प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 3
मैं बड़ी कोशिश करके भी, अपनी दृष्टि उसके स्तनों पर से हटा नहीं पा रहा था. दूध की धार निकाल कर, उसने एक नजर मेरी आंखों में देखा, कुछ इस भाव से कि, अब बताओ, मैंने ठीक कहा कि नहीं.
वह बच्चे को फिर से दुलारने लगी. लेकिन स्तन को कुर्ती में वापस नहीं ढंका. वे खुले ही रहे. वह बच्चे के साथ खेलती रही, निरर्थक बातें भी बोलती रही. इसी बीच गाड़ी धीमी होने लगी. मैं अंदर ही अंदर बहुत तेज़ उबलना शुरू हो गया था. मन में डरावने काले बादलों का भयानक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ कि, जैसे यह बच्चे को प्यार-दुलार रही है, वैसे ही मैं पूरे प्यार से, हाथों में लेकर इसके स्तनों को दूलारूँ, प्यार करूँ.....
वकील साहब की इस इच्छा पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उन स्थितियों में उनके जैसे व्यक्ति क्या सोच सकते हैं, क्या कर सकते हैं, इसका मुझे अनुमान है, इसलिए मैं शांत उन्हें सुनता रहा. जब कि वह सोच रहे थे कि, उनकी ऐसी इच्छा सुनकर मैं कुछ अवश्य बोलूंगा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह आगे बोलते रहे,
'' इस समय मैं एक साथ तीन मोर्चों पर संघर्षरत था. मन कभी कहता यह करो, कभी कहता यह ना करो, शरीर कहता, उसका खुला प्यार भरा निमंत्रण क्यों ठुकराते हो?
अगले ही क्षण कहता है, यह सोचना भी अनुचित है. जिसे तुम खुला निमंत्रण समझ रहे हो, हो सकता है, यह इसकी निष्कपट, निष्कलुष भावना के कारण हो, उसके मन में वह खोट, वह भावना हो ही ना, जैसा तुम सोच रहे हो.
वह तुम्हें निष्कलुष समझ कर, निर्लिप्त भाव से यह व्यवहार कर रही हो. यह उसका एक सामान्य सा व्यवहार हो, उसके मन में रंच-मात्र को भी कोई शारीरिक भोग की बात हो ही ना.
मेरा यह अंतर्द्वंद्व जारी रहा, लेकिन ट्रेन एक छोटे से स्टेशन 'नारायणपुर अनंत' पर खड़ी हो गई. मन में आया चलो चाय-नाश्ता करते हैं. इसे भी कराते हैं. बेचारी बच्चे को बराबर दूध पिला रही है, लेकिन घंटों से खुद कुछ भी खाया-पिया नहीं है. मैंने चलते समय जो कुछ खाने-पीने को लिया था, वह उससे संवाद शुरू होने से पहले ही खत्म हो चुका था.
मैंने उससे कहा, 'उस तरफ मेरा सामान रखा है, जरा ध्यान रखिएगा. मैं चाय-नाश्ता लेकर आता हूं.'
मैंने सोचा था कि वह संकोच करेगी, लेकिन उसने बड़े करीबी मित्र की तरह निःसंकोच कहा, 'केला, संतरा मिल जाएँ तो वह भी ले लेना.'
मैंने कहा, 'हाँ ,जरूर'
मैं यह सोचते हुए निकला कि, सही मायने में फ्रैंकनेस, बोल्डनेस यह है. इतने साल हो गए वकालत करते हुए. लेकिन खाने-पीने के मामले में दोस्तों से भी ऐसे बेहिचक नहीं कह पाता. आधा एक घंटा पहले परिचित हुए किसी व्यक्ति से तो कभी कह ही नहीं सकता...
