छुटकी दीदी - 16 Madhukant द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

छुटकी दीदी - 16

- 16 -

चौथे दिन सलोनी ने डॉक्टर भाटिया से फ़ोन पर बात की, ‘डॉक्टर साहब, हमारी रिपोर्ट आ गई क्या?’

‘आ गई, बेटा।’

‘तो क्या हम लेने आ जाएँ?’

‘तुम कहाँ से आती हो, बेटी?’

‘पश्चिम विहार से।’

‘देखो, आना चाहो तो कभी भी आ जाओ, परन्तु मेरा क्लीनिक रोहिणी में है। तुम चाहो तो वहाँ भी आ सकती हो। वहाँ भी तुम्हें कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा।’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है डॉक्टर साहब। क्या हम आज ही आपके क्लीनिक पर आ सकते हैं?’

‘ठीक है, शाम को आ जाना, मैं तुम्हारी रिपोर्ट ले आऊँगा।’

सलोनी का एक बार मन हुआ कि माँ को साथ ले चलूँ … परन्तु यदि रिपोर्ट पॉज़िटिव हुई तो माँ को बहुत दुख होगा, इसलिए उसने अकेले ही डॉक्टर भाटिया के पास जाने का निश्चय किया।

साढ़े पाँच बजे वह क्लीनिक पहुँची तो डॉक्टर भाटिया अन्दर बैठे थे। शायद उन्होंने शीशे में से सलोनी को देख लिया था। अन्दर से घंटी की आवाज़ आई तो नर्स तुरन्त अन्दर चली गई।

‘उस लड़की को अन्दर भेज दे,’ कहते हुए डॉक्टर भाटिया उसकी रिपोर्ट निकालने लगे। सलोनी डॉक्टर भाटिया के सामने कुर्सी पर जा बैठी। 

‘तुम्हारे साथ कोई नहीं आया?’ डॉक्टर भाटिया ने आश्चर्य जताया।

‘आप चिंता ना करें, डॉक्टर साहब। आप हमें सच-सच बता दें, हमारा दिल बहुत मज़बूत है।’

‘तो सुनो सलोनी, तुम्हें कैंसर है दूसरी स्टेज का। सब सावधानी रखते हुए ठीक से इलाज कराओगी तो तुम ठीक हो सकती हो, परन्तु इसमें विलम्ब नहीं करना। थोड़ा-सा भी और बढ़ गया तो सँभालना कठिन हो जाएगा।’

‘जी डॉक्टर साहब। आप हमें एक दिन सोचने का समय दें, फिर हम आपके पास आते हैं,’ कहते हुए सलोनी क्लीनिक से बाहर आ गई।

एक क्षण में सारे सपने चूर-चूर हो गए। सारे रास्ते बंद हो गए। कोलकाता में उसकी सहेली की भाभी को कैंसर हो गया था। कितना उपचार कराया …. कीमोथीरेपी कराते समय कैसे दर्द से तड़पती थी … सूखकर काँटा हो गई थी …. सिर के बाल झड़ गए थे … शरीर की त्वचा सूखकर काली पड़ गई थी … लाखों रुपया खर्च किया, फिर भी वह बची नहीं। हे भगवान! यह कैसा रोग दे दिया … ना जी सकते हैं ना मर सकते … ऑटो में बैठी सलोनी यही विचार कर रही थी कि माँ को बताया जाए या नहीं। बताऊँगी तो माँ चिंता में कहीं बिस्तर ना पकड़ ले और ना बताया तो इसका इलाज कैसे होगा? इसमें तो आश्रम में जाकर स्वामी जी की सहायता लेनी पड़ेगी। इसलिए माँ को तो बताना ही पड़ेगा। इस निश्चय के साथ सलोनी ऑटो से उतरकर चुपचाप अपने फ़्लैट में चली गई। 

सुकांत बाबू का फ़ोन भी दो बार आ चुका था, लेकिन सलोनी ने उठाया नहीं था। फ़ोन पर भी क्या बात करती! यह सब तो उन्हें बता ही नहीं सकती और आजकल सबसे गंभीर मसला यही चल रहा है। दूसरा विचार तो कुछ सूझता ही नहीं। अब तक सुकांत बाबू को अपनी शर्तों पर बांधे रखा। उन्होंने हमारे सारे अनुबंध स्वीकार किए। भागदौड़ करके नौकरी भी इधर ढूँढ ली। उनसे मिलने का समय आया तो समय ने अंगूठा दिखा दिया … परन्तु हम भी क्या करें … बहुत मजबूर हैं … बहुत सोचा था … अब जीने का आनन्द आएगा … लेकिन यह क्या …. जब भाग्य में कुछ नहीं है तो मिलेगा कैसे?

