संत साईं बाबा Praveen kumrawat द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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संत साईं बाबा

आपा-पर सब दूरि करि, रामनाम रस लागि।
दादू औसर जात है, जागि सके तो जागि।। —सन्त दादू

सन्त चरित्र के चिंतन और स्मरण की अलौकिकता-दिव्यता भवसागर से पार उतरने की तरणी है। सन्त चरण की एक धूलि कणिका कोटि-कोटि गंगा से भी नही तौली जा सकती है। जिस प्राणी पर सन्त की कृपा-दृष्टि अनायास पड़ जाती है। उसके जन्म-जन्मान्तर के पापो का क्षय हो जाता है, पुण्य की समृद्धि बड़ जाती है। साईं बाबा एक ऐसे ही सन्त थे जिन्होने अभी कुछ ही समय पहले पृथ्वी पर उतरकर अपनी अलौकिक चरित्रलीला, विमल चरणधूलि-कणिका और दिव्य कृपा से असंख्य प्राणियों को परमात्मा का प्रकाश प्रदान किया। आत्मतत्व का साक्षात्कार कराया और अध्यात्म राज्य की स्थापना की। जिस समय भारत अपनी स्वाधीनता की पहली लड़ाई अग्रेजी शक्ति के विरुद्ध लड़ रहा था, बिठूर, झाँसी, लखनऊ और दिल्ली तथा बरेली में स्वदेशी सैनिक शक्ति स्वधर्म, स्वदेश और स्वराज्य के लिये नानासाहब, महारानी लक्ष्मीबाई, हजरत महल, बहादुरशाह और बखत खान की अध्यक्षता में अग्रेजो को लोहे के चने चबवा रही थी, उस समय साईं बाबा का एक बहुत बड़े जनसमूह को सत्य, शान्ति और प्रेम का सन्देश देने के लिये, भगवद्भक्ति और आत्मज्ञान से सम्पन्न करने के लिये प्राकट्य हुआ। उन्होने शुद्ध आध्यात्मिक शक्ति का विजय-केतन फहराया। सत्य, शान्ति और तप ही उनके अस्त्र-शस्त्र थे।
अपने अनुयायियों में वे दत्तात्रेय के अवतार के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे सदा त्याग के उच्चातिउच्च शिखर पर ही निवास करते थे। महादानी थे, दिन में जो कुछ भी मिलता था उसे साधु-सन्तो और असहाय तथा दीन-दुखियो की सेवा में लगा कर दूसरे दिन फिर महाभिक्षुक के रूप में दीख पड़ते थे।

हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सबके सब उनमें श्रद्धा रखते थे और उनके चरणधूल-कण से पवित्र होने में अपना सौभाग्य मानते थे। ऋद्धि-सिद्धि सदा उनके पैर चूमती थी। पर वे कभी उनकी ओर तनिक भी ध्यान नही देते थे। सदा सहज समाधि में निमन्न रहकर परमात्मा का स्मरण करते रहना ही उनका जीवन बन गया था काम, कामिनी और कांचन तीनो पर उन्होने पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। वे सत्य तत्व के परम ज्ञाता थे, दार्शनिक संत थे। परम पवित्र भगवती गोदावरी नदी के तट पर, अहमदनगर जनपद के पथरी ग्राम में सम्वत् १९१३ वि. मे एक ब्राह्मण कुल मे संत साईबाबा ने जन्म लिया था। दैवयोग से पालन-पोषण के लिये उनको एक फकीर के हाथ में सौंप दिया गया। बाल्यावस्था से ही वे बडे विनम्र, कोमल और मधुर स्वभाव के थे। उन्हें देखकर लोग कह पड़ते थे कि भविष्य में ये बहुत बड़े महात्मा होगे। सन्त का बचपन भी दिव्य और चमत्कारपूर्ण होता है। साई बाबा के गुरु का नाम वेंकुसा कहा जाता है। बाल्यावस्था में वे अपने गुरु के साथ चावडी में निवास कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उनकी सेवा करते थे। उनकी दृढ मान्यता थी कि गुरु में श्रद्धा और विश्वास रखने से समस्त पाप मिट जाते है। वे कहा करते थे कि ब्रह्म मेरा पिता है, माया मेरी माता है तथा जगत् ही मेरा म है। गुरु के समाधि लेने पर साईं ने अज्ञातवास का निश्चय किया, उस समय उनकी अवस्था केवल सोलह साल की थी। उन दिनो शिरडी में देवदास नाम के एक साधु की बडी प्रतिद्धि थी। चाँदभाई के साथ बड़े आग्रह के बाद वे शिरडी आकर महात्मा देवदास के साथ रहने लगे। साईं का रूप देखकर लोग उनकी ओर आकृष्ट हो गये। उनकी प्रसिद्धि सुन कर दूर-दूर से संत जन उनका दर्शन करने के लिये आने लगे। नित्य प्रति सत्संग होने लगा । शिरडी ने सन्त साईं बाबा के निवास से भक्ति और ज्ञान तथा प्रेम की गंगा, सरस्वती और कालिन्दी का संगम उतर आया। वातावरण आध्यात्मिक दिव्यता से परिपूर्ण हो उठा। वे 'शिरडी के संत' के नाम ने प्रसिद्ध हो गए।

