छुटकी दीदी - 17 Madhukant द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

छुटकी दीदी - 17

- 17 -

रात को ही ज्योत्सना ने सभी आवश्यक सामान बैग में रख लिया। उसने अब अपने आप को मज़बूत कर लिया था। उसकी समझ में आ गया था कि मैं कमजोर पड़ गई तो बेचारी सलोनी का क्या होगा। इसलिए उसने अपने आप को मज़बूत कर लिया। लड़की का काम है, इसलिए उसने अधिक लोगों को बताना भी ठीक नहीं समझा। कल को विवाह भी करना है। इसलिए सुबह होते ही ज्योत्सना सलोनी को लेकर आश्रम में आ गई।

वैसे तो ‘कालीधाम आश्रम’ में बने हॉस्पिटल में सब उपचार नि:शुल्क था, फिर भी दान से एकत्रित चंदे के धन का उपयोग नहीं करना चाहिए, सोचकर माँ ने बीस हज़ार रुपए आश्रम में जमा करवा दिए।

ऑपरेशन हो गया। सफल रहा, परन्तु सलोनी के शरीर में कमजोरी बहुत आ गई। खाने का चम्मच उठाते हुए भी उसके हाथ काँपने लगे। दो दिन तक तो ज्योत्सना ने ही उसे अपने हाथ से खाना खिलाया। दो दिन आईसीयू में रहने के बाद उसे कमरे में भेज दिया गया। यहाँ वह फ़ोन कर सकती थी। सबसे पहला फ़ोन उसने बनर्जी मैम को किया।

‘कैसी हो सलोनी?’

‘वैसे तो सब ठीक है दीदी, लेकिन कमजोरी बहुत है।’

‘अरे, इतना बड़ा ऑपरेशन हुआ है, कमजोरी तो होगी ही! अब सब ठीक हो जाएगा। सलोनी, जीवन में परेशानियाँ तो आती हैं, प्रत्येक इंसान के जीवन में आती हैं। बस ईश्वर से एक ही प्रार्थना करनी चाहिए कि कठिनाई के वक़्त हौसला बने रहे। हौसला बना रहा तो कोई भी कठिनाई हमें पराजित नहीं कर सकती।’

‘सच कहती हो, दीदी।’

‘सलोनी, एक फ़ोन सुकांत बाबू को भी कर लेना। तुम्हारा हाल-चाल जानने के लिए उसके कई फ़ोन आ चुके हैं।’

‘कर लूँगी, दीदी।’

‘अच्छा तो ठीक है, हँसते रहो। जल्दी से स्वस्थ होकर घर आ जाओ, फिर मिलने आती हूँ।’

‘अच्छा दीदी।’ दोनों ओर से फ़ोन बंद हो गए।

प्रतिदिन चार से पाँच बजे तक स्वामी जी कथा करते हैं। माँ शायद वहीं गई होगी। निश्चिंत होकर सलोनी ने सुकांत बाबू को फ़ोन लगा लिया।

‘हैलो सलोनी, कैसी हो?’

‘अब ठीक हूँ, आप कैसे हैं?’

‘मुझे क्या हुआ है, मुझे तो बस तुम्हारी चिंता लगी रहती है। मैं तो भगवान से प्रार्थना करता रहता हूँ, तुम्हारी ये परेशानियाँ, दुख-दर्द सब मुझे दे दें।’

‘नहीं, सुकांत बाबू नहीं, बल्कि आपके सब दुख-दर्द मेरे हिस्से में आ जाएँ तो उन्हें हँसकर स्वीकार कर लूँगी। दुख-दर्द सहन करने की शक्ति पुरुष की अपेक्षा नारी में अधिक होती है।’

‘सलोनी, तुम जल्दी से ठीक हो जाओ। अगले सप्ताह मैं कॉलेज ज्वाइन कर रहा हूँ। तुमसे मिलने आऊँगा।’

‘अच्छी बात है, डॉक्टर ने कम बोलने के लिए कहा है। अब रखती हूँ। ओ.के.।’

‘तुम्हारे शीघ्र स्वस्थ होने के लिए मंगलकामनाएँ।’

माँ कथा से लौट आई। उन्होंने बताया, कल हमें छुट्टी मिल जाएगी। सुनकर सलोनी को बहुत अच्छा लगा और संतोष भी हुआ। पहली बार हॉस्पिटल में रहना पड़ रहा था, इसलिए सलोनी चाहती थी कि जल्दी से छुट्टी मिल जाए।

…….