बनर्जी मैम का फ़ोन आया, ‘सलोनी, क्या आज तुम डॉक्टर के पास गई थी, क्या बताया उन्होंने?’

‘हमारा शक ठीक निकला, कैंसर दूसरी स्टेज तक पहुँच गया है। जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा।’

‘माँ को बताया?’

‘अभी तक तो नहीं, सुनकर टूट जाएँगी।’

‘सलोनी, माँ को बताए बिना इलाज कैसे होगा?’

‘सोचती हूँ कि एक-आध दिन में माहौल बनाकर माँ को बताऊँ।’

‘हाँ, यह ठीक रहेगा, लेकिन देरी मत करना। …. सुकांत बाबू का फ़ोन आया था। कह रहा था कि सलोनी मेरा फ़ोन नहीं उठा रही।’

‘दीदी, फ़ोन उठाकर क्या बात करूँगी, समझ में नहीं आ रहा, इसीलिए नहीं उठाया। … उन्हें देने के लिए अब हमारे पास रहा ही क्या है?’ कहते हुए सलोनी सुबकने लगी।

‘सलोनी, धीरज धरो। एक बात कहूँ? … तुमने ‘आनन्द’ फ़िल्म देखी है?’

‘हाँ दीदी, देखी है।’

‘तो राजेश खन्ना बन जा। जीवन के जितने दिन भी शेष हैं, उनको आनन्द में बदल ले। चल खड़ी हो और अब अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीना आरम्भ कर दे। अपने आप को व्यस्त कर ले। इस बीमारी को भुलाने का यही एक रास्ता है। … अधिकांश रोगी तो अपनी बीमारी की चिंता में ही घुलकर मर जाते हैं। …’ बनर्जी मैम ने समझाया।

‘समझ नहीं आ रहा, क्या बताऊँ … किसको बताऊँ, किसको ना बताऊँ?’

‘हँसते-हँसते सबको बता दे। अपने लोग, परिवार के लोग इसीलिए तो होते हैं कि परेशानी के समय हमारे साथ खड़े हो जाएँ। कल स्कूल आ जा, वहाँ तुम्हें और समझाऊँगी। …. हौसला तो करना पड़ेगा, सलोनी। कल स्कूल अवश्य आना। दोनों मिलकर इस समस्या का हल निकाल लेंगे। आज विज्ञान ने बहुत आविष्कार कर लिए हैं, असम्भव को भी सम्भव बना दिया है। घहरा मत, मैं तुम्हें स्वस्थ देखना चाहती हूँ।’

‘दीदी, आपसे बातें करके हमें हौसला मिला है। आपका धन्यवाद। कल स्कूल आती हूँ।’

सलोनी ने उठकर पानी पिया। कमरे की लाइट बंद की और सोने का उपक्रम करने लगी। 

…….

परिवार के सब लोगों को जल्दी उठने की आदत है। सबसे पहले ज्योत्सना उठती, पानी की मोटर चलाती, दो कप चाय बनाती …. किचन में बर्तनों की खटर-पटर सुनकर सलोनी उठकर मंजन करके चाय पीने के लिए माँ के पास आ जाती।

चाय पीते हुए माँ ने सलोनी को बताया, ‘सीताराम भाई ने तुम्हारे लिए एक रिश्ता बताया है। लड़का सरकारी नौकरी में है। विकासपुरी में उनका अपना फ़्लैट है … तू कहे तो बात आगे बढ़ाऊँ?’

‘अभी तो कुछ दिनों के लिए कुछ ना करो, हम किसी और काम में व्यस्त हैं।’

‘तुमसे एक बात और करनी है। यदि तुझे कोई और लड़का पसन्द है तो बता देना। तेरी ख़ुशी में ही हमारी ख़ुशी है।’

‘प्लीज़ माँ, दो दिन के लिए इस विषय को मत उठाओ,’ कहते हुए सलोनी चाय का अंतिम घूँट लेकर उठ गई।

‘ठीक है बेटी, जैसी तेरी इच्छा, दो दिन बाद सही।’