उनकी इस बात पर मैंने हँसते हुए कहा, '' जब आपने उसे अपने बच्चे को स्तनपान कराते समय अकेला नहीं छोड़ा, वहां बैठे रहने, ब्रेस्ट-फीडिंग जैसे विषय पर बात करने में संकोच नहीं किया, तो वो क्यों संकोच करती. खैर बताइये उसे क्या-क्या खिलाया-पिलाया? ''
'' हाँ, ठीक कह रहे हैं. जब ज्यादा संवेदनशील विषय पर मैंने संकोच नहीं किया तो उसे भी ऐसा करने का कोई औचित्य नहीं था... हाँ तो वह मेरे सामान की रखवाली करने के लिए अपनी जगह से बच्चे को लिए हुए गैलरी तक खिसक आई. जिससे सभी आने-जाने वाले पर वह ठीक से नजर रख सके. स्टेशन करीब-करीब सन्नाटे में डूबा हुआ था. संयोग से एक फल और चाय-नाश्ते वाला दरवाजे के सामने ही थे.
मैंने पहले केला, संतरा लिया कि, कहीं ट्रेन के चल देने पर न ले पाया तो ये, यही कहेगी कि, जान-बूझकर नहीं लिया. भले ही चाय रह जाए, पहले उसकी फरमाइश पूरी करनी है. मेरा प्रयास सफल रहा. मैं फल के साथ-साथ चाय-नाश्ता बिस्कुट, नमकीन आदि आसानी से लेकर वापस पहुँच गया. सामान उसके सामने रख ही पाया था कि ट्रेन चल दी.
खाने-पीने की चीजें देखकर वह बोली, 'अरे यह तो बहुत ज्यादा ले लिए हो.'
मैं उसके सामने चादर पर ही बैठ गया. नमकीन, बिस्कुट का पैकेट खोल कर उसे दिया. पैंट की वजह से जमीन पर बैठने में मुझे मुश्किल हो रही है, यह समझते ही उसने कहा, 'पैर फैला कर आराम से बैठ जाइए.'
मुझे उसकी बात माननी पड़ी, क्योंकि मैं ठीक से बैठ नहीं पा रहा था. उसने बच्चे को फिर उसी के बिस्तर पर आराम से सुला दिया था. उसका बेहद मासूम चेहरा देखकर, उसे गोद में लेने, खिलाने का मन कर रहा था. लेकिन सोचा अभी मां का दूध पीकर सोया है. कच्ची नींद में उठाया तो रोएगा.
चाय-नाश्ते के साथ ही उसकी बातें पहले ही की तरह चलती रहीं. वह शौहर की बातें बताने लगी कि, कैसे उसने पहले उसके आस-पास मंडरा-मंडरा कर बात शुरू की, फिर इश्क के रास्ते पर ले आया. उससे अकेले मिलने का कोई ना, कोई रास्ता निकाल ही लेता. मिलते ही बोलता बाद में, बाँहों में जकड़ पहले लेता. कपड़ों में इतनी जल्द-बाजी, हड़बड़ाहट में हाथ डालता, खींचता, उतारता कि, अक्सर उसके कपड़े फट जाते थे.
नमकीन और चाय की तरह उसकी बातें भी मुझे तीखी और गर्माहट भरी लग रही थीं. वह दोनों पैर सीधे फैलाये हुए बैठी थी. साड़ी फिर घुटने से ऊपर थी. गेंहुए रंगत के उसके सुडौल पैर किसी को भी गहरा आमंत्रण देने के लिए काफी थे.
उसने अब-तक कुर्ती नीचे कर के स्तन तो ढंक लिए थे, लेकिन ऊपर की दोनों बटन खुली हुई थीं. जिससे करीब-करीब आधी छातियाँ दिख रही थीं.
गर्म चाय के साथ हमारा नाश्ता चल रहा था. गाड़ी आउटर क्रॉस कर अपनी रफ़्तार पकड़ने ही वाली थी. मैंने चाय का कुल्हड़ आखिरी घूंट पीने के लिए उठाया ही था कि, फचाक की आवाज के साथ ढेर सारा कीचड़, पानी भरा गुब्बारा खिड़की से टकराकर हमें भिगोता, गंदा करता आगे तक चला गया. होली का रंग, हुड़दंग चल रहा है, इसका ध्यान मुझे बिल्कुल नहीं था, कि खिड़की बंद कर के रखता.
हम-दोनों हड़बड़ा कर सीधे बैठ गए. हमारे कपड़े, चाय-नाश्ता, चादर सब गंदे हो गए. गनीमत यह रही कि, उसने बच्चे को करीब-करीब सीट के नीचे लिटाया था, जिससे वह बाल-बाल बच गया.
