संत नागा निरंकारी महाराज Praveen kumrawat द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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संत नागा निरंकारी महाराज

संतो और महात्माओ की महिमा का बखान करना बड़े सौभाग्य और परम पूण्य की बात है। संत नागा निरंकारी परम अवधूत थे। उन्होंने लोक-लोकान्तरों के आत्मरहस्य को जन्म-जन्मांतर से समझा था। प्रत्येक लोक में अपनी महती साधना-शक्ति के द्वारा वे निर्विरोध आ-जा सकते थे, यह उनके चरित्र-वैचित्र्य के संबंध में अतिशयोक्ति नही बल्कि वास्तविकता है। नागा निरंकारी के अनुयायियों में यह मान्यता है कि वे महाभारतकालीन दिव्य जन्मधारी परमदानी महात्मा कर्ण के अवतार थे, इस मान्यता की परिपुष्टि उनके (नागा निरंकारी महाराज के) उद्गार से भी होती है, समय-समय पर उन्होंने बड़े ऐतिहासिक और अधिकारपूर्ण ढंग से इस रहस्य की ओर स्पष्ट संकेत भी किया था। महाभारत के बाद उन्होंने अनेक जन्म लिये पर सदा निवृत्ति मार्ग में ही रहे, उन्होंने कभी विषय भोग में रहकर प्रवृत्तिपरायण का परिचय नही दिया। नागा निरंकारी के वेष में शरीर धारण करने का समय विक्रमीय सोलहवीं या सत्तरहवी शताब्दी में पड़ सकता है, उनकी अवस्था का अनुमान लगाना सहज नही है पर यह कहना संभव दिख पड़ता है कि उनकी आयु लगभग तीन सौ साल की रही होगी और महान आश्चर्य तो यह है कि उनके शरीर मे कभी विकृति-परिवर्तन का दर्शन नही हुआ, वे परम हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ, न जाने कितने समय से एक आकार-प्रकार में दिख पड़ते से चले आ रहे थे, वे दिव्य शक्ति के पुञ्जीभूत चेतन रूप थे। उनकी प्रसिद्ध रचना ब्रह्मवाणी के कुछ पदों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिस समय मुगलो का शासन अपने मध्याह्न पर था उस समय वे सिद्धावस्था प्राप्त कर आत्मानुभूति से एकान्त में स्वस्थ होकर लोक-कल्याण में लीन थे। संत कबीर और नानक के संबंध में उनकी अद्भुत उक्ति ब्रह्मवाणी में मिलती है तथा यवनकालीन ऐतिहासिक विवरण का चित्र-सा आभासित होता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने गुरु नानक को देखा था, सिक्खों में दस नानक की मान्यता है, गुरु नानक से गुरु गोविंद सिंह महाराज तक दस नानक की परिगणना होती है। उन्होंने नानक को फेरी लगाते देख कर उनके संबंध में ब्रह्मवाणी में पद-रचना की है। गुरु गोविंदसिंह के बाद गुरु-परंपरा का अंत हो गया, वे अंतिम नानक थे। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि सन्त नागा निरंकारी या तो उनके पहले थे या उनके समकालीन थे। यह संभव है कि वे पंचम नानक गुरु अर्जुन देव के समकालीन रहे हो। ब्रह्मवाणी में उनका पद है-
'भजले श्रीनागा निखान दीवाने मन।
जागो श्याम अब भोर हुआ है, गुरु नानक करते फेरी दीवाने मन।'
ब्रह्मवाणी के इस पदांश के अतिरिक्त यह भी प्रमाणित है कि उनके तप का प्रारंभिक काल पंजाब में ही बीता उन्होंने विक्रमीय बीसवीं शती के अंत मे समाधि ली, इसलिये इतनी लंबी आयु में तप के प्रारंभिक काल मे पंजाब में पंचम नानक को फेरी लगाते देखना नागा निरंकारी के जीवन चरित्र का औचित्य स्वीकार किया जा सकता है। उन्होंने अपनी ब्रह्मवाणी में एक ऐसे पद की भी रचना की है जिसमे मध्यकालीन युद्ध-परम्परा पर प्रकाश पड़ता है, युद्ध के संबंध में उनका यह संस्मरण संकेत करता है कि उन्होंने उसे आँख से देखा था। पद इस प्रकार है―
'चढ़ा है नागा लसगर बादशाह लेकर,
फौजे तम्बू साथ मे है,
रावटी, तम्बू, निसान गोला दीद में गड़े है।।
चारो ओर से फौज चढ़ी है,
होन लगा मैदान बीच मे बादशाह खड़ा है।
अब लड़े है दोनो बादशाह, युद्ध हुआ है बड़ा घोर,
अब उखड़े है झंडा निशान,
नागा लई उडारी झण्डा गड़ा मैदान।।
तोप खजाना लूट लिये है, बादशाह है नादान;
आगे खजाना सुना पड़ा है, लुटे चतुर सुजान।
नागा कहै सुनो भाई संतो,
सब पक्षी उड़ गये है, तू मूरख ले जान।।'
संत वाणी में इस पद का क्या रहस्य है यह तो संत की कृपा से ही समझा जा सकता है पर लोक वाणी में इसकी ऐतिहासिकता सिद्ध करती है रचयिता की मध्यकालीन उपस्थिति।

