गुजरात स्थित गिरनार पर्वत योगियों और संतों की तपोभूमि रही है। भारत के अनेक साधकों को इसी पर्वत की चोटी पर दत्तात्रेय ऋषि के दर्शन हुए हैं। प्राचीनकाल में इस नगर का नाम गिरिनगर था जो आजकल जूनागढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। रैवतक पहाड़ी (गिरनार) को जैन तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म स्थल कहा जाता है। नेमिनाथ और पार्श्वनाथ का मंदिर यहाँ होने के कारण जैनियों का भी यह नगर तीर्थस्थल है। इस पर्वत के शिखर पर चढ़ने के लिए ९९९९ सीढ़ियाँ हैं चढ़ाई बहुत कठिन है। कम लोग चढ़ पाते हैं।
इसी जिले के कुतियाड़ा तहसील में विष्णुदत्त मेहता नामक एक गुजराती नागर ब्राह्मण रहते थे जो मुंशी का कार्य करते थे। इनका एकमात्र पुत्र था कृष्णदास कृष्णदास दो पुत्रों के पिता बने बड़े का नाम 'वंशीधर' और छोटे का नाम 'नरसी' था। दोनों बालक अभी छोटे ही थे कि पिता का निधन हो गया। दोनों अनाथ बच्चों का लालन-पालन दादी जयकुमारी को करने के लिए बाध्य होना पड़ा। दादी परमवैष्णव थीं। दोनों बच्चों पर दादी का प्रभाव पड़ता गया। बड़ा लड़का वंशीधर ठीक था, पर नरसी बचपन से ही गूँगा था। नरसी को लेकर दादी चिन्तित रहा करती थीं। कभी-कभी सोचतीं कि क्या यह जीवन भर गूँगा ही रहेगा या भगवान् इस मातृ-पितृहीन बालक पर दया करेंगे। उन्हें नरसी का हर वक्त ध्यान रखना पड़ता था। अकेला कहीं नहीं भेजती थीं। एक दिन जयकुमारी शिव मंदिर में भागवत कथा सुनने के लिए अपने साथ नरसी को लेकर गयीं। कथा समाप्त होने के बाद वे मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतरने लगीं तो देखा कि एक किनारे एक संन्यासी बैठे हैं। उनकी भव्य आकृति ने भक्तमति जयकुमारी को आकर्षित किया। पास जाकर उन्होंने प्रणाम किया। दादी का अनुसरण नरसी ने भी किया।
"आयुष्मान भव।" —स्वामीजी ने आशीर्वाद दिया।
जयकुमारी ने उदास भाव से कहा— “महाराज, यह बालक जन्म से गूँगा है। ऐसा आशीर्वाद दीजिए ताकि बोलने लगे। इस गूंगे को लेकर मैं परेशान रहती हूँ।”
संन्यासी ने नरसी को सिर से पैर तक कई बार देखा और तब मुस्कराते हुए कहा— “माताजी, तेरा यह बालक भाग्यवान है तेरे वंश का महापुरुष।”
इतना कहने के बाद स्वामीजी ने अपने कमण्डल से जल निकालकर नरसी पर छिड़का और फिर उसके कान के पास मुँह ले जाकर कहा "बोलो, राधाकृष्ण।"
"राधाकृष्ण" —नरसी ने कहा पौत्र को बोलते देख जयकुमारी खुशी से नाच उठीं "मेरा नरसी बोलने
लगा?”
संन्यासीजी के चरणों के पास जयकुमारी ने माथा टेककर प्रणाम किया। उनके चरणों की धूल लेकर वे अपने पौत्र पर छिड़कने लगीं।
“आप मेरे लिए भगवान् हैं। मेरा बेटा कृष्णदास अगर आज जिन्दा होता तो आपको कंधे पर बैठाकर घर ले जाता।”
संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा “अब घर जाओ, माँ। बालक को 'राधाकृष्ण' नाम रटाते रहना।”
पोते को गोद में उठाकर जयकुमारी घर आयीं। नरसी बोलने लगा है सुनकर घर के लोग प्रसन्नता प्रकट करने लगे। दूसरे दिन संन्यासी को सिधा देने के लिए जयकुमारी जब मंदिर आयीं तब देखा वे वहाँ नहीं थे। स्थानीय लोगों ने बताया “हमने कभी किसी संन्यासी को यहाँ बैठते नहीं देखा।”
उन दिनों पूरे गुजरात में दूध का व्यवसाय ब्रज के ग्वाले करते थे। नरसी ब्रज के लोगों से ब्रज के बारे में, श्रीकृष्ण और राधा के बारे में प्रश्न करता और उनकी जबानी कहानियाँ सुना करता था ब्रज के लोगों में एक विशेषता यह थी कि वे श्रीकृष्ण लीला की चर्चा अधिक करते थे। 'नमस्कार प्रणाम' के स्थान पर 'राधे-गोविन्द' कहा करते थे। नरसी का बाल-मन श्रीकृष्ण की कहानियाँ सुनते-सुनते आत्मविभोर हो जाता था। ब्रज के बाद द्वारिका कृष्ण की दूसरी राजधानी थी। गाँव में
जहाँ कहीं कीर्तन-भजन होता, वहाँ नरसी अवश्य जाते। इस प्रकार बचपन से ही उन पर कृष्ण भक्ति का रंग चढ़ता गया। कृष्ण ही उनके आराध्य बन गये।
बड़ा भाई राज्य का कर्मचारी था आर्थिक तंगी नहीं थी लेकिन नरसी का घुमक्कड़पन घर में किसी को पसन्द नहीं था। सभी यही चाहते थे कि वह लायक बने, घर के काम में हाथ बटाये ताकि वह घर-गृहस्थी के योग्य बन सके। फलस्वरूप भाई-भाभी के अलावा दादी से भी वे बातें सुना करते थे। नरसी मेहता पर इन बातों का असर नहीं पड़ता था। एक प्रकार से वे चिकना घड़ा बन गये थे। पोते का रंग-ढंग देखकर दादी ने सोचा “अगर नरसी का विवाह कर दिया जाय तो इसका पागलपन दूर हो सकता है। पत्नी के आने पर गृहस्थी की जिम्मेदारी समझेगा और तब नौकरी या रोजगार में मन लगायेगा।” उन दिनों भारत में बाल विवाह की प्रथा थी जयकुमारी अपने निश्चय के अनुसार रघुनाथपुरुषोत्तम की कन्या मानिक बाई से नरसी का विवाह कर दिया। मानिक बाई न केवल रूपवती थी, बल्कि गुणवती और बुद्धिमती भी थी। विवाह के पश्चात् जयकुमारी ने कहा “अब कहीं नौकरी कर ले घर में बहू आ गयी है। भाई के भरोसे कब तक रहेगा? अपनी गृहस्थी सम्हालने का गुण मेरे रहते सीख ले। अगर अब भी ध्यान नहीं दिया तो बहुत भोगेगा।” नरसी मेहता ने दादी के वचन को इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया। पहले की तरह मंदिरों में जाते और कीर्तन में लगे रहते थे।