मास का अंतिम दिवस होने के कारण आज स्कूल में बच्चे नहीं आए थे। सभी अध्यापकों को अपना शेष काम निपटाना, मासिक रजिस्टर पूरा करना व छात्रों की प्रॉब्लम दूर करना होता है। सलोनी अपना रजिस्टर उठाकर बनर्जी मैम के कमरे में चली गई। 

‘आओ सलोनी, अब कैसा अनुभव कर रही हो?’ बनर्जी मैम ने उसका स्वागत किया।

‘सच तो यह है दीदी, ना तो हम अपनी बीमारी किसी के साथ साझा कर पा रहे हैं, ना ही किसी को बता पा रहे हैं।’

‘बताना तो पड़ेगा ही। कब तक छुपाओगी? आख़िर इलाज भी कराना है। माँ को तो बताना ही पड़ेगा। रही बात सुकांत बाबू की तो उनको मैं अपने ढंग से बता देती हूँ। यूँ फ़ोन बंद करके कब तक बैठी रहोगी?’

‘जैसी आपकी इच्छा।’ 

अनमने भाव से सलोनी ने स्वीकृति दे दी तो बनर्जी मैम ने सुकांत बाबू का फ़ोन लगा लिया।

‘नमस्ते मैम, आप लोगों का फ़ोन नहीं लग रहा था, इसलिए मुझे बहुत चिंता हो रही थी।’

‘देखो सुकांत बाबू, कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनको कहने के लिए और सुनने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है। सलोनी अभी तक वह हिम्मत जुटा नहीं पा रही थी और उसे शंका थी कि आप भी शायद सुनने की हिम्मत ना कर पाएँ।’

‘ऐसी क्या बात है जो हम एक-दूसरे से कह-सुन नहीं सकते?’

‘ध्यान और धैर्य से सुनना सुकांत बाबू … कल डॉक्टर ने सलोनी को कैंसर बताया है। यह बात तुम्हें बताने का साहस सलोनी नहीं कर पाई, इसीलिए उसने तुम्हारी कॉल अटेंड नहीं कीं।’

‘दीदी, आज सलोनी स्कूल में है क्या?’

‘हाँ, मेरे पास ही बैठी है।’

‘एक बार बात कराओ तो!’

‘लो,’ बनर्जी मैम फ़ोन सलोनी को देकर बाहर निकल गई।

सुकांत बाबू को चाहे सुनकर झटका लगा था, फिर भी उसने स्वयं को सँभालते हुए कहा, ‘सलोनी, इतनी-सी बात पर हिम्मत हार गई!’

सलोनी कुछ जवाब न दे पाई और सुबकने लगी।

‘घबराओ नहीं सलोनी, … मैं हूँ ना तुम्हारे साथ। तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा… अच्छे-से-अच्छा इलाज करवाऊँगा… सब ठीक हो जाएगा … हम जीवन को ख़ुशियों से भर देंगे।’

‘सुकांत बाबू, आप राख के ढेर में चिंगारी खोज रहे हैं …आपको देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं बचा, हमें भूल जाओ … अब कहीं और मन लगा लो … शादी कर लो।’

‘मेरे प्यार पर भरोसा नहीं तुम्हें? … इतनी जल्दी हिम्मत हार गई … इस जन्म में तो मैं तुम्हें भूल नहीं सकता, अगले की कौन जाने! … तुम्हारा शरीर रोगी हुआ है … आत्मा तो एकदम निर्मल है … सलोनी, मैंने तुम्हारी आत्मा से प्यार किया है … तुम चिंता ना करो, मैं तुम्हें इतना प्यार करूँगा … तुम्हारे सारे रोग दूर हो जाएँगे..’ सुकांत बाबू ने आगे कहा, ‘सलोनी प्लीज़, अपना फ़ोन बंद मत करना … तुमसे बातें नहीं कर पाऊँगा तो मेरी जान निकल जाएगी … बोलो, मुझसे बातें करोगी ना?’

‘करूँगी, ..’ सुबकते हुए उसने फ़ोन बंद कर दिया। इन सब बातों से ध्यान हटाने के लिए उसने आँखें पोंछीं और अपना रजिस्टर पूरा करने लगी। 

स्कूल से घर लौटी तो माँ खाने के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। 

‘सलोनी बेटे, चेंज करके हाथ-मुँह धोकर आ जा। तब तक मैं खाना लगाती हूँ।’

दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया। सलोनी ने बेमन से केवल एक रोटी खाई।

‘सलोनी, कुछ दिनों से देख रही हूँ, तुझे भूख बहुत कम लगती है … कोई परेशानी है क्या बेटा? स्कूल में तो कोई परेशानी नहीं है?’

‘नहीं माँ, स्कूल में सब ठीक है। असल में, हमारी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।’

माँ कई दिनों से देख रही थी, सदा हँसती खिलखिलाती रहने वाली सलोनी का चेहरा बुझा-बुझा सा रहता है, लेकिन उसकी पूछने की हिम्मत नहीं हुई थी। आज जब सलोनी ने तबीयत का ज़िक्र किया तो उससे पूछे बिना न रहा गया।

‘तेरी तबीयत को अचानक क्या हो गया?’

अब बताए बिना कोई चारा न था। सलोनी ने बिना लाग-लपेट के कह दिया, ‘माँ, मुझे कैंसर है..।’

ज्योत्सना को सुनकर झटका लगा, लेकिन वह अपनी मनोदशा सलोनी के सामने प्रकट नहीं करना चाहती थी, सो उसने कहा, ‘कैंसर हो तेरे दुश्मनों को, तुझे किसी ने बहका दिया होगा!’

‘नहीं माँ, हमने डॉक्टर से चेक कराया है,’ सलोनी ने निरपेक्ष भाव से कहा।

‘हे भगवान, अब क्या होगा! … कैसे होगा तेरा ब्याह … तेरी दादी को कैंसर था … पता नहीं, तुझे कैसे इस बीमारी ने पकड़ लिया …!’ माँ का चेहरा पीला पड़ गया। 

अब सलोनी को खुद के साथ माँ को भी सँभालना था। उसने हिम्मत बांधकर कहा, ‘माँ, तुम चिंता ना करो। हम जल्दी ठीक हो जाएँगे और फिर अपनी माँ की पूरी सेवा करेंगे।’

‘दूसरों की सेवा करती रही … अपने बारे में कभी नहीं सोचा …।’ माँ की आँखें भर आईं, ‘सलोनी बेटा, भगवान ने क्या कर दिया तेरे साथ!’

‘घबराओ मत माँ … दोनों मिलकर इस परेशानी से लड़ेंगे तो सब ठीक हो जाएगा,’ खाने के बर्तन उठाकर माँ रसोई में रखने गई तो सलोनी अपने कमरे में आ गई।

माँ और सुकांत बाबू को यह समाचार सुनाकर वह अपने आप को कुछ स्वस्थ अनुभव कर रही थी। दो दिन से अकेली इस बोझ को उठाए थी, अब कई व्यक्ति उसके साथ खड़े हो गए तो उसका हौसला बढ़ गया। 

माँ की चिंता दूर नहीं हुई थी। सायं को सलोनी टीवी देख रही थी तो माँ ने उसके पास आकर पूछा, ‘सलोनी, डॉक्टर ने क्या कहा है, मुझे अच्छे से बता।’

टीवी बंद करके सलोनी बताने लगी, ‘कैंसर है, दूसरी स्टेज है। जल्दी ऑपरेशन कराना पड़ेगा, नहीं तो बीमारी अधिक बढ़ सकती है।’

‘फिर तो हमें देर नहीं करनी। कल से इलाज चालू करो। हम बहुत खो चुके हैं, जो बचा है, उसे तो सँभालने की कोशिश करनी चाहिए। कल ही स्वामी जी के आश्रम में चलते हैं..।’

ज्योत्सना के प्रति स्वामी जी का विशेष स्नेह था। माँ-बेटी को पूजा गृह में बिठाकर उन्होंने पूजा-अर्चना कराई, फिर अपने कार्यालय में आ गए, ‘डॉक्टर भाटिया ने मुझे सब बता दिया है। जितना जल्दी हो सके, ऑपरेशन कराना पड़ेगा।’

संयोग से डॉक्टर भाटिया भी वहीं आ गए, ‘सलोनी, चिंता करने की बात नहीं है। तुम एक बार हॉस्पिटल में दाखिल हो जाओ, फिर तो फटाफट तुम्हारा इलाज करके घर भेजेंगे।’

‘डॉक्टर साहब, हमें कितने दिन का अवकाश लेना पड़ेगा?’

‘लगभग एक मास का।’

दिल्ली लौटने के बाद बनर्जी मैम को फ़ोन पर सब बातें बता दीं। प्रिंसिपल मैडम से भी बात कर ली और एक मास के लिए मेडिकल अवकाश का प्रार्थना पत्र भिजवा दिया।

*****