संत नागा निरंकारी नाम रूप के आवरण से सत्स्वरूपस्थ महात्मा थे। उन्हें अपने द्वापरयुगीन जन्म की घटनाओं और सम्बन्धियो का समीचीन स्मरण था। उनको इस बात का भी पता था कि इस जन्म में उनके तत्कालीन जीवन से सम्बद्ध कौन-कौन से व्यक्ति किन नामरूपो में है। वे अपने व्रत और नियमो के बड़े पक्के थे। अन्न छोड़ा तो कई वर्षों तक अन्न के त्यागी ही बने रहे, वस्त्र छोड़कर नंगे फिरते रहने का संकल्प किया तो नागा वेष में ही विचरते रह गये। इसी प्रकार किसी स्थान विशेष में तप आरम्भ किया तो कई सालों तक उस स्थान पर ही ठहर गये। उनका जीवन-चरित्र उच्च-उच्चतर और उच्चतम संकल्पो का क्रियात्मक रूप कहा जा सकता है। संत नागा निरंकारी ध्यान में लोक-लोकांतर में विचरण करते थे और अपने निकटवर्तियों से उन स्थानों की विचित्र घटनाओ का वर्णन किया करते थे। एक बार उन्होंने अपने अत्यंत निकटवर्ती और प्रिय तथा ज्ञानी शिष्य सन्त पलक निधि 'पथिक' जी महाराज से कहा था कि 'हमे ध्यान में श्रीलक्ष्मी जी ने सर्वत्र विजयी होने का वरदान दिया है। हमारे हाथ मे लक्ष्मीजी की दी हुई छाप है। इस छाप को देखकर कोई भी शक्ति हमे कही जाने से रोक नही सकती। साथ ही हमे भगवान की ओर से अमृत का प्याला पिलाया गया, इसी से हम किसी के मारे नही–स्वेच्छा से मर सकते है।' कैलाश लोक के नीचे के समस्त लोको के अधिपतियों ने उनको अपने ऐश्वर्य की महिमा दिखा कर रोकना चाहा पर वे कही भी रुक न सके। उनके शिष्यों में यह मान्यता चली आती है कि उन्हें कैलाश धाम की प्राप्ति में परम गुरु शुक्राचार्य ने सहायता दी थी। संत नागा निरंकारी अपने इस जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में हरनामदास, रामदास, नागा, नागागिरिधारी, नागा बाबा और नागा निरंकारी आदि नामो से प्रसिद्ध हुए। वे पहुँचे हुए उच्च कोटि के अवधूत थे।

विक्रमीय अठारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण की बात है। पंजाब प्रांत में भगवती रावी नदी के तट पर अठीलपुर नगर में, जिसका इस समय पता नही चलता है, एक समृद्ध राजपरिवार था। उस राज्य की रानी संतानहीन थी। एक बार राजप्रासाद में एक संत का आगमन हुआ। रानी ने संतान प्राप्ति की कामना प्रकट की। संत ने आशीर्वाद दिया कि एक पुत्र पैदा होगा पर स्मरण रहे कि उसके सिर पर छुड़ा न फिरे नही तो वह घर को छोड़कर वैराग्य ग्रहण करेगा। कुछ समय बाद संत के आशीर्वादरूप में अठीलपुर के राजप्रासाद में नागा निरंकारी का जन्म हुआ, चारो ओर आनंद ही आनंद छा गया। शहनाई की मधुरिम ध्वनि वातावरण के कण-कण में व्याप्त हो उठी, अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे, राजकर्मचारी फूले नही समाते थे, असंख्य असहायों, कंगालों और सुपात्र ब्राह्मणों को दान दिया गया, अनेक प्रकार के रत्न और स्वर्ण आभूषणों से याचको को संतुष्ट किया गया। नवजात का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया। राजनगरी विशेष ढंग से सजायी गयीं। प्रजा ने आमोद-प्रमोद मनाये। जन्मकाल मे नवजात का शरीर अत्यंत छोटा था, उनके पिता और पितामह को बड़ी चिंता हुई कि इतने छोटे शरीर वाली संतान से किस प्रकार राजकार्य-संपादन होगा पर माता की ममता ने संतोष किया कि मेरी संतान जीवित रहेगी, यही क्या कम है। राजमाता की पूर्व की अनेक संताने मृत्यु के मुख से बाहर नही निकल सकी थी। माता ने अपने पति से कहा कि यदि मेरे बालक में राजकार्य चलाने की क्षमता नही होगी तो फकीरी करने की शक्ति तो रहेगी ही।