मैंने सबसे पहले उठ कर आमने-सामने दोनों ओर की खिड़कियां बंद कीं. शीशे वाली को छोड़ कर, जिससे रोशनी बनी रहे. नमकीन, बिस्कुट, केले, संतरे मैंने सब बाहर फेंक दिए. केले, संतरे के लिए उसने रोकते हुए कहा, अगले स्टेशन पर साफ पानी से धो लेना. लेकिन कीचड़ के कारण मेरा मन नहीं माना. मैंने उन्हें भी फेंक कर कहा, ' दूसरा खरीद लेंगे.'
मैं नहीं चाहता था कि, उन्हें खाकर हमें कोई बीमारी हो. लंबी जर्नी है. हर तरफ छुट्टी है. मुझे हुरियारों की इस कीचड़ होली, हुड़दंग पर गुस्सा आई कि, अगर चोट-चपेट लग जाती, बच्चा चोट खा जाता तो.
उसने कहा, ' त्यौहार मजे के लिए मनाया जाता है. कीचड़-माटी फेंके मा कौन सा मजा है. आमने-सामने खेलें रंग तो मजा भी है.'
कुछ देर तो वह बिल्कुल सन्नाटे में आ गई थी. फिर उठी. बच्चे को सीट पर लिटा कर कहा, 'जरा भैया को देखे रहिये तो, मैं सब साफ कर दूं.'
मैंने कहा, 'चादर वगैरह झाड़ लीजिए, चलिए दूसरी तरफ बैठते हैं. जमीन कहां तक साफ करेंगी.'
मैंने बच्चे को संभाला तो, उसने सारा सामान वहां ले जा कर रखा, जहां मेरा सूटकेस था. हम वहीं जाकर बैठ गए. पहले की तरह उसने चादर को उलटा कर के बिछा दिया था. बच्चे के लिए उसने डोलची से तौलिया निकाल कर सीट के नीचे ही बिछाया और उसे उसी पर लिटा दिया....
'' इस कीचड़ होली ने आप दोनों के आनंददाई जल-पान को पूरी तरह खत्म ही कर दिया था.''
'' हाँ. बिलकुल दिमाग खराब कर दिया था. हमें कपड़े बदलने पड़े. अब जरा और ध्यान से सुनियेगा. इससे आपको मेरे और उसके बारे में कोई निष्कर्ष निकालने, या विचार बनाने में आसानी होगी. उसने बैग से पहनने के लिए दूसरी साड़ी निकाली तो मैं वहां से हटने लगा, इस पर वह बोली, ' बैठे रहिये, मैं इधर बदल लूंगी.' मेरे उठने तक उसने साड़ी खोल कर अलग करनी शुरू कर दी.
वह एकदम बीच में थी. मैं खिड़की की तरफ था, इसलिए निकल भी नहीं सकता था. साड़ी खोलकर उसने उसकी मिट्टी वगैरह को थोड़ा आगे बढ़ कर झाड़ा, मुझ से न्यूज़-पेपर का एक पन्ना लेकर, उसमें लपेट कर डोलची में रख दिया.
मैंने सोचा यह सब करने से पहले कम से कम ये दूसरी वाली साड़ी पहन तो लेती. मेरे सामने खाली पेटीकोट कुर्ती में है. कुर्ती जहाँ नाभि से थोड़ा नीचे तक थी, तो पेटीकोट उसने एकदम नीचे पेट और स्त्री अंग की बिल्कुल संधि रेखा पर बांधा हुआ था.
उसका पूरा शरीर बड़ा गठा हुआ, संतुलित सांचे का लग रहा था. मैंने सोचा पता नहीं संतुलित सांचे की तरह, इसकी सोच संतुलित है कि नहीं. शौहर से इसके झगड़े का कारण, कहीं इसकी यह अजब-गज़ब बोल्डनेस तो नहीं है. यह है ऐसे समाज से, जहां औरतों की ज़िंदगी परदे में शुरू होकर, परदे ही में खतम हो जाती है.
लेकिन यह है कि, कितने आराम से मेरी ही तरफ मुंह करके साड़ी बांध रही है. ऐसी बोल्ड औरत तो आज तक नहीं देखी.