शिरडी में साईंबाबा तप करने लगे। शिरडी आगमन के सम्बन्ध में एक विशेष घटना का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। चावड़ी मे गुरु समाधिस्थ होने पर साईं बाबा ने अज्ञातवास का व्रत लिया था। धुपकेड़ा ग्राम के पटेल चाँदभाई का घोडा दो माह से अदृश्य था, उसका कहीं भी पता नहीं लग रहा था। योग से चांदभाई को साईं बाबा ने बतला दिया कि घोड़ा अमुक स्थान पर मिलेगा। उनकी बात ठीक निकली, उन्होने इसी प्रकार कुछ और चमत्कार दिखाये, चांदभाई उनके चमत्कार से मुग्ध हो गये और बाबा को शिरडी ले आये। साईं बाबा शिरडी में एक मसजिद में रहकर भगवान का भजन करने लगे। मसजिद का नाम उन्होने द्वारिकामाई रखा था, वे भिक्षा से भोजन का प्रबन्ध करते थे, भिक्षा मांगना तथा दिनभर मसजिद के सामने आम के वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान का भजन करना ही उनका काम था। वे दाढी रखते थे, चीथडे पहनते थे। त्यागवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते थे। दिन-प्रतिदिन सत्संगियों और दर्शको की भीड़ बढ़ती गयी। उनकी धूनी की राख पाते ही बीमार अच्छे हो जाते थे, असहाय और गरीबो की दरिद्रता दूर हो जाती थी। इस प्रकार उनका प्रताप चारो ओर बड़ने लगा। शिरडी तथा अड़ोस पड़ोस के लोग उन्हे सनकी और पागल समझते थे। पर साईं बाबा अबाध गति से अपनी आत्मसाधना और भगवद् भजन में तल्लीन रहते थे। एक दिन की विचित्र घटना से शिरडी वाले उनके चरणो पर नत होकर उनके सत्यसन्देश के दूत बन गये। दीपक जलाने के लिये तेल नही था। बाबा ने तेल माँगा तो शिरडी के निवासियो ने देना अस्वीकार कर दिया। साईं बाबा ने तेल के बदले पानी से चिराग जलाया और शिरडी के नागरिको को आश्चर्यचकित होना पड़ा। चिराग पानी के सहारे रातभर जलता रहा। दूसरे दिन प्रात: काल मसजिद में बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हो गयी। लोगो ने बाबा के चरण में मस्तक नत कर क्षमा-याचना की, कहा कि महाराज, हमें आप की शक्ति का तनिक भी पता नही था। आप संत शिरोमणि हैं, आप के प्रति अपराध कर हम लोगो ने महापाप किया है, हम आप के शरणागत है, हमें अपना लीजिये। बाबा मन्द-मन्द मुसकराने लगे, उनके नयनो से शीतल कृपा की ज्योति निकलने लगी। बाबा ने अपने प्रेमियों और भक्तो को शिक्षा दी कि अपने-अपने धर्म के अनुकूल आचरण कर भगवान के भजन में निरंतर लगे रहना ही क्षणभंगुर संसार में जन्म लेने का पुण्यफल है। भागवत शास्त्र में बाबा की बड़ी अनुरक्ति थी, वे अपने बहुत से अनुयायियों को भागवत तथा अन्य भक्तिपरक शास्त्र पढ़ने का समय-समय पर आदेश देते रहते थे। वे मसजिद में एकान्त में योगाभ्यास किया करते थे। उन्होने बहुत दिनों तक देह से अलग रहने का अभ्यास किया। विशेष अवसरो पर साईं बाबा अपनी यौगिक सिद्धि से लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया करते थे। बीमारों को 'हरि हरि' उच्चारण का आदेश दिया करते थे और स्मरणीय बात तो यह है कि ऐसा करने से बड़ी से बड़ी बीमारी चली जाती थी और 'हरि हरि' उच्चारण करने वाले पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाते थे।

