अग्निजा - 127 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 127

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-127

उस मेल को देखकर भावना पागलों की तरह उछलने लगी। ‘वॉव...व्हाट ए न्यूज...कॉन्ग्रेचुलेशन्स..’ केतकी ने निर्विकार भाव से कहा, ‘इतनी उछलकूद करने की जरूरत नहीं है। या तो ये मजाक है या फिर गलती से भेजा गया मेल...’

‘इतनी बड़ी सौंदर्य प्रतियोगिता के आयोजक न तो गलती कर सकते हैं न ही मजाक...चलो तैयारी में जुट जाओ अब...’

‘पागल हो क्या तुम? चलो उन्होंने भले ही मजाक न किया हो लेकिन वहां जाकर तो मेरी हंसी ही उड़ेगी न सबके सामने?’

‘नहीं...यदि सौंदर्य प्रतियोगिता के प्रथम पात्रता राउंड के ऑडिशन के लिए तुम्हें बुलाया गया है तो तुममें उन्हें कुछ खास दिखाई दिया होगा, इसीलिए न?’

‘लेकिन मैं अपना अपमान करवाने के लिए मुंबई तक नहीं जाने वाली...समझ गयी न...’

‘केतकी बहन, प्लीज...जरा कल्पना तो करो...तुम मंच पर कैटवॉक कर रही हो...पीछे लाइट्स चमक रही हैं...धीमा-धीमा संगीत चल रहा है. और तुम्हारी तरफ लोग आश्चर्य से देख रहे हैं। तालियां बजाना भी भूल गये हैं लोग...तुम्हारी कैटवॉक पूरी होने के बाद तुम्हारा नाम अनाउंस होने पर लोगों को होश आता है और तालियों की गड़गड़ाहट करते हुए वे उठ खड़े होंगे। तुम फिर से रैंप पर आकर लोगों का झुककर अभिवादन करती हो..मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ...’

‘तुम जरूर जाओ वहां...अभी ही मुंबई का टिकट बुक करवा कर रख लो...लेकिन मैं तुम्हारे साथ आनी वाली नहीं हूं...’

‘ऐसा क्यों केतकी बहन...प्लीज...’

‘तुमको कुछ समझ में आता भी है? बिना बालों वाली सौंदर्य प्रतियोगिता कहीं देखी है तुमने आज तक? लोग टकली, टकली कहकर मेरा मजाक उड़ाएंगे और मैं मंच पर रो पडूंगी..तुम यह देखना चाहती हो क्या?’

‘लेकिन ऐसा ही होगा, तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?’

‘पर, हो भी सकता है न?  गोआ का मस्त अनुभव ले रही हूं मैं। उसे मुंबई जाकर गंवाना नहीं चाहती...और अब इसकी चर्चा बंद ओके ?’भावना मुंह बनाकर चुप बैठ गयी। लेकिन उसका दिमाग काम में लगा हुआ था। भावना अब यह बात उपाध्याय मैडम और प्रसन्न को जाकर बताएगी, इस बात का अंदाजा था केतकी को।हो सकता है बात चंदाराणा तक भी पहुंच जाए। ‘लेकिन कुछ भी हो जाए, इस बारे में मैं किसी की नहीं सुनने वाली।’

स्कूल में प्रसन्न से मुलाकात हुई, लेकिन उसकी बातों से ऐसा नहीं लगा कि उसे इस बारे में कुछ मालूम है। उपाध्याय मैडम का फोन भी आ गया पर उन्होंने भी इस बारे में एक शब्द नहीं कहा। केतकी को अच्छा लगा और आश्चर्य भी हुआ कि भावना चुपचाप कैसे बैठ गयी। हो सकता है वह मेरे विचारों से सहमत हो। अपनी प्रिय बहन का सार्वजनिक तौर पर अपमान होना तो उसे भी अच्छा नहीं लगेगा। अगले दिन शनिवार था। स्कूल में आधे दि की छुट्टी थी। प्रसन्न ने एक खबर सुनाई कि उसके दोस्त की पहचान का एक संपादक है और उसने मेरी कविताओं का संग्रह छापने की इच्छा जतायी है। यह सुनकर केतकी को बहुत खुशी हुई। ‘सच में?आप कविताएं भी करते हैं?’

‘नहीं, उसे कविता कहना कहना जरा मुश्किल है...स्कूल में नवीं-दसवीं में पढ़ते समय और बाद में कॉलेज पहुंचकर मन में जो विचार आते उसे लिखकर रख लेता था...मुक्तक की तरह...’

‘हमें तो कभी नहीं सुनायीं...चलिए, आज घर पर कविसम्मेलन करते हैं...शाम को छह बजे...मेरे घर में...कविता पाठ नवोदित कवि श्री प्रसन्न शर्मा। श्रोता अल्पज्ञानी केतकी और भावना, अधिक समझदार उपाध्याय मैडम और उनसे भी अधिक समझदार निकी-पुकु।’

प्रसन्न के उत्तर की राह देखे बिना ही केतकी ने भावना को फोन करके बता दिया। प्रसन्न नाराज हो गया। ‘आपको कोई बात बताने भर की देर थी, आप उसे गांव भर में फैला रही हैं।’ ‘अरे, हम पांच ही लोग तो हैं...गांव कहां इकट्ठा हो रहा है, कोई कांकरिया तालाब के सामने थोड़े कवि-सम्मेलन किया जा रहा है?’

यह सुनकर प्रसन्न हंसने लगा, ‘केतकी, तुम बहुत चतुर हो। उस पर से गोआ की ट्रिप के बाद तो कुछ अधिक ही स्मार्ट हो गयी हो। लगता है वहां के उन्मुक्त वातावरण का असर हो गया है?’

‘हां, वहां की मुक्त हवा, समुद्र की लहरें, बालू का तपना, फिर ठंडा हो जाना, लहरों का निश्चय, किनारों की स्थिरता...ये सब थोड़ा-थोड़ा मेरे भीतर आ गया है ...और ’

‘रुक क्यों गयी ...?’

‘कहने में संकोच हो रहा है..’

‘सकारात्मक असर हुआ होगा तो बताने में संकोच कैसा? हमें जो अच्छा लगता है, और जिससे किसी और का नुकसान न हो रहा हो तो उसे बताने में संकोच क्यों? मैं किसी से नहीं कहूंगा...मुझ पर विश्वास नहीं है?’

‘हां....पूरा है...वहां पी हुई वाइनकी मस्ती भी मेरे भीतर उतर आयी है...सबकुछ भूलकर एक अलग दुनिया में जीए हुए कुछ पल एक अलग ही अनुभव दे गये...’

‘अरे वाह..बहुत बढ़िया...बधाई..तुम्हारा सुनकर मुझमें भी हिम्मत आ गयी बताने की। मैं भी पुणे में जब पढ़ाई कर रहा था तो कभी-कभी बीअर पीता था। लेकिन यहां कहां मिलने वाली है। लेकिन वाइन का स्टॉक रहता है मेरे पास...मैंने परमिट ले रखा है।’

केतकी उसकी तरफ देखती रह गयी। ‘अरे ऐसे मत देखो, मैं कोई अखंड दारूबाज नहीं हूं। कभी कभी अकेलापन महसूस होता है तो रात में एकाध पैग ले लेता हूं।’

‘तुम तो छुपे रुस्तम निकले...कविता करते हो...वाइन पीते हो...अब गर्ल फ्रेंड होतो तो वह भी बता ही दो...’

‘है न...फ्रेंड है...वह गर्ल भी है...लेकिन गर्लफ्रेंड नहीं।’

‘ऐसा भला क्यों?’ केतकी ने शरारत से पूछा।

‘मैडम, ये दिल का कारोबार है। उसमें कारण, तर्क, देना-लेना जैसी बात नहीं होती...वहां पर होता है शुद्ध प्रेम...निर्मल ...खालिस...और कभी-कभी एकतरफा...’

‘हम्म...एकतरफा प्रेम, वाइन, जवानी और अकेलापन...कवि बनने के पूरे लक्षण हैं आपमें...शाम को मजा आने वाला है ये तय है...’

शाम को पौने छह बजे सब लोग चाय पी रहे थे, तभी दरवाजे पर घंटी बजी। भावना हंसते हुए उठी और उसने दरवाजा खोला तो वहां कीर्ति चंदाराणा खड़े थे। सभी उनकी तरफ देखते रह गये। ‘अरे, हां बाबा..हां..आज के कार्यक्रम का मैं बिनबुलाया मेहमान हूं...आप लोगों ने कहां मुझे विधिवत आमंत्रण दिया था? लेकिन मेरे भी शुभचिंतक हैं ही। उन्होंने मुझे मैसेज करके बता दिया, फिर मुझसे रहा नहीं गया... ’

उपाध्याय मैडम, केतकी, भावना और प्रसन्न सभी को मन ही मन आनंद हुआ...चलो, मेरे एक मैसेज पर सर आ गये...कहकर सभी मन ही मन सर का आभार मानने लगे। पुकु निकी मोबाइल चला नहीं पाते वरना उनकी तरफ से भी चंदाराणा को दो और मैसेज मिल गये होते।

अब प्रसन्न शर्मा के कविता-पाठ की सबको उत्सुकता लगी हुई थी। लेकिन असली मजा तो आने वाली थी एक छुपे हुए एजेंडा के कारण...यानी अघोषित लक्ष्य प्राप्ति की।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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