कुछ ही दिनों के भीतर मानिक बाई यह समझ गयी कि उसकी जेठानी दुरित बाई केवल कलह-प्रिया ही नहीं, बल्कि दिल की बहुत काली है। इस घर में आने के बाद से घर का सारा काम मानिक बाई को करना पड़ता था, फिर भी जेठानी ताना देने से बाज नहीं आती थी पति के बेकार होने के कारण उन्हें सारी पीड़ाएँ चुपचाप सहनी पड़ती थीं।
जयकुमारी को विश्वास था कि विवाह के बाद नरसी के व्यवहार में परिवर्तन होगा, पर ऐसा नहीं हुआ। देखते-देखते कई वर्ष गुजर गये। इस बीच नरसी एक पुत्र तथा एक पुत्री के पिता बन गये। लेकिन नरसी ने रोजगार या नौकरी के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। नरसी के इस व्यवहार के कारण दादी क्षोभ से असंतुष्ट रहने लगीं। नित्य भला-बुरा कहती रहीं। इस बीच नरसी के जीवन में एक घटना हो गयी। बड़े भाई के घोड़े के लिए नित्य नरसी जंगल से घास काट कर लाते थे। उस दिन थके-माँदे घास का गट्ठर सिर पर लादे घर आये आंगन में गट्ठर रखने के बाद उन्होंने कहा— "भाभी, एक गिलास पानी देना बड़ी प्यास लगी है।"
एक तो देवर के निकम्मेपन से भाभी नाराज रहती है। उसके पति की कमाई पर चार-चार प्राणी खा रहे हैं। ऊपर से नखरे दिखाते हैं। तुरंत वह बोली– "घास काटने के बहाने सबेरे निकल जाते हो तो शाम को घर लौटते हो इतनी बड़ी गृहस्थी कैसे चलती है, इसकी चिन्ता तुम्हें है? चार पैसे कमाने की फिक्र नहीं, सिर्फ करताल बजाना और नाचना आता है। खाने को चार-चार प्राणी शर्म नहीं आती? अब यह सब घर में नहीं चलेगा दूर हो जाओ यहाँ से।"
मानिक बाई दूर खड़ी सारी घटना को देख सुन रही थी। पति की अकर्मण्यता पर उसे भी क्षोभ था। पता नहीं, कैसे पत्थर दिल के आदमी हैं। अपमान की पीड़ा भी इन्हें नहीं सताती। अगर कमासुत होते तो यह सब सुनना नहीं पड़ता।
पानी देने के बदले भाभी जिस ढंग से पेश आयी, उससे नरसी ने अपमानित अनुभव किया। बिना कोई प्रतिवाद किये वे घर से निकलकर जंगल में चले गये। कंटकाकीर्ण मार्ग से क्रोधित होकर चलने के कारण उनका शरीर लहूलुहान हो गया। कई जगह से रक्त बहने लगा। इस ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। चलते-चलते सहसा ठोकर लगने के कारण नरसी के पैर रुक गये। सामने नजर जाते ही उन्हें आश्चर्य हुआ उनकी आँखों के सामने एक मंदिर था। आखिर इस जंगल में यह मंदिर कहाँ से आ गया? घास काटने के लिए नरसी अक्सर इधर आते थे, पर आज के पहले इस मंदिर को उन्होंने कभी नहीं देखा क्या कभी मैं इधर नहीं आया था? दुःख और क्रोध के कारण वे अधिक सोच नहीं सके। इतनी दूर भूखा-प्यासा आने के कारण थककर वे वहीं सो गये।
पता नहीं, कब उस सुनसान जंगल में एक देववाणी सुनाई दी “वत्स नरसी, उठो! तुम्हारी मृत्यु अभी नहीं होगी। तुम भाग्यवान व्यक्ति हो। श्रीकृष्ण तुम्हारे माध्यम से जगत् का कल्याण करना चाहते हैं तुम्हारे माध्यम से लीला करना चाहते हैं। ऐसे देवता जिसके सहायक हैं, उसे किस बात की चिन्ता?"
इस मधुर वचन को सुनकर नरसी की आत्मा आनन्द से परिपूर्ण हो गयी जो व्यक्ति रहरह कर दादी, भाई, भाभी से ताने सुनता आया है, उसे आज प्रथम बार स्नेहपूर्ण वचन सुनने को मिला।
आँखें खोलने पर उसने देखा साक्षात् भगवान् शंकर खड़े हैं। लोगों की जबानी शंकर भगवान् के बारे में जो कुछ उन्होंने सुना है, ठीक उसी रूप में खड़े हैं। उनके शरीर से निकलने वाली ज्योति से सम्पूर्ण क्षेत्र आलोकित हो उठा है। नरसी को समझते देर नहीं लगी कि वह स्वप्न नहीं देख रहा है। शंकर भगवान् प्रत्यक्ष रूप में दर्शन दे रहे हैं। भक्ति से गद्गद होकर उन्होंने शंकर भगवान् को साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा "न जाने किस पुण्य बल के कारण मुझ जैसे व्यक्ति को आपका दर्शन मिला। मैं आपसे कोई वर नहीं चाहता। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।"
आशुतोष भगवान् ने कहा— "तुम जिसके भक्त हो, वही तुम्हें अपनायेंगे। आओ, हम उन्हीं लीलामय की गोपी-लीला देखने चलें। लेकिन हम वहाँ गोपी के रूप में चलेंगे, वर्ना गोपियाँ हमें वहाँ रहने नहीं देंगी। गोपी रूप में हम अपने को छिपा लेंगे।" यह कहकर शंकर भगवान् ने अपना तथा नरसी का रूप बदल डाला। इसके बाद उन्होंने कहा— ''बिना गोपी बने हम श्रीकृष्ण की रासलीला में भाग नहीं ले सकते।"
वृन्दावन रवाना होते समय नरसी ने आश्चर्य के साथ देखा-मंदिर की सीढ़ियों पर उनका स्थूल शरीर पड़ा है और वे सूक्ष्म शरीर में गोपी रूप धारण कर हवा में उड़ते
जा रहे हैं।
रासलीला की भूमि पर आने के बाद नरसी ने देखा शरत् पूर्णिमा की चाँदनी चारों ओर छिटकी हुई है। मल्लिकादि कुसुमों से वनभूमि सुशोभित है। मन्द-मन्द वायु में श्रीकृष्ण की बांसुरी के स्वर गूंज रहे हैं। उपस्थित सभी गोपियाँ मुरलीधर के समीप जाने के लिए व्याकुल हैं। कुछ गोपिकाएँ श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही हैं। अपने गोल में दो नयी गोपियों को देखकर शेष गोपीकाएँ चकित हैं। उनकी आँखें एक दूसरे से टकराकर पूछ रही है ये दोनों सखियाँ कहाँ से आ गयीं? दूसरी ओर श्रीकृष्ण शंकर और नरसी को गोपी रूप में देखकर मुस्करा रहे हैं। ये लोग भी इन गोपियों के साथ नृत्य करने लगे।
रासलीला समाप्त होने के बाद नरसी रूपी गोपी को श्रीकृष्ण ने अपने पास बुलाकर पद-सेवा करने की आज्ञा दी। भगवान् भक्त की सेवा से प्रसन्न होकर बोल—"वत्स, मैं तुम्हारी सेवा-भक्ति से प्रसन्न हूँ। बोलो, क्या चाहते हो?"