जल तत्व पर साईं बाबा का पूरा-पूरा नियन्त्रण था। अपनी सिद्धि के बल से वे बड़ी से बड़ी जलवृष्टि को रोक देते थे। एक बार शिरडी में जोर की जल-वृष्टि होने लगी, हवा बड़े वेग से चलने लगी, और बिजली के कड़कने और चमकने से लोगों का धैर्य नौ-दो-ग्यारह होने लगा। लोग थरथर कापने लगे। बाबा उस समय मसजिद में ही थे। लोगो ने सोचा कि बाबा के शरणागत होने पर ही प्राण की रक्षा हो सकेगी। वे पशुओ को साथ लेकर मसजिद में पहुँच गये। बाबा से प्रार्थना की “महाराज, हमारे प्राणो की रक्षा कीजिये।” सन्त तो सहज ही कृपालु होते हैं। साईं बाबा से लोगो का दुख न देखा गया। वे मसजिद से बाहर आकर खड़े हो गये, आसमान की ओर देखने लगे। थोड़ी ही देर में बाबा की कृपा-दृष्टि से जलवृष्टि बन्द हो गयी। लोग 'साईं बाबा की जय' बोलते-बोलते अपने-अपने घर आये।

भक्तों को उपदेश देने के अलावा बाबा कभी-कभी कहते थे—“मेरे प्रिय भक्तों, आप कहीं भी हों, कुछ भी करते रहें, पर एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि मैं आपकी सभी भली-बुरी घटनाओं पर नजर रखता हूँ। मुझसे कुछ छिपता नहीं। विश्व की रंगभूमि पर परदा खींचने‌वाला मैं एक निमित्त मात्र सामान्य मनुष्य हूँ। मेरे हाथों में यह मायापटल दूर करने की ईश्वरदत्त शक्ति है।"
साईं बाबा के इस कथन का प्रमाण उनके भक्तों को यदाकदा मिल जाता था।