नागा निरंकारी का पालन-पोषण बड़ी समृद्धि और सुखभोग के वातावरण में हुआ। वे ज्यो-ज्यो बड़े हो रहे थे त्यों-त्यों जन्म-जन्म के पुण्य और दान के फलस्वरूप प्राप्त गंभीरता और दैवी संपत्ति में भी अभिवृद्धि हो रही थी। राजप्रासाद के पीछे एक रमणीय सरोवर था। नागा निरंकारी ने अपनी शैशव अवस्था के अनेक क्षण गंभीर चिंतन में उसी सरोवर के तट पर बिताये। कभी-कभी बालमण्डली में बैठकर क्रीड़ा करते थे। माता उन्हें बहुत मानती थी, पिता की अपेक्षा उनका स्नेह अपनी संतान पर अधिक था। माता उन्हें बहुमूल्य अलंकारों से सजाकर बाहर खेलने के लिये भेजा करती थी। एक बार वे कीमती हीरक अंगूठी पहन कर राजप्रासाद के बाहर खेलने जा रहे थे। दैवयोग से उन्होंने एक भिक्षुक देखा, दया से उनके मन मे दानशीलता का भाव जाग उठा, वे परमदानी के अवतार थे ही; उन्होंने बिना मांगे ही अपनी अंगुली की अंगूठी उतार कर भिक्षुक को दे दी। इस प्रकार एक कीमती शाल खेल के समय मे ही कही बाहर भूल आये। सांसारिक पदार्थो में उनकी तनिक भी आसक्ति या रुचि नही थी।

जब वे केवल दस-बारह साल के ही थे पंजाब पर मुसलमानों का भयंकर आक्रमण हुआ। उनके पिता को शत्रुओ से लड़ने रण में जाना पड़ा। वे युद्ध क्षेत्र में मारे गये। कुलपरंपरा के अनुसार नागा निरंकारी की माँ सती हो गयी। सती होने के पहले उन्होंने अपने पुत्र को प्यार किया, पीठ पर हाथ फेरा और ममता भरी दृष्टि से उन्हें देख कर परलोक में पति से मिलने चली गयी। नागा निरंकारी ने पिता और माता के स्वर्ग पधारने पर राजप्रासाद का परित्याग कर दिया। वे एक संत के आश्रम में पहुच गये। तेजस्वी बालरूप में नागा निरंकारी को देख कर संत बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनका नाम हरनाम दास रखा। संत किसी औषधि के प्रयोग से चाँदी बना कर अपने शिष्यों की तथा अपनी जीविका चलाते थे। नागा निरंकारी इस कार्य से बहुत दूर रह कर बाल क्रीड़ा में मग्न रहते थे। कुछ दिनों के बाद आश्रम का परित्याग कर वे तप करने के लिये निकल पड़े।

वे बाल-अवधूत के रूप में निर्जन स्थानों में निवास कर तप करने लगे। वे तप के पहले बारह साल की अवधी में मौन रहे। नंग-धड़ंग दिगम्बर वेष में भ्रमण करते देख कर लोगो ने उनको नागा बाबा की संज्ञा से विभूषित किया। वे बालको के साथ ही खेलते रहते थे। बारह साल बाद मौन-व्रत भंग करने पर उन्होंने वाणी प्रतिध्वनि-व्रत का आचरण किया। उनसे मिलने पर या उन्हें देख कर जो व्यक्ति जैसा वचन बोलता था, नागा निरंकारी उसे वैसा ही दोहरा दिया करते थे, चाहे वह प्रिय होता या अप्रिय, इस प्रकार के तप में उनके जीवन के अनेक साल बीत गये। वे अनेक स्थानों में भ्रमण कर तप करते रहे। बालको के साथ खेलना ही उनकी साधना का स्वरूप था। इस प्रकार की साधना के निगूढ़ भाव का अनुभव उनकी कृपा से ही संभव है। बालक खेलते-खेलते उन्हें जिस स्थान पर छोड़ कर चले जाते थे वे वही तब तक बैठे रहते थे, या खड़े रहते थे जब तक साथ मे खेलने वाले बालक उनका हाथ पकड़ कर दूसरे स्थान पर न ले जाते। उन्हें भूख-प्यास की तनिक भी चिंता नही रहती थी। यदि कोई खिला-पिला देता तो खा-पी लेते थे। इस प्रकार घोर तप में उनके जीवन का अधिकाधिक समय बीतने लगा। वे पूरी अवधूत-वृत्ति में थे।