नरसी ने भाव विभोर होकर कहा "प्रभो, जब आप मिल गये तब मुझे कुछ और नहीं चाहिए। मेरी यही इच्छा है कि जागरण में, शयन में, मरण में, प्रत्येक क्षण में, आपके चरणों का ध्यान करता रहूँ।"
श्रीकृष्ण ने कहा "प्रिय वत्स, तुम्हारी तरह भक्ति परायण, कामना-वासना-हीन इस जगत् में अन्य कोई नहीं है। आज से तुम सभी ऋणों से मुक्त हो गये। मेरी पूजा मन में करते हुए संसार धर्म का पालन करते रहना। तुम्हारी सारी जिम्मेदारी आज से मैं ले रहा हूँ। मुसीबत के वक्त मेरा स्मरण करते ही तुम छुटकारा पा जाओगे। लोक-कल्याण के लिए घर-घर जाकर कीर्तन करते रहना।" इतना कहने के पश्चात् श्रीकृष्ण यमुना में जाकर जल क्रीड़ा करने लगे। प्रभु की इस लीला को तट पर खड़े नरसी देखते रहे। धीरे-धीरे प्रभात होने लगा और यह सारा दृश्य पल भर में गायब हो गया। इस दृश्य के गायब होते ही नरसी का हृदय हाहाकार कर उठा और वे मूर्च्छित हो गये। मूर्च्छा भंग होने पर उन्होंने देखा कि वे जंगल में स्थित उसी मंदिर की सीढ़ियों पर पड़े हुए हैं।
"तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था?" सामने तो शंकरजी का मंदिर है। अपने शरीर को गौर से देखने पर लगा सारे घाव मिट गये हैं। नरसी दौड़कर मंदिर के भीतर गये और शंकर की मूर्ति को प्रणाम करते हुए आँसू बहाने लगे। दीर्घकाल तक तपस्या करने पर भी साधक को भगवान् के दर्शन नहीं मिलते, उस दर्शन को शंकर भगवान् की कृपा से नरसी ने अनायास प्राप्त कर लिया। अगर भाभी की फटकार सुनकर यहाँ मरने के लिए न आते तो प्रभु का दर्शन कैसे मिलता?
लीलामय प्रभु, तुम्हारी माया अपरम्पार है।
मंदिर से चलकर नरसी घर आये तो लोगों को बढ़ा आश्चर्य हुआ। बड़े भाई ने विस्मय से पूछा–"एक सप्ताह कहाँ गायब रहा?" इस प्रश्न को सुनते ही नरसी का रूप बदल गया। वह कभी हँसने, कभी रोने और कभी नाचने लगा। दूसरे ही क्षण दोनों हाथ ऊपर उठाकर 'जय श्रीकृष्ण' कहते हुए कीर्तन करने लगे। घर के लोगों ने अंदाजा लगाया कि नरसी जरूर पागल हो गया है। पिछले एक सप्ताह से गायब था। जरूर कोई घटना हुई है। ऐसे आदमी को घर में रखना उचित नहीं है। आखिर एक दिन भाई-भाभी ने नरसी के पूरे परिवार को घर से बाहर निकाल दिया। यह भी प्रभु की इच्छा है, समझकर नरसी हमेशा के लिए पैतृक निवास छोड़कर नगर के बाहर की ओर चल पड़े। मानिक बाई की आँखें सावन-भादों बरसाने लगीं। पति एक छदाम कमाता नहीं, कल क्या होगा? कम से कम यहाँ दो कौर भोजन तो मिल जाता था सिर छिपाने की जगह थी। अब भूखों किसी पेड़ के नीचे रहना पड़ेगा। मानिक बाई को कल की चिन्ता खाये जा रही थी, पर नरसी के चेहरे पर चिन्ता की कोई रेखा नहीं थी। वे मन ही मन कह रहे थे "प्रभो, दुःख देकर परीक्षा ले रहे हो? कम-से-कम इतनी शक्ति दो कि इसे सहन कर सकूँ। जब आप मेरे मालिक हैं, तब मुझे कोई चिन्ता नहीं है। जय श्रीकृष्ण" चलते-चलते जब वे लोग थक गये तब एक धर्मशाला में आये। इनकी हालत देखकर रक्षक ने कहा "यहाँ केवल तीन दिन ठहर सकते हो।"
दो दिन अनाहार में गुजर गये। आज तीसरा दिन है। "गाँव रहता तो कहीं से कुछ माँगकर मानिक बाई ले आती। बच्चों का पेट भरता। इस परदेश में भला कोई क्या देगा?" भूख से बिलबिलाते बच्चों को देखकर मानिक बाई स्वयं रोने लगी। दूसरी ओर अटल विश्वास के साथ नरसी अपने कीर्तन में मस्त थे। उनकी यह गति देखकर मानिक बाई कड़ी बात कहने ही जा रही थी कि अचानक दरवाजे की साँकल बज उठी। मानिक बाई ने सोचा "शायद धर्मशाला से बाहर चले जाने को कहने के लिए कोई आया है।"
इस अनजान जगह में और कौन आ सकता है? कहीं बड़े भैया तो नहीं आये हैं। दरवाजा खोलने पर मानिक बाई ने देखा कोई अपरिचित व्यक्ति है। पूछा– "क्या बात है ?" अपरिचित व्यक्ति ने कहा "जय श्रीकृष्ण, जय श्रीकृष्ण।" प्रभु का नाम सुनते ही नाम जपने वाले नरसी मेहता उछलकर खड़े हो गये। पास आकर बोले–"भाईजी, मैं आपको पहचान नहीं सका। जबकि आप मेरा और मेरे प्रभु का नाम ले रहे थे। इस गरीब के घर कैसे पदार्पण हुआ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?"
