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आचार्य श्रीरामानन्द


आचार्य श्रीरामानन्द जी एक उच्चकोटि के आध्यात्मिक
महापुरुष थे। आचार्य रामानन्दजी का जन्म कान्यकुब्ज
ब्राह्मणकुल मे माघ-कृष्ण सप्तमी, शुक्रवार, संवत् १३२४ को प्रयाग में त्रिवेणी तट पर हुआ था। पिता का नाम पुण्यसदन था और माता का नाम श्रीमती सुशीला था। कुल पुरोहित श्रीवाराणसी अवस्थी ने शिशु के माता-पिता को यह उपदेश दिया था कि “तीन वर्ष तक बालक को घर से बाहर न निकालना। उसकी प्रत्येक रुचि का पालन करना। उसको दूध ही पान कराना और कभी दर्पण न दिखाना।”
चौथे वर्ष मे अन्नप्राशन संस्कार हुआ। बालक के
सामने सब प्रकार के व्यञ्जन रखे गये, पर बालक ने खीर ही खायी और इसके उपरान्त खीर ही उसका एकमात्र आहार बन गया। कुछ समय पश्चात् कर्णवेध संस्कार हुआ। इनके पिता वेद, व्याकरण तथा योग आदि के पूर्ण ज्ञाता थे। एक समय जब इनके पिता ने रामायण पाठ का अनुष्ठान आरम्भ किया, तब उन्होंने देखा कि वे जो कुछ पाठ करते जाते थे, पास बैठे हुए बालक को वह समग्र कण्ठस्थ होता जाता था। बालक ‘श्रवणशक्ति तथा धारणाशक्ति पूर्ण रूप से विकसित थी। बालक के कण्ठस्थ पाठ का सस्वरगान विद्वत्समाज को आश्चर्यचकित कर देता था। इस प्रकार इस बालक को आठ वर्ष की अवस्था में ही कई ग्रन्थ कण्ठस्थ हो गये एक दिन बालक खेलता हुआ आया और अपने पिता का शंख लेकर बजाने लगा। पिता ने वह शङ्ख उसी को दे दिया।
आठवे वर्ष उपनयन संस्कार किया गया। उपनीत ब्रह्मचारी जब पलाशदण्ड धारणकर काशी विद्याध्ययन करने चला, तब आचार्य व सम्बन्धियो के आग्रह करने पर भी नही लौटा। विवश हो माता-पिता भी साथ हो लिये और बालक अपने माता के साथ ओकारेश्वर जी के यहाँ काशी मे ठहरकर विद्याध्ययन करता रहा। बारह वर्ष की अवस्था तक बालक ब्रह्मचारी ने समस्त शास्त्रो का अध्ययन समाप्त कर लिया।
विवाह की चर्चा चली तो बालक ने इन्कार कर दिया। इसके पश्चात् स्वामी राघवानन्दजी से दीक्षा लेकर इन्होंने पञ्चगङ्गा घाट पर जाकर एक घाट वाले की झोपड़ी में ठहरकर तप करना आरम्भ कर दिया। लोगो ने ऊँचे स्थान पर एक कुटी बनाकर तपस्वी बालक से उसमे रहने की विनय की। उनकी विनय सुनकर वे उस कुटिया मे आ गये और उसी मे ज्ञानार्जन और तपस्या करते रहे। इनके अलौकिक प्रभाव के कारण इनकी बडी ख्याति हुई । दिन-प्रतिदिन जैसे-जैसे इनकी प्रसिद्धि दूर-दूर स्थानों में फैलती गयी, बडे-बडे साधु और विद्वान् इनके दर्शनार्थ आश्रम मे आने लगे।