बोगी में और लोग होते तो? क्या यह तब भी ऐसे ही करती. साड़ी पहनने से पहले वह मुंह-हाथ धो आई थी. डोलची से साबुन लेकर गई थी. काफी सफाई पसंद लग रही थी. अब वह काफी फ्रेश दिख रही थी.
यह सब करके वह नीचे बैठती हुई बोली, 'और कपड़ा रखे हों तो, आप भी बदल लीजिए कॉलर, कंधे पर काफी गंदा है. गीला भी हो रहा है.'
मोहतरमा तुम कुछ सोचने दो तब ना. यह सोचते हुए मैंने कहा, 'हाँ देखता हूं. एक सेट कपड़ा है तो, लेकिन प्रेस नहीं है.'
' इस समय प्रेस का क्या मतलब है? त्यौहार भी ऐसा है, जिसमें लोग पुराने कपड़े ही पहन कर निकलते हैं.'
मैं अपनी जर्नी के हिसाब से चार सेट लेकर गया था. तीन पहले ही पहन चुका था. मोहतरमा की इस बात से मेरा ध्यान, अपनी इस गलती पर गया कि, मैंने ऐसे मौके पर वाकई नया और कीमती कपड़ा पहना हुआ है. यह निश्चित ही बेवकूफी भरा है. खरीदने के बाद मैंने चौथी बार वह ड्रेस पहनी थी.
मैंने उससे कहा, 'आप सही कह रही हैं.' यह कहते हुए, मैंने सूटकेस खोला, ऊपर रखी तौलिया हटाई और इसी के साथ अपनी मूर्खता पर, मन ही मन अपना सिर पीट लिया. 'दरभंगा' से जो पांच लाख रुपये लेकर चला था, वह और जूलरी के डिब्बे एकदम मोहतरमा के सामने थे. मैं कुछ देर समझ ही नहीं पाया कि, क्या करूं. तभी मोहतरमा की आवाज ने जगाया,
' बड़ा पैसा, गहना भरे हुए हैं.'
मैंने कहा, ' हाँ, कुछ काम से ले गया था, बैरंग लौटना पड़ा.'
यह कहते हुए मैंने जल्दी से पैंट-शर्ट निकाली, पैसे, डिब्बे बाकी सब सामानों के एकदम नीचे डाला, और लॉक कर दिया. इतना भी ध्यान नहीं रहा कि, अभी कपड़े चेंज करूंगा तो उन्हें रखना भी तो है....
'' दरअसल आप पैसों, जूलरी की सिक्योरिटी को लेकर हड़बड़ाहट में आ गए थे, डर से गए थे.''
'' हाँ ठीक कह रहे हैं आप, अचानक वो सब हुआ तो... खैर इसके साथ ही मैं बड़े असमंजस में पड़ गया कि, सूटकेस छोड़ कर चेंज करने दूसरी तरफ जाऊं कि, ना जाऊं. मेरी गफलत देखिये कि, अचानक ही बोल पड़ा, 'आप थोड़ा उधर की तरफ मुंह कर लें, तो मैं चेंज कर लूं.'
गाड़ी पूरी रफ्तार से चली जा रही थी. मेरी बात पर वह बड़ी अर्थ-भरी, हंसी, हंसी. एक तरह से मेरा उपहास उड़ाया और दूसरी तरफ घूम गई. मैंने मन में कहा, गजब की औरत है यार.
पैसों की चिंता में मैं वहीं चेंज करने लगा. यह सोचते हुए कि, जब यह औरत होकर मेरे सामने, निःसंकोच चेंज कर सकती है, तो मुझे संकोच करने की क्या जरूरत. मैं शर्ट, पैंट के अंदर कर के ठीक कर रहा था, बेल्ट का बक्कल खड़खड़ा रहा था कि तभी अचानक ही वह पलटती हुई बोली, 'पहन लिया?'
मैं सकपका गया. मैंने तब-तक पैंट के हुक्स तो लगा लिए थे, लेकिन चेन बंद नहीं कर पाया था. उसे जल्दी से बंद करते हुए कहा, 'हाँ बस पहन ही लिया है.'
वह बोली, 'बेल्ट की आवाज से हमें लगा कि, पहन चुके हो.'
मैंने कहा, ' चलिए कोई बात नहीं, पहन ही चुका हूँ.'