संत नागा निरंकारी ने अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर तप किया पर सदा वे गुप्त रूप से ही विचरते रहते थे। उनके तपोमय जीवन का अधिकांश भाग प्रयाग और कानपुर के बीच के जनपदों में बीता। उत्तरप्रदेश के फतहपुर जनपद में असोथर नामक उपनगर के निकटवर्ती वन में उन्होंने घोर तप किया। इसके पहले अयोध्या में उन्होंने तप करके अपने जीवन का आधा भाग बिताया था। असोथर एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, इतिहासप्रसिद्ध भगवंतराय की पूर्वकाल में यह नगरी राजधानी थी। यह स्थान महाभारत प्रसिद्ध अमर अश्वत्थामा के नाम से भी सम्बद्ध है। नगर से थोड़ी दूर पर अश्वत्थामा के मठ का ध्वंशावशेष अवस्थित है मठ से लगी हुई एक अत्यंत प्राचीन और निर्जन कंदरा में संत नागा निरंकारी तप करने लगे। फतहपुर जनपद के प्रसिद्ध सन्त मगनानंद स्वामी ने भविष्यवाणी की थी कि मेरे ब्रह्मलीन होने के बाद दो पंजाब प्रांतीय महात्मा आकर तप करेंगे, वे परम सम्मान्य संत है उनकी भविष्यवाणी की पूर्ति के रूप में ही नागा निरंकारी का आगमन हुआ। उनके साथ एक और संत भी आये थे, कुछ समय तक गंगा तट पर निवास करने के बाद वे समाधिस्थ हो गये। नागा निरंकारी मौन व्रत ग्रहण कर असोथर-वाली कंदरा में तप करते रहे। वे परम दिगंम्बर और महामौनी थे। परम सौभाग्य का उदय होने पर व्यक्ति विशेष को उनका दर्शन हो जाया करता था। असोथर के एक साधारण गृहस्थ शिवमंगल सिंह (बचना) को उन्होंने अपनी सेवा का सौभाग्य प्रदान किया था। धीरे-धीरे निकटवर्ती नगरों में उनकी कीर्ति फैलने लगी, वे 'नागा बाबा असोथर' के नाम से प्रसिद्ध हो गये। तत्कालीन राजरानी उनके चरणों मे असाधारण श्रद्धा रखती थी।

उनमे दीर्घकालीन तप के परिणाम स्वरूप वाच्योक्ति का आरंभ हो रहा था वाच्यज्ञान नही था। किसी की बात सुन कर उसी प्रकार दोहरा दिया करते थे। यदि कोई कहता था― 'बाबाजी बैठो', तो वे भी कह पड़ते थे 'बाबाजी बैठो।' लोग उन्हें अपने-अपने घर ले जाने लगे, उनकी चरण धुली से अपना घर पवित्र कराने लगे। साथ मे बालको की मंडली रहती थी, वे परमहंसवृत्ति से बालको के साथ खेला करते थे। असोथर-निवास के प्रति उनका अनुराग महाभारत काल मे कर्ण के रूप में अश्वत्थामा से उनकी मैत्री का प्रतीक था। ऐसा कहा जाता है कि असोथर-अश्वत्थामा पूरी की अश्वत्थामा ने स्थापना की थी। असोथर के निवासियों ने पहले तो उनकी अवधूत-वृत्ति देख कर पागल समझा पर बाद में उनकी महत्ता के चरणदेश मे वे नतमस्तक हो गये। असोथर में उन्होंने घोरतम तप किया। असोथर-निवास काल मे एक बार वे विचरण कर रहे थे। संयोग से उनकी एक थानेदार से भेंट हो गई। नागाजी के साथ खेलने वाली बालमण्डली भी थी। थानेदार ने पूछा, 'तुम इस तरह नंगे क्यो घूमते हो।' नागा ने उसकी बात दोहरायी। इसी समय कुछ लोगो ने थानेदार से निवेदन किया कि ये संत पुरुष है, इन्हें छेड़ना नही चाहिए। थानेदार नागा बाबा को प्रणाम कर चला गया।
इसी प्रकार असोथर के थानेदार को उनके पागल होने का भ्रम हो गया था। उसने बाबा को अस्थायी कारागार में डाल दिया। रात को नागा बाबा ने जोर-जोर से 'अलख' का उच्चारण आरम्भ किया। रानी साहब उनकी आवाज पहचानती थी। असोथर की राजरानी ने थानेदार को कड़ी धमकी दी और नागाबाबा कारामुक्त हो गये।

संत नागा निरंकारी बालको के साथ खेलते और भ्रमण करते समय अपने आप को पूर्णरूप से उन्ही की चेष्टाओं पर निर्भर कर देते थे। बालक बुलाते थे तो बोलते थे, खिलाते थे तो खाते थे, चाहे बालक उन्हें पानी मे गिरा दे, चाहे उनको बालू में सुला दे, चाहे ढकेल दे, उन्हें उनकी प्रत्येक चेष्टा मान्य थी। कभी-कभी तो बालमण्डली के कारण उनके प्राण संकट में पड़ जाते थे, पर बाल-शक्ति के रूप में अदृश्य भगवतशक्ति ही उनकी ऐसे अवसरों पर रक्षा करती थी। बालक जहा रात को लिटा देते, वही लेट जाते थे, कोई कुछ उढ़ा देता था तो ओढ़ लेते थे, यदि ओढ़ने का वस्त्र नीचे गिर जाता या खिसक जाता तो उसे फिर नही उठाते थे। इस प्रकार उन्होंने अवधूत व्रत का पालन किया।

एक बार वे यमुना किनारे बालको के साथ खेल रहे थे। जिस गाँव के वे बालक थे, वह यमुना तट से थोड़ी दूर पर था। नागा बाबा एक कगार पर खड़े थे। यमुना का वेग अत्यंत तीव्र था। बालको ने उनको यमुना में ढकेल दिया। वे प्रवाह के साथ बहते-बहते कोसो दूर चले आये। एक ग्राम तट के निकट था। कुछ बालक खेल रहे थे। नागा बाबा बाहर निकल कर उनके साथ पहले की ही तरह खेलने लगे।

एक बार उन्होंने यह धारणा बना ली थी कि जिस दिशा की ओर पैर बड़े उसी ओर चलते रहना चाहिये, पीछे नही लौटना चाहिये। उत्तर दिशा की ओर चलने पर नेपाल जा पहुँचे, नेपाल से तिब्बत और तिब्बत से चीन पहुँच गये। चीन में वे किसी की भाषा नही समझ पाते थे। यदि कोई खाने-पीने को दे देता तो प्रसन्नता से खा लिया करते थे। किसी से कुछ मांगने की वृत्ति तो थी ही नही। चीन में वे एक अंग्रेज के बगीचे में जा पहुँचे, जब तक वे चीन में थे, उसी बाग में उन्होंने निवास किया। अंग्रेज सज्जन ने उनको भारतीय संत समझ कर अनुकूल भोजन आदि का प्रबंध कर दिया, उसने बाबा की बड़ी सेवा की। चीन से आसाम, तथा ब्रह्मदेश में विचरते हुए भारत मे प्रवेश किया।

संत नागा निरंकारी की तपोभूमि के प्रतीक रूप में उत्तरप्रदेश के कानपुर जनपद का पालीराज्य तथा प्रयाग जनपद का अटसराय स्थान स्मरणीय हैं। उन्होंने पाली में इस जीवन के अन्तिम दिनों में निवासकर अपनी आत्मानुभूति से असंख्य प्राणियों का कल्याण किया। वे पाली निवासकाल में अपनी सहजावस्था में थे। पाली के कण-कण में उनकी दिव्य अभिव्यक्ति का दर्शन होता है। पाली राज्य की राजमाता सती-साध्वी गिरिराज कुमारी और उनके पुत्र अमरनाथ ने नागा बाबा के चरणों मे असीम श्रद्धा प्रकट कर उनकी महती सेवा का अधिकार प्राप्त किया।

अवधूत नागा के जीवन मे बहुत सी अलौकिक और चमत्कारपूर्ण घटनायें घटी थी। एक समय आसुरी प्रकृति के कुछ व्यक्तियों ने उनकी योग शक्ति की कड़ी परिक्षा ली। उन्हें नग्न वेष में विचरण करते तथा बालको के साथ खेलते देखकर उन लोगो ने समझा कि नागा बाबा ढोंग कर रहे है। नागा बाबा कानपुर जनपद के बरई ग्राम में बालको के साथ खेलते हुए भ्रमण कर रहे थे। रात होते ही एक कमरे में विश्राम के लिये उनको रख दिया तथा उनके ब्रह्मचर्य और योग शक्ति की कड़ी परीक्षा के लिये समझा-बुझा कर एक वेश्या को भीतर भेज कर बाहर से ताला लगा दिया। ..... दूसरे दिन सुबह ताला खोलने पर वे कमरे में नही थे, अदृश्य हो गये थे। वेश्या अर्धविक्षिप्त दशा में थी। उसने चेत होने पर कहा कि मैंने बाबा का आलिंगन करना चाहा पर वे मुझे स्त्री के रूप में दिख पड़े और तत्काल अदृश्य हो गये। कुछ दिनों के बाद उस वेश्या का प्राणान्त हो गया। इस प्रकार परीक्षा की कसौटी पर संत नागा बाबा निरंकारी खरे निकले।

एक बार संक्रांति पर्व के अवसर पर नागा निरंकारी पाली के भक्त राजपरिवार के साथ जाजमऊ नामक स्थान पर गंगा-स्नान करने गये थे। वे गंगा की रेती में बैठ कर भोजन कर रहे थे, अचानक 'बच गया' शब्द उनके मुख से निकल पड़ा। पूछने पर उन्होंने कहा कि गंगा-यमुना के संगम पर एक नाव भँवर में फँस रही थी, एक व्यक्ति डूबने वाला था पर बच गया। नागा बाबा इतना कहने के बाद मौन हो गये। किसी ने घटना के संबंध में कुछ पूंछने का साहस नही किया। बाद में पता चला कि संक्रांति के पर्व पर संगम-स्नान करने के लिये नागा निरंकारी का एक भक्त नाव पर स्नान करने जा रहा था। थोड़ी देर में नाव भँवर में फँस गयी। नाव डूबने ही वाली थी कि भक्त ने प्राणरक्षा के लिये अपने गुरुदेव नागा निरंकारी का स्मरण किया। उसे तत्क्षण अनुभव हुआ कि एक अदृश्य शक्ति ने धक्का देकर नाव को भँवर से बाहर निकाल लिया। यही कारण था कि जाजमऊ में नागा बाबा के मुख से 'बच गया' शब्द अचानक निकल पड़ा था। उनकी महती कृपा-शक्ति का वर्णन करना साधारण काम नही है।

