"अनजाना सफ़र"
➢ शख़्स
➢ बस-स्टैंड
➢ फॉलोवर
➢ जुल्फें
➢ मान्यता
➢ सिक्का
➢ मंज़र
-शिवम् धुरिया
१. शख़्स
किसी शख्स ने क्या खूब कहा है कि
"जब भी कभी मन मे कई सवाल एक साथ उठ रहे हो, मन व्याकुल स्थिति में हो,
दिल मे अज़ीब सी बेचेनी हो तो दो काम करने चाहिए ;
पहला 'सोना' और दूसरा निकल जाना किसी 'अनजाने सफ़र' में जिसकी मंज़िल पहले से तय न की गयी हो
ये एक आम बात है, हर इंसान कभी न कभी ऐसे माहौल से गुजरता ही है।
बस किसी के लिए ये दिन आज आता है और किसी के लिए कल।
आज मेरा दिन था, ऐसी ही स्थिति से मैं गुज़र रहा था।
बस फ़र्क इतना था कि उस शख्स ने ऐसी परिस्थिति से उबरने के लिए जो विकल्प बताये थे उनमे से मेरे पास सिर्फ एक ही विकल्प बचा था क्योंकि बदकिस्मती से अभी अभी मैं 10 घण्टें की बेहतरीन नींद लेके उठा ही था।
उस शख्स को मैं काफ़ी फॉलो करता हूँ। या यूं कहिये कि आंख बंद कर यकीन करता हूँ, तो ये भी कहना ग़लत नहीं होगा।
तो अब बचे हुए विकल्प के साथ जाना ही मेरी मज़बूरी थी;
यहां से शुरू होता है एक अनजाना सफ़र, जिसकी मंज़िल मुझे ख़ुद मालूम न थी...
हां माफ़ करना
मैने अपने बारे में तो कुछ बताया ही नहीं। फिलहाल आपके लिए ये जानना पर्याप्त होगा कि इस समय तक मैंने लेखन के असीम क्षेत्र में कुछ लघुकथाएं और छोटी मोटी कविताएं लिखना प्रारम्भ कर दी थी।
इसकी जानकारी मेरे समझ मे सिर्फ गिनती के जनों को ही थी
एक छोटा सा सोशल मीडिया में खाता खोल दिया था दोस्तो के कहने पर,
जिसमे कभी कभी मैं अपने लिखे हुए लेख डालता था
वो भी सिर्फ इस उद्देश्य से कि वह भविष्य के लिए सुरक्षित रहे।
२. बस - स्टैंड
चारो तरफ शोर गुल, हार्न, गाड़ियां, यात्री नज़र आ रहे थे
क्योंकि मैं बस स्टैण्ड आ पहुंचा था।
कितने लोग है न जो सफर करते है, उनको अपनी मंज़िल पता होती है लेकिन मेरे मन में एक अलग ही सवाल था कि
क्या इन सब मे से कोई ऐसा होगा; जिसे ये पता ही नहीं होगा कि उसे जाना कहा है, लेकिन वो सफर कर रहा होगा।
ख़ैर मैं तो अपने सफ़र मित्र यानी बस का चुनाव उनके बोर्ड पढ़कर नहीं, उनके रूप देखकर कर रहा था।
हां अरे ये मज़ेदार नहीं लग रही, खिड़कियां ही छोटी है ऊपर से टूटी भी। ये कितना आवाज़ कर रही
भाई ये तो लग रहा अगले चौराहे से पहले ही खराब हो जाएगी...
इतने नुख्स शायद ही मैनें पहले कभी किसी चीज़ में निकाले होंगे। अंततःथोड़ी देर बाद
एक बस संचालक ने मुझसे कहा चलो भाई चलो, बस चलने वाली है और इससे पहले मैं कुछ सोचता;
मैं उसमे दाखिल हो चुका था।
पूरी बस यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी। बच्चों के रोने की आवाज़ के साथ साथ
आईएईए चिप्स, पानी, कोल्डड्रिंक ले जायईईईये...