सलोनी माँ के साथ घर लौट आई। कमरे में घूमना, समय-समय पर दवाइयाँ लेना, इसके अतिरिक्त कोई काम नहीं था। रविवार को बनर्जी मैम ने आने के लिए पूछा तो सलोनी ने उन्हें एक स्वेटर की ऊन तथा सिलाइयाँ लाने के लिए कह दिया। 

‘किसके लिए स्वेटर बनाना है?’ बनर्जी मैम ने उपहास करते हुए पूछा।

‘दीदी, आपको तो पता ही है। आपसे कभी कुछ छुपाया है जो अब छुपाऊँगी।’

‘ठीक है। मैं ऊन और सिलाइयों का जोड़ा ले आऊँगी।’

तभी सिमरन आ गई। गणित सीखने के लिए आ जाती है। पढ़ाई भी कर लेती है और छोटे-मोटे काम भी कर देती है। माँ को सहारा हो जाता है।

‘लाओ दीदी, आज आपके सिर में तेल लगा देती हूँ।’

उसे अधिकांश वस्तुओं का पता-ठिकाना मालूम था, इसलिए वह फटाफट अलमारी से तेल की शीशी उठा लाई।

सलोनी की स्वीकृति उसने स्वयं ही मान ली थी। वह अधिकार पूर्वक कुर्सी लेकर बैठ गई तो सलोनी को बेड से उठकर उसके सामने बैठना पड़ा।

‘दीदी, इस वर्ष मेरी प्लस टू हो जाएगी। भगवान ने चाहा तो नंबर भी अच्छे आ जाएँगे। फिर भी पापा मुझे कॉलेज नहीं भेजना चाहते।’

‘क्यों?’

‘कहते हैं कि कॉलेज में जाकर बिगड़ जाऊँगी।’

‘देखो सिमरन, प्रत्येक पिता अपने बच्चों को योग्य और बड़ा बनाना चाहता है। बच्चे का दोष यह होता है कि वह अपने पिता का विश्वास नहीं जीत पाता। जिस पिता को अपने बच्चे पर पूर्ण विश्वास होता है, वह कभी भी अपने बच्चे की तरक़्क़ी में बाधा नहीं बनेगा बल्कि वह सहयोगी बनेगा।’

‘लेकिन दीदी …।’

‘सिमरन, कोई भी बच्चा अपनी ग़लतियों को स्वीकार नहीं करता। यदि उसे यह मालूम पड़ जाए कि वह कहाँ गलती पर है तो शायद वह उस भूल से बच सकता है। कोशिश करके अपने पापा का विश्वास जीतो, फिर कुछ कमी रह गई तो हम उनसे बात कर लेंगे, परन्तु पहले कोशिश तुम्हें करनी पड़ेगी।’

‘दीदी, आप ना, सब बातें बहुत अच्छे से समझा देती हैं,’ सिमरन ने सलोनी की सलाह स्वीकार कर ली।

‘सिमरन, तू हमारी छोटी बहन जैसी है। तेरे लिए अवश्य कोशिश करूँगी। असल में, आजकल पारिवारिक ढाँचा बिगड़ता जा रहा है। बालक यह नहीं समझता कि पढ़ाई करने में, परिश्रम करने में, उसी के जीवन का विकास हो रहा है। वह सोचता है कि अभिभावक जो पढ़ाई पर बल दे रहे हैं, यह उनके काम आएँगे। बहुत समय बाद में उसे समझ आती है, लेकिन तब तक समय बीत चुका होता है।’

‘विश्वास करना दीदी, आज से मैं दुगना परिश्रम करूँगी। प्लस टू का रिज़ल्ट देखकर आपका भी मुझ पर पूरा भरोसा जम जाएगा।’

‘अच्छी बात है सिमरन। यदि तुमने इस कक्षा में अच्छा रैंक प्राप्त कर लिया तो हम तुम्हें बहुत अच्छा पुरस्कार देंगे।’

‘क्या दीदी?’

‘यह तो सरप्राइज़ रहने दो। हम जब भी घर पर हों, तुम नि:संकोच चली आया करो।’

‘धन्यवाद दीदी।’

कई दिन बाद सिर में तेल लगा तो सलोनी मानसिक तथा शारीरिक दोनों रूप से कुछ स्वस्थ अनुभव करने लगी।

…….

सलोनी को प्रत्येक सप्ताह कीमो कराने के लिए हॉस्पिटल जाना पड़ता। हर बार वहाँ कैंसर के रोगियों को देखती तो परेशान होकर घर लौटती।

एक रोगी तीन ऑपरेशनों के बाद भी ठीक नहीं हुआ।

एक महिला के सारे बाल झड़ गए, चेहरा कोयले जैसा काला हो गया। आँखें अन्दर को धँस गईं। उसके चेहरे की ओर देखकर भी भय लगने लगता।

एक महिला ने घर बेचकर इलाज कराया, फिर भी वह ठीक नहीं हो रही थी, इसलिए उसने एक दिन अपनी छत से कूदकर आत्महत्या कर ली।

प्रत्येक कैंसर के रोगी की भयानक पीड़ा थी। सलोनी ने लोगों की बातें सुननी बंद कर दीं। परन्तु एक बात का उसे यक़ीन हो गया कि कैंसर एक भयानक रोग है, बहुत अच्छी क़िस्मत वाले कुछ लोग ही ठीक होते हैं। 

अपने घर के सदस्यों पर उसने नज़र दौड़ाई तो … दादी चली गई, नाना चले गए ..। इस बीमारी से शायद पुरानी पीढ़ी में और लोग भी चले गए होंगे! पहले लोग कैंसर की इस बीमारी को जानते कहाँ थे। 

अब इस जीवन से … सपनों से … मोह नहीं पालना चाहिए। हम किसी को कुछ दे नहीं सकते, सिवाय परेशानियों के …. कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा।

स्वेटर को बुनना उसने बंद किया। … पता नहीं, कितने दिन का जीवन है? अब तो इसे लोक-कल्याण में लगा देना चाहिए। … एक दृढ़ निश्चय के साथ सलोनी स्वामी जी के सामने प्रस्तुत हुई,  ‘प्रणाम स्वामी जी।’

‘सलोनी बेटे, कैसी हो?’

‘आपकी अनुकंपा से अच्छी हो रही हूँ। स्वामी जी, हम अपने ख़ाली समय में हॉस्पिटल में सेवा करना चाहते हैं।’

‘कितनी भी सेवा कर लेना। यह हॉस्पिटल आप लोगों का ही है, परन्तु पहले पूर्ण स्वस्थ हो जाओ।’

‘स्वामी जी, कल से हम स्कूल जाने लगेंगे, परन्तु प्रत्येक छुट्टी के दिन हम यहाँ सेवा करने आएँगे। कैंसर के रोगियों की सेवा भी हो जाएगी और आपका आशीर्वाद भी मिलता रहेगा।’

‘देख लेना, जैसी तुम्हारी इच्छा,’ कहते हुए स्वामी जी ने सलोनी के दोनों हाथों में प्रसाद रख दिया।

सायं को सुकांत बाबू का फ़ोन आया, लगातार दो बार घंटी बजी, परन्तु सलोनी ने उसे उठाया नहीं। उसके दिल और दिमाग़ में लड़ाई चल रही थी और लड़ाई में दिल पराजित हो गया।

अपने कठोर निर्णय को बताने के लिए सलोनी ने बनर्जी मैम को फ़ोन लगाया। उनका फ़ोन एंगेज था। पाँच मिनट बाद स्वयं उनका फ़ोन आ गया।

‘सलोनी, जब तुमने कॉल की थी, उस समय सुकांत बाबू से बात हो रही थी। वह शिकायत कर रहा था कि तुम उसका फ़ोन नहीं उठाती। इसलिए वह परेशान था। आख़िर तुम उसके फ़ोन का जवाब क्यों नहीं देती?’

‘हमने जानबूझकर नहीं उठाया।’

‘वही तो मैं पूछ रही हूँ। क्यों तुम उससे बात नहीं करती? क्यों प्यार में लाभ-हानि की सोचती हो?’

‘दीदी, प्यार में समर्पण का बहुत अर्थ है। जब हमारा समर्पण चूक जाए तो फिर प्यार करने का अधिकार भी कहाँ रहता है …!’

‘एकदम से कैसे चुक गया तुम्हारा समर्पण?’

‘जब से हमारा ज़िन्दगी से भरोसा उठ गया है।’

‘एकदम ऐसा कैसे हो गया, सलोनी?’ उसकी बातें सुनकर बनर्जी मैम दंग रह गई … ‘इतनी हताश, निराश सलोनी की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी।’

‘जिनसे हमने प्यार किया हो, उन्हें झूठे सपनों में क्यों बाँधा जाए। … दीदी, आप सुकांत बाबू को अच्छे से समझा देना। हमें फ़ोन ना करें … ना ही मिलने की कोशिश करें … अपना जीवनसाथी स्वयं चुन लें … शादी रचा लें …. इस राख के ढेर में कुछ टटोलकर हमारी मिट्टी ख़राब ना करें …. आज तक हम चैन से जी तो नहीं पाए, परन्तु हमें चैन से मरने तो दें। … दीदी, हम नहीं चाहते कि प्रेम  के बंधन में बंधी आत्मा मुक्त ही ना हो पाए और हम मरणोपरान्त यहीं भटकते रहें।’

‘सलोनी, इससे आगे एक शब्द भी मत बोलना। तुम्हारा ऑपरेशन ठीक हो गया है। समय की बात है, तुम बिल्कुल स्वस्थ हो जाओगी। … रविवार को मैं तुम्हारे घर आऊँगी, तब तुम्हारी क्लास लगाऊँगी,’ प्यार से धमकाते हुए बनर्जी मैम ने फ़ोन रखना चाहा तो सलोनी ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘दीदी, ऑपरेशन चाहे ठीक हो गया है, किन्तु हमने हॉस्पिटल में देखा है, रोगियों को कुछ समय बाद फिर यह बीमारी घेर लेती है, इसलिए अब हमने बाक़ी जीवन रोगियों की सेवा को समर्पित कर दिया है।’

‘मिलकर बात करती हूँ।

…….

शनिवार को जब बनर्जी मैम का फ़ोन आया, तब तक सलोनी स्वामी जी के आश्रम में पहुँच चुकी थी।

‘नमस्ते दीदी,’ हॉस्पिटल से बाहर आकर सलोनी बोली।

‘कहाँ हो सलोनी, आज मैं तुम्हारे पास आना चाहती हूँ?’

‘दीदी, आज तो हम हॉस्पिटल आए हुए हैं।’

‘क्यों, अचानक क्या हुआ?’