आगन्तुक ने कहा– "मैं जाति का बनिया हूँ। मेरा घर बहुत दूर है। मैं सर्वदा साधु-सन्तों की तलाश में लगा रहता हूँ। उनसे हरि कथा सुनता हूँ। उनकी सेवा करना धर्म समझता हूँ। मार्ग में आपके बारे में सुना तो सेवा में हाजिर हो गया। मैं आपकी सेवा करके धन्य होना चाहता हूँ। मैंने सुना है कि आप लोग निराश्रय हैं। आप लोगों के रहने लायक एक घर ठीक कर आया हूँ।आपके ठाकुर को भोग देने लायक कुछ अन्न उस घर में रख दिया है। कृपया आप लोग मेरे साथ चलिए और उस पर को आबाद कीजिए।" नरसीजी को समझते देर नहीं लगी कि यह सब उनके प्रभु श्रीकृष्ण की देन है। उस बनिये के साथ उसके ठीक किये भवन में पूरा परिवार आ गया। नरसी का पूजा घर अलग है। भण्डार में खाद्य सामग्री पर्याप्त मात्रा में है। किसी बात की कमी नहीं है। इस मकान में रहते हुए नरसी श्रीकृष्ण के प्रेम में मगन हो गये।
कुछ दिनों बाद एक अपरिचित व्यक्ति इनके पास आया और कहा "मैं द्वारिका दर्शन के लिए जाना चाहता हूँ कृपया आप एक सौ रुपये की हुण्डी लिख दीजिए। यहाँ के कई महाजनों के पास गया, पर कोई लिखने को तैयार नहीं हुआ। कुछ लोगों ने आपका नाम बताया। अगर आप लिख दें तो मैं द्वारिका तीर्थ दर्शन कर आऊँ।" नरसी ने सोचा "शायद प्रभु की यही इच्छा है। द्वारिका में मेरा कौन है जो मेरी हुण्डी को स्वीकार करेगा? प्रभो, अगर तुम यही चाहते हो तो यही सही" प्रकट रूप में उन्होंने कहा— "एक सौ रुपये से क्या होगा? मैं एक हजार रुपयों की हुण्डी लिख देता हूँ। वहाँ जाकर श्यामल साह से ले लेना। वे मेरी हुण्डी स्वीकार कर लेंगे।" उक्त सज्जन द्वारिका सकुशल आ गये। यहाँ के महाजनों से श्यामल साह का नाम पूछने लगे। जब कोई श्यामल साह होता तब लोग पता बताते। सभी लोगों ने कहा कि द्वारिका जैसे छोटे स्थान में इस नाम का कोई आदमी नहीं है। उक्त सज्जन सोचने लगे कि क्या मुझे धोखा दिया गया है? अब इस परदेश में क्या करूँ? घर कैसे जाऊँगा। अचानक एक व्यक्ति उनके पास आया और पूछा "क्या आप जूनागढ़ से आये हैं?"
"जी हाँ "
"नरसी मेहता की हुण्डी साथ लाये हैं?" उस व्यक्ति ने कहा “आज ही मेरे पास जूनागढ़ से नरसी मेहता का एक पत्र आया है कि उन्होंने मेरे नाम एक हजार की हुण्डी लिखकर किसी के हाथ भेजी है।" यह बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा— "वह व्यक्ति में ही हूँ। क्या आप ही श्यामल साह हैं? यहाँ के लोग तो कहते हैं कि इस नाम का कोई भी व्यक्ति यहाँ नहीं रहता।"
श्यामल साहरूपी श्रीकृष्ण ने कहा "कोई आदमी रहता है या नहीं, इससे आपका क्या मतलब मुझे सभी लोग नहीं जानते। आप हुण्डी दीजिए और रुपये ले लीजिए।"
नरसीजी की दो पुत्रियाँ थीं। पहली वाली विवाह के योग्य हो गयी थी। मानिक बाई ने कई बार उसके विवाह के बारे में नरसी से चर्चा की, पर हर बार यही कहते "यह कार्य मुझसे नहीं होगा जो कुछ करना है, प्रभु श्रीकृष्ण करेंगे तुम बेकार परेशान होती हो। मैंने अपना सब कुछ उन्हें सौंप दिया है।" मानिक बाई मन ही मन यह अनुभव जरूर करती रही कि प्रभु की इच्छा से उनकी गृहस्थी चल जरूर रही है, पर विवाह के बारे में बिना प्रयत्न किये अपने आप कैसे हो जायगा? घर में इतनी रकम भी नहीं है कि सारा इन्तजाम किया जा सके। एक दिन नरसी सबेरे पड़ोस के एक गाँव में एक भक्त के घर चले गये। वहाँ कीर्तन का आयोजन था। इन्हें विशेष रूप से बुलाया गया था। इसी दिन एक ब्राह्मण इनके घर आया। उसने कहा "मैं ऊना गाँव के ब्राह्मण श्री रंगधर मेहता का कुल पुरोहित हूँ। उन्होंने मुझे आपसे यह कहने के लिए भेजा है कि वे आपकी पुत्री को कुलवधू के रूप में अपनाना चाहते हैं। मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहता हूँ। आप इसके लिए सारा प्रबंध कर दें।"
मानिक बाई को इस समाचार से प्रसन्नता हुई, पर घर में कुछ भी नहीं है। आखिर खाली हाथ लड़की को कैसे भेजा जाय? बोली– "मेहताजी घर में नहीं हैं। वे दूसरे गाँव गये हुए हैं। उनके आने तक आपको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।" इतना कहकर वह भीतर जाकर सोचने लगी कि अतिथि को खिलाने लायक सामान भी घर में नहीं है, फिर लड़की को कुछ सामग्री देकर भेजना पड़ेगा। पता नहीं, कहाँ जाकर बैठ गये हैं। पड़ोसी के यहाँ से वह चावल, दाल, तरकारी माँग लायी। इस प्रकार अतिथि का स्वागत हुआ। दोपहर को जब नरसी आये तब अतिथि ने उन्हें अपने आने का कारण बताया।