‌‌ एक बार एक व्यक्ति के साथ शिरडी में एक डॉक्टर आये। उस व्यक्ति ने डॉक्टर महोदय को बाबा की महिमा बतायी और दर्शन के लिये चलने का आग्रह किया। डॉक्टर ब्राह्मण थे, वे ब्राह्मणोचित आचार, विचार से रहते थे। उन्होने बाबा के पास जाकर उनके पैरो पर पड़ना अस्वीकार कर दिया। उनको उस व्यक्ति ने बताया कि बाबा न तो किसी व्यक्ति को पैर पकड़ने का आदेश देते है और न उनकी ऐसी इच्छा ही है कि कोई पैर पकड़े। डॉक्टर साहब राम के कट्टर भक्त थे, साथ ही छुआछूत का विचार भी उनमें था। यहाँ आते समय वे यह निश्चय करके आये थे कि उनकी मस्जिद के भीतर नहीं जायेंगे और न उनके दिये प्रसाद को ग्रहण करेंगे। सैर करके वापस चले आयेंगे। उनके इस विचार को सुनकर मित्र महोदय ने कहा "जैसी आपकी इच्छा।" मित्र महोदय डॉक्टर को लेकर द्वारकामाई आये। मित्र तो बाबा के भक्त थे उन्होंने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम करने के बाद जब वे उठे तो देखा कि डॉक्टर साहब भी साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं। यह दृश्य देखकर वे दंग रह गये। बाद में उन्होंने डॉक्टर से पूछा कि “कहिये, आप तो मस्जिद में जाने वाले नहीं थे। और प्रणाम का नाटक क्यों किया?" डॉक्टर ने कहा “मस्जिद के दरवाजे के पास खड़े होकर जब मैंने बाबा को देखा तब उनके स्थान पर मैंने अपने प्रभु श्रीराम को देखा ऐसी हालत में बिना प्रणाम किये कैसे रहता? धन्य हो, साईनाथ बाबा। मुझे क्षमा कर दो। आज मेरे मन का अहंकार दूर हो गया।”

साकोरी के सन्त उपासनी महाराज पर साईं बाबा की बड़ी कृपा थी। ऐसा लगता है कि उपासनी महाराज ने साईं बाबा की सेवा के ही लिये जन्म लिया था और साईं बाबा ने पूर्ण अखण्ड अध्यात्म ज्ञान और भगवद् भक्ति से उपासनी महाराज को सम्पन्न करने के ही लिये शिरडी में तपस्या की थी। उपासनी महाराज ने शिरडी में आकर बाबा का दर्शन किया पर उनका मन एक मुसलिम सन्त के संरक्षण में रहने के लिये प्रस्तुत नहीं था। उन्होंने बाबा से कहा कि मैं जाना चाहता हूँ, बाबा ने प्रसन्नतापूर्वक जाने की आज्ञा दे दी पर साथ-ही-साथ यह भी कहा कि तुम आठ दिनो के बाद चले आना। उपासनी महाराज लौट कर शिरडी नही जाना चाहते थे पर उनके मन को कोई आन्तरिक शक्ति नियत समय पर शिरडी पहुंचने के लिये प्रेरित कर रही थी। बाबा की योग-शक्ति ने उनको अपने चरणो में उपस्थित होने के लिये विवश किया। साईं बाबा ने उनके शिरडी पहुँचने पर आज्ञा दी कि तुम श्मशान भूमि के निकट खण्डोबा मन्दिर में निवास कर साधना करते रहो, आत्मसाक्षात्कार में चार साल का समय लगेगा, उसके बाद तुम सिद्ध महात्मा हो जाओगे। उपासनी महाराज ने गुरु की आज्ञा का पालन किया। वे शिरडी में खण्डोबा के जीर्ण-शीर्ण प्राचीन मन्दिर में निवास कर एकान्त में तप करने लगे और चार साल के बाद एक बहुत बड़े महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हुए। साईंबाबा ने उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया।

उपासनी महाराज की खण्डोबा मन्दिर के निवास काल में कई बार साईं बाबा ने परीक्षा ली थी। उन्होने उपासनी महाराज को बताया कि गुरु और ईश्वर दोनो अभेद है, अभिन्न हैं, गुरु के चरणो में श्रद्धा और विश्वास रखने पर ईश्वर की कृपा और भक्ति मिलती है।