इनके शंख की ध्वनि सुनकर लोग सफल मनोरथ हो जाते थे। मानो उस ध्वनि मे संजीवनी शक्ति थी। धीरे-धीरे वहा भारी भीड़ एकत्रित होने लगी। इससे भजन मे विघ्न होने लगा। अतएव स्वामी जी ने शंख बजाना बंद कर दिया। फिर लोगो की प्रार्थना पर स्वामी जी ने केवल प्रातःकाल शंख बजाना लोक-कल्याण के लिये स्वीकार किया। इसके पूर्व वे नियम-पूर्वक चार बार शङ्ख बजाया करते थे। इनके पास मुसल्मान, जैन, बौद्ध, वेदान्ती, शास्त्रज्ञ, शैव और शाक्त - सभी मतवादी अपनी-अपनी शंकाए लेकर निवारण कराने के लिये आते थे और समुचित उत्तर पाकर शान्तचित्त से वापस जाते थे।
कहते हैं किसी शुभ पर्व पर काशी में विभिन्न प्रांतों से श्रद्धावान् पुरुष एकत्रित हुए। उन लोगो ने आश्रम पर जाकर रामानन्द जी से मुसलमानों के अत्याचारों की शिकायत की। तैमूरलंग द्वारा नरहत्या और लखनवती का उपद्रव– ये सब अत्याचार धर्म के नाम पर होते थे। उन लोगों ने कहा कि "इन उपद्रवकारियो को उचित शिक्षा देनी चाहिये। हम आपकी शरण मे आये हैं। हम पर कृपा कीजिये और दुष्टो को दण्ड दीजिये।" स्वामी जी ने कहा, "धैर्य धारण करने से ही विपत्ति के बादल हटते हैं।"
इसके पश्चात् स्वामीजी की तपस्या के प्रभाव से अजान के समय मुल्लाओं के कण्ठ अवरुद्ध होने लगे। यह देखकर सभी मुसलमानों की बुद्धि चक्कर में पड़ गयी। राजा, रंक, मौलवी-मुल्ला। सब के सब इस बात से परेशान हो गये कि सब मुल्लाओ की जबान पर उसी समय क्यो लकवा मार जाता है जब वे अज्ञान देने को चलते है। इवन्नूर तथा मीर तकी ने यह निश्चय किया कि यह किसी सिद्ध महापुरुष की करामात है। वे लोग और उनके साथ कुछ मुसलमान विद्वान् काशी आये और कबीरदास को अपने साथ लेकर स्वामी रामानन्दजी के आश्रम पर पहुँचे।

[कहते हैं कि स्वामीजी ने इसी समय शंख बजा दिया, जिसके सुनते ही सब मुसलमान मौलवी मुल्ला बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। उस दशा मे उन लोगो ने मुहम्मद साहब को देखा, जिन्होने स्वामीजी की आज्ञा पर चलने का आदेश दिया।]

उनकी विनय सुनकर स्वामीजी ने सबको सम्बोधित करके कहा “भगवान् केवल मुसलमानो का ही नही है, सम्पूर्ण संसार का है। ईश्वर एक है, जो सब स्थानों पर, सब हृदयो मे वास करता है। भाइयो! जब उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाला एक परमात्मा है और उसी एक को सब अनेक नामो से स्मरण करते हैं, तब केवल पूजा के विधान मे भेद होने से दूसरो पर जजिया कर लगाना बड़ा ही अनुचित कार्य है। यह बंद कर दिया जाय।, जैसे भोजन-वस्त्र शरीर धारण करने के हेतु आवश्यक है, उसी प्रकार उपासना करने का स्थान भी है इसीलिये हिंदुओ के द्वारा मन्दिर बनवाने मे जो प्रतिबन्ध लगाया जाता है, उसे दूर कर देना चाहिये।, किसी को बलपूर्वक धर्मभ्रष्ट कर देना बड़ा ही निन्दनीय कार्य है यह न हो।, मस्जिद के सामने जाते हुए दूल्हे को पालकी से उतारकर पैदल चलने को विवश न किया जाय, क्योकि यह प्राचीन धर्मनीति के विरुद्ध है। गोहत्या बंद कर देनी चाहिये।, राम नाम के प्रचार में रुकावट नहीं डालनी चाहिये।