संत नागा निरंकारी उच्चकोटि के सिद्ध-पुरुष और परम भगवद्विश्वासी थे। वे कहा करते थे कि प्रत्येक अवस्था मे भगवान पर निर्भर रहना चाहिए, यही सबसे बड़ी आस्तिकता है। एक समय वे भ्रमण करते-करते एक लंबे और सघन वन में पहुँच गये। कोसो तक बस्ती का नाम नही था। वे तीन-चार दिन के भूखे-प्यासे थे। वन में उन्हें एक सती की समाधि दिख पड़ी। वे ध्यानस्थ होकर बैठ गये। थोड़े समय के बाद सती थाली में भोजन तथा मेवे, मिष्ठान्न और फल लेकर प्रकट हो गयी। नागा निरंकारी ने भोजन किया, सती अदृश्य हो गयी, इस प्रकार एक रहस्यमयी-भागवती शक्ति सदा उनकी रक्षा में तत्पर थी।

एक बार वे बद्रीनारायण की यात्रा कर रहे थे। साथ मे दो व्यक्ति और थे। संत नागा निरंकारी लक्ष्मण झूला के मध्य-भाग से गंगा में कूद पड़े, गंगाजी उस स्थान पर बहुत गहरी है, धारा अमित तेज है। साथ के व्यक्तियों ने सोचा कि वे स्नान करने के लिये कूद पड़े पर बात कुछ ओर थी। लक्ष्मण झूला वाली घटना की कानपुर के किसी शिष्य को तार द्वारा सूचना देकर दोनो व्यक्ति आगे बड़े। कुछ समय के बाद फतहपुर जनपद में बालमण्डली के साथ उनको खेलते और विचरते देख कर लोग आश्चर्यचकित हो गये। इस घटना के संबंध में उन्होंने बताया था कि जब मैं लक्ष्मण झूला पर था, मुझे ऐसा लगा कि गंगाजी के नीचे ऋषिमंडली है, मैं मंडली में सम्मिलित होने के लिये कूद पड़ा। बात ठीक थी। ऋषि मण्डली में पहुंचने पर मेरा पैर एक चक्र पर पड़ गया, ऋषियों को मेरी उपस्थिति से बड़ा आश्चर्य हुआ, उनसे बात कर मैं लौट आया। इस घटना से उनकी योगशक्ति का पता चलता है।

संत नागा निरंकारी ध्यानयोगी थे। वे कहा करते थे कि ध्यानयोग की बड़ी महिमा है। ध्यानयोग से मैंने लक्ष्मीजी का दर्शन किया था और सतीजी से भिक्षा प्राप्त की थी। ध्यान में मुझे लक्ष्मीजी ने दर्शन देकर मेरे दाहिने हाथ पर अपने हाथ के अंगूठे की छाप लगा दी, कहा था कि 'तुमको भगवान के पास जाने में कोई नही रोक सकता। उस छाप की सहायता से मैं भगवद्धाम में गया, हनुमानजी ने रोकने की चेष्टा की पर छाप देख कर विवश हो गये, इसी प्रकार जय-विजय का प्रयत्न भी विफल हो गया। मैन भगवान का परम दिव्य रूप देखा, उनके किरीट, कुंडल और मुकुट बड़े दिव्य थे। ध्यानयोग में मुझे एक ऋषि-मण्डली में भी उपस्थित होना पड़ा, अमृत बँट रहा था, मैंने शुक्राचार्य के संकेत से अमृत पी लिया, जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हो गया। सन्त नागा निरंकारी के जीवन की इन दिव्य घटनाओ का श्रद्धा और विश्वास के प्रकाश में दर्शन किया जा सकता है। नागा निरंकारी ने अपनी ब्रह्मवाणी-रचना में ध्यानयोग की दिव्य घटनाओ का वर्णन किया है।
संत नागा निरंकारी संकल्प-विकल्पो से परे थे, सदा भगवद् आनंद के पारावार में निमग्न रहते थे। एक समय उन्होंने असोथर राज्य के कुँवर चंद्र भूषण सिंह के विशेष आग्रह पर उनके राजप्रासाद को अपनी चरण-धूलि से पवित्र किया। कुँवर महोदय ने उनके शरीर पर एक कीमती दुशाला डाल दिया। उनकी इस चेष्टा का महादानी कर्ण के अभिनवरूप नागा निरंकारी पर तनिक भी प्रभाव नही पड़ा। वे बालमण्डली के साथ खेलते-खेलते अपनी कुटी पर पहुँच गये। शाम का समय था। धुनि जल रही थी। धुनि के सामने बैठ गये। दुशाला धुनि में गिरकर जल गया। विरक्ति के हिमालय पर अवस्थित नागा निरंकारी ने लोभ की ज्वालामुखी पर हाथ नही रखा। वे लोभ-मोह तथा माया से नितान्त परे थे।

