मिल तो जाएंगे न!" चावला जी ने अपने खोये पिता जी के बारे में पूछते हुए बंगाली बाबा से पूछा।
चावला जी के पिताजी जो कि करीब अस्सी वर्ष के बुजुर्ग थे। उम्र के साथ-साथ उनकी यरदाश्त कमज़ोर होती चली गयी थी। शरीर से बिल्कुल स्वथ्य। चेहरे पर बुढ़ापे की झूर्रियों के अलावा इस उम्र में आ बैठने वाले अन्य रोग शरीर को छुए भी नहीं थे। आज भी अपने सारे काम, यहां तक के घरवालों के अन्य काम भी बिना थके करते आ रहे थे। ऊपर से बुढ़ापे को संबल देती ठीक-ठाक मिलती पेंशन घर में उनकी स्थिति को जरूरी बनाये रखते थी। या यूं भी कह सकते है, ये उनके दिए संस्कार ही थे कि उनके अपने बच्चे ही नही बल्कि उनके पोते भी उनसे स्नेह रखते थे। परन्तु उनकी भूलने की बीमारी के कारण पूरे परिवार के लिए उन्हें ढूंढ लाना, महीने में दो चार बार सभी घरवालों के लिए एक अतिरिक्त कार्य था। कई बार पड़ोसियों ने सलाह दी उनके हाथ में घर का पता गुदवा दूं क्योंकि पता लिखा आई०कार्ड० बाबुजी निकाल कर फेंक दिया करते थे। परन्तु ये सलाह उन्हें शर्मिंदगी देती प्रतीत होती थी।
जब कभी चावलाजी के पिताजी उन्हें कहीं नहीं मिलते तो वे इन्ही बंगाली बाबाजी के शरण में ही आते। जिनके बारे में उनकी आस्था थी कि वह एक बड़े सिध्द बाबा हैं। और उनके पास एक चमत्कारी पत्थर है, जिसमे वह उनके खोये पिताजी को देखकर सटीक जानकारी देते हुए आज फिर उनके पिताजी का पूरा पता बता देंगे। हालांकि मैं भी अभी तक ऐसा ही मानता आ रहा था अगर स्वंय उस बंगाली बाबा के इस ठगी में, मैं खुद शामिल न हुआ होता।
दरअसल बंगाली बाबा के पास जो कथित चमत्कारी पत्थर था। उसमे केवल अबोध बालक ही उस पत्थर में देख पाता था। और वो कथित बालक हमारे चालाक दोस्तो में एक शम्भू हुआ करता था। जिसकी इस कथित बाबा से सांठगांठ थी। जिसके बारे में सिर्फ मुझे ही पता था। हालांकि उसने मुझे भी सीमित बातें ही बतायीं थी। गोपनीयता बरकरार रखने के लिए बंगाली बाबा मजबूत सुरक्षा-कवच शम्भू को माँ की कसम खिला ही रखी थी। अतिरिक्त गोपनीयता बनाये रखने और उस बंगाली बाबा का अनुसरण करने के एवज में शम्भू को उसकी उम्र के अनुसार नियमित भुगतान भी किया जाता।
एक दिन बंगाली बाबा के निर्देश पर मेरा दोस्त शम्भू मुझे इस बाबा के पास ले गया। किसी कारण शम्भू के उप्लब्ध न होने पर उसके स्थान पर बैकअप देने के लिए मुझे बेसिक ट्रेनिंग दे दी गयी। साथ में एक सौ के नोट भी! जो मेरी उम्र के हिसाब से एक बड़ी रकम थी। अतः मुझे भी उसी प्रपंच में शामिल कर पाने में बंगाली बाबा सफल हो चुका था।
"क्यों..बच्चा अभी तक मुझ पर तेरा विश्वास नहीं है।" बंगाली बाबा ने थोड़ा गुस्सा दिखाया।
दरअसल चावलाजी के पिताजी के खोये जाने पर उन्हें इसी बंगाली बाबा के कथित चमत्कारी पत्थर के कारण कई बार ढूंढा जा चुका था। हालांकि उन्हें ढूंढने में अधिकतर कॉलोनी वालों का ही हाथ होता था। अपनी कॉलोनी के आलावा आस-पास की कॉलोनियों के लोग भी चावला जी को जानते थे ही सो कोई न कोई उन्हें घर छोड़ ही जाता था। और चमत्कार , बाबा का मान लिवा जाता था।
"अरे नहीं बाबाजी गलती हो गयी!" कहीं बाबाजी नाराज न हों जाएं चावला जी उनके चरणों में बिछ गए।
"ठीक है...ठीक है...उठो!"
"क्या समस्या है?"