सारी बातें सुनने के बाद आदत के मुताबिक नरसी ने कहा "चिन्ता करने की जरूरत नहीं प्रभु इच्छा से सब कुशल पूर्वक निपट जायगा।"
कुल पुरोहित ने कहा "अगर आप कल बहू को मेरे साथ विदा कर दे तो अच्छा होगा।"
नरसी ने कहा– "कृपया दो दिन आप ठहर जाइये लड़की की विदाई की व्यवस्था कर लूँ तब आप चले जाइयेगा।" लाचारी में कुल पुरोहित को रुकना पड़ गया। लेकिन समस्या हल नहीं हो रही थी। निर्धारित दिन को सबेरे नरसी पत्नी और पुत्र श्यामलदास को लेकर मंदिर में आये और भजन गाने लगे "राखो प्रभु लाज हमारी।.." कुछ देर बाद एक नवदम्पति मंदिर में आया और बोला "हम लोग अपने एक मित्र के निर्देश पर यहाँ आये हैं। उन्होंने आपकी लड़की के विवाह के लिए हमें उपहार देकर भेजा है। आप यह सब सामग्री ग्रहण करें और अपनी लड़की को विदा कर दीजिए।"
इतना कहने के पश्चात् सारा सामान मानिक बाई के पास रखकर वह दम्पति जैसे आया था, उसी प्रकार चला गया। कृतज्ञता प्रकट करने का मौका नहीं मिला। नरसी ने खड़े होकर देखा तो वह दम्पति कहीं दिखाई नहीं दीये। नरसी समझ गये कि यह मेरे प्रभु की कृपा है। घर वापस आकर उन्होंने उसी दिन कन्या को विदा कर दी। पग-पग पर प्रभु की कृपावर्षा होते देख नरसी का अनुराग उनके प्रति बढ़ता गया। अब वे श्रीकृष्ण के भजन में दिन गुजारने लगे। पुत्री के विवाह के पश्चात् पुत्र के विवाह की चिन्ता मानिक बाई को सताने लगी। दरिद्रता की चक्की में पीसते-पीसते वह थक गयी थी। घर में एक बहू आ जाय तो कुछ भार हल्का हो जायगा। दूसरे ही क्षण सोचती कि कौन हमारे जैसे दरिद्र परिवार को अपनी लड़की देगा? यहाँ दोनों जून पेटभर भोजन तक नसीब नहीं होता। भगतजी दिन-रात भजन-कीर्तन में लगे रहते हैं। घर की फिक्र ही नहीं करते। गुजरात के भावनगर में नागर ब्राह्मणों की काफी आबादी है। इस राज्य के दीवान मदन मेहता काफी धनी तथा सम्मानित व्यक्ति माने जाते थे। वे अपनी लड़की के लिए योग्य लड़के की तलाश में थे। अपने कुल पुरोहित को उन्होंने जूनागढ़ इसी उद्देश्य से
भेजा। उन्हें यह ज्ञात था कि जूनागढ़ में नागर ब्राह्मणों के नेता सारंगधर हैं। वे इस कार्य
में मदद दे सकते हैं। उन्हें अपने यहाँ के योग्य लड़कों की जानकारी होगी। उन्होंने सारंगधर के नाम पत्र लिखते हुए लिखा कि "इस दिशा में मेरे कुल पुरोहित की मदद कर दें।" जूनागढ़ आकर कुल पुरोहित कई ब्राह्मण नागरों के घर गये। उनमें से उन्हें एक भी लड़का पसन्द नहीं आया कोई गूंगा, कोई बहरा, कोई तोतली जवान का और कुछ तो बज्र मूर्ख मिले। कुल पुरोहित के नखरे देखकर सारंगधर नाराज हो गये। उसकी अयोग्यता प्रमाणित करने के लिए वे कुल पुरोहित को नरसी मेहता के घर ले आये। यहाँ का रहन-सहन और श्यामलदास का रूप-रंग देखकर कुल पुरोहित मुग्ध हो गया। बातचीत पक्की करके वे भावनगर लौट आये। यहाँ आकर उन्होंने मदन मेहता से कहा "लड़का सर्वगुण सम्पन्न है, केवल गरीब है।"
मदन मेहता ने सोचा– "गरीब है तो क्या हुआ? सर्वगुण सम्पन्न तो है।"
इस घटना के कुछ दिनों बाद बदले की भावना से सारंगधर ने मदन मेहता को पत्र लिखा कि आपके कुल पुरोहित कितने योग्य हैं, इसकी जानकारी आपको हो जायगी। उसने नरसी के पुत्र को आपकी लड़की के लिए वर चुना है। नरसी तो भिखमंगा है, जातिच्युत वैरागियों के साथ रहता है। आपके सम्मान के लायक नहीं है। अच्छा होगा कि अन्यत्र अपने दामाद की तलाश करें। इस पत्र को पाकर मदन मेहता परेशान हो गये। कुल पुरोहित के घटियापन से ये नाराज हो गये। बात पक्की हो गयी थी, सहसा रिश्ता तोड़ना अशोभनीय होगा। इस प्रकार की अनेक बातें सोचने के बाद मदन मेहता ने नरसी को इस आशय का पत्र लिखा "मान्यवर, आपके सुपुत्र चि० श्यामलदास के साथ मेरी पुत्री का विवाह अगले माह शुक्ल पंचमी को होना स्थिर हुआ है। कृपया मेरे सम्मान योग्य बरात लेकर आयें। अगर ऐसा करने में असमर्थ हों तो मैं अपनी लड़की का विवाह अन्यत्र करने के लिए बाध्य होऊंगा। नमस्कार। -(आपका मदन मेहता)
इस पत्र को पाकर नरसी मेहता चिन्तित हो उठे। अपने प्रभु का स्मरण करते हुए उन्होंने पत्रोत्तर दिया "श्रीकृष्ण की कृपा से ऐसा ही होगा। आप निश्चिन्त रहें।"
शुभ दिन करताल बजाते हुए कौपीन धारण किये वैष्णवों का दल भावनगर की ओर रवाना हुआ न बाजा, न पालकी, न घोड़ा केवल सभी बराती 'जय श्रीकृष्ण' कहते हुए चले जा रहे हैं। जूनागढ़ के लोगों को यह मालूम हो गया था कि नरसी अपने लड़के की बरात लेकर भावनगर जायेंगे। बरात की यह दशा देखकर सभी हँसने लगे। बाराती हैं या पागल?