वे परम तपस्वी थे। उनमें अपार आत्म तेज था। बद्रीनारायण की यात्रा करते समय वे एक दिन एक चट्टी- विश्रामालय में विश्राम कर रहे थे। उनके साथ त्यागीजी उनके शिष्य थे। संत नागा ध्यान में लीन थे। त्यागीजी ने देखा कि साँप के आकार का एक लम्बा तेजोमय प्रकाश नागाजी के सामने आकर अदृश्य हो गया। ध्यान के बाद त्यागी जी ने इस घटना के संबंध में बात की। वे मुस्कुराने लगे। उनके उठने पर आसान के नीचे कुछ भी न दिख पड़ा। संत नागा निरंकारी ने इस घटना के संबंध में बतलाया था कि साक्षात बद्रीनारायण अपने परम तेजोमय रूप में उन्हें दर्शन देने आये थे।

संत नागा निरंकारी परमात्मा के विराट रूप के अखण्ड ध्यान में तल्लीन रहते थे। उनकी विभूति–धुनि की राख परम् शक्तिमती थी। उसके प्रयोग से सूखे वृक्ष हरे हो जाते थे, बीमारों का स्वास्थ्य लौट आता था और कुएँ का खारा जल पीने योग्य मीठा हो जाता था। यह केवल विश्वास या मान्यता ही नही है, परख और जानकारी की कड़ी कसौटी पर श्रद्धालुओं द्वारा कसी गयी बात है। संत नागा निरंकारी माया से परम अलिप्त होकर आजीवन आत्मराज्य में स्वस्थ थे। वे प्रदर्शन और चमत्कार से सदा दूर रहते थे। भगवन्नाम-जप पर वे बड़ा जोर देते थे। जप और ध्यानयोग में ही उन्होंने अपनी तपोमयी साधना का परम स्वरूप स्थिर किया। उनकी सदा सहज समाधि लगी रहती थी, उनका प्रत्येक कार्य समाधि-अवस्था मे ही संपादित होता रहता था। वे परम-हंस-पद में प्रतिष्टित होकर अपनी दिव्य, अलौकिक दृष्टि से विश्वमय विश्वाधार सत्स्वरूप परमात्मा का अनवरत दर्शन करते रहते थे। वे जन्म-जन्मांतर से वैराग्य के अभय राज्य में विचरते हुए कुटिचक, बहुदक, हंस, परमहंस, तुरीयातीत तथा अवधूत छः अवस्थाओं को पार कर कैलाश-विजय अथवा परमशिवमय तत्व की पूर्ण प्राप्ति के लिये नागा-निरंकारी रूप में अभिव्यक्त हुए थे। अवधूत-अवस्था उनकी अंतिम स्थिति थी। कर्मभोग से ऊपर उठने का एक मात्र उपाय उन्होंने परमात्मा का भजन बताया। उन्होंने निर्गुण निराकार। चिन्मय परमात्मा का ही स्तवन किया। ध्यानस्थ होने पर वे भगवान के विभिन्न स्वरूप का दर्शन करते रहते थे। ध्यान में उन्हें लोक-लोकांतर के दृश्य दिख पड़ते थे। एक बार उन्होंने अपने परम विश्वास पात्र एक शिष्य से ध्यानावस्था में ही कहा 'देखो, आकाश-मार्ग से रथ जा रहा है, उनमे दो मातायें अलौकिक श्रृंगार से समलकृत है, वे इन्द्र के अखाड़े की देवियाँ है, एक माता दूसरी देवी से मेरे विषय मे संकेत कर रही है।' इसी प्रकार उन्हें ध्यान में ही शिव, विष्णु आदि का दर्शन होता रहता था। संत नागा निरंकारी कहा करते थे 'तत्वज्ञान भीतर से होगा, भजन करो, जप करो, ध्यान करो, जो कुछ भी करो उसे मन से करो। सब जीव परब्रह्म में ही रहते है, परब्रह्म की खोज अपने भीतर करो। अपने को परम ब्रह्म में ही अनुभव करो।' उन्होंने अपने साहब, परब्रह्म का अपनी प्रसिद्ध रचना ब्रह्मवाणी में बड़ी विलक्षणता से बखान किया है। संत नागा निरंकारी की उक्ति है-
'भजले श्रीनागा निरवान गुरु जी।
साहब मेरा निरंकार है श्री में तेज प्रकाश गुरु जी
गंगा सीस पर जटा जूट है, अखण्ड श्रीनारायण गुरुजी।।
मूरति देव अखण्ड ध्यान है, पार ब्रह्म निरंकार गुरुजी।।
आदि जोति प्रकाश शक्ति की, परे पारब्रह्म गुरुजी।।
अखण्ड पूजा अखण्ड भभूत है, बैठे धर्मराज गुरुजी।
'नागा' कहै सुनो भाई संतो, परे तत्व पहिचान गुरुजी।।'
उन्होंने अखंड, निर्विकार परम चेतन तत्व परमात्मा का भजन किया। इसी भजन के सहारे कैलाश-लोक की विजय की। नागा निरंकारी का कैलाश लोक परम दिव्य लोक है जिसमे सनातन सत्य सत्ता का अखण्ड अधिवास है। इस दिव्य लोक में जीव की परम गति हो जाती है, वह योगस्थ-स्वस्थ हो जाता है। उन्होंने ध्यानयोग में कैलाश का दर्शन भी किया था, उसमे अलख गंगा बहती है, उसमे संत जन स्नान कर है, शिवजी 'अलख-अलख' का उच्चारण करते है। कैलाश में ही उन्होंने गुरु नानक को भी देखा। उनकी उक्ति है, ब्रह्मवाणी साक्षी है-
'अब चले कैलाश दीवाने मन
ऊँची कैलाश शिव जटा फटकार दिवाने मन।
आगे उनका झूला पड़ा है,
नानक नजर निहाल दिवाने मन।
गुरुजी की मण्डली में जा पहुँचे,
दर्शन अगम अपार दिवाने मन।।
इस प्रकार संत नागा निरंकारी ध्यान में ही दिव्य लोक लोकान्तरों में विचरते रहते थे। ध्यान में ही उन्होंने सुमेरु पर्वत को भी देखा था, सुमेरु को उन्होंने सिद्धो का स्थान बताया है। वे इन्द्र लोक में भी गये थे। उन्होंने इन्द्रलोक का अनुभवपूर्ण वर्णन किया है,
'भजले श्रीनागा निखान गुरुजी।
इन्द्र लोक में नागा गये है, छवि बरनी नहिं जावे गुरुजी।।
इन्द्र कीलगी कचहरी, कवच कुण्डल कान में सोहै,
सीस पै मुकुट विराजे गुरु जी।
श्रीनागा जी बैठे सिंहासन देव दर्शन को आये गुरुजी।।
लगी कचहरी राम नाम की परियाँ शब्द सुनावे गुरुजी।
'नागा' कहै सुनो भाई संतो दर्शन अगम अपार गुरुजी।।'
संत वाणी परम अनुभूतिमयी होती है, उसमे अविश्वास का प्रश्न ही नही उठता है। सन्त नागा निरंकारी के प्रत्येक शब्द उतने ही सत्य है जितने सत्य परब्रह्म परमात्मा है।