, धर्मग्रंथों को अग्नि से नहीं जलाना चाहिये और न किसी के हृदय को ही दुखाना चाहिये। पहले से बने हुए हिंदुओ के मन्दिरो को विध्वंस न किया जाय, बलपूर्वक किसी को मुसल्मान न बनाया जाय और न मुहर्रम में पर्व-त्यौहार के मनाने मे कोई प्रतिबन्ध लगाया जाय।, किसी स्त्री का सतीत्व कभी नष्ट न किया जाय और न शंख बजाने का ही निषेध किया जाय।, कुम्भ आदि पर्वो पर यात्रियो से कर न लिया जाय।, यदि कोई हिंदू श्रद्धापूर्वक किसी फकीर के पास जाय तो उसको उसी के धर्मानुसार उपदेश दिया जाय। अगर इन बारह प्रतिज्ञाओ मे से किसी का भी उलंघन किया जायगा तो राज्य भ्रष्ट हो जायगा।”
बुजुर्ग तथा विचारवान् मुल्लाओ व पीरो ने काशी मे अज़ान बंद होने की और स्वामी रामानन्द की बारह शर्तो की बात बादशाह गयासुद्दीन तुगलक को लिखी। बादशाह ने अज़ान बंद होने की और स्वामी रामानन्द की बारह शर्तों की बात बादशाह गयासुद्दीन तुगलक को लिखी। बादशाह ने भलीभाँति जांच पड़ताल करवायी। जब बादशाह को इसकी सच्चाई मालूम हुई, तब उसने शाही फरमान लिखवाकर उस पर अपने हस्ताक्षर करके शाही मुहर लगवा दी। इसके पश्चात् काशी मे डुग्गी पीटी गयी कि आज से राज्य मे इन सब बातो से प्रतिबन्ध हटा लिया गया है। ऐसी व्यवस्था हो जाने पर अजान, नमाज का कार्य तुरत पूर्ववत् चलने लगा।
इसी प्रकार एक दूसरे प्रसङ्ग मे अयोध्या से श्रीगजसिंहदेव स्वामी जी के आश्रम पर आये और निवेदन किया कि “महाराज, मैं अयोध्यापति हरिसिंहदेव का भतीजा हूं और सूर्यवंशी हूँ। मेरे चाचा वैशाख शुक्ल दशमी सोमवार संवत् 1381 को जूना खाँ तुग़लक के भय से तराई मे भगवद्-भजन के बहाने भाग गये थे। तब से अयोध्या के सिंहासन पर कोई नही बैठा। छलपूर्वक खड़े किये हुए शिविर मे अपने पिता से मिलते समय तम्बू गिराकर पिता का घातक जूना खां बीसो हजार प्राणियो को धर्मभ्रष्ट कर चुका है। तब से आज तक पचास वर्ष के भीतर धर्मभ्रष्टो की संख्या बढ़ती ही गयी है। मैं भी म्लेच्छ स्पर्श से भ्रष्ट हो गया हूं। प्रायश्चित्त के लिये पण्डितों के पास गया, किंतु कोई काम नही हुआ। दयानिधान! आप ही हम सब का उद्धार कीजिये।” इसके पश्चात् स्वामीजी शिष्यमण्डली के साथ अयोध्या गये और सरयू-किनारे ले जाकर सबको शुद्ध कर दिया।
तीर्थयात्रा करने के लिये स्वामीजी अपनी शिष्यमण्डली और साधु-समाज के साथ जगन्नाथ जी, विजयनगर गये। यहाॅ पर विजयनगर के महाराज बुक्काराय ने इनका बड़ा स्वागत किया। स्वामीजी की पहनाई मे कई बड़े-बड़े भण्डारे हुए, जिनमे साधु और ब्राह्मणों ने प्रसाद विजयनगर गय। यहा पर विजयनगर के महाराज बुक्काराय ने इनका बड़ा स्वागत किया। स्वामीजी की पहुनाई मे कई बड़े-बड़े भण्डारे हुए, जिनमे साधु और ब्राह्मणों ने प्रसाद विजयनगर गय। यहा पर विजयनगर के महाराज बुक्काराय ने इनका बड़ा