भावनगर जब कुछ दूर रह गया तब नरसी तथा साथ आये वैष्णवों ने देखा एक खुले मैदान में बाजा, हाथी, घोड़ा, पालकी के साथ एक बारात जा रही है। सभी बराती मूल्यवान पोशाक पहने हुए हैं। शायद किसी राजकुमार की बारात है। एकाएक बरातियों में से एक सज्जन ने आगे बढ़कर नरसी से कहा "वत्स, मैं तुम लोगों के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। मेरे रहते तुम्हें किस चीज की कमी है? लो, यह पोशाक तुम अपने लड़के को पहना दो। ये लोग तुम्हारे बाराती हैं। अब शान के साथ जाओ।" कृपासिन्धु की बातें सुनकर नरसी आत्मविभोर हो गये। झट चरण स्पर्श कर पागलों की तरह श्रीकृष्ण नाम जपते हुए नृत्य करने लगे। बरात का रंग-रूप देखकर मदन मेहता के होश उड़ गये। इस वक्त सारंगधर मिल जाता तो उसका गला दबा देते। भवराये हुए वे नरसी के पास आकर बोले "मेरा अपराध क्षमा कर दें। मैं आपके सम्मान के लायक स्वागत करने में अपने को असमर्थ पा रहा हूँ।"
विवाह सम्पन्न हुआ। कन्या पक्ष ने विवाह की प्रशंसा करते हुए कहा "जूटी बाई को अच्छा वर मिला है।"
बरात विदा हुई। मार्ग में श्रीकृष्ण मिले। उन्होंने अपना सारा तामझाम वापस ले लिया। बरात जब जूनागढ़ आयी तब लोग नरसी के भाग्य पर ईर्ष्या करने लगे।
इसी प्रकार नरसी के नाती का भी विवाह हुआ था। 'भक्तमाल' के रचयिता लालदासजी महाराज ने लिखा है "उन दिनों नरसीजी की तरह भगवान् श्रीकृष्ण का अन्य कोई भक्त नहीं था। यही वजह है कि उनकी हर मुसीबत में श्रीकृष्ण नरसी की सहायता करने चले आते थे। नरसी के जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएँ हुई हैं जो भक्तभगवान् की लीला की कहानियाँ बनकर रह गयी हैं।"
नरसी की बड़ी लड़की की ससुराल की स्थिति अच्छी नहीं थी। वह अधिकतर अपने पिता के पास रहती थी। ससुराल में आर्थिक कष्ट था। अपने पुत्र के विवाह के बाद जब वह पुनः ससुराल आयी तब एक दिन सास ने कहा "बहू घर की हालत कैसी है, देख रही हो। अपने पिता से कुछ मदद क्यों नहीं माँगती? किसी को भेजकर कुछ मँगवाओ ताकि हम कुछ पेट भर भोजन कर सकें।" लड़की ने एक आदमी को पीहर भेजा जिसे नरसी ने खाली हाथ वापस कर दिया। यह देखकर सास आग बबूला हो गयी और खूब खरी-खोटी सुनाई। बेटी अपने पीहर की हालत जानती थी। लाचारी में पुनः एक आदमी भेजा कि मेरी कुछ सहायता नहीं कर सकते तो कम से कम एक बार आकर देख तो जाओ। नरसी इस प्रार्थना को अस्वीकार नहीं कर सके तुरंत बेटी के घर रवाना हो गये। फटे कपड़े, हाथों में करताल और मुँह में श्रीकृष्ण का भजन। नरसी की इस हालत को देखकर समधी समझ गये कि इस व्यक्ति से कुछ वसूल नहीं किया जा सकता। जिसकी यह दशा है, वह क्या सहायता करेगा? 'भक्तमाल' के अनुसार लड़की की ससुराल में उनकी घोर उपेक्षा की गयी। एक टूटी झोपड़ी में उनको ठहराया गया। भक्तों की दृष्टि में झोपड़ी और राजमहल दोनों ही बराबर होते हैं। सास द्वारा की गयी उपेक्षा से लड़की मन ही मन क्षुब्ध हो उठी। बरसात का मौसम था। झोपड़ी में चारों ओर से पानी टपकने लगा। इसी समय नरसी बेटी के पास आकर बोले "बेटी, पूजा के लिए कुछ फूल, बताशा और पानी दे जाओ।" कुछ देर में लड़की सारी सामग्री ले आयी। नरसी पूजा करने बैठे तो मूसलाधार वर्षा होने लगी। पूजा करते हुए उन्होंने कहा "हे इन्द्र तुम इतने निष्ठुर हो गये कि मेरे प्रभु की पूजन सामग्री को चौपट करने लगे।" इतना कहना था कि झोपड़ी पर पानी का गिरना बंद हो गया। शेष स्थानों पर पानी बरसता रहा। यह दृश्य देखकर समधी चमत्कृत हुए, पर उनके मन की भावना नहीं बदली।
भोजन के पश्चात् बेटी ने कहा "पिताजी, इन लोगों के ताने सुनते-सुनते मैं तंग आ गयी हूँ। पूरा परिवार ही दरिद्र है। आप इन लोगों की कुछ सहायता कर दें। आप यहाँ खाली हाथ आये हैं, देखकर ये लोग निराश हो गये हैं और ताना दे रहे हैं।"
'भक्तमाल' के अनुसार नरसी ने कहा मेरे प्रभु के पास क्या नहीं है? तू अपनी सास से पूछ आ कि उसे क्या चाहिए ?"
यह बात सुनते ही लड़की खुशी से उछलती हुई अपनी सास के पास आयी और उनकी जरूरत के बारे में पूछा। सास ने व्यंग्य भरे शब्दों में कहा "तेरा बाप क्या दाता कर्ण बन गया है? जिसके तन पर ठिकाने के कपड़े नहीं है, वह हमें क्या देगा। जा कुएँ की जगत पर कपड़े कचारने के लिए दो पत्थर देने को कह देना पता नहीं, यह भी दे सकेगा या नहीं ?" दुखित होकर बेटी ने अपने पिता के पास आकर सारी बातें बतायीं।
नरसी ने कहा “तुझे दुखी होने की जरूरत नहीं है, जो माँगेगी, वही मिलेगा। अब तू बता, तुझे क्या चाहिए?"
