हम शुरुआत भी जरा हटके ही करेंगे। ’

भावना ने थोड़ा चिढ़ कर कहा, ‘अब क्या बाकी है? अब फुटेज खाना बस भी करिए प्रसन्न भाई...’

यह सुनकर सभी के चेहरों पर मुस्कान आ गयी। ‘थैंक्यू भावना... अब फुटेज खाना बंद करता हूं और कविता वाचन किस तरह होगा यह बताता हूं,  इस कवि सम्मेलन में श्रोता ही कविताएं पढ़ेंगे और कवि दूर से उनके चेहरे के भावों को निहारेंगा। ओके? ’

उपाध्याय मैडम ने विरोध दर्ज कराते हुए कहा, ‘अरे, लेकिन कवि की रचना उसकी जुबान से ही सुनने में मजा आता है। कविता के भाव सही तरीके से वही व्यक्त कर सकता है।’

‘एकदम सही, लेकिन एक नवोदित कवि को प्रोत्साहन देने के लिए आप मेरी मदद करें ऐसा मेरा आग्रह और बिनती है।’ इतना कहकर प्रसन्न किसी छोटे बच्चे की तरह मासूम चेहरा बनाकर सभी के सामने हाथ जोड़ कर बैठ गया। चंदाराणा बोले, ‘कबूल, कबूल, कबूल...ठीक है...अब शुरू करते हैं। ’

प्रसन्न ने अपनी डायरी में से चार कागज बाहर निकाले। उसमें से पहला पन्ना चंदाराणा के हाथ में देते हुए कहा, ‘सर, प्लीज क्या आप ये कविता पढ़ेंगे?’ चंदाराणा ने उसके हाथों से कागज लेते हुए कहा, ‘मैं बहुत अच्छा वक्ता नहीं हूं। उस पर कविता पढ़ने की आदत तो बिलकुल भी नहीं है। यह मेरा पहला अवसर है और हो सकता है कि आखरी भी...खैर..इसमें लिखा है...’ उपाध्याय मैडम बोलीं, ‘इरशाद...’

चंदाराणा ने गला खखारा।

‘आनेवाले पल का पता नहीं मुझे,

लेकिन मेरी उम्मीद पेट से है और

भारी पाँव हैं मेरे सपनों के..

मरना हुआ तो यूं ही निकलेंगे,

जनाजा भारी लगे तो माफ करना दोस्तों..

उपाध्याय मैडम को ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं। ‘वाह, वाह...क्या विचार हैं...उम्मीद पेट से है...सपनों के पांव भारी हैं...भई वाह...इससे अच्छा और क्या लिखा जा सकता है, ये कोई विशेषज्ञ ही बता सकता है...मुझे तो ये पंक्तियां एकदम आफरीन, आफरीन लगीं। ’

चंदाराणा ने फिर से अपने हाथ के कागज पर नजर फिरायी और कहा, ‘वाह प्रसन्न, कविता मेरा विषय नहीं है, लेकिन तुम्हारे विचार मुझे पसंद आए। ’ फिर उन्होंने भावना की तरफ देखते हुए कहा, ‘जितना समझ में आया, वह बहुत पसंद आया...बधाई।’

कविता पाठ के एक-एक शब्द पर केतकी विचार कर रही थी। सभी ने उसकी तरफ देखा तो उसने कहा, ‘मैं शायद सबसे आखिर में कुछ कह पाऊं...’पुकु प्रसन्न के पास आकर उसका हाथ चाटने लगा। निकी ने भी उसका अनुकरण किया। प्रसन्न हंसा, ‘इन दोनों को भी यह कविता पसंद आ गयी है शायद...’ प्रसन्न ने केतकी की तरफ देखा और अपने हाथ में रखा दूसरा कागज उपाध्याय मैडम की ओर बढ़ा दिया, ‘अब आपकी बारी, प्लीज...’ उपाध्याय मैडम ने कागज पर लिखी कविता पहले मन ही मन में पढ़ी फिर जोर से पढ़ना शुरू किया,

‘बरबाद होना है हंसते हंसते

जलते रहना है बुझते बुझते

फना होना है तरसते तरसते

जिंदा भी रहना है मरते मरते

राह-ए-इश्क है ये जनाब,

पैर तक रखना है संभलते संभलते..’

कविता खत्म होने के बाद उपाध्याय मैडम मौन हो गयीं। गंभीरहो गयीं। चंदाराणा ने बहुत तारीफ की, ‘प्रसन्न...भाई तुम कविता में इतने गहरे उतरे हो, इसका अंदाज नहीं था मुझको...’ केतकी कुछ भी नहीं बोली। उपाध्याय मैडम ने अपनी तर्जनी से आंखों की कोरों पर आए आंसू को पोंछा। प्रसन्न ने बिना कुछ कहे अगला कागज भावना के हाथ में दे दिया। भावना पढ़ने लगी, 
‘कोई पूरी शिद्दत से हमारा न हुआ

न जाने कितनी दुआ का असर हुआ.’

चंदाराणा ने उठकर प्रसन्न का हाथ पकड़ लिया, ‘कितने कम शब्दों में धारदार वेदना व्यक्त ही है तुमने। तुम्हारी ये पंक्तियां तो दिल के आरपास हो गयीं। क्यों उपाध्याय मैडम? आप भी कुछ बोलें...’ मैडम ने मुस्कुराने की कोशिश की। ‘शब्दों में असर है....बधाई...इन शब्दों को अनुभूत न किया गया हो तो खैर...’

प्रसन्न ने केतकी की तरफ देखा। वह विचारों में खोई हुई थी। उसका चेहरा निर्विकार था। नजरें भूतकाल में कहीं भीतर खोई हुई थीं। प्रसन्न ने एक कागज केतकी के सामने रख दिया। बिना कुछ बोले केतकी ने पढ़ना शुरू किया,

‘रुह आज भी कांप जाती है अक्सर

जो सहे हैं सितम, कैसे सहे हैं?

उफ्फ तक करने की इजाजत नहीं दी थी,

ऐसी भी क्या तकदीर लिखी है?

कसम से, गुजारी न जा सके हम से,

हमने वो जिंदगी गुजारी है..

और हम ही हैरानी से देख रहे हैं..

गुजरा हुआ मंजर.. एक मुद्दत से..’

कविता पूरी होते साथ कमरे में शांति पसर गयी...एकदम नीरवता...बेचैन करने वाली थी वह शांति।

प्रसन्न उठा और वह कुछ बोलता इसके पहले ही केतकी दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपाकर रोने लगी। हिचकियां लेकर। कीर्ति चंदाराणा और उपाध्याय मैडम को कुछ समझ में नहीं आर रहा था। भावना और प्रसन्न ने एकदूसरे की तरफ देखा और दोनों के चेहरे पर एकसमान भाव आ गये। दोनों केतकी के पास गये लेकिन उसके पहले ही केतकी दौड़कर बाथरूम में घुस गयी।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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