संत-साहित्य उनकी महती देन 'ब्रह्मवाणी' के लिये सदा आभारी रहेगा। नागा निरंकारी की ब्रह्मवाणी संत जगत की अलौकिक वस्तु है। नागा निरंकारी की उक्ति है कि पुस्तक पड़ने से सत्य ज्ञान की प्राप्ति नही होती है। मन लगाकर भजन करने से हृदय निर्मल होने पर सत्य ज्ञान का उदय होता है तथा परम् शांति मिलती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में संत कबीर और नानक के प्रति अमित श्रद्धा व्यक्त की है, उनके प्रति नागा जी के बड़े पूज्य भाव थे। उन्होंने ध्यान में संत कबीर का भी दर्शन किया था।

वे जीव मात्र के प्रति दयालु थे, अपने लिये परम तपस्वी और सहनशील थे। दीन-दुखियों और अभाव पीड़ितों की सेवा और पापियों के समुद्धार के लिये ही उन्होंने शरीर धारण किया था। वे किसी की निंदा-स्तुति के फेर में कभी नही आते थे। परम करुणामय थे।

उन्होंने अपने परम-धाम-कैलाश-लोक-गमन की बात बहुत पहले ही कह दी थी। पाली की कुटी के सामने चने का एक खेत था। नागा जी ने कहा कि हमने ध्यान में देखा है कि इसी चने के खेत मे लोग हमारे शरीर को चिता में जला रहे है। उन्होंने संकेत कर दिया कि इसी स्थान पर मेरा समाधि-मन्दिर बनेगा। अपने ही कथन के अनुरूप संवत् 1993 वि. की कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को उन्होंने रात में शिवलोक कैलाशधाम की प्राप्ति की। उनके शरीर का दाह-संस्कार कानपुर जनपद के पाली राज्य के उसी चने के खेत मे विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ। उस स्थान पर उनका भव्य समाधि-मन्दिर जगत को सत्य, शान्ति और प्रेम का संदेश देता हुआ अवस्थित है, वह उनकी तपस्या का दिव्य भौम स्मारक है, समाधि के दर्शनमात्र से मन शान्ति के गंभीर सागर में निमग्न होकर दिव्य, शाश्वत अखंड सत्यामृत का रसास्वादन करता है। नागा निरंकारी की समाधि की दिव्यता और निखता से सहसा मन मुग्ध हो उठता है। वे ब्रह्मयोगी थे, परम अवधूत और महान संत थे।