‘दीदी, आपको बताया था ना कि हमने बाक़ी का जीवन रोगियों की सेवा को समर्पित कर दिया है।’

‘अरे सलोनी, पहले स्वयं तो पूर्ण रूप से स्वस्थ हो लो, फिर खूब सेवा कर लेना।’

‘दीदी, इन रोगियों की सेवा करके, इनके साथ हँस-बोल लेने से बहुत सुख मिलता है। इनसे स्नेह से मिलो, इनकी छोटी-छोटी आवश्यकताएँ पूरी कर दो, इनसे बहुत आशीर्वाद मिलता है। हमने अपनी छुट्टियों को इनकी सेवा में लगाने का अंतिम निर्णय कर लिया है। सारी ज़िन्दगी अपने लिए जीते रहे, अब अंतिम दिनों में तो कुछ परमार्थ कर लें।’

‘चुप कर सलोनी,’ प्यार से डाँटते हुए बनर्जी मैम ने कहा, ‘जैसे कि मैं सलोनी के बारे में कुछ जानती ही नहीं! बचपन में नानी का हाथ थामा। आए दिन बहन और उसके बच्चों के लिए कुछ-ना-कुछ भेजती रहती हो। अब माँ के लिए जी रही हो। क्या मुझे मालूम नहीं कि तुमने विवाह के लिए ऐसी शर्त लगा दी थी कि शादी उस व्यक्ति के साथ करूँगी जो मेरे साथ मिलकर मेरी माँ और नानी दोनों को सँभाल सके।’

‘दीदी, अपनों के लिए तो सब करते हैं, परन्तु परेशान अजनबियों के चेहरे पर एक मुस्कान ला पाती हूँ तो मन को बहुत सुख मिलता है।’

‘सलोनी, आज मैं तुम्हारे साथ बैठकर सुकांत बाबू को लाइन पर लेना चाहती हूँ।’

‘प्लीज़ दीदी, आप अपने तरीक़े से उन्हें समझा देना। कैसे भी वे हमें भूल जाएँ तो अच्छा होगा।’

‘तुम्हारे स्वेटर के बुने एक-एक फंदे में उसकी स्मृतियाँ अंकित हैं। सलोनी, क्या तू उसे भूल पाएगी?’

‘दीदी, हमने आश्रम के बराबर बहती नदी में अधूरे स्वेटर को प्रवाहित कर दिया है। धीरे-धीरे सुकांत बाबू की मधुर स्मृतियों को भी भूलने का प्रयास कर रही हूँ।’

‘क्या यह तुम्हारा अंतिम निर्णय है?’

‘हाँ दीदी, हमारी ओर से उनसे क्षमा माँग लेना।’

‘ठीक है सलोनी। करो सेवा अपने रोगियों की। रोगी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’

‘जी दीदी, प्रणाम।’

आश्रम में जबसे आने लगी है, तब से सलोनी सबको प्रणाम बोलने लगी है।

आज सलोनी आश्रम में आई तो उसकी गाड़ी फलों से भरी हुई थी। प्रत्येक कैरेट में से दो-दो फल निकालकर उसने स्वामी जी को अर्पित किए, ‘स्वामी जी, ये फल हॉस्पिटल के रोगियों के लिए हैं।’

स्वामी जी ने एक-एक फल रखकर बाक़ी लौटा दिए। सलोनी ने प्रसाद में मिले फलों को सब में मिला दिया। फल वितरण के लिए स्वामी जी हॉस्पिटल में आए। सभी रोगियों के लिए नाश्ता वितरण के लिए तैयार था। स्वामी जी के साथ आकर सलोनी ने सब रोगियों को फल बाँटे।

एक महिला रोगी ने पूछा, ‘बेटी छुटकी, आज कौन-सा त्योहार है जो फल बाँट रही हो?’

इस सवाल पूछने का कारण यह था कि प्रायः किसी-न-किसी त्योहार पर ही फल वितरण होता था। सलोनी को अचानक कुछ नहीं सूझा तो यूँ ही बोल दिया, ‘आज हमारे हॉस्पिटल का जन्मदिन है।’

‘अरे वाह! जुग-जुग जिए स्वामी जी का हॉस्पिटल।’

स्वामी जी भी सलोनी की वाक्पटुता पर मुस्कुरा दिए।

*****