लड़की ने कहा "तुम पहली बार गाँव आये हो, यह बात सभी को मालूम हो गई है। इस गाँव के लोग बड़े गरीब हैं। यहाँ की औरतों को एक-एक नयी साड़ी देने की मेरी इच्छा है।"
नरसी ने कहा। "तेरी इच्छा पूरी हो जाएगी और तेरी सास को दो पत्थर देता जाऊँगा।"
'भक्तमाल' में आगे लिखा है– बेटी के जाने के बाद बड़े कातर भाव से नरसी ने अपने प्रभु श्रीकृष्ण को पुकारते हुए कहा "भगवन्, मैंने अपने लिए आप से कभी कुछ नहीं माँगा। आप मेरे सम्मान की रक्षा के लिए सब करते आये हैं। इस बार भी मेरी इच्छा पूरी कर दो।"
कुछ देर बाद एक बैलगाड़ी दरवाजे के पास आकर रुक गयी जिसमें नाना प्रकार के कपड़े और सोने-चाँदी के दो पत्थर थे। गाड़ीवान ने कहा "सेठजी ने इन सामानों
की कीमत चुकता करने के बाद कहा कि यह सब सामान यहाँ पहुँचा दूं। अपना सामान सहेज लीजिए।"
लड़की गाँव के प्रत्येक घर में जाकर साड़ी दे आयी। नरसी ने समधी को सोने-चाँदी वाला पत्थर सौंप दिया। पूरे गाँव में नरसी की प्रशंसा होने लगी। उनकी शक्ति देखकर समधी भी सन्न रह गयी। इस घटना के बाद लड़की हमेशा के लिए अपने पिता के घर चली आयी। यहाँ पिता के साथ वह भी श्रीकृष्ण की आराधना में लिप्त हो गयी।
एक अर्से के बाद बड़ा भाई वंशीधर अपने छोटे भाई नरसी के घर आया उद्देश्य था पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना वंशीधर ने कहा– “कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना बहू को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।"
नरसी ने कहा– “पूजा-पाठ करके ही आ सकूँगा।"
इतना सुनना था कि वंशीधर उखड़ गये–"जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं। तुम अपना श्राद्ध अलग से अपने इच्छानुसार करना।" नरसी ने कहा "नाराज क्यों होते हो, भैया? मेरे पास जो कुछ है, उसी से पिताजी का श्राद्ध कर लूँगा।" दोनों भाइयों में श्राद्ध के प्रश्न पर झगड़ा हो गया है, नागर-मण्डली को यह बात मालूम हो गयी। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, सुनकर नागर ब्राह्मणों ने बदला लेने की सोची। पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित किया। प्रसन्न राय यह जानते थे कि नरसी का परिवार माँगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन करायेगा? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज हो जायेंगे और तब उसे जातिच्युत कर दिया जायगा। कहीं से इस षड़यंत्र का पता मानिक बाई को लग गया। वह चिन्तित हो उठी। दूसरे दिन स्नान करने के बाद नरसी श्राद्ध के लिए घी लेने बाजार गये। वे उधार में घी चाहते थे, पर किसी भी दुकानदार ने उधार देना स्वीकार नहीं किया। अन्त में एक दुकानदार इस शर्त पर घी देने को राजी हुआ कि बदले में नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।
जब वह प्रसन्न हो जायगा तब घी देगा। भगवान् का भजन सुनाने के लिए नरसी सर्वदा प्रस्तुत रहते हैं। भजन सुनायेंगे और घी भी लेंगे। नरसी भजन सुनाने में इतने भाव विभोर हो गये कि उन्हें समय का ध्यान नहीं रहा। वे यह भी भूल गये कि यहाँ श्राद्ध के लिए घी लेने आये हैं। उधर नरसी के रूप में श्रीकृष्ण श्राद्ध का सारा आयोजन करते रहे। सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया दक्षिणा में एक-एक अशरफी प्राप्त की। कहाँ वे आये थे नरसी को अपमानित करने और बदले में सुस्वादु भोजन तथा दक्षिणा में अशरफी पाकर सोचने लगे कि क्या नरसी कोई जादू जानता है? इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जब घर आये तो देखा पत्नी भोजन कर रही है। उन्हें इस बात का क्षोभ हुआ कि अभी श्राद्ध-क्रिया प्रारंभ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठी है। क्रोध को दबाकर उन्होंने कहा "जरा देर हो गयी। क्या करूँ, कोई उधार घी दे नहीं रहा था। मगर तुम श्राद्ध होने के पहले भोजन क्यों करने लगी?"
मानिक बाई ने कहा–"तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? स्वयं खड़े होकर तुमने श्राद्ध का सारा कार्य किया ब्राह्मणों को भोजन कराया। लोगों के विदा होने पर खाना खाने बैठी हूँ। चलो, तुम भी खा लो।"
पत्नी की बातें सुनकर नरसी समझ गये कि श्रीकृष्ण प्रभु अपने भक्त के सम्मान की रक्षा के लिए यहाँ पधारे थे। मेरे लिए उन्हें कितना कष्ट उठाना पड़ रहा है। पता नहीं, अब कितने दिनों तक यह भार उठाते रहेंगे।
कुछ दिनों बाद एक दिन पति-पत्नी मिलकर भजन गा रहे थे। अचानक मानिक बाई को जाड़ा देकर तेज बुखार आ गया पत्नी की सेवा करने के बदले वे भजन गाने के लिए दामोदर कुण्ड चले गये। जब वहाँ से लौटे तब देखा– सुख-दुःख की चिरसंगिनी मानिक बाई उनका साथ हमेशा के लिए छोड़ गयी है। अब तक वही उनके परिवार को सम्हालती रही।
सच तो यह है कि नरसी के लिए मानिक बाई एक बंधन थी। अब दोनों लड़कियों को साथ लेकर वे गाँव-गाँव में, डगर- डगर में घूम-घूमकर प्रभु का गुण गाने लगे।
कृष्णजी कृष्णजी कृष्णजी कहें तो उठो रे प्राणी।
कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी॥