"बाबाजी वही....बाबूजी सुबह से कहीं चले गए है। सब जगह ढूंढ लिया..कहीं नहीं मिले....पता नहीं कहाँ होंगे भूखे प्यासे?" चावला जी ने परेशानी बताई।
"अरे देख...! राजू कहाँ है? ढूंढ कर ला!" अपने बगल में बैठे चेले को मुझे ढूंढने के लिए भेजा। क्योंकि शम्भू शहर से बाहर था। अतः आज मेरा परीक्षण किया जाना था। शम्भू ने मेरी मुलाकात बाबाजी से इसलिए जो कराई थी।
कुछ देर बाद चमत्कारी पत्थर मेरे हाथ में था। सामने तसले में से हाथ में मामूली सी राख रख, न जाने बंगाली बाबा ने क्या पढ़ा।
"देख....ठीक से देख...! कुछ दिख रहा है?"
"हाँ... हाँ... रोड़ दिख रहा है।" आत्मसात किये गए प्रक्षिक्षण को दिखाने की अब मेरी बारी थी।
"और क्या दिख रहा है?"
"रोड़ पर लोग आते जाते दिख रहे है।"
"देख कोई बुजुर्ग दिख रहा है कहीं?"
"यहाँ तो कई सारे बुजुर्ग दिख रहे है, कौन से वाले..?"
"फ़ोटो लाये हो..! चावला जी से पूछा।
"जी...! ये लीजिये।" चावला जी ने अपनी पॉकेट से अपने पिताजी का फोटो निकाल का दी।
"इसके साथ कुछ..!"
"जी..जी..! चावला जी ने पांच सौ का नोट फोटों के ऊपर रख दिया।
हाथ में नोट देखकर अब मुझे भी साफ-साफ दिखना शुरू हो गया
"कौन सी जगह है? देख ओखला के आस-पास की ही कोई जगह है क्या?"
"जी दुकानों पर ओखला का पता दिख रहा है।"
"ओखला गांव का तो नहीं है!"
"हाँ.. हाँ..! वही है... वही है...!" प्रशिक्षु अपनी योग्यता साबित कर रहा था।
"फोटो में दिख रहे चावला जी के पिताजी दिख रहें है कहीं।
"बेंच पर बैठे तो है एक बुजुर्ग!" दिए गए निर्देश के अनुसार उत्सुकता बनाये जो रखनी थी।
"फ़ोटो से मिला... यही हैं क्या?"
"हाँ... हाँ... यही लग रहे हैं!"
"ठीक से देख ले!"
"हाँ ..हाँ.. यही हैं।"
"आस-पास की जगह बता...कौन सी है। ओखला का बस स्टैंड तो नहीं है?
"जी..ओखला का बस स्टैंड ही है। यही लिखा है बस स्टैंड पर! उसके साथ एक बेंच लगी है। बगल में एक पानी की रेहड़ी लगी है। स्टैंड पर कई सारे लोग बैठे है।" मैंने निर्देशानुसार तीर छोड़ दिया।
"अरे रवि...गाड़ी ले और जल्दी से ओखला गांव के स्टैंड पर पहुँच!" गाड़ी की चाबी देते हुए चावला जी ने अपने बेटे को निर्देश दिया।
"देख जल्दी जा.. वहां से कहीं निकल न जाये!" विश्वास बनाये रखने को अपने बचाव का भी बंगाली बाबा ने इन्तज़ाम कर लिया।
कुछ देर बाद चावला जी को उनके पिताजी जी उसी स्टैंड पर मिल चुके थे। दरअसल ओखला की रेलवे कॉलोनी में रहने वाले चावला जी रास्ता भूलने पर मदद करने वाले को ओखला ही बता पाते थे। तो लोग उन्हें या तो ओखला गांव में छोड़ जाया करते थे। या फिर कहीं दूर चले जाने पर ओखला की बस बिठा दिया करते थे।
चावला जी को उनके पिताजी वहीं मिल चुके थे और बंगाली बाबा को अतिरिक्त दो हज़ार का नोट। इसके अलावा पांच सौ का हाथों में रखा नोट भी चावला जी जाने के बाद बंगाली बाबा द्वारा लिया जा चुका था।
"ये ले सौ का नोट!" बंगाली बाबा ने कार्य की पूर्णता पर मुझे मेहनताने के नाम पर सौ का नोट मेरी तरफ बढ़ाया।
"बस...!"
"तू तो बड़ा शैतान है रे....नाराज न हो मेरे राजा! तुम जैसों कारण तो मेरी झूट की दुकान चलेगी। ये ले और दो सौ रुपये और जा... ऐश कर...!
मुझ अबोध के लिए इतनी रकम कहे गए झूट के बोझ से कहीं ज्यादा थी। और मैं था भी तो अबोध!...है..न!
स्वरचित
प्रताप सिंह
9899280763
वसुन्धरा, गाज़ियाबाद उ०प्र०