इस तरह की आवाज़ें भी जोर जोर से सुनाई दे रही थी।
खाली सीट कहीं दिखाई नहीं दे रही थी तो
मैं बस के दरवाजे के पास ही अंदर लगे खंबे से लगकर चुपचाप खड़ा था।तभी बस चालक ने ऐसा हॉर्न बजाया
जैसे बस अब चलने ही वाली हो और चंद सेकेंडों में ही बस चल भी दी।
तभी अचानक बस के बाहर से मेरे पैरों के पास किसी ने अपना बैग फेंका और
वो शख्स बड़ी तेजी से बस के अंदर दाखिल हुआ।
बस संचालक तो सबको इस आश्वाशन से पीछे चलो पीछे चलो कर के भेज रहे थे;
जैसे बस के पिछले हिस्से में अली बाबा की गुफा हो।
सिर्फ पीछे से 'खुल जा सिमसिम'...आवाजें नहीं आ रही थी।
मैं भी जो पहले दरवाजे के करीब ही था,
वो धीरे धीरे उस गुफा के मुहाने मेरा मतलब बस के पिछले हिस्से में पहुँच ही गया था।
३. फॉलोवर
एक संतुलित चाल को प्राप्त करने से ऐसा लग रहा था जैसे बस हाइवे में आ चुकी हो।
भीड़ में खड़े होकर मेरी नज़रे इंसानों के चेहरे को भेदते हुए बाहर देखने की कोशिश कर रही थी।
मैं अपने मे ही कुछ सोच रहा था, जोकि मेरे लिए आम बात है। करीब 20 मिनट लगातार बस चलने के बाद
अचानक मेरे पीछे से एक धीरे से आवाज़ आयी-
सुनो! कोई ऐतराज़ न हो तो यहां बैठ सकते हो। मैंने अपनी सोच को वही ठहरने को बोला और
शुक्रिया बोल कर बैठते ही वापस अपनी दुनियां में चला गया।
एक तरह से देखा जाए तो मैं एक साथ दो सफ़र में था;
वास्तविक और काल्पनिक।
कुछ देर बाद मेरे बगल से आवाज़ आयी-
माफ करना, लगी तो नहीं उस वक़्त ऐसा लगा जैसे मेरी बस छूट ही गयी;
जल्दी के कारण आपके पैरों के पास बैग फेक दिया था
अरे कोई बात नहीं, ऐसा कहते हुए मुझे याद आया; अच्छा! ये वही मोहतरमा है।
थोड़ी देर बाद उसने कहा, "मैंनें कहीं आपको देखा है।"
मैंने उल्टा ही पूंछ दिया, हमीरपुर से हो क्या?
तो वही कभी देखा होगा, मैं भी वही से हूँ- और मैं शांत हो गया।
उसने अपना मोबाइल निकाला और कुछ देर बाद बोली- "शिवम धुरिया, राइट?"
मैंने आश्चर्यचकित होकर उसकी तरफ देखा और बड़ी असमंजस की स्थिति में कहा- "हां", लेकिन...
यहां मैं मन ही मन सोच रहा था कि शायद ये मेरी फेसबुक में होगी क्योंकि मुझे नहीं पता कि फेसबुक में मुझसे कौन कौन से लोग जुड़े हुए है।
लेकिन अब जो वो बोलने वाली थी, शायद ही मैनें इसकी कभी कल्पना की थी
बोली -"काफी, अच्छा लिखते हो।"
अब मेरे मन में सवालों की एक झड़ी सी लग गयी थी।
किसी के मन में उत्सुकता पैदा करना, सबके बस की बात नहीं है और ये काम उसने बखूबी कर दिया था|
शायद अब उसके बाद बोलने की बारी मेरी थी...
मेरे मन में ये चल रहा था कि लिखने की बात तो सिर्फ गिनती के लोग जानते है; ये आखिर कहाँ से जान गयी।
मैं अभी मन में ही कुछ सोचता था और उससे पहले बगल से आवाज़ आ जाती।
"अच्छा! कुछ सुना दो यार", इस बार जैसे ही वो बोली;
मैनें कहा अब तुम रुको, पहले ये बताओ मेरे बारे में जानती हो, लेकिन कैसे?
अरे मैं तुम्हें फॉलो करती हूँ, फॉलोवर हूं तुम्हारी...