यह कहते हुए मैंने, सूटकेस में कपड़ा रख कर, उसे सीट के नीचे रख दिया.
पैसे का भेद खुल जाने के कारण, मेरा मन भीतर ही भीतर कुछ अजीब सी आशंकाओं में डूबने-उतराने लगा था. इस बीच उसने दो बार अपना हाथ, पीछे गर्दन पर चोटी की तरफ ले जाकर टटोलते हुए कहा, 'शायद इधर कुछ लगा हुआ है.'
फिर उसने हाथ वापस लाकर देखा तो, वहां अच्छा-खासा कीचड़ था. उसने आस-पास और टटोला तो और कीचड़ मिलने पर खिन्नता प्रकट करती हुई बोली, 'हम समझ रहे थे, खाली पानी होगा, सूख जाएगा थोड़ी देर में. लेकिन यह तो किसी गड्ढे-वड्ढे का गंदा कीचड़ है. अब इसको भी बदलूँ.'
यह कहते हुए उसने बैग से नीले रंग की दूसरी कुर्ती निकाली. मैंने सोचा कीचड़ लगा है तो यह टॉयलेट में जाकर धोएगी, और वहीं बदल भी लेगी. लेकिन अगले ही पल मैं स्तब्ध रह गया...
'' क्यों?''
'' क्योंकि पलक झपकते ही उसने, गंदी कुर्ती उतार कर किनारे रख दी, और साफ़ वाली कुर्ती को पहले सीधा किया, फिर हाथ ऊपर उठाकर, एक बार में गले में डाल कर नीचे खींच दिया. मैं संज्ञा-शून्य सा उसके कमर से ऊपर, सांवले सुडौल जिस्म पर से दृष्टि नहीं हटा पाया.
उसकी भारी छातियाँ, गोल मजबूत गर्दन, जामुन से ज्यादा जामुनी, बड़े निपुल ने मुझे जड़ कर दिया.''
'' वैसे तब-तक तो आपके लिए आश्चर्य वाली कोई बात रह ही नहीं गई थी.''
''क्यों ?''
'' क्योंकि करीब-करीब वो सारा हिस्सा तो वो आपके सामने काफी पहले से ही प्रदर्शित करती चली आ रही थी, उसने कुछ छिपाने के लिए बचाया ही कहाँ था.''
'' काफी हद तक आपकी बात सही है. लेकिन तब-तक बीच में उसकी कुर्ती कहीं न कहीं रहती थी. एक आड़ सी बनी रहती थी. इस बार वह आड़ भी उसने क्षण-भर में खत्म कर दी, इस लिए मैं आश्चर्य में पड़ा, स्तब्ध हुआ. वह हर काम बिना लाग-लपेट, निःसंकोच कर रही थी.
एक बार फिर मुझसे पेपर लेकर, गंदी कुर्ती उसमें लपेट कर डोलची में रख दी और साबुन निकाल कर चली गई बाथरूम की ओर. धो-धा कर लौटी तो बोली, 'अच्छा जी का जंजाल कर दिया इन सब ने.'
फिर अपनी जगह बैठते हुए पूछा, 'अगला स्टेशन कितनी देर में आएगा.'
' करीब आधे घंटे बाद.'
' सोच रही हूँ कि, सारे दरवाजे बंद कर दूँ. हुड़दंगी कहीं स्टेशन पर रंग-पानी लेकर अंदर आ गए तो बड़ी मुश्किल होगी. अब और कपड़े, न आपके पास हैं, न मेरे पास. मेरा बच्चा कहीं भीग गया, तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी.'
' ठीक कह रही हो, लेकिन स्टेशन आने पर तो खोलना ही पड़ेगा न. कोई सवारी चढ़ने वाली हुई तो?'
इस पर उसने लापरवाही से कहा,
'सारे डिब्बे तो खाली पड़े हैं. किसी और में चढ़ जाएगी. जब-तक वह दरवाज़ा भड़भड़ाएंगे, खुलवाएंगे तब-तक तो गाड़ी चल देगी. आप बच्चे का ध्यान रखो, मैं सारे दरवाजे बंद करके आती हूं.'