एक बार खण्डोबा मन्दिर से उपासनी महाराज मसजिद - द्वारकामाई में अपने गुरुदेव से मिलने गये। साईं बाबा चिलम पीते थे, उन्होने उपासनी महाराज को चिलम पीने का आदेश दिया और पूछा कि क्या तुम्हारे पास मन्दिर मे कोई जाता है ? महाराज ने 'नहीं' उत्तर दिया। 'अच्छा, तो मैं एक दिन आऊँगा। क्या तुम मुझे चिलम पिलाओगे?" साईं ने कहा। उपासनी मन्दिर में चले गये। उन्होने भोजन बनाया और थाली मे रखकर अपने गुरुदेव को समर्पित करने के लिये द्वारिका माई की ओर चल पडे। मन्दिर के निकट एक काला कुत्ता था। उपासनी महाराज ने सोचा था कि पहले गुरुदेव को भोजन दे आऊँ, उसके बाद कुत्ते को खिला दूँगा। पर रास्ते में उनका मन बदल गया। वे मन्दिर की ओर जाना चाहते थे पर कुत्ता अदृश्य हो गया।
बाबा ने कहा, “तुम धूप में क्यों आ गये? मैं तो मन्दिर के सामने ही प्रतीक्षा कर रहा था।” उपासनी महाराज को कुत्ते वाली बात स्मरण हो आई, वे पछताने लगे।
“मैं कुत्ते के वेश में तुम्हारी परीक्षा ले रहा था।” बाबा ने समाधान किया।

दूसरे दिन उपासनी महाराज ने मसजिद में बाबा के पास भोजन ले जाते समय मन्दिर के निकट एक शूद्र भिखारी को देखा पर पहचान न सके कि साईं बाबा उनकी परीक्षा के लिये उपस्थित है। बाबा ने बताया कि शूद्र के वेष में मैं ही प्रतीक्षा कर रहा था। 'घट-घट में एक ही परमात्मा का निवास है, प्राणीमात्र में आत्मानुभूति ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन है।' उन्होने कहा कि 'कण-कण में मेरी आत्मा की ही चेतनसत्ता परिव्याप्त है। इसका अनुभव करना ही परमात्मा का भजन है।' बाबा अपने शिष्यो और सत्संगियों से कहा करते थे कि जो मसजिद द्वारिका माई की सीढी पर पैर रख देता है वह मेरे ही समान है, मुझमें और उसमे कुछ भी भेद नहीं रह जाता है। मेरे पास आने वाले को जो दुःख देता है वह मुझे ही दुःख देता है, उन्हे जो सुख पहुंचाता है वह मुझे ही सुख देता है।