नरसी भगत पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे, पर आशु कवियों की तरह भजनों की रचना जबानी करते रहे। कहा जाता है कि वे पाँच हजार पद बना चुके हैं जो वैष्णव-साहित्य की अमूल्य निधि है। इन भजनों के आधार पर गुजराती साहित्य में अनेक काव्य ग्रंथ लिखे गये हैं। रास सहस्रपदी, सुदामा चरित, शृंगारमाला, गोविन्द गमन, सूरत संग्राम आदि ग्रंथों में नरसी के भजनों का प्रभाव है। नरसी का एक भजन बहुत लोकप्रिय है। इसका उपयोग महात्मा गाँधी किया करते थे-
वैष्णवजण तो तेणे कहिए जो पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे॥
सकल लोकमां सहुने वंदे, निन्दा न करे केणी रे।
वाच काछ मन निश्चल राखे धन-धन जननी तेणी रे॥
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेणे मात रे।
जिल्ह्य थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे॥
मोह माया व्यापे नहिं जेणे, दृढ़ वैराग्य जेणा मनमां रे ।
रामनाम शुं ताली लागी सकल तीरथ तेणा पैनमां रे॥
वर्णलोभी न कपट रहित छे, काम-क्रोध निवार्या रे ।
भणे नरसैयो तेजूँ दरसन करता कुल एकोतेर तार्या रे॥
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि जूनागढ़ के नागर ब्राह्मणों के नेता सारंगधर थे। वे दिल के बड़े कुटिल और स्वार्थी थे। नरसी के स्वभाव, सज्जनता तथा चमत्कारों से प्रभावित होकर लोग उनके प्रति श्रद्धा ज्ञापन करते थे। इससे सारंगधर का महत्त्व घटता जा रहा था। नरसी में एक विशेषता यह थी कि वे गुजराती समाज के ढेड़ (हरिजन) लोगों से प्रेम करते थे। उन्हें गले लगाते थे। उनके द्वारा आयोजित भजन-कीर्तन में शामिल होते थे। नरसी को जातिच्युत करने पर भी सारंगधर को कोई सफलता नहीं मिली। इससे बढ़कर उसने एक षड़यंत्र किया।
एक वेश्या को प्रलोभन देकर फुसलाया उससे कहा गया कि किसी प्रकार नरसी जी के चरित्र पर कलंक का दोष लगाओ चंचला नामक उस कुलटा ने भक्त का रूप धारण किया करताल बजाती हुई कृष्ण नाम जपने लगी। इस वैष्णवी को देखकर नरसी ने पूछा "आप कहाँ की रहनेवाली हैं? इधर कहाँ जा रही है?"
चंचला ने कहा "मेरा निवास स्थान प्रभास है। इस समय द्वारिका में अवताररूपी श्रीकृष्ण का दर्शन करने जा रही हूँ। लोगों की जबानी सुना कि आप भी श्रीकृष्ण प्रेमी हैं, इसलिए आपसे मिलने चली आयी।" यह बात सुनकर नरसी गद्गद हो उठे। चंचला ने गौर से नरसी को देखा। गदराये हुए शरीर का आलिंगन करने के लिए वह व्याकुल हो उठी। दिन के बाद रात्रि का आगमन हुआ। संध्या-आरती के पश्चात् प्रसाद लेकर सभी लोग घर चले गये। मंदिर का वातावरण सुनसान हो गया। केवल चंचला और नरसी रह गये। आधी रात को वैष्णवी पोशाक बदलकर अप्सरा के रूप में चंचला नरसी के सामने प्रकट हुई। नरसी विस्मय से उस कुलटा को देखते रह गये। उन्हें चकित रूप में देखते देख वह बोली "मैं आपका मनोहर रूप देखकर मोहित हो गयी हूँ। मुझे रति-सुख देकर मेरी अभिलाषा पूर्ण करें।" कहती हुई वह इनके पास आयी। नरसी घबराकर पीछे हटते हुए बोले "सुभगे, तुम वैष्णवी हो, तीर्थयात्रा के लिए निकली हो। कई घंटों के भीतर तुममें यह कैसा परिवर्तन हो गया? तुम देवी से दानवी बन गयी। न जाने कितने जन्मों के बाद तुम्हें यह मानव तन मिला है। क्षणिक सुख के लिए मैं नरकगामी नहीं होना चाहता अच्छा होगा कि तुम अपने घर चली जाओ।" इस तरह देर तक नरसी उसे समझाते रहे। उनके प्रबोध वचनों का प्रभाव कुलटा पर पड़ा। उसकी कामवासना कर्पूर की तरह उड़ गयी तुरंत नरसी के चरणों पर गिरकर अपने दुष्कर्मों के लिए क्षमा माँगने लगी।
प्रश्न करने पर उस कुलटा ने सारंगधर के षड़यंत्र का पर्दाफाश कर दिया। कई दिनों बाद लोगों ने देखा चंचला ने वेश्यावृत्ति त्यागकर तपस्विनी का रूप धारण कर लिया है। अब नित्य मंदिर में जाकर भजन गाती है। अपनी असफलता पर सारंगधर जल भुन गये। एक दिन वे कहीं से आ रहे थे तभी उन्हें साँप ने काट लिया। उन्हें भगवान् के भक्त को परेशान करने का दण्ड मिल गया। उनके चीखने चिल्लाने पर आसपास के लोग दौड़ आये घर के लोग आकर रोने लगे। ओझा वैद्य को बुलाया गया, पर कोई लाभ नहीं हो रहा था। नरसी के एक भक्त ने कहा "हमारे नरसी भक्त तो चमत्कार करते हैं। एक बार उन्हें बुला लो। शायद उनके श्रीकृष्ण सारंगधर को बचा लें।" लोग नरसी के यहाँ दौड़े। नरसी भक्त समदर्शी थे। वे किसी को अपना शत्रु नहीं मानते थे। वे तुरंत आये और सारंगधर के मुँह में श्रीकृष्ण का चरणामृत उड़ेलकर भजन गाने लगे। थोड़ी देर बाद विष का प्रभाव घटने लगा और सारंगधर को पुनर्जन्म प्राप्त हुआ। नरसी भक्त के जीवन में ऐसे अनेक चमत्कार हुए हैं। इन सभी चमत्कारों के पीछे उनके प्रभु श्रीकृष्ण सहायता करते रहे।
योग एक प्रक्रिया है, उसमें साधना-तपस्या करनी पड़ती है। नाम जपना एक दुर्लभ मार्ग है। नाम जपकर डाकू वाल्मीकि महर्षि वाल्मीकि हो गये। उच्चकोटि के संत हमेशा लोगों को नाम जपने की सलाह देते हैं। एक दिन नरसी ने अपने प्रभु के निकट निवेदन किया कि भगवन् अब मुझे अपने चरणों में स्थान दें। कब तक मैं आपको कष्ट देता रहूँगा। सन् १४८७ ई० में भक्त नरसिंह जी परलोकवासी हो गये।