अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं - भाग 2

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

ट्रेन चल दी थी, चाय वाला उस गति से आगे नहीं आ पाया. उसके हाथ में चाय की केतली, बांस की डोलची थी, जिसमें डिस्पोजल कप, कुल्हड़ दोनों ही थे. मैंने मन में कहा कोई बात नहीं, इस समय चाय की ज्यादा जरूरत है....

'' अर्थात एक बार फिर आपके साथ अच्छा नहीं हुआ.''

'' हाँ, कह सकते हैं, क्योंकि वह एक चाय मुझे पचास रुपये की पड़ी. चाय जब खत्म की तो सोचा, देखूं तीनों परिवार हैं कि गएँ. जाकर देखा तो वहां कोई नहीं था.

मन ही मन कहा कि, हद हो गई, इतने बड़े स्टेशन से यहां कोई नहीं चढ़ा. लगे हाथ टहलते हुए दूसरी तरफ भी गया कि, उधर कोई नया सहयात्री आया या नहीं, वह महिला है कि, वह भी चली गई, मैं इस बोगी में अकेला रह गया हूं.

देखा तो वह मुझे अपनी सीट पर नहीं मिली. नीचे जमीन पर एक चादर बिछा कर बैठी हुई थी. दोनों पैर सीधे फैलाई हुई थी. बच्चे को पैरों पर ही लिटाया हुआ था. उसी के साथ खेल रही थी. गेंहुए रंग का आकर्षक बच्चा था. बहुत स्वस्थ. उसकी मोटी-मोटी कलाइयों में उसने काली, सफेद मोती को काले धागे में पिरो कर पहनाया हुआ था. गले में ताबीज और चांदी में किसी जानवर का दांत भी....

वकील साहब अच्छी शैली में वर्णन कर रहे थे तो मेरी सुनने में रूचि बनी हुई थी. इसी बीच मिसेज़ आईं तो मैंने उन्हें चाय के लिए संकेत में कह दिया. उन्होंने समझा कि, हम-दोनों कोई महत्वपूर्ण चर्चा कर रहे हैं, तो चुप-चाप वापस चली गईं. वकील साहब का वर्णन निर्बाध चलता रहा. वो कह रहे थे,

''मां का दूध पीते हुए बच्चा खूब हाथ-पैर चला कर खेल रहा था. मां जब बुलकारती तो वह चुट्टूर-चुट्टूर पी रहे मां के स्तनों के निपुल को छोड़ कर, मुस्कुराते हुए मां की आँखों में देखने लगता. बच्चे की मासूम मुस्कराहट में खोकर मैं अनायास ही ठिठक कर उसे देखने लगा. तभी महिला ने एक नजर मुझ पर डाली और बड़े हल्के से मुस्कुराती हुई अपनी साड़ी को घुटने से और नीचे खिसका दिया.

अभी तक वह घुटनों से ऊपर ही थी. एक तरह से उसने साड़ी, पेटीकोट को ऊपर मोड़ कर, बच्चे के लिए बिछौना बना रखा था. ब्लाउज की जगह उसने छोटी सी कुर्ती (जम्फर) पहन रखी थी, जिसमें कुर्ते की तरह दोनों तरफ जेब थीं. एक छोटी जेब ऊपर भी लगी थी. ठीक उसके बांयें स्तन के ऊपर. सारी जेबों में कुछ ना कुछ सामान भरा हुआ था.

वह छोटी कुर्ती उसके कमर तक थी. दोनों तरफ साइड में करीब-करीब तीन इंच तक कटी हुई थी. गले से नीचे उसमें चार बटन थीं. ऊपर की दो खुली हुई थीं. जिससे छाती का बड़ा हिस्सा दिख रहा था. उसके स्तन बहुत ही ज्यादा बड़े और सख्त नजर आ रहे थे....

वकील साहब के भावों से मुझे लगा कि, वह पूरा दृश्य सृजित किये बिना नहीं मानेंगे तो मैं शांत रहा. उन्होंने आगे कहा कि,

''शायद उसने बच्चे को बड़ी देर से दूध नहीं पिलाया था. हरी-हरी नशें गले तक बुरी तरह उभरी हुई दिख रही थीं. उसने गले में चांदी की मोटी सी चेन पहन रखी थी. उसमें काले रंग के कपड़े में बना, एक चौकोर ताबीज बंधा हुआ था. जो मैल, तेल के कारण बिल्कुल चिकट होकर, काला-काला चमक रहा था. एक पाइप-नुमा गोल ताबीज तांबे का भी था. दोनों उसकी छातियों की बीच की रेखा छू रहे थे.

वह बेटे के हाथ-पैर को कभी इधर, कभी उधर करती. उसके गालों को छूती तो वह किलकारी भरता. हाथ-पैर खूब तेज़-तेज़ चलाता. मैंने सोचा मां-बेटे के आनंद के इन क्षणों में मुझे बाधक नहीं बनना चाहिए. मैं गेट पर चला गया.

वहां खड़ा-खड़ा बाहर देखता रहा. जहां कहीं ट्रेन बस्ती के नजदीक पहुंचती तो रंगों में सराबोर, रंग की मस्ती में गाते-झूमते लोग ही दिखाई देते. लगता जैसे छोटी नहीं मुख्य होली, रंग खेलने का ही दिन है. यह दृश्य मुझे घर-परिवार, अपना मोहल्ला और ज्यादा याद दिलाते कि, वहां भी खूब रंग-गुलाल चल रहा होगा. कोर्ट, ऑफिसों, स्कूलों से सभी रंग में सराबोर घर पहुँच रहे होंगे.

गेट पर खड़ा-खड़ा ऊबने लगा तो मैं अपनी सीट की ओर चल दिया. महिला के सामने से उसके मुस्कुराते बच्चे को देखते हुए आगे बढ़ ही रहा था कि, उसने भोजपुरी लहजे में पूछा , 'गड़िया बड़ी धीरे-धीरे चल रही है?'

उसकी बात से मेरा भी ध्यान इस ओर गया कि, गाड़ी सच में एवरेज से भी कम स्पीड से चल रही है. एक्सप्रेस होकर भी पैसेंजर जैसी स्थिति है.

ठिठकते हुए मैंने कहा, 'हाँ, गाड़ी धीरे चल रही है.'

उसने बेधड़क अगला प्रश्न दाग दिया, 'आप कहां तक जा रहे हैं?'

मैंने कहा, 'लखनऊ.'

'बड़ी दूर है.'

यह कहते हुए उसने एक शॉल जैसा कपड़ा दो-तीन फोल्ड करके अपनी बगल में ही बिछाया और बच्चे को उठाकर छाती से लगा लिया. वह उनींदा लग रहा था. उसका सिर अपने कंधे पर करके, उसे बड़ी हल्की-हल्की थपकी देती हुई, वह अपने को कमर के पास से थोड़ा-थोड़ा बाएं-दाएं घूमाने लगी. ताकि बच्चा ठीक से सो जाए.

इसके साथ ही उसने आगे पूछा, 'होली में घर जा रहे हैं?'

'हाँ.'

मैंने महसूस किया कि, मेरी तरह वह भी बात करने का कोई माध्यम चाह रही है, जिससे माहौल से ऊबन खत्म हो. मैंने सोचा जब-तक कोई दूसरा सहयात्री आगे किसी स्टेशन पर नहीं आ जाता है, तब-तक यही सही.

तरतीब से न सही, कुछ तो बात करेगी ही. यह मेरा, मैं इसका, कुछ तो टाइम पास करेंगे ही. सहयात्री हैं, एक-दूसरे का सहयोग करते हैं.

उसने तुरंत कहा,' लेकिन जब-तक घर पहुंचेंगे. तब-तक तो त्यौहार खत्म हो जाएगा.'

'नहीं, यह त्यौहार हफ्ते भर से ज्यादा समय तक चलता है.'

' हाँ ! लेकिन रंग तो नहीं खेल पाएंगे ना.'

' अगर ट्रेन राइट टाइम पहुँच जाएगी तो रंग भी खेल लूंगा, हालाँकि 'लखनऊ' में तो रंग सुबह शुरू होकर दोपहर तक खत्म हो जाता है. लेकिन बहुत सी ऐसी जगह हैं, जहां रंग कई दिन चलता है.'

' लेकिन घर जाने में देरी तो हो ही गई है.'

अब मुझे लगा कि, यह तो नॉन-स्टॉप बोलने वाली लग रही है. फालतू बातों से कहीं दिमाग ही न खराब कर दे. लेकिन फिलहाल के लिए इसका बातूनी होना ही अच्छा है.

मैंने कहा, 'हाँ, कल ट्रेन छूट गई. और यह आज मिली.'

' छूट तो हमारी भी गई थी, बल्कि हम खुदी छोड़ दिए थे. भीड़ देखकर हिम्मत नहीं पड़ी. बच्चा गोद में था. बच्चा ना होता तो इससे दुगनी भीड़ होती तब भी चढ़ जाती, क्योंकि न भीड़ मुझसे डरती है, न मैं भीड़ से. डर मुझे अकेले होने पर लगता है.'

उसकी इस दबंगई भरी बातों के बीच मेरी आँखों ने उसके पूरे शरीर का मुआयना कर डाला. मन ही मन कहा कि, शरीर से तो तुम वाकई इतनी मजबूत हो कि, किसी भी भीड़ में रास्ता बना लोगी.

मैंने कहा, 'लेकिन मैं ज्यादा धक्का-मुक्की, भीड़-भाड़ पसंद नहीं करता. दूसरे उस समय भीड़ इतनी थी कि लोग एक दूसरे पर चढ़े जा रहे थे. पूरी कोशिश के बाद भी मैं डिब्बे तक पहुंच ही नहीं पाया....

''कुल मिला कर यह कि, आप जो चाहते थे वह आपको मिल गया. मतलब कि बात-चीत करने वाला.''

'' हाँ, यही कह सकते हैं. हमारी बातों की ट्रेन चल निकली थी. वह बोली , 'मैं तो ट्रेन आने से पहले ही भीड़ देख कर, प्लेट-फॉर्म से बाहर, टिकट वाली खिड़की के पास जाकर बैठ गई थी. मैंने सोचा हमारे बच्चे को कुछ ना हो, ट्रेन छूटती है तो छूट जाए. दूसरी मिल जाएगी, दूसरी नहीं तो तीसरी मिल जाएगी. हमारा बच्चा मजे में रहे बस.'

तभी मैंने सोचा यह तो हिलने का भी समय नहीं दे रही है. लेकिन अपनी सीट पर मुंह बंद कर के अकेले बैठे रहने से अच्छा है कि, इसी से वार्ता जारी रखूँ. भले ही निरर्थक ही सही. अनर्गल ही सही.

मैंने उसके सामने वाली सीट की तरफ इशारा करते हुए पूछा,' क्या मैं यहां बैठ जाऊं?'

तो वह चमक कर बोली, 'हाँ-हाँ बैठिए ना, खाली तो पड़ी है.'

मैं बैठने लगा तभी उसने बच्चे को बहुत संभाल कर बगल में बिछाए बिस्तर पर लिटा दिया. उसके बाद उसने अपने पैर को मोड़ कर साड़ी ठीक की. तभी मैंने पूछा, 'सारी सीटें खाली हैं. फिर आप जमीन पर क्यों बैठी हैं?'

'असल में बच्चा अब करवट लेने लगा है. सीट पर डर है कि, नजर फिरते ही कहीं नीचे ना लुढ़क जाए. इसलिए हमने सोचा, सब खाली तो है ही. आराम से बैठते हैं. आपके कितने बच्चे हैं?'

'तीन'

'अभी सब छोटे ही होंगे?'

'हाँ, छोटे ही समझिए. सबसे छोटा चार साल का है. और सबसे बड़ा दस का है.'

जवाब देते हुए मैंने सोचा, पेशे से वकील मैं हूं, पर प्रश्न पर प्रश्न यह कर रही है. इसलिए छूटते ही पूछा, 'आपका यह पहला बच्चा है?'

' हाँ, पहला ही है.'

यह कहते हुए उसने अपनी कुर्ती के नीचे के दोनों किनारे पकड़ कर ऊपर करके दो-तीन बार ऐसे झटका जैसे धूल झाड़ रही हो. उसने इतना बेफिक्र होकर, इतने आराम से यह किया कि, उसके शरीर के बड़े हिस्से पर मेरी दृष्ट अनायास ही पड़ गई. ऐसा करने से कुर्ती खुले बटन के पास और भी ज्यादा फैल गई. छाती का अब और बड़ा हिस्सा मेरी दृष्टि को खुद से और ज्यादा जोड़ने लगा.

इस धूल झाड़ने के चक्कर में उसका जितना शरीर खुला, उससे यह बात एकदम साफ हो गई थी कि, उसने कुर्ती के नीचे कोई भी अंदरूनी वस्त्र नहीं पहने हैं. इसके चलते ट्रेन के साथ ही साथ उसकी छातियाँ भी एक ख़ास लय में हिल-डुल रही थीं. उनकी लयबद्ध यह हल-चल बार-बार मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच ले रही थीं....

'' वाह भाई, वाह. आपकी बातों से तो मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि, वह आपके ध्यान को भटकाने में लगी हुई थी.''

'' हाँ, अब तो मैं भी यही कहूंगा कि, वह ऐसा ही कर रही थी. मैंने उस समय उधर से अपना ध्यान हटाने के लिए पूछा, 'आप कहां जा रही हैं?'

' आपके नजदीक ही चल रही हूँ. मुझे 'गोंडा' उतरना है.'

'गोंडा' आपका मायका है या ससुराल?'

'ससुराल है. मायका 'दरभंगा' में है.'

'बड़ी दूर-दूर हैं ससुराल,मायका.'

' हाँ दूर तो बहुत है. बस हो गई ऐसे ही शादी.'

उसके उत्तर, और उत्तर देने के अंदाज़ ने उसकी पर्सनल लाइफ को लेकर मुझमें संशय उत्पन्न करना शुरू कर दिया. मैंने गहरे पैठने के प्रयास में उससे पूछा, ' मायके से इतनी दूर अकेले आ गईं, वह भी छोटे से बच्चे को लेकर. आपके पति साथ नहीं आए? या घर का कोई और आदमी.'

' क्या किसी का सहारा लेना. जाना-आना तो ट्रेन से ही है ना. वह होते भी तो कौन सा बच्चे को गोद लेते, दूध पिलाते. सब करना तो हमीं को है. तो क्या जरूरत उनकी, खाली आगे-पीछे चलने के लिए आ कर क्या करते?'

चेहरे पर अजीब से घृणा के भाव के साथ, उसके अजीब से जवाब से मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि, इसको पति से बड़ी समस्या है. कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा,'ठीक कह रही हैं, लेकिन इतने लंबे सफर में कोई गलत-सलत आदमी मिल जाए तो? अकेले से दो अच्छे ही रहेंगे, सुरक्षा बनी रहेगी.'

'गलत आदमी तो घर पर भी मिल जाते हैं. बाहर जितना खतरा है, उतना ही घर में भी है, तो फिर काहे को डरना कहीं अकेले जाने-आने में. जो होगा देखा जाएगा.'

इतना कहकर वह बड़ी निश्चिंतता के साथ मुस्कुराई. मैंने कहा, 'हूँ..तो मायके से किसी भाई, बाप को साथ ले लेतीं.'

इस बार वह गहरी सांस लेकर बोली, 'भाई नहीं हैं. बहनें अपनी-अपनी ससुराल में हैं. और बाप का साल भर पहले ही इंतकाल हो गया. अम्मी अकेले ही रहती हैं. दूर के एक दो रिश्तेदार हैं. वही लोग थोड़ा-बहुत देख लेते हैं.'

अब-तक मेरा वकीलों वाला मूल चरित्र कुलांचें भरने लगा था. मैंने उसे कुरेद-कुरेद कर बात करनी शुरू कर दी थी. उसने भी बिना संकोच बताना शुरू किया कि, उसकी शादी से अब्बा बहुत खफा थे. उसका शौहर उसके घर के पास ही किराए पर रहता था. थोड़ा बहुत आना-जाना था. इसी थोड़े बहुत में ही दोनों की सांसें मेल खा गईं. घर में भनक लगी तो सख्ती हो गई. लेकिन जब साँसें मिल चुकी थीं, तो कहां की सख्ती, कैसी सख्ती. दोनों उड़न-छू हो गए, और निकाह कर 'गोंडा' जिला पहुंच गए.

मायका पहले कुछ दिन सख्त होने के बाद जल्दी ही शांत हो गया. मगर शौहर कुछ महीनों बाद ही बात-बात पर मार-पीट करने लगा. बेटा होने वाला था, तब भी उसे मारता. आखिर ऊब कर वह भी बराबर लड़ने लगी.

शौहर ने घर से निकालने की धमकी दी, तो उसने पलटवार किया, कि थाने में रिपोर्ट लिखा कर बंद करा दूंगी. एक बार थाने जाने तक की भी नौबत आई. इससे डरा पति अब मारता तो नहीं, लेकिन संबंध तीखे बने रहते हैं.

उसने बड़ी लापरवाही से बताया कि, 'अक्सर सुनने में आता है कि, वह बाहर फलां औरत के पीछे-पीछे लगा रहता है. लेकिन मैं इसकी परवाह नहीं करती. बाहर जितना मुंह मारना है, मार ले, लेकिन अगर कोई घर आ गया तो, वह नहीं या फिर मैं नहीं.'

उसकी इस बात पर मैंने कहा, 'लेकिन तुम्हारे यहाँ तो शौहर चार निकाह कर ही सकता है, तुम्हारे अलावा वह अभी तीन बीवियां और ला सकता है.'

'हाँ ला सकता है. लेकिन पहले एक को तो संभाल ले. उसको खाना-कपड़ा तो ढंग से दे ले. जो बच्चे पैदा करे उसको अच्छा जीवन देने की कूवत तो हो. ये कौन सी बात हुई कि, कूवत एक को संभालने की नहीं, और उठा लाये चार ठो. रहने का ठिकाना नहीं, जानवरों की तरह भर दिया कोठरी में.

न उनका मन देखें, न उनकी जरूरत, न इच्छा. जब देखो तब नोच खाये, चढ़ बैइठे. जैसे बीवियां न हो कर भेंड़-बकरी हैं. जब मन हुआ तब ज़बह कर दिया. जब देखो तब सब पेट फुलाये जहन्नम बने घर में ज़िंदगी गला रही हैं. घर में दर्जन, डेढ़ दर्जन बच्चे बिलबिला रहे हैं. न खाना, न पानी, न कपड़ा, न दवाई. पढाई-लिखाई की तो बात ही न करो.

बड़े होते-होते आधे तो ऐसे ही मर जायेंगे. जो बचेंगे वो चोर-उचक्के, बवाली बन या तो जेल में रहेंगे या मारे जाएंगे. नहीं तो सड़क किनारे कहीं पंचर जोड़ रहे होंगे, हवा भर रहे होंगे. हमने तो कह दिया है, जैसे ही दूसरी लाओगे वैसे ही छोड़ के चल दूंगी. और ये मत समझना कि औरतखोरी के लिए तुमको चार बीवियां लाने के लिए रास्ता दे जाऊँगी.

पुलिस में वो हाल करूंगी कि ज़िंदगी जेल में बीतेगी. रखना वहीँ चार बीवियां. जेल भी गुलज़ार रहेगी, जेल वाले भी. देखते-देखते दो-ढाई दर्जन बच्चे भी हो जायेंगे, फिर उन्हीं में ढूंढना कौन सच में तुम्हारे हैं और कौन जेल वालों के. हंअ..चार बीवियां.’

जिस क्रोध, घृणा के साथ उसने अपनी बात कही, उससे बड़ा आसान था यह समझना कि पति और उसके बीच संबंध न सिर्फ बहुत तनावपूर्ण हैं, बल्कि बड़ी चौड़ी खाई है दोनों के बीच. यही कारण है कि, इतनी लम्बी यात्रा अकेले करने का खतरा उठाया है इसने....

इसी बीच मिसेज़ चाय ले आईं. मैं वकील साहब के वर्णन-प्रवाह को बाधित नहीं करना चाहता था, इसलिए उन्हें चाय लेने के लिए संकेत किया. एक घूँट पी कर उन्होंने आगे कहना शुरू किया,

'' ट्रेन अपनी रफ्तार में चल रही थी, हमारी बातें अपनी रफ्तार में. उसके बात करने का अंदाज़ कुल मिला कर ठीक ही था. शुरू में वह मुझ से प्रश्न कर रही थी, लेकिन बाद में अपना मायका, अपनी ससुराल, बस इसी दो बिंदु पर ही वह बोल रही थी.

इतनी ही देर में वह आश्चर्यजनक ढंग से, कुछ ऐसे घुल-मिल गई, जैसे न जाने कितनी गहरी मित्र है. मैंने सोचा चलो हंसते-बोलते रास्ता कट जाएगा.

इसी तरह करीब आधा-पौन घंटा बीता होगा कि, उसका बच्चा जाग गया. उसने तुरंत उसे गोद में उठा लिया. वह उसे दूध पिलाने जा रही है, यह समझ कर, मैंने तुरंत उठते हुए कहा, 'आप बच्चे को देखिए, मैं थोड़ी देर में आता हूं.'

लेकिन उसने तुरंत ही कुर्ती को थोड़ा ऊपर उठा कर, एक स्तन बड़ी लापरवाही के साथ बाहर निकाला, बेहिचक निपुल बच्चे के मुंह में देती हुई, कुछ अलग ही अंदाज में कहा, 'बैठिये ना, यहां कौन देखने आ रहा है.'

यह बात और इसे कहने की उसकी जो शारीरिक भाषा थी, उसमें मुझे कई अर्थ छिपे हुए दिखे. इससे मेरे मन और शरीर दोनों में ही अलग-अलग तरह की क्रियाएं हुईं. शरीर जहां उसकी बात पूरी होने से पहले ही बैठ गया, वहीं मन कह रहा था कि, यह ठीक नहीं है, यदि यह नादानी कर रही है तो, इसका मतलब यह नहीं है कि, मैं भी नादान बन जाऊं. मुझे इसके रोकने के बावजूद हट जाना चाहिए.

मन उचित-अनुचित सोचता ही रह गया, लेकिन शरीर वहीं जम गया. वह बच्चे को दूध पिलाती हुई, उसी के अंदाज में उसे बुलकारती, बोलती, बतियाती भी जा रही थी. बच्चा भी पुच्च-पुच्च की आवाज करता हुआ, दूध पीता जा रहा था. हाथ-पैर भी चलाता जा रहा था. एक हाथ बार-बार स्तन पर पट-पट मारता, कभी खरोंचने सा लगता.

मां-बेटे की इस अद्भुत क्रीड़ा को मेरी आंखें सब-कुछ भुला कर देखने लगीं. उसके स्तन बहुत भारी और उतने ही ज्यादा दूध से भरे हुए लग रहे थे. एकदम कसे हुए. मैंने सोचा यह उन माओं की तरह दूध क्यों नहीं पिलाती, जो भीड़ में बच्चे और स्तन को इस तरह से ढक लेती हैं कि, सरसों भर भी शरीर नहीं दिखता.

यह उनके उलट जितना हो सकता है, उतना ही ज्यादा शरीर खोले हुए है. जरा भी संकोच नहीं कि, एक बाहरी मर्द बैठा हुआ है. जिसे खुद ही जाने से रोक कर, बैठा लिया है. साड़ी भी बेवजह फिर से घुटनों तक चढ़ा ली है....

वकील साहब की इन बातों को सुनकर मैं स्वयं को रोक नहीं सका. मैंने तुरंत ही स्पष्ट कहा ,

'' मुझे लगता है यहाँ संशय वाली कोई बात ही नहीं थी. ऐसे में हर कोई हट जाता है. आपको भी यही करना था.''

'' पहले पूरी बात तो सुनिए, तब आपको यहाँ और बाक़ी जगह में अंतर क्या है, मालूम हो जाएगा. मैंने उससे पूछा, 'बेटा कितने महीने का हो गया है?'

उसने कहा, 'अगले महीने में छह महीने का हो जाएगा.'

' तो अभी तो केवल दूध पर ही रहता होगा?'

' हाँ, अभी खाली अपना दूध पिलाती हूं. डॉक्टर साहब ने कहा था कि, छह महीने तक कुछ और नहीं, खाली अपना दूध पिलाना. यह तुम्हारे बच्चे के लिए अमृत है, अमृत. इसको हमेशा स्वस्थ बनाए रखेगा. इसलिए खाली अपना दूध ही पिला रही हूं. हम तो सोच रहे हैं कि, छह महीने बाद भी खाली अपना ही दूध पिलाते रहें. मेरा भैया और ज्यादा मजबूत, बड़ा हो जाएगा.'

' नहीं, ऐसा नहीं करना. डॉक्टर ने बताया ही होगा कि, छह महीने बाद दूध के साथ-साथ जो भी खाना बनाना, वह भी थोड़ा-थोड़ा खिलाना, नहीं तो यह मजबूत नहीं होगा. उम्र के हिसाब से खाना ज्यादा चाहिए. खाली तुम्हारे दूध से इसका पेट नहीं भरेगा.'

'अरे नहीं, ऐसा नहीं है. डॉक्टर तो न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं. मेरे बच्चे का पेट मेरे दूध से ही भर जाएगा. हमारे दूध बहुत होता है. देखो एक से ही पेट भर कर पी चुका है. दूसरा अभी.....

इतना कहते हुए उसने एक झटके से दूसरा स्तन बाहर निकाला और उसका निपुल कस के दबा दिया. दूध की कई पतली धाराएं, कुछ दूर तक चली गईं. उसकी बात बिलकुल सही थी. स्तन ऐसे विकट तना हुआ था कि, मानो खूब हवा भरे गुब्बारे की तरह फटने ही वाला है. सच कहूं तो कुछ सेकेण्ड को मैं उसकी इस हरकत से स्तब्ध रह गया.