वह उठने लगी तो मैंने सोचा कि, यह शिष्टाचार के विरुद्ध है, उससे कहा, ‘नहीं-नहीं आप बच्चे के पास बैठिये. मैं बंद करके आता हूं.'
मैं जब सारे दरवाजे बंद कर रहा था, तो मन में आशंका पैदा हुई कि, बोगी में यह एक अनजान, अकेली महिला है. ऐसे में दरवाजा बंद करना उचित नहीं है.
यह अजब-गज़ब मोहतरमा न जाने क्या हैं? किस खयाल की हैं. स्टेशन पर ट्रेन पहुंचते ही, कहीं कोई तमाशा न खड़ा कर दें. पैसों को लेकर अपनी नादानी पर भी परेशान हो रहा था.
वापस सीट पर पहुंचा तो देखा वह अपनी चादर पर ही आंचल का ही छोटा सा तकिया बनाए, उसी पर सिर रखे चित लेटी हुई थी.
कुर्ती नीचे से ऊपर की ओर स्तनों की गोलाई के आरम्भ बिंदु तक उठी हुई थी. और साड़ी उसके स्त्रियांग के आरम्भ बिंदु को छू रही थी. और इन दोनों के बीच बड़े विशाल हिस्से के बीच से थोड़ा नीचे उसकी बड़ी सी वक्री नाभि किसी सरोवर में उभरी सूक्ष्म टापू सी लग रही थी....
वकील साहब की यह बात सुनते ही मुझे जोर से हँसी आ गई. मैंने कहा, ''वाह भाई वाह. इस समय आप वकील नहीं, कुशल किस्सागो लग रहे हैं. पूरा दृश्य साक्षात् सामने रच दिया. एक और बात कि, हालांकि आपके साथ बड़ी नकारात्मक बात हुई, लेकिन उसको बताने में भी आपको आनंद बहुत आ रहा है. इससे उस समय के आपके आनंद-रस का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है.
वैसे आपने जिस जोरदार ढंग से उसकी नाभि का वर्णन, उसके स्वरूप के हिसाब से बकायदा नाम के साथ किया तो, शास्त्रों में इनके बारे में वर्णित कुछ बातें याद आ गई हैं, मुझे लगता है कि, उन्हें बताने का यही उचित समय है. यह तो आप जानते ही हैं कि, शास्त्रों में नाभि को मानव जीवन का ऊर्जा केंद्र कहा गया है, आयुर्वेद, योग , ज्योतिष शास्त्रों में नाभि के बारे में बड़ी गूढ, व्यापक बातें लिखी हुई हैं.
इनमें नाभि के स्वरूप को देख कर स्त्री या पुरुष किस स्वभाव या आचरण का है, यह जानने का विशद वर्णन किया गया है. आज भी बहुत से हस्त-रेखा विशेषज्ञ नाभि भी देखकर उस व्यक्ति के बारे में बताते हैं.
आपने अब-तक उस महिला का जैसा स्वभाव, उसकी नाभि को वक्री बताया उसके लिए इतना ही कहूंगा कि, 'समुद्र शास्त्र' में ऐसी महिलाओं को बातूनी, तुरंत ही मेल-जोल करने वाली, अति आत्म-विश्वासी, मौज-मस्ती में डूबी रहने, बहुत ही खुले विचारों वाली बताया गया है. यह सारी ही बातें आपकी वह महिला सहयात्री चरित्रार्थ करती दिख रही है. ''
यह सुनकर वह कुछ देर मुस्कुराने के बाद, अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं , ''नाभि-शास्त्र तो मैंने नहीं पढ़ा, इसलिए आपकी बातों के बारे में कुछ नहीं कह सकता. ये आठ-दस तरह की होती हैं इतना भर जानता हूँ. तो मेरे आने तक वह इतनी बेख्याली में, इस तरह लेट चुकी थी. जिसे देख कर वह करना क्या चाहती है, मैं ऐसा कुछ समझने का प्रयास नहीं कर रहा था. क्योंकि वह सब-कुछ तो एकदम स्पष्ट दिख रहा था. नीचे साड़ी घुटनों से ऊपर उठी हुई थी.