एक बार बाबा भक्तों से घिरे बैठे थे। द्वारकामाई भवन में एक दीवार पर एक छिपकली आवाज करने लगी। सहसा एक भक्त के मन में यह शंका उत्पन्न हुई। जिस प्रकार कुत्ते, बिल्ली, सियार के रोने से मुसीबतें आती हैं उसी प्रकार छिपकली का चिल्लाना अपशकुन है। उसने अपने मन की शंका प्रकटकर बाबा से प्रश्न किया “बाबा, यह छिपकली क्या कह रही है?"
बाबा ने कहा "अरे भाई, इसकी बहन औरंगाबाद से यहाँ इससे मिलने के लिए आ रही है, इसीलिए यह आनन्द से विभोर होकर खुशी मना रही है।"
इस उत्तर को सुनकर बेचारा भक्त चुप हो गया। भला छिपकली को कैसे मालूम हो गया कि उसकी बहन औरंगाबाद से यहाँ आ रही है। औरंगाबाद क्या पास में है? इस तरह के प्रश्न उसके मन में उठते रहे। बाद में सोचा “शायद बाबा ने परिहास किया है।”
थोड़ी देर बाद ताँगे पर सवार एक भक्त बाबा का दर्शन करने औरंगाबाद से आया। अपने थके हुए घोड़े को चारा खिलाने के लिए ताँगेवाले ने चने का बोरा जमीन पर उड़ेलकर झटका। उसमें से एक छिपकली निकली और तेजी से सामने की दीवार पर चढ़ गई। इसके बाद दोनों छिपकलियाँ खुशी से दौड़-धूप करने लगीं। यह दृश्य देखकर प्रश्नकर्ता भक्त ही नहीं, सभी लोग आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता प्रकट करने लगे।
हमारे साईं बाबा कितने दूरदर्शी हैं, यह समझते उन्हें देर नहीं लगी।
मानव-स्वभाव बड़ा विचित्र है। कोई अर्थ के पीछे परेशान रहता है तो कोई रोग-शोक के पीछे। ऐसी ही परेशानी में कभी-कभी लोगों के मन में वैराग्य की भावना उत्पन्न हो जाती है और निरुद्देश्य घर से निकल पड़ता है। ऐसी घटनाएँ अनेक लोगों के जीवन में होती हैं। ऐसे लोगों में योग्य व्यक्ति को सन्त अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
बालाराम मानकर की मानसिक स्थिति खराब हो गई थी। उन्हें अपनी पत्नी से बेहद प्यार था। सहसा उसके निधन से वे इतने उद्विग्न हो उठे कि सब कुछ छोड़कर शिरडी में बाबा के पास आ गये। बाबा अन्तर्यामी थे। उन्हें रहस्य समझते देर नहीं लगी।
एक दिन बाबा ने बालाराम को बारह रुपये देते हुए कहा “मच्छिन्दरगढ़ चले जाओ।" बालाराम बाबा का सान्निध्य छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। बाबा ने देर तक उसे काफी समझाया। उनके प्रबोध-वचन का प्रभाव पड़ा। साथ ही उसे यह बताया कि वहाँ जाकर योग की साधना करो। योग की साधना कैसे करनी चाहिए, इसकी जानकारी दी, ताकि वे इस दिशा में सफलता प्राप्त कर सकें।
अन्त में बाबा के आज्ञानुसार वे मच्छिन्दरगढ़ आकर बाबा की बतायी प्रक्रिया के अनुसार साधना करने लगे। ऐसे भक्तों को गुरु सूक्ष्म रूप में प्रकट होकर अन्य क्रियाएँ बताते हैं। बाबा प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होकर कभी-कभी निर्देश देते रहे।
अन्त में एक दिन बालाराम ने पूछा "जब आप नित्य दर्शन देते हैं तब मुझे यहाँ क्यों भेजा? मैं आपके चरणों के पास रहकर सारी जानकारी प्राप्त कर लेता। आपको इस तरह कष्ट नहीं करना पड़ता।"
बाबा ने कहा “शिरडी में भक्तों के कोलाहल में तुम अपने मन को एकाग्र न कर पाते। साधना के लिए शान्त परिवेश की आवश्यकता होती है। यही वजह है कि मैंने यहाँ तुम्हें भेजा, ताकि तुम्हारी उद्विग्रता दूर हो जाय। केवल यह सोचना कि मैं शिरडी में ही सशरीर रहता हूँ, यह मन का भ्रम है। अब तुम स्वयं देख रहे हो कि मैं यहाँ उपस्थित हूँ। जब भी तुम्हें कोई कठिनाई होगी तब मैं स्वयं उपस्थित होकर तुम्हारी परेशानी दूर कर दूँगा। मेरी बतायी प्रक्रिया का निरन्तर अभ्यास करो।"
इतना कहकर साईं बाबा अदृश्य हो गये। यहाँ भी वे द्विशरीरी रूप में प्रकट हुए थे। मच्छिन्दरगढ़ में एक अर्से तक साधना करने के बाद बाबा के आज्ञानुसार बालाराम घर की ओर रवाना हुआ। पूना स्टेशन पर अपार भीड़ थी। फलस्वरूप उन्हें लाइन में खड़े होकर प्रतीक्षा करनी पड़ी। इतने में एक आदमी उनके पास आया और बोला “शायद आप दादर जा रहे हैं। मेरे पास दादर तक का टिकट है। मैं इसी गाड़ी से जानेवाला था, पर एक आवश्यक कार्य आ जाने के कारण मैं जा नहीं पाऊँगा। आपको जरूरत हो तो टिकट ले लीजिए।” बालाराम ने टिकट लेकर देखा, फिर जेब से मनीबैग निकालकर किराया देने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह व्यक्ति न जाने कहाँ गायब हो गया था। चारों ओर नजर दौड़ाने पर भी वह नहीं मिला। इस घटना को बाबा की कृपा मानकर उन्होंने बाबा का स्मरण करते हुए प्रणाम किया।