स्वागत किया। स्वामीजी की पहुनाई मे कई बड़े-बड़े भण्डारे हुए, जिनमे साधु और ब्राह्मणों ने प्रसाद पाया। एक दिन स्वामीजी ने महाराज को यह सुन्दर उपदेश दिया कि “राजयोग मे भोग-विलास अत्यन्त हानिकारक है। जहाँ राजा भोग-विलास मे लिप्त हुआ कि वह राज्य और राजवंश समेत नष्ट हो जाता है।” नौ दिनो तक स्वामीजी अपनी मण्डली के साथ विजयनगर मे ठहरे और फिर रामेश्वर को चले गये। कांची, श्रीरङ्गम्, जनार्दन, द्वारका, मथुरा, वृन्दावन, मायापुरी, चित्रकूट, प्रयाग आदि अनेक तीर्थो का पर्यटन करके काशी अपनी कुटी पर लौट आये।
स्वामी रामानन्द ने जगत् का महान् कल्याण किया। उनका दिव्य तेज राजनीतिक क्षेत्र में भी उसी प्रकार चमकता था जिस प्रकार धार्मिक क्षेत्र मे। उस महाभयंकर काल में आर्य जाति और आर्य धर्म के त्राण के साथ ही विश्वकल्याण एव भगवदधर्म के अभ्युत्थान के लिये जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली आचार्य की आवश्यकता थी, स्वामी रामानन्द वैसे ही जगद्गुरु थे। देश देशान्तरों के संत व विद्वान उनकी सेवा में उपस्थित होते थे और ज्ञानप्रकाश लेकर तथा सफलमनोरथ होकर ही जाते थे। भेद-भाव तो वहाँ था ही नहीं। सभी सम्प्रदाय के अनुयायी महात्मा उनसे लाभ उठाते थे। उनका कथन था कि सब दिशाओं में परमात्मा भरपूर है। कही से भी कोई उसे प्राप्त कर सकता है।

स्वामीजी ने देश के लिये तीन मुख्य कार्य किये —
(१.) साम्प्रदायिक कलह को शान्त किया।
(२.) बादशाह गयासुद्दीन तुगलक की हिदू संहारिणी सत्ता को पूर्णरूप से दबा दिया और
(३.) हिंदुओं के आर्थिक संकट को भी दूर किया।
संवत् 1445 का समय ( तैमूरलंग का आक्रमण ) हिंदुओ के लिये अत्यन्त ही संकटपूर्ण था। निस्संदेह उस भयंकर समय मे देश, धर्म और आर्य जाति की रक्षा करने के लिये श्रीभगवान् रामानन्द जैसे सर्वशक्तिशाली दिव्य महापुरुष की ही आवश्यकता थी। वे आध्यात्मिक जगत् के सार्वभौम चक्रवर्ती थे। सारा जगत् उनका था और वे सारे जगत् के थे। जगद्गुरु शब्द उनके सम्बन्ध मे अक्षरशः सार्थक था ।

मौलाना रशीदुद्दीन नामक एक फकीर काशी में स्वामीजी के समकालीन हो गये है। उन्होंने 'तजकीरतुल फुकरा' नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमे मुसल्मान फकीरो की कथाएँ हैं। उसमे उन्होने स्वामी रामानन्द का भी वर्णन किया है। वे लिखते हैं। 'काशी में पंचगंगा घाट पर एक प्रसिद्ध महात्मा निवास करते हैं। वे तेज पुंज एवं पूर्ण योगेश्वर है। वे वैष्णवों के सर्वमान्य आचार्य है। सदाचारी तथा ब्रह्मनिष्ठस्वरूप है। परमात्मतत्व-रहस्य के पूर्ण ज्ञाता हैं। सच्चे भगवत् प्रेमियों एवं ब्रह्मविदो के समाज मे उत्कृष्ट प्रभाव रखते है। अर्थात् धर्माधिकार मे हिंदुओं के धर्म-कर्म के सम्राट है। ब्रह्मवेला में अपनी पुनीत गुