अग्निजा - 115 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 115

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-115

उस दिन शाम को पाव भाजी, केक, पिज्जा, बाजरे की रोटी और बैंगन का भरता, जूस और आइसक्रीम जैसे अलग-अलग आइटम्स के साथ तरह-तरह के गिफ्ट और बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ भावना का जन्मदिन जोरदार तरीके से मनाया गया। इतना सब होने के बाद आखिर में प्रसन्न द्वारा ऑर्डर किये हुए मघई पान के बीड़े भी आए।

प्रसन्न ने बीड़ा मुंह में रखते हुए भावना से पूछा, ‘तुमको इस कार्यक्रम केबारे में जरा भी भनक नहीं लगी? ’

‘नहीं न...मैं एकदम मूर्ख हूं। सुबह केतकी बहन बिना कुछ कहे ही स्कूल निकल गयी। आप दोनों का भी न फोन तो फोन आया न मैसेज। वैसे तो उसी समय मुझे संदेह हो जाना था। शाम को आप लोगों के आने के बाद थोड़ा संदेह तो हुआ लेकिन गुस्सा इतना अधिक था कि उस ओर ध्यान ही नहीं दिया मैंने। ’

उसका हाथ थामते हुए केतकी बोली, ‘सॉरी, तुम्हारे साथ इस तरह छल जो किया। लेकिन कुछ हटके करना था। तुम्हें तुम्हारा जन्मदिन हमेशा याद रहे इसलिए...’

‘सच कहूं तो जब मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी, उस समय डर भी लग रहा था कि कहीं कोई संकट तो नहीं आ रहा। लेकिन यहां तो संकट की जगह यह क्यूटी आ गया।’ भावना कुत्ते की तरफ देखते हुए बोली। वो भौंकने लगा। भावना ने उसे उठा लिया। ‘लेकिन, यह गिफ्ट आइडिया अफलातून है...बेस्ट गिफ्ट...’

‘इसके लिए हम दोनों को, प्रसन्न को धन्यवाद देना होगा। उसने मुझसे कहा था कि तुम अपनी ही दुनिया में खोयी रहती हो, ऐसे में भावना अकेली पड़ जाती है, इसका कभी विचार तो करो....’

‘आभार वाभार तो ठीक है...लेकिन प्रसन्न भाई... यार आपको सही समय पर सही बातें कैसे सूझती हैं...मुझे भी तो थोड़ा सिखाइए...’

‘मैं जो अपने लिए सोचता हूं, वही दूसरों के लिए करता हूं। उस व्यक्ति की जगह खुद को रख कर देखता हूं। ऐसा करने से वास्तव में क्या करना है, समझ में आ जाता है...इसमें कोई बड़ी बात नहीं है...’ बीच में ही भावना की ओर देखते हुए केतकी बोली, ‘मां से तुम्हारी कोई बात हुई क्या?’ भावना ने ना में सिर हिला दिया।

यशोदा अपनी बेटियों से कैसे बात कर सकती थी?  जयश्री शांतिबहन के कान भर दिये। उनकी बातें सुनकर रणछोड़ दास बिफर गया और उसने फतवा जारी कर दिया, ‘दोनों बेटियां मेरी नाक काट कर घर छोड़ गयी हैं। उनसे कोई भी बात नहीं करेगा। उनसे अब मेरा कोई लेना-देना नहीं है। छोटी मुझसे माफी मांग ले तो ठीक है। नहीं तो समझ लो कि दोनों से हमेशा के लिए रिश्ता खत्म और घर के दरवाजे उनके लिए सदा के लिए बंद...समझ गयीं?’ इतना कहकर उसने यशोदा की तरफ देखा, ‘चोरी-चोरी यदि उऩको फोन भी किया न तो इस घर में या तो तुम रहोगी या मैं...समझ गयी न...’

यशोदा ने भारी मन से हां में सिर हिलाया। उसने मन ही मन भगवान से प्राक्थना की और भावना को आशीर्वाद दिया। ‘कितनी बदनसीब हूं मैं कि बेटी के जन्मदिन पर भी उससे मिल नहीं सकती...’

यशोदा को चिंतित देखकर शांतिबहन और जयश्री के चेहरों पर हलकी सी हंसी उमड़ आयी।

...........

कुत्ते के घर में आ जाने से केतकी और भावना का बहुत सारा समय उसके साथ खेलने में, उसको संभालने में बीत जाता था। रोज शाम को उसको घुमाने के लिए ले जाना. उसे खिलाना-पिलाना। दोनों जब स्कूल चली जातीं तो वह घर में अकेला रह जाता था। दोनों जब घर के बाहर निकलने लगतीं तो वह बेचारा उनकी तरफ दयनीय चेहरा बनाकर देखने लगता था। शाम को उनके कदमों की आहट पाते ही वह भौंकने लगता था। थक-हार कर लौटने के बाद भी पहले उसे समय देना पड़ता था। वह गोद में आकर बैठ जाता था। गालों को चाटता, हाथों पर जीभ फेरता। एकदम सीधे-सादे बच्चे की तरह सामने आकर बैठ जाता था। इस तरह जब पंद्रह-बीस मिनट गुजर जाते तब उससे पूछ कर, उसकी आज्ञा लेकर उठना पड़ता था। ‘मैं फ्रेश होकर आती हूं...’ वह फिर से भौंकने लगता था। लेकिन उसमें प्रेम शामिल होता था। वह आगे-पीछे घूमता रहता था। टीवी देखने के लिए बैठने पर उनके चेहरों की तरफ ध्यान लगा कर बैठ जाता था। उसके लिए अलग से एक अच्छा सा गद्दा लाया गया था। खूब समझाने-बुझाने के बाद वह अपने गद्दे पर जाकर सोता था। लेकिन रात को नींद खुलने पर वह दोनों के बीच आकर सो जाता था। इन दोनों को लगता था कि उन्हें जीने की एक वजह मिल गयी है, लेकिन इतना सब कुछ होने के बावजूद भावना को महसूस होता था कि केतकी बीच-बीच में कहीं खो जाती है। भावना उसके दुःख को समझती थी, लेकिन किया क्या जा सकता था? प्रसन्न भाई को बताया जाये? लेकिन उन्हें क्या कहा जाए? अभी उसके जख्म हरे हैं। अभी कुछ और समय गुजरने देना होगा। जल्दबाजी में कुछ उल्टा ही हो गया तो? भावना को अकेलापन महसूस नहीं होता होगा, यह सोच कर केतकी खुश थी। उसकी वह समस्या तो दूर हो गयी थी लेकिन परिस्थितियां किसी और ही मोड़ से गुजर रही थीं।

भावना रोज घर से निकलते समय कुत्ते को उदास होते हुए और लौटने के बाद खुश होते हुए देखती थी। इस बिचारे के बीच के छह-सात घंटे कैसे बीतते होंगे? यह बेचारा घर में बंद रहता है। एकदम अकेला। मेरा अकेलापन दूर करने के लिए इस बेचारे की बलि तो नहीं दी जा रही? भावना रोज सुबह-शाम को उसको घुमाने ले जाने लगी। बाहर दूसरे कुत्तों को देखकर उसके भीतर एक अलग ही जोश का संचार होता था। वह उनसे खेलता था, मस्ती करता था। यह देखकर भावना को बहुत अच्छा लगता था। वह बेचारा मूक प्राणी है, कुछ बोल-बता नहीं सकता लेकिन उसको इस तरह से परेशान देखकर भावना अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती थी। लेकिन क्या किया जाए? उसके मन में चल रहे इस सवाल का उत्तर उसे तीसरे ही दिन बगीचे की एक बेंच पर मिल गया। नई बिल्डिंग के लोगों से पहचान होने लगी थी। गायत्री, अलका, चंद्रिका और मालती से उसकी दोस्ती हो गयी थी और यह दोस्ती धीरे-धीरे पक्की होती जा रही थी। उस दिन भावना को कुत्ते के साथ खेलता हुआ देखकर चंद्रिका ने कहा, ‘ये बिचारा मूक प्राणी। कितना निःस्वार्थ प्रेम करता है न, लेकिन हम कितने स्वार्थी होते हैं?’ भावना को लगा कि वह उसे ही ताना मार रही है। उसने चंद्रिका की ओर देखा, चंद्रिका बोली, ‘इस लाइन की तीसरी बिल्डिंग में एक दंपति रहता है। उन्हें कोई बच्चा नहीं था इसलिए उन्होंने एक कुत्ते का बच्चा पाल लिया था। उसे खूब प्रेम करते थे। लेकिन बच्चे के जन्म के बाद वे कुत्ते पर अत्याचार करने लगे, उस पर गुस्सा उतारने लगे। मुझसे वह देखा नहीं जा रहा था।  ’

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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