साई बाबा अपने अनुयायियों पर समान रूप से कृपा-दृष्टि रखते थे, विश्व-प्रेम और लोक-कल्याण की सीख देते थे। सत्यानुराग ओर लोक कल्याण उनके उपदेशो में भरे पड़े है। उनके सिद्धान्त और भगवतचिंतन की पद्धति अत्यन्त रहस्यपूर्ण है, उनके विचारों को समझना अमित कठिन है, उनकी कृपा से ही उनकी बातें समझ में आती हैं तो आ जाती है, उनके अनुयायियो ने उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने में तत्परता दिखायी। साईंबाबा अखण्ड जाग्रत, पूर्ण सावधान तथा अविकल रूप से प्रेम मग्न होकर भगवान के भजन में लगे रहते थे। भगवन्नाम में उनकी बडी आस्था थी । सत्य-स्वरूप परमेश्वर के नाम में श्रद्धा अभिव्यक्त कर उन्होने संतमत की सनातन परम्परा अक्षुण्ण रखी। 'ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है' इस वेदान्तप्रतिपाद्य सत्य को उन्होंने अपने जीवन में सम्पूर्ण रूप से चरितार्थ किया। उन्होंने सच्चिदानंद की अनुभूति की। सदाचार पर साईं बाबा विशेष जोर देते थे, सदाचार को आत्म साधना अथवा भगवान की उपासना का वे बहुत बड़ा अंग स्वीकार करते थे।

मुसलमान उन्हें उच्च कोटि का औलिया और हिन्दू महान संत मानकर उनकी पूजा करते थे। वे कहा करते थे कि भिन्न भिन्न धर्मों के प्रति सदा नम्रता का भाव रखना चाहिये। समस्त विश्व ही उनके शरीर के लिये एक मन्दिर था। वे भक्तो के दुख अपने-आप भोग लिया करते थे। भक्त और शिष्य उनसे दर्शन देने की प्रार्थना करते तो बाबा कहा करते थे कि मैं तो तुम्हारे ही दर्शन से ईश्वर की कृपा से कृतार्थ हो गया। बाबा को अन्नपूर्णा की सिद्धि थी। वे वाक्सिद्ध महात्मा थे।

शिरडी में ही बाबा अन्तिम समय तक रहे। विजयादशमी उनके जीवन की अन्तिम तिथि थी। सम्वत् १९७५ वि. में अद्वैतावस्था में स्वरूपगत ब्रह्म का चिंतन करते हुए उन्होने परम गति प्राप्त की। समाधिस्य होने के बाद भी विशेष भक्तो को वे सदेह दर्शन देते रहते हैं और कुसमय में उनकी सहायता करते रहते है। साईं बाबा परदुःखभंजन थे। वे निरपेक्ष और निष्पक्ष सन्त थे। शिरडी में हजारों की संख्या में उनके अनुयायी और भक्त लोग प्रत्येक दशहरा और दीवाली को एकत्र होकर बाबा की समाधि पर श्रद्धाञ्जलि समर्पित करते हैं।

((रचना))
'साईं वाक्सुधा' में उनके अनेक उपदेश और वचन संग्रहीत हैं।

((वाणी))
★. रात-दिन ईश्वर का नाम लेते रहना ही सब से बड़ी साधना है। नाम रत्न को पाने वालो ने सदा उसे छिपा कर ही रखा।

★. बुद्धि से ईश्वर को पहचानना चाहिये। ईश्वर ही गरीबो के रक्षक हैं, उनके सिवा गरीबो का दूसरा कोई है ही नही।

★. जिस प्रकार ईश्वर रखते हैं उसी प्रकार रहना चाहिये। भले की भलाई भले के पास और बुरे की बुराई बुरे के पास रहती है।

★. एक बार सद्गुरु के हाथ में जीवन की डोरी सौंप देने पर चिंता की बात नही रह जाती है। सब कुछ ईश्वर ही ईश्वर है।

★. गरीबी-दैन्य बादशाही है। गरीबो के भाई भगवान हैं–ऐसा मेरा वचन हैं।