जहां तुम अपनी लिखी चीज़े डालते हो।
वो सब ठीक है, तुम कुछ सुनाओ;
बोल कर, बस मुझसे कुछ सुनने का इंतेज़ार करने लगी।
उस वक़्त मुझे कुछ याद हो, तब तो उसे सुनाता। ऊपर से मुझे अपना लिखा याद भी नहीं रहता।
४. जुल्फें
टिकट टिकट...
"ये बस जहां जा रही है, बिना बताए वहां तक का टिकट दे दो भाई", मेरे ऐसा कहने पर कंडक्टर ने अजीब सी प्रतिक्रिया देते हुए टिकट दिया।
मसला तो अंजान मंजिल का था न, अब ऐसा न करने पर मेरी मंजिल तयहो ही जाती।
हम दोनो बस की बाएं साइड में बैठे हुए थे; जहां बैठने की दो सीट्स होती है
वो खिड़की तरफ बैठी हुई थी, खिड़की का शीशा खोले बाहर की तरफ देखे जा रही थी
थोड़ा गर्मी थी औऱ हवाएं भी शांत थी...
अचानक वो अपने बालों को बांधने लगी, जोकि अभी खुले हुए थे।
औऱ बांधते बांधते मेरी तरफ देख कर कहती भी जा रही कि ' अभी तक कुछ सुनाया नही आपने'...
"शायद लड़कियों को खुले बालों में गर्मी थोड़ा ज्यादा लगती है", ऐसा मुझे याद आया कि ये तो उसी शख्स ने कहा था; जिसकी चर्चा मैंने पहले की हुई थी
ओह! तभी इस लड़की नें भी शायद इसी कारण से बाल बांधें होंगे...ये सारे विचार खत्म होने ही वाले थे कि
तभी अचानक तेज़ हवाएं चलने लगी। जैसे एक दम सब कुछ तहस- नहस कर देगी,
ऐसा लग रहा था...मानों अचानक किसी से कोई गलती हो गयी हो औऱ
अब हवाएं रुष्ट होकर सब उजाड़ देने के लिए आतुर हो।
"ये हवाएं अचानक क्यूँ तेज़ हो गयी", उसका ये कहना हुआ
औऱ मेरे अंदर से एक आवाज़ आयी कि
"तुम्हारा यूं ज़ुल्फ़ों का कसकर बांधना ही
तूफानों का कारण है,
जुल्फें बांधा मत करो
देखो! हवाएं नाराज़ हो गयी।।"
जब तक मै कुछ सोचता, आवाज़ उसके कानों तक पहुच चुकी थी औऱ उसकी नज़रें मेरी तरफ...
कुछ देर का सन्नाटा पसर गया। उससे ज़्यादा तो मैं खामोश हो गया
इस सन्नाटे को चीरते हुए बोली "वाह, क्या ही लिखते हो शिवम...
एक पल को ऐसा लगा, जैसे तुमने ये मुझसे ही कहा हैं।"
मासूमियत से मेरी तरफ देखते ही बोल पड़ी,"ऐसे किसी को नाराज़ नहीं किया जाता; है न"
औऱ फ़ौरन ही बालों को आज़ाद कर दिया।
मैं इस बार यहां खुद को हँसने से रोक नहीं पाया औऱ उसकी तरफ़ देख कर हँसने लगा...
बालों को खोलते ही कुछ पलों में हवाएं भी शांत हो गयी; मानों प्रकति भी आज़ मेरी तरफ से थी।
५. मान्यता
अचानक वो अपना समान देखने लगी, जैसे अगले स्टॉप पे उसे उतरना हो।
उसके बात करने के अंदाज़ से ही कन्फर्म हो गया कि अगला स्टॉप उसी का है
क्योंकि काफी तेज़ी के साथ उसने कहा कि,"अगर तुम्हारी कविताएं, तुमसे सीधी सुननी हो,
तो क्या कोई औऱ विकल्प संभव है?"
काफी अच्छी मुलाकात थी ये; तो मैने उससे पूछा -"किस्मत में यकीन करती हो?"
"हां, करती हूँ बिल्कुल; देखों अपना मिलना इसी से तो हुआ न", बोल कर हंसने लगी।
मैं किस्मत को औऱ आज़माना चाहता था तो बोल पड़ा-,"फ़िक्र मत करो! किस्मत में लिखा होगा तो दोबारा मिलेंगे
औऱ अगली बारी जब हम मिलेंगे; तुम्हारे पास मुझसे सीधे जब चाहे कविता सुनने का विकल्प मौजूद होगा, पक्का"...
कुछ पल के लिए वो कुछ सोचने लगी,
बाहर देखी और अचानक से मेरी तरफ मुड़ कर बोली, "आगे एक नदी आने वाली है
ऐसी मान्यता है कि यहां जो भी सच्चे मन से जो माना जाता है, वो हमेशा पूरा होता है।
मैं हंसते हुआ बोला,"क्या मजाक कर रही हो? तुम ये सब बाते अभी भी मानती हो..."।
"अरे हस लो ऐसी मान्यताओं के लिए, तुम्हे पीछे अतीत में जाना होता है; समझे लेखक महोदय", बोलकर मायूस मन से बाहर की तरफ देखने लगी
"अच्छा अच्छा, मान गया मैं ठीक... बताओ क्या हुआ था अतीत में", जैसे ही मैंने ये बोला
उसके चेहरे में चमक आ गई, फोन में टाइम देखी और बोली,"इस मान्यता से जुड़ी एक कहानी है, अभी टाइम है मुझे उतरने में...सुनोगे?"
मैने भी जिज्ञासा वश हां, में सिर हिला दिया।
"प्राचीन काल में एक राजा थे... ये नदी उसके राज्य में ही आती थी। एकबार एक मछुवारे को यहां से मछली पकड़ने के दौरान उसके जाल में एक पेटी मिली। खोलकर देखा तो पेटी सिक्को से भरी हुई थी। वो तुरंत राजा के पास लेकर गया, राजा ने उसे उपहार स्वरूप कुछ उपयोगी चीजे देकर पेटी अपने पास रख ली।
कुछ समय बाद अचानक उस राज्य में अकाल पड़ गया, सभी लोग त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे। राजा का पूरा खजाना खाली हो गया सिवाय उस पेटी को छोड़कर... राजा बहुत चिंतित था।
एक दिन उस राज्य से एक बहुत बड़े संत निकले। राजा ने उनसे अपनी सारी व्यथा बताई और कुछ सुझाव देने की प्रार्थना की। तभी संत ने उस पेटी के बारे में भी पूछा...राजा ने एक एक कर सारी बात बताई तो संत ने कहा,"राजन! तुम्हे जलदेवी से प्रार्थना करनी चाहिए और उनकी ये पेटी उन्हें वापस करनी चाहिए।
संत की आज्ञानुसार राजा ने वैसा ही किया और पेटी सूखी नदी के तल में रखवा कर माफी भी मांगी।
कुछ ही समय पश्चात खूब बारिश हुई और सारे राज्य में खुशियां वापस लौट आई।
तभी से ऐसी मान्यता चली आ रही है कि सिक्के को अर्पण करके सच्चे मन से मांगने पर ये नदी तुम्हारी इच्छा पूरी करती है...समझे!"...और एक आराम की सांस लेते हुए मेरी तरफ देखने लगी।
"अच्छा! ये बात है, बोलकर मैं उसको देख रहा था।
६. सिक्का
एक सिक्के के साथ अपनी इच्छा मांग कर फेकने से वो पूरी होती है;
अपन दोनों भी एक ही विश मांग कर एक सिक्का फेकेंगे औऱ विश में तुम्हें भी अगली मुलाकात ही मांगनी पड़ेगी।"
मैंने भी बेजिझक हाँ बोल दिया...
उसने अपना बैग खोला, समान चेक किया
औऱ खिड़की से बाहर नदी का इंतेज़ार करने लगी।
अचानक पूरी बस में हलचल मच गयी क्योंकि चालक ने ब्रेक फेल होने की बात बता दी। बस काफी तेज़ थी, अचानक सभी लोग चिल्लाने लगे।
अचानक हुई इस हलचल से बच्चे रोने लगे, पूरी बस में अफरा तफरी मच गयी|
सामने पुल दिखाई देने लगा था
बस जैसे ही पुल के ऊपर आयी; तब तक चालक ने काफी हद तक बस को अपने काबू में कर लिया था।
सड़क खाली नहीं थी, सामने से ट्रक भी आ रहे थे
इससे पहले हम कुछ समझते; एक ज़ोरदार आवाज़ आयी
धड़ाक....