उसने आधी जांघों तक को आजाद किया हुआ था. दरवाजे को जिद करके बंद करवाने, कपड़ों से इस तरह दुश्मनी निभाने से उसका आशय साफ़ पता चल रहा था. समझना तो मुझे यह था कि, अब मुझे करना क्या है? यह जो खेल खेलना चाह रही है, उसमें मुझे शामिल होना चाहिए कि नहीं.
मेरा मन, तन, दिमाग क्या कह रहा है? मन पर ध्यान लगाया तो वह विचलित मिला. असमंजस में डूबता-उतराता मिला कि, इसके साथ, इसके खेल में शामिल हो, इसके बदन से अपने बदन का संगीत पूरे सुरताल में बजाओ. अगले पल कहता संगीत पवित्र होता है, ऐसा करना संगीत की पवित्रता को पद-दलित करना होगा. संगीत-रस को भंग करना होगा. किसी के साथ धोखा होगा. इसलिए इसके खेल से दूर रहो.
इसके साथ ही तन फिर काउंटर करते हुए कहता, खेल, खेल होता है. उसमें पवित्रता, अपवित्रता की बात करना, इस खेल को ना समझना है. मूर्खता है.
जब खेल को दोनों ही पक्ष खेलने के लिए तैयार हों, तो उसे पूर्ण निष्ठा के साथ खेलना, दोनों ही पक्षों का कर्तव्य है. न खेलना, खेल का अनादर है. अपने इन तर्कों के साथ, मन मुझसे जबरदस्त विद्रोह करने पर उतारू हो गया. इस विद्रोह को नियंत्रित करना, मेरे लिए प्रतिपल असंभव होता जा रहा था.
क्योंकि दूसरा पक्ष इस विद्रोह को बराबर हवा-पानी दे रहा था. उसे पूरी ताकत से भड़काए जा रहा था.
वह मुझसे बिना हिचक, पत्नी से मेरे पर्सनल रिश्तों को लेकर ऐसी बातें छेड़ रही थी, जो बगावत को और आग लगाए जा रही थी.
वह बार-बार एक हाथ उठा कर, कभी बेल्ट के बक्कल को छूती, कभी शर्ट की कोई बटन खोल देती. उसके इस खेल-कूद से बेल्ट के ऊपर की ओर तीन बटन खुल गईं. उसका हाथ शर्ट के अंदर तक चहल-कदमीं करने लगा.
वह उन बातों पर भी हंस रही थी, जिन पर हंसने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. लगता जैसे थोड़े बहुत नशे में हो. उसका एक हाथ मेरे साथ, तो दूसरा हाथ उसके ही पेट, नाभि, जांघों के भीतर तक, खेल की तैयारी कर रहा था. जल्दी ही उसने मेरे तन-मन की बगावत की आग में घी-घी और घी झोंक कर, आग इतनी भड़का दी कि, हर तरफ आग ही आग फैल गई.
उसकी प्रचंड तपिस से बचाऊँ खुद को, या हवि बन होम हो जाने दूँ, यह तय करने ही जा रहा था कि, उसने पैंट के अंदर हथेली डालकर, मुझे खींच लिया नीचे. मैं उसके ऊपर ही गिरते-गिरते बचा.
तब मैंने सोचा नहीं, बल्कि तय किया कि, खेल के मैदान में जब इसने उतार ही लिया है तो, इसे पूरा खेल, खेल कर ही नहीं, जीतकर भी दिखाऊंगा. यह इस अंदेशे में न रहे कि, यह बहुत बड़ी खिलाड़ी है.
मैदान में, मेरे उतरते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ी. अपनी सफलता पर कि, आखिर उसने मुझ से खेल शुरू करवा ही लिया. उसने बिना प्रेस वाली मेरी पैंट-शर्ट ही नहीं, बल्कि बाकी कपड़े भी, सीट पर संभाल कर रख दिए. अपने सारे कपड़े सिर के नीचे रख कर तकिया थोड़ा और मोटा कर लिया.
खेल में, मैं उसकी जबरदस्त खिलंदड़ी शैली, गठे बदन से बहुत प्रभावित हुआ. मुझे पूरा विश्वास तब भी था, आज भी है कि, वह भी मुझ से प्रभावित हुई होगी. मेरी तरफ से उसे खेल में कोई कमीं नहीं मिली होगी.''
'' वो आपसे प्रभावित हुई या नहीं, मुझे यहाँ इस बात का कोई अर्थ ही नहीं दिखता, क्योंकि मुझे ऐसा दिख रहा है कि, आपके साथ खेल खेलना उसका उद्देश्य ही नहीं था, उसका जो लक्ष्य था उसे पाने के लिए उसने इस खेल को रास्ते की तरह प्रयोग किया. उसकी लक्ष्य प्राप्ति में आप उसके टूल बने रहे बस.''
मेरी इस बात पर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कुछ क्षण मुझे देखा, फिर बोले, '' सही निष्कर्ष तो बात पूरी होने पर ही निकल पायेगा. आगे क्या हुआ कि, हम-दोनों ही अगल-बगल लेटे हुए थे. एकदम मिले हुए. ट्रेन की रफ्तार फिर कम होने लगी थी, जिससे वह काफी ज्यादा हिल रही थी.
हम-दोनों को भी एक निश्चित लय में हिलाए जा रही थी. और हमारे हाथ एक दूसरे के साथ खेल रहे थे. हाँफते बदन को राहत पहुंचाने में लगे थे. अचानक ही ट्रेन तेज़ खटर-पटर की आवाज़ के साथ जल्दी-जल्दी, ट्रैक बदलने लगी.
लेकिन हम-दोनों को कोई जल्दी नहीं थी ट्रैक बदलने, कपड़े पहनने, अपने चेहरे को छिपाकर नकली चेहरे लगाने की. क्योंकि दरवाजे बंद थे. मगर इस ट्रैक परिवर्तन की तेज़ आवाज़, ज्यादा हिलने-डुलने के कारण बच्चे की नींद खुल गई. वह कुनमुनाया, फिर रो पड़ा.
वह बड़ी खुशी-खुशी बोली, ' सब जगाए दिहैंन भैया का.'
यह कहती हुई वह उठी और करीब-करीब भागी-भागी गई बाथरूम. हाथ-मुंह, अपनी छातियों को अंजुरी में पानी ले-लेकर खूब अच्छे से धोया. विशेष कर निपुल को. फिर जल्दी से आकर बच्चे को गोद में लिया और दूध पिलाने लगी.
इस बीच गाड़ी उस स्टेशन पर रुकी नहीं, बल्कि उसे पार करती चली गई. एक बार फिर ट्रैक बदलने की तेज़ आवाज़ हुई, हिचकोले भी खूब ज्यादा लगे. जल्दी ही गाड़ी ने अपनी स्पीड पकड़ ली. तभी उसके बच्चे ने पेशाब कर दी तो वह बच्चे को बुलकारती हुई बोली, 'ई का कई दियो आएं.'
बच्चे ने न जाने क्या समझा कि, मुस्कुरा दिया. वह बार-बार कहती, वह बार-बार मुस्कुराता. आखिर वह उसको, उसके कपड़े लेकर उठी कि, जाकर बाथरूम में साफ कर आए, लेकिन उसके कपड़े अस्त-व्यस्त थे. जब हाथ वगैरह धो कर आई थी तो सीधे बच्चे को दूध पिलाने लगी थी. किनारे पड़ी धोती ऊपर खींच ली थी बस.
अब बच्चा, कपड़ा पकड़े, कि खुद कपड़े पहने. उसकी मुश्किल देख कर मैंने कहा,' अरे चली जाओ ऐसे ही. आकर पहन लेना. वह मेरी बात पूरी होने से पहले ही चली गई. उसके पास कोई और रास्ता तो था नहीं....
अचानक वकील साहब कुछ क्षण रुक कर बोले, '' देखिये आगे स्थितियां क्या से, कैसे-कैसे, क्या-क्या, होती जा रही थीं. मन के बहकने की पराकाष्ठा पर जरा ध्यान दीजिएगा. मैं उसे जाते हुए देखता रहा. बाथरूम की तरफ मुड़ने तक. इसके बाद भी वापस आकर बैठा नहीं, खड़ा रहा. उसे वापस आते हुए भी देखने के लिए. मैं उसे उस विशेष स्थिति में भी देखना चाहता था. एक नैसर्गिक सौंदर्य को, नैसर्गिक स्थिति में ही देखने का खूबसूरत अहसास महसूस करना चाहता था....