प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 8
(अंतिम भाग)
उसने मेरे इस स्पष्टीकरण को सुनने लायक भी नहीं समझा कि, मैं तो आगे बढ़ा ही नहीं था, उसने ही मुझे खींच कर गिरा लिया था खुद पर. ऐसे में मैं क्या करता? मैं क्या, कोई भी मर्द उस स्थिति में खुद को संभाल ही नहीं सकता था.
कोर्ट में खुर्राट से खुर्राट न्याय-मूर्तियों को भी अपनी बात सुना कर ही मानने वाला, मैं घर में पत्नी के कठोर ऑर्डर-ऑर्डर वाले हथौड़े की भारी-भरकम चोट से कुचल कर शांत हो गया. वह मुझे अपनी छाया के पास भी फटकने नहीं दे रही थी.
घर में छिट-पुट रंग के धब्बे मुझे बता रहे थे कि, मेरी चिंता, प्रतीक्षा में बच्चों ने भी ठीक से त्यौहार नहीं मनाया था. मैं आपसे सच कहता हूँ कि, अपने इस कुकृत्य पर बहुत शर्मिंदा हूँ, जीवन भर मुझे इसका पछतावा रहेगा.''
मैं वकील साहब की बातों को सुनते हुए बहुत ही सूक्ष्मता से उनके चेहरे को पढ़ रहा था. जहाँ उनके पछतावे का विवरण बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित था. मैंने उनसे कहा, '' आप बहुत भाग्यशाली हैं कि, आपकी पत्नी ने बात यहीं खत्म कर दी, अन्यथा यह घर भी तोड़ सकती थी. लेकिन यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि, इतनी जल्दी आपने स्थिति को सामान्य बना लिया, पत्नी के साथ घूम रहे हैं.''
'' हाँ, लेकिन इसके लिए मुझे बड़े पापड़ नहीं, कुन्तलों पापड़ बेलने पड़े. लेकिन फिर भी कुछ समय बाद, जब बात करने लगी, तो बात-बात पर ताने मारना नहीं भूलती कि, 'वह बेवकूफ थी. उसे तो आपके सारे कपड़े भी ले जाने चाहिए थे. जिससे घर या तो मोगली (रुपयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध पुस्तक ' द जंगल बुक ' का मुख्य पात्र. भारत में इसके कार्टून सीरियल के लिए प्रसिद्ध गीतकार गुलज़ार द्वारा मोगली के लिए लिखा गीत ' चड्ढी पहन के फूल खिला है...काफी समय तक लोगों की जुबान पर था. यह बच्चा जंगल में पशु-पक्षियों, जानवरों के बीच कोपीन [लंगोटी] ही पहन कर रहता था.) बन कर आते या फिर उसी का पेटीकोट, धोती, ब्लाउज पहन कर. जो आपकी इस जर्नी को खास बनाती रही, और ढेर सारे नुकीले फांस की तरह जीवन-भर के लिए मेरे दिमाग में भी धंस गई है.'
उसके ऐसे तानों को शांतिपूर्वक सुनने के सिवा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए मैं सिर झुकाए एक चुप हज़ार चुप हो सुनता रहता हूँ. मुझमें उस समय इतना भी आत्म-बल नहीं रह जाता कि उसकी तरफ देख भी सकूँ….
वकील साहब इसके आगे भी उसके बारे में बहुत सी बातें बताते रहे. बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा कि, '' मेरी चारित्रिक दुर्बलता के कारण ही है वह मुझे खुले आम लूटने में सफल हुई. इसी कारण पत्नी के मन में मेरी गंदी तस्वीर भी हमेशा के लिए बन गई है.''
यह कहते हुए वह बड़े गंभीर हो गए. उन्होंने सामने गिलास में रखा पानी उठा कर पी लिया तो मैंने कहा,'' हम चारित्रिक रूप से कितने सुदृढ़ हैं, इसकी वास्तविक परीक्षा ऐसे ही विशेष क्षणों में होती है.
ऐसे क्षणों में ही हमारी सबसे कठिन और अंतिम परीक्षा होती है. इसमें भी हमारा स्वयं पर नियंत्रण बना रहे, मन में किसी तरह की कोई उथल-पुथल, कोई अंतर्द्वद्द भी न पैदा हो, तभी यह समझना चाहिए कि हम चारित्रिक रूप से सुदृढ़ हैं. हम उत्कृष्ट चरित्र के हैं.''
यह सुनकर वकील साहब मुझे गौर से देखने लगे. यह स्वाभाविक भी था. क्योंकि मेरी बातों का सीधा सा तात्पर्य यह था कि वो चरित्र परीक्षण की सबसे बड़ी परीक्षा में बुरी तरह असफल हुए हैं. उन्हें शून्य भी नहीं बल्कि माइनस में अंक मिले हैं.
उनके चेहरे पर उभरती हताशा-निराशा की रेखाओं को देख कर मैंने सोचा कि इनकी आत्म-ग्लानि कहीं इनके लिए किसी बड़े कष्ट का कारण न बन जाए, इसलिए इन्हें थोड़ा सपोर्ट मिलना ही चाहिए. यह इसके अधिकारी भी हैं. क्योंकि सारी गलती इन्हीं की नहीं है.
इनकी इस बात को मानना ही होगा कि शुरुआत उसी ने की थी. उसी ने इन्हें स्वयं पर खींच लिया तो आखिर ये और क्या कर सकते थे. इनकी बातों को दरकिनार कर इन्हीं को पूर्णतः दोषी ठहराना अन्याय है.
वह कुछ राहत महसूस कर सकें, उनपर से कुंठा, आत्म-ग्लानि का बोझ कुछ कम हो यह सोच कर मैंने उनसे कहा,'' देखिये जो हो गया उसे बदला नहीं जा सकता. आपसे जो गलती हुई, या आपने की, देखा जाए तो प्रकृति न्याय व्यवस्था ने बिना एक क्षण व्यर्थ गवाएं तत्तकाल आपको सजा भी दे दी.
अपने प्राणों को हथेली पर रख कर जो धन आपने अर्जित किया था, वह तत्तकाल आपसे छीन लिया. और फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्त्री प्रकृति की सबसे रहस्यमयी वह अनूठी रचना है, जिसके समक्ष विश्वामित्र हों या रावण सब नतमष्तक हुए हैं.
जब वह काम-बयार चलाती है तो बड़ी से बड़ी गहरी नींव, ग्रेनाइट पत्थरों सी मजबूती वाले चारित्रिक स्तम्भ भी तिनकों से उखड़ कर हवा हो जाते हैं. ऐसे में हम आप जैसों का स्थान क्या है? यह समझना बड़ा ही आसान सा काम है.
इसलिए जो हुआ उसे भूल कर जीवन को बेहतर बनाने के प्रयास में नई स्फूर्ति के साथ जुट जाइये. कवि गिरधर ने भी तो कहा है,' बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ. जो बनि आवे सहज में, ताही में चित देइ.''
ऐसी तमाम बातों से मैंने उनके सिर पर से आत्म-ग्लानि का बोझ कम करने का प्रयास किया. इस घंटों चली बात-चीत के बीच खाने का समय हो गया. मिसेज़ ने हमें बात-चीत रोक कर खाने के लिए बुला लिया. उसने कई तरह के ख़ास व्यंजन बनाए थे. वकील साहब की मिसेज़ ने किचेन में उसकी मदद की थी.
खाने-पीने के बाद जब-तक वकील साहब ने बिदा ली, तब-तक मेरे मन में उनके व्यक्तित्व चरित्र को लेकर तमाम प्रश्न खड़े हो चुके थे. मन में उनकी पूर्व की अच्छी सी तस्वीर विकृत होती दिख रही थी. उनको लेकर मेरा विश्वास डगमगा रहा था.
जब वह मेरे सामने बैठे खाना खा रहे थे, तब मेरी गुप्त दृष्टि बराबर उनकी आँखों पर थी. मैं देख रहा था कि कहीं उनकी दूषित दृष्टि मेरी पत्नी के उन अंगों पर तो नहीं फिसल रही है, जिन अंगों को देख कर ट्रेन में उस महिला के साथ मिल कर इतना निकृष्टम कुकृत्य कर आए हैं.
पत्नी ने साड़ी ब्लाऊज भी ऐसी पहन रखी है कि आधी से अधिक छाती ,पीठ, पेट साड़ी के ऊपर से भी झलक रहें हैं. कंपनियों को ऐसे सेमी ट्रांसपेरेंट कपड़े नहीं बनाने चाहिए. मैंने बड़ी राहत महसूस की, कि जाने तक उनकी दृष्टि एक बार भी पत्नी कि तरफ नहीं उठी थी. हाँ एक अजीब सा संकोच उनके चेहरे पर बराबर बना हुआ था. जो मुझे उसके पहले कभी नहीं दिखा था.
उनके जाने के बाद मैं कई दिनों तक बार-बार यह सोचता रहा कि क्या अब भी वकील साहब का घर आना-जाना पूर्वत जारी रखना चाहिए या नहीं. मिसेज़ से क्या यह कहूँ कि उनके आने पर सामने नहीं आओ या फिर ऐसे कपड़े पहनों कि...बड़ा सोचने-विचारने के बाद मुझे लगा कि यह सब करने की कोई आवश्यकता नहीं.
केवल एक घटना के आधार पर उनके पिछले उजले रिकॉर्ड को पूर्णतः धो देना सर्वथा अनुचित, अन्यायपूर्ण होगा. और मिसेज़ से भी ऐसा कुछ कहना गलत है. उसे पूरा अधिकार है यह तय करने का कि उसे क्या, कैसे पहनना है.
यदि किसी भी स्त्री के, किसी भी अंग पर दृष्टि जाने से किसी की भावना, कुभावना में परिवर्तित होती है तो यह समस्या उसकी है. समाधान वही ढूंढ़े. उनकी समस्या के समाधन के लिए स्त्री अपनी इच्छाओं, भावनाओं को क्यों तिरोहित करे….
तो प्रिय पाठकों यह मेरे पहले मित्र वकील साहब के साथ घटी घटना है. जो इस उपन्यास को लिखे जाने से करीब दो दशक पूर्व घटी थी. जिसके आधार पर लिखे गए इस उपन्यास का शीर्षक 'ट्रेन में भेड़िया' रखने पर वकील साहब ने कड़ी आपत्ति जताई. वह बहुत नाराज हुए.
एकदम बहस करते हुए कहा, '' यह पूरा उपन्यास एक-पक्षीय है. इसे मैं सिरे से नकारता हूं. आपने तो मेरी पत्नी से भी आगे बढ़ कर, एकतरफा मुझे ही पूरी तरह से दोषी ठहराते हुए भेड़िया कहकर कठोरतम सजा भी दे दी है, जबकि शिकार मैं हुआ हूं. मैं शिकार था वो शिकारी, लेकिन उसके लिए, आपकी कलम से एक भी नकारात्मक शब्द नहीं निकला, जिसने बिना संकोच मुझे खींच कर अपने ऊपर गिरा लिया था.
ऐसे में मैंने जो किया वह गलत नहीं है. और कोई मर्द होता, आप होते तो आप भी वही करते. आप या कोई भी यदि यह कहता है कि, वह ऐसा नहीं करता, तो मैं स्पष्ट कहूंगा कि, वह एक नंबर का हिप्पोक्रेट है. वह सफेद झूठ बोल रहा है. या फिर वह निश्चित रूप से कोई योगी या नपुंसक है.
आपका यह उपन्यास स्पष्ट कह रहा है कि, आपकी कलम की रोशनाई (स्याही) में वह घुली हुई थी. उसका धीमा जहर लगातार आपकी कलम पर हावी रहा. लिखने के दौरान आप उसके साथ संभोगरत होते रहे, और उससे मिले उस मानसिक सुख की कीमत आपने उसको पूरे उपन्यास में निर्दोष साबित करके चुकाई है.
उसने जैसे मेरा सूटकेस चुराया था, वैसे ही आपकी कलम भी चुरा ली है. उसके अपराध को आपने उलटा पीड़ित पर ही मढ़ दिया.
मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि, किसी भी मनोचिकित्सक से आप की जांच करा ली जाए तो वह यही कहेगा कि, आपके ऊपर उसका शरीर पूरी तरह से हावी था. आप पूरी तरह उसके प्रभाव में ही लिखते रहे. कुछ भी अपना, स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं लिख पाए. इसलिए मैं एक बार फिर दृढ़ता से इस एक-पक्षीय उपन्यास को पूरी तरह से नकारता हूं, और इसे डस्टबिन में फेंकने के लिए कहता हूं.''
यह कहते हुए वह उपन्यास का पहला ड्रॉफ्ट मेरे सामने टेबिल पर पटक कर चले गए. मेरे मन में आया कि, उनसे कहूं कि, निश्चित ही उसने आपकी सद्भावनाओं, स्नेह, विश्वाश को बड़ी ही कुटिलता-पूर्वक कुचला, रौंदा, धोखे से आपको ठग लिया, वह अपराधी है. लेकिन आपने उसके साथ, उसके ही स्तर पर उतर कर जो-जो किया, उससे आप भी निर्दोष नहीं हैं. आप उससे भी बड़े दोषी हैं. लेकिन वह मेरी बात, मेरा पक्ष सुनने के लिए रुके ही नहीं.
उपन्यास पर आगे बढ़ने से पहले, मैं उन्हें पढ़ा कर उनकी पहली प्रतिक्रिया जान लेना चाहता था. जो प्रतिक्रिया मिली, उससे भिन्न की मुझे आशा भी नहीं थी. इसी लिए बीस साल तक टालता चला आ रहा था.
लेकिन जब बीस साल बाद हू-ब-हू वैसी ही नहीं, बल्कि उससे भी कई गुना ज्यादा सनसनीख़ेज घटना फिर मेरी जानकारी में आई, तो मुझे लगा कि, अब इस पर अवश्य ही लिखना चाहिए.
मैंने सोचा कि, इन दो दशकों में पूरी एक नई पीढ़ी आ गई, लेकिन समाज में स्त्री और पैसे को लेकर लोगों के विचारों में कोई सकारात्मक परिवर्तन आने के बजाय वही भावनाएं और सुदृढ़ हुई हैं.
बीस वर्ष पहले लोग जहाँ खड़े थे, आज उससे भी कहीं बहुत आगे निकल गए हैं. स्त्रियों में संकोच का दायरा बड़ी ही तेज़ी से संकुचित होता गया है. प्रिय पाठकों मेरी बात पर यदि आपको जरा भी संदेह है तो इस दूसरी घटना को बहुत ध्यान से पढ़ियेगा. मेरा पूरा विश्वास है कि आपके समस्त संदेह दूर हो जायेंगे…..
~~~~ दूसरी घटना में क्या होता है कि, मेरे दूसरे मित्र एक देशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की पी.आर. सेल में सीनियर लाइजनर ऑफिसर हैं. ज्यादा समय उनका दिल्ली में ही बीतता है. वहीं एक दूसरी कंपनी की लेडी पी.आर.ऑफिसर उनकी बहुत ही करीबी थीं. सेम प्रोफेशन होने के कारण दोनों ही एक दूसरे के लिए मददगार साबित होते रहते थे.
अक्सर दोनों लखनऊ भी एक साथ आते-जाते थे. उनके ऑफिस में लोगों के बीच चर्चा यह भी होती थी कि, दिल्ली में दोनों एक ही फ्लैट में लिव-इन रिलेशन में रहते हैं. ‘कोविड- १९’ की पहली लहर में लगा लम्बा लॉक-डाऊन दोनों ने एक ही साथ बड़े आनंद-पूर्वक बिताया था. लॉक-डाऊन होने से पहले अधिक वर्क-लोड के चलते दोनों लखनऊ के लिए समय रहते निकल नहीं सके थे. वहीं फंस कर रह गए थे.
हालांकि दोनों के घर वालों को यही पता था कि, उन्होंने पूरा लॉक-डाऊन जान हथेली पर रख कर बड़ी कठिनाइयों में अकेले ही बिताया. पैसे होते हुए भी उन्हें खाने-पीने को लेकर बड़ी समस्यायों का सामना करना पड़ा था.
उस दौरान उनकी मित्र जब विडिओ कॉल पर घर पति, बच्चों से बातें करतीं तो आँखों से आंसू जरूर बहते. यह तो कोई नहीं जान पाया अब-तक कि, बहाती थीं या बहते थे. मित्र भी जब पत्नी-बच्चों से बातें करते तो प्यार स्नेह का पूरा सागर ही उन पर उड़ेल देते थे.
स्थितियां जब कुछ संभलीं, लॉक-डाऊन कई चरणों में अन-लॉक हुआ तो ये दोनों अपने-अपने घर पहुंचे. और बेहतर हुईं स्थितियां तो फिर अपनी नौकरी पर पहुँच गए. फ्लैट भी फिर से एक ही था. मगर ‘कोविड-१९’ काल का साल बीतते-बीतते पूरे देश के साथ ही उन्हें भी दूसरी और पहली से कहीं ज्यादा भयावह ‘कोविड-१९’ लहर आने की आहट सुनाई देने लगी.
जब दोनों न्यूज़ में वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों की यह बात सुनते-पढ़ते कि, दूसरी लहर बहुत भयावह परिणाम दे सकती है, तो हँसते हुए कहते, 'चलो और लम्बा लॉक-डाऊन एन्जॉय करेंगे. वैक्सीन की दोनों डोज़ ली है तो कुछ बेनिफिट भी तो लेना ही चाहिए.'
वह विशेषज्ञों की आगे की इस बात पर बिलकुल ध्यान ही नहीं देते कि वैक्सीन लेने के बाद भी कोविड-१९ के संक्रमण की संभावना बनी रहती है. इसलिए जब-तक दवाई नहीं तब-तक कोई ढिलाई नहीं.
दोनों ने योजना बनाई कि यदि फिर लॉक-डाऊन हुआ तो इस बार भी दिल्ली में ही रुके रहेंगे. घर वालों से कहेंगे कि लॉक-डाऊन से पहले निकलने का अवसर ही नहीं मिल पाया. लेकिन परिस्थितियों ने उनकी यह योजना फेल कर दी.
सरकार की हर चेतावनी, सोशल-डिस्टेंसिंग, मॉस्क लगाने, हाथ धुलते रहने की सलाह लोगों की लापरवाही की आंधी में उड़ती रही. त्योहार भी एक के पीछे एक लगे चले आए. लोग भी उनको मनाने से चूकने को तैयार नहीं हुए. सरकार भी चूक करने से चूकने को तैयार नहीं हुई , कई राज्यों में चुनाव पर चुनाव कराती रही.
ऐसे में फगुनहट भी ठहरने को तैयार नहीं हुई. वह क्यों पीछे रहती. पूरी मस्ती में इठलाती हुई चली आई. फिर होली के रंग में मस्ती भर्ती हुई उसे भी साथ ले आई.
छोटी होली के ही दिन मित्र एक बड़ा अमाउंट लेकर दिल्ली से लखनऊ घर के लिए चले. एकदम बीस साल पहले वाली स्थिति, कुछ परिवर्तन के साथ यहां भी बन रही थी. ट्रेन एकदम खाली थी.
वह अपना भारी-भरकम ब्लैक कलर का स्ट्रॉली बैग लिए ट्रेन के फर्स्ट क्लास कोच में, अपने कूपे के पास पहुंचे. उन्होंने सोचा चलो अच्छा ही है. वह अपना बैग रख ही रहे थे कि, उनकी वही करीबी साथी भी रेड कलर का एक स्ट्रॉली बैग खींचती हुई आ गई.
दोनों इसके पहले भी एक साथ यात्रा करते ही रहते थे. इसलिए आश्चर्य वाली कोई बात नहीं थी. उनके बीच हाय-हेलो हुई. महिला ने मेरे मित्र को यह उलाहना जरूर दिया कि, उसने उसे यह क्यों नहीं बताया कि, वह इसी ट्रेन से जा रहा है.
मित्र ने जल्दी में भूलने का बहाना बना दिया. जबकि सच यह था कि वह कुछ भी नहीं भूले थे. वह अपने स्वार्थ में उससे छिप कर निकलना चाह रहे थे. अपने-अपने घर, दोनों ने मोबाइल पर बातें कीं.
इसके बाद थोड़ी देर ‘कोविड-१९’ की संभावित भयावह दूसरी लहर, लगने वाले लॉक-डाऊन को लेकर हल्की हंसी-ठिठोली हुई. इसी बीच ट्रेन चल दी. उसने आऊटर क्रॉस ही किया था कि, मित्र ने ब्लैक डॉग स्कॉच व्हिस्की की एक क्वार्टर बैग से निकाली. साथ में ड्राई-फ्रूट्स का एक पैकेट भी. जल्दी ही दोनों ने क्वार्टर खत्म कर दी. उनकी मित्र की डिमांड पर दूसरी क्वार्टर भी फिनिस हो गई.
कूपे को वो पहले ही लॉक कर चुके थे. ब्लैक डॉग का सुरूर उनपर हावी हो रहा था और कूपा उनकी मौज-मस्ती को पंजीकृत करता जा रहा था. वह अपनी मस्ती के पन्ने अपने हिसाब से लिखते रहे.
एकदम निश्चिन्त होकर, ऐसे जैसे किसी बड़ी सफलता का उत्सव मना रहे हों. उन्हें देख कर यह कहा ही नहीं जा सकता था कि, मेरे मित्र दो बच्चों के पिता हैं, और उनकी साथी दो बेटियों की मां है. उसी के आग्रह पर मित्र ने समय पर डिनर मंगाया.
सारी रात वो मौज-मस्ती का एक-एक पन्ना लिखते रहे. साथी की पहल पर ही मित्र ने लखनऊ पहुँचने के घंटे भर पहले ही आखिरी पन्ना पूरा लिखा.
ट्रेन भी जब-तक उन दोनों ने अपने कपड़े, सामान वगैरह ठीक किए, तब-तक लखनऊ रेलवे स्टेशन के प्लेट-फॉर्म नंबर छह पर पहुँच गई. वो उतरने को हुए, तभी मित्र ने देखा कि उनकी पूरी रात, यात्रा को सुन्दर बनाने वाली साथी उनके स्ट्रॉली बैग की भी हैंडिल पकड़ कर ले जाने वाली है, तो उन्होंने सभ्यता-वश उन्हें तुरंत टोकते हुए कहा,'अरे तुम क्यों परेशान हो रही हो, मैं ले चल रहा हूं न.'
उन्होंने साथी का हाथ पकड़ कर रोकना चाहा तो, उसने पूरी ताकत, कठोरता से उनको झटकते हुए कहा, 'होश में रहिए. दोनों बैग मेरे हैं. मैं ले जा रही हूं. तुम्हारी हिम्मत भी कैसे हुई मुझे रोकने, मेरा हाथ पकड़ने की. अपनी हद में रहिए मिस्टर.'
इतना सुनते ही मेरे मित्र सकते में आ गए. एकदम भड़क कर बैग को दोबारा खींचने की कोशिश करते हुए बोले, 'दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा. मेरा सारा सामान इसमें भरा हुआ है, यह तुम्हारा कैसे हो गया? क्या हो गया तुम्हें? पागल हो गई हो क्या?'
मित्र उनसे हैंडिल छुड़ा नहीं पाए. उसने बहुत ही मजबूती से हैंडिल को जकड़ रखा था. वह सेकेण्ड-भर में धक्का-मुक्की तक पहुंच गई. उसने जब देखा कि, वो ऐसे बैग नहीं ले जा पाएगी तो, मित्र की आँखों में आंख डाल कर धमकी देती हुई बोली, 'सुनो यदि बैग नहीं ले जाने दिया तो मैं अभी फोर्स बुलाऊंगी, उन्हें सच बताऊंगी कि, तुमने मुझे धोखे से शराब पिलाकर रात-भर मेरा रेप किया. घंटे भर पहले तक. तुम तुरंत अरेस्ट हो जाओगे. मेरा मेडिकल चेकप होगा. रिपोर्ट में मुझ में शराब भी मिलेगी और तुम भी मिलोगे.
नो डाउट तुम लिप-लॉक किस भी बहुत अच्छा करते हो. तुम्हारा स्लाइवा भी मिलेगा. यहां-वहां, न जाने कहां-कहां मिलेगा. अमेरिका की वह मोनिका लेविंस्की तो याद है ना, और तब के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन. वह राष्ट्रपति होकर भी नहीं बच पाए थे. जबकि उनका मामला सिर्फ ओरल का था. तब भी उनकी हालत बद्द्तर हो गई थी. और तुम तो पूरा....इसलिए मैं क्या कह रही हूं, उसको जरा गहराई से समझो.
मैं क्या समझाना चाह रही हूं, वह समझ रहे हो न. सम्मान सहित यहां से घर पहुंच कर फैमिली के साथ होली सेलिब्रेट करना चाहते हो या हथकड़ी पहनकर जेल जाना चाहते हो.'
मेरे मित्र अकस्मात किये गए उसके इस अविश्वश्नीय हमले, उसकी कठोरता, दृढ़ता से निशस्त्र, निरुत्तर हो गए. उसने यहां तक कह दिया कि, 'तुम दुनिया के सारे वकील खड़ा कर दोगे, तो भी मुझसे जीत नहीं पाओगे. कोई वकील मुझ में दोष निकाल ही नहीं पाएगा.'
फिर वह उन पर खूंखार नजर डालती, दौड़ती हुई दोनों बैग लेकर चली गई. जाते-जाते यह कह गई कि, 'तुम्हारा बैग तुम्हें कल मिल जाएगा.'
मेरे यह मित्र भी जब पहले वाले मित्र की ही तरह लुटे-पिटे घर पहुंचे, तब इनका स्वागत इनकी भी पत्नी ने किया. लेकिन स्वागत पहले वाले मित्र वकील साहब की पत्नी से थोड़ा भिन्नता लिए हुए हुआ. क्योंकि जैसे ही इनकी पत्नी को यह पता चला कि, बैग चोरी हो गया है तो, उसका मूड ऑफ हो गया.
वह बहुत सदमे में आ गई कि, पति महोदय जो बीस लाख रुपए लेकर आ रहे थे, जिनसे वह अपने लिए एक अलग कार खरीदने की सोचे हुए थीं, वह उसी बैग के साथ चला गया. उस पर रास्ते में किसी ने हाथ साफ कर दिया, और उनके पति को खबर तक नहीं हुई.
वह पति की लापरवाही पर सख्त नाराज हुईं कि, जर्नी के दौरान उन्होंने इतनी लापरवाही क्यों की. वह भी इतना पैसा लेकर चलते हुए. उसने उनसे बात-चीत बंद कर दी. एक घर में रहते हुए भी उनसे दूरी बना ली. बच्चों को भी उनके पास नहीं जाने दिया.
यह सब तब था जबकि मेरे इन मित्र ने वकील साहब की तरह पत्नी से भूलकर भी ट्रेन वाली मोहतरमा का नाम तक नहीं लिया. यही समझाया कि, यह पैसा वह बैंक अकाउंट में नहीं डाल सकते थे, क्योंकि वह पैसा उन्होंने उस बड़े अमाउंट में से निकाल लिया था, जो कंपनी ने लाइजनिंग कार्य के लिए दिया था.
अगले दिन ट्रेन वाली मोहतरमा ने फ़ोन करके उनसे बहुत ही प्यार से बातें कीं. कहा, 'होली मिलना है. आ जाओ.' उन्हें एक थर्ड-प्लेस पर बुलाया.
खौलते-उबलते बेबस से जब मित्र पहुंचे तो वह अपने हस्बैंड की कार में थीं. बड़े प्यार, गुझिया सी मीठी आवाज़ में मुस्कुराते हुए उन्हें फिर से होली की बधाई दी. कहा, ' बिलकुल नीट एन्ड क्लीन दिख रहे हो. कम से कम गुलाल वगैरह ही लगा कर होली सेलिब्रेट कर लेते. अब तो टाइम निकल गया है नहीं तो मैं ही तुम्हें रंग लगा देती.'
फिर कुछ क्षण उन्हें व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ देखने बाद बैग वापस करते हुए कहा, 'अपना सामान चेक कर लो, कल को यह नहीं कहना कि, यह नहीं मिला, वह नहीं मिला.'
मित्र आशावान हुए कि, कहीं यह कल से होली का मजाक तो नहीं कर रही है. लेकिन जब उन्होंने बैग चेक किया तो गुस्से से दांत किटकिटा कर रह गए. रुपयों के अलावा बाकी सारा सामान था.
मित्र ने रुपयों की बात की तो उसने अनसुना करते हुए कहा, 'गाड़ी से बाहर निकलिए, मुझे देर हो रही है. और सुनो, मोनिका लेविंस्की ने अपना अंडर-गारमेंट संभाल कर रखा था. समय आने पर उसी से प्रूव कर दिया कि, बिल वहां तक पहुंचे थे. दुनिया के सबसे शक्तिशाली आदमी को मसल कर रख दिया था.
मैंने भी अपना वो वाला अंडर-गारमेंट बहुत संभाल कर लॉकर में रख दिया है. जिससे जरूरत पड़ने पर प्रूव कर सकूं कि, तुम बिल क्लिंटन से भी आगे कहां-कहां तक पहुंचे थे. ध्यान रखना अपना. वैसे तुमने उस डिजाइनर गारमेंट के डिजाइनर की बड़ी तारीफ़ की थी.'
यह तीखा व्यंग मारकर उसने कार स्टार्ट की तो मित्र ने गुस्से से उबलते, दांत पीसते हुए कहा,' गुलनाज़ तुम भी इसी समय नोट कर लो, अगली होली तक तुमसे ब्याज सहित न वसूल लिया तो गौतम वाल्मीकि मेरा नाम नहीं.'
मगर वह व्यंग्यात्मक, विजयी हंसी, हंसती हुई चली गई.
मित्र अब और परेशान कि, इस नई मुसीबत बैग का क्या करूं? इसको लेकर कैसे घर चला जाऊं. पत्नी को तो बता चुका हूं कि, यह चोरी हो गया है. आखिर उन्होंने किसी तरह एक दोस्त के यहां बैग को रखा और घर पहुंचे.
इनकी खोपड़ी-भंजन वकील साहब से कई गुना ज्यादा हो रही थी. वह बिना एक सेकेण्ड गंवाए गुलनाज़ से ब्याज सहित अपना धन वापस पाने का रास्ता ढूँढ़ने में लग गए.
दूसरी तरफ विशेषज्ञों का आकलन सही निकला, कोविड-१९ की दूसरी लहर अनुमान से कई गुना तेज़ गति से आ धमकी. कोरोना वायरस के म्यूटेट वैरिएंट डेल्टा ने मौत का ऐसा भयावह तांडव मचाया कि किसी को कुछ समझने, संभलने का अवसर ही नहीं मिला.
यह जितनी तेज़ी से आई इसे उतनी ही तेज़ी से नियंत्रित भी कर लिया गया, लेकिन फिर भी करीब दो लाख लोगों को दिवंगत बना गई. लोगों को श्मशान घाटों, कब्रिस्तानों में परिजन के संस्कार के लिए लम्बी-लम्बी लाइनों में लग कर पंद्रह-पंद्रह,सोलह-सोलह घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ी.
किसी तरह सिर पर लगी कोविड-१९ की गन से जीवन रक्षा हो सके तो एक बार फिर सभी घरों में कैद हो गए. लेकिन समय कितना भी भयावह हो, मैं कर्म-गति को रोकने में विश्वास नहीं रखता. इसलिए इस कैद में ही यह उपन्यास पूरा किया.
मैंने एक बार यह भी सोचा था कि, इन विषयों पर क्या लिखना. लेकिन किस्से कहानियां भविष्य में इतिहास लेखन के तत्व के रूप में भी काम आते हैं, इसलिए जो कुछ भी समाज का हिस्सा है, उसे किस्से, कहानियों, कविताओं में आना ही चाहिए. यह सोच कर मैंने इसे बिना किसी लाग-लपेट के लिखना आवश्यक समझा.
उपन्यास का शीर्षक बदलकर फिर से वकील मित्र को दिया. इस बार पढ़कर वह बोले, '' शीर्षक अब पहले से ठीक है. लेकिन अंदर तो बाकी सारी बातें लगभग वैसी ही हैं. आपने मुझे ही दोषी ठहरा रखा है. उपन्यास में अभी भी कोई संतुलन नहीं है.''
उनके भावों को समझते हुए मैंने कहा, '' लेकिन मैंने आपकी प्राइवेसी का पूर्णतः ध्यान रखा है.''
इस पर वह कुछ देर पता नहीं क्या सोच कर बोले, '' ठीक है, आप जो उचित समझें.''
यह कह कर वह मुस्कुराते हुए दूसरा ड्रॉफ्ट मेरी तरफ खिसका कर चले गए.
दूसरे मित्र को संतुलन आदि बातों से कोई लेना-देना ही नहीं था. उनकी भी प्राइवेसी सुरक्षित है. उन्होंने वकील साहब की तरह बहस करने की कोशिश नहीं की. लेकिन मैं उपन्यास के शीर्षक से संतुष्ट नहीं हूँ. और अब आप लोगों पर छोड़ता हूं कि, कोई सटीक शीर्षक बताईये. यह भी कि, यथार्थ को यथार्थ की तरह लिख देना क्या गलत है?
और हाँ गौतम वाल्मीकि के पास अपनी चुनौती यथार्थ में परिवर्तित करने के लिए अब ज्यादा समय शेष नहीं बचा है. और देश व्यापक स्तर पर वैक्सिनेशन के बावजूद बार-बार अगली लहर आने की संभावना से आतंकित है.
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लेखक का परिचय
प्रदीप श्रीवास्तव
जन्म: 1 जुलाई 1970
जन्म स्थान: लखनऊ
पुस्तकें:
उपन्यास– 'मन्नू की वह एक रात', 'बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब', 'वह अब भी वहीं है' ‘अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं’
कहानी संग्रह– मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाज़ा, मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबूजी, वह मस्ताना बादल, प्रोफ़ेसर तरंगिता
कथा संचयन- खंड एक जून २०२२ में प्रकाशित, दूसरा खंड प्रकाशनाधीन
नाटक– खंडित संवाद के बाद
संपादन: 'हर रोज सुबह होती है' (काव्य संग्रह), वर्ण व्यवस्था
पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवार्ड-2020, उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान-2022