मुझे सिर में एक जोरदार दर्द का एहसास हुआ औऱ गर्दन शायद बाई तरफ मुड़ गयी थी क्योंकि अब मुझे सीधे नीचे पानी दिख रहा था
मेरी नज़रे जब तक सामने थी, तब तक मुझे सामने एक ट्रक, उससे उठता धुआं दिखाई दिया था
औऱ अब शायद बस पुल की रेलिंग तोड़ते हुए सीधे नदी औऱ आकाश के बीच में आ चुकी थी...
इसी बीच मुझे एहसास हुआ कि मैं हिल नहीं पा रहा हूँ; शायद कोई चीज़ मुझे कस कर पकड़े हुए थी
वो औऱ कोई नही बगल वाली लड़की का हाथ था; जो इस उम्मीद से मुझे थामे था
शायद मैं उसे बचा सकूं
मेरी नज़रे इस वक्त उसकी नज़रों को ढूंढने का प्रयास कर रही थी
मैं इस क्षण उसकी नज़रों में देखना चाहता था औऱ दिलासा दिलाना चाहता था कि "कुछ नहीं होगा, चिंता मत करो
जिस तरह के हालात उस वक़्त थे, ये बोल कर तो संभव नहीं था
हमे लगता है सिर्फ मुंख ही माध्यम है बोलने का; जबकि जो शब्द आप बोल नहीं पाते उन्हें नज़रों से अच्छा कोई नहीं बोल सकता
औऱ नज़रें कभी झूठ नहीं बोलती
लेकिन मेरी मुड़ी गर्दन के कारण मेरी नजरे ज्यादा चीजें नहीं देख पा रही थी
तभी सामने कुछ दिखाई पड़ता है
मुझे दिखाई पड़ता है एक हाथ, जिसकी हथेली बंधी हुई है औऱ
ऐसा लग रहा उसके अंदर कुछ तो है; जिसे वो सम्भाले हुए है
जब बस हवा में थी... एक गहरा सन्नाटा छा गया था, जो अभी तक चिल्ला रहे थे वो सब शांत हो चुके थे
मेरी नज़रों औऱ पानी के सामने सिर्फ एक चीज़ थी; बंधी हुई हथेली
तभी अचानक अंगुलियों की पकड़ ढीली हुई औऱ उनके बीच से एक चमदार चीज़ नीचे गिरी
खंन्नं नन न....
सन्नाटे को चीरते हुए वो आवाज़ मेरे कानों तक पहुची
वो एक 'सिक्का' ही था...जिसे शायद उसने अपनी अगली मुलाकात के लिए पकड़ा हुआ था
मैं उस सिक्के को लगातार देखता जा रहा था
अचानक वो मेरी नजरों से खो गया...
शायद सिक्के के गिरते साथ ही
पूरी बस पानी में समा चुकी थी...
७. मंजर
एक सन्नाटे के बाद, अचानक बहुत सारी आवाजें मेरे कानों तक आ रही थी
आवाजें अस्पष्ट थी
मेरे पेट में कुछ भारी सा महसूस हो रहा था। सिर फटा जा रहा
"ये जिंदा है..."
"यहां आओ, इसे देखो..."
"जल्दी करो, जल्दी करो..."
अब धीरे धीरे सारी आवाजें स्पष्ट हो रही थी
आंखों के सामने थोड़ी देर धुंधलाहट के बाद ऐसा लगा
कोई आदमी सफेद कपड़े में मेरे पेट में लगातार दबाव बना रहा था
चारों तरफ ढ़ेर सारी भीड़, पुलिस, एंबुलेस, क्रेन, मीडिया इन्हीं का शोर था
मुझे दिलासा दिया गया, घबराओ मत! तुम ठीक हो
बस सिर में पट्टी बांध दी है आराम करो
धीरे धीरे मुझे होश आया..
मेरी आंखों के सामने जो था, ऐसा मंजर मैंने इससे पहले कभीं नहीं देखा था
एक तरफ कुछ लोगो को निकाला जा रहा था
तो दूसरी तरफ कुछ लोगो को सफेद कपड़ों में ढका हुआ था
किसी को एंबुलेंस में जल्दी जल्दी पहुंचाया जा रहा था
अचानक मीडिया की लाइट मेरी तरफ पड़ी और मुझसे सवाल पूछने लगे -
"आप अकेले थे? आप के साथ और कौन था ?
जैसे ही ये प्रश्न मेरे सामने आया; मेरे होश ही उड़ गए
मैं सीधे लड़खड़ाते हुए उन लोगो के पास पहुंचा, जिनको निकाला जा चुका था और मेडिकल टीम उनके उपचार में लगी थी
एक एक कर मैं सारे लोगो को देखते हुए आगे बड़ रहा था
अब मैं शायद पूरे होश में आ चुका था
इन शोरगुल के बीच चिल्लाने का मन कर रहा था कि वो लड़की कहां है??
मुझे उस वक्त अंदाजा लगा कि, उसका नाम भी मुझे मालूम नहीं है
मैं भाग कर नदी की तरफ जाने लगा, चिल्लाने लगा
लेकिन एनडीआरएफ की टीम ने मुझे पकड़ लिया। जैसे तैसे उनसे अपने को छुड़ा कर, मैं वही एक तरफ बैठ गया
कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करू? कैसे ढूंढू उसे??
बगल में सफेद कपड़ों से ढके लोगो की तरफ मेरी जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
खुद को संभालते हुए मैं एक बार फिर से एक छोर से दूसरी छोर भागनेलगा कि कहीं तो वो दिख जाए
मैंने टीम से चिल्ला कर पूछा -," किसी लड़की को यहां से ले गए क्या?? वो मेरे साथ थी ..."
उन्होंने कहां नहीं बेटा अभी तक फिलहाल सब यहीं है, बस दो वृद्ध लोगो को ही यहां से ले जाया गया है...
मैं बार बार उन ढके हुए चेहरों की तरफ देख रहा था लेकिन पास जाने की हिम्मत मुझमें नहीं हो रही थी
मन को बार बार कह रहा था कि वो ठीक है, कुछ नहीं हुआ होगा उसे
सब ठीक है, वो ठीक होगी
उस दिन पता चला; मन को समझाना आसान काम नहीं हैं।
अब मेरे सब्र का बांध टूट पड़ा और मैं जोर से चिल्ला कर रोने लगा...मेरे सामने बस अंतिम वो सिक्का ही याद आ रहा था
मैं आंसू पोंछते हुए भागते भागते खड़ी हुई भीड़ के पास गया
एक सिक्का है क्या? प्लीज प्लीज...मुझे दे दो
तभी एक आदमी ने मुझे एक सिक्का मेरे हाथ में थमाया
मैं सिक्का लेके तेजी से नदी की तरफ चिल्लाते हुए भागा, "तुम जिंदा हो, समझी न, मैं अपनी सारी कविताएं अब तुम्हें पहले
सुनाऊंगा ठीक
तुम जिंदा हो
कहां हो ...??"
और सिक्का नदी में तेजी से फेक कर वही चुपचाप बैठ गया...
क्या उन ढके कपड़ों के नीचे वो लड़की थी...?
क्या उस लड़की को निकाल लिया गया था...?
क्या नदी सच में मान्यताएं पूरी करती है...?
अगर वो जिंदा थी, तो क्या मेरी उससे मुलाकात हुई...?
और कौन था वो शख्स जिसकी बातें मैं फॉलो करता हूं...?
ये सारे सवाल उठने लाजमी है।
इन सारे सवालों के जवाब आपको मिलेंगे, जिसके लिए आपको इंतजार करना पड़ेगा इसके अगले अंक
"अनजाना सफर: पार्ट २"
का
उम्मीद करता हूं आपको मेरे इस अनजाने सफर में साथ चलकर अच्छा लगा होगा
धन्यवाद!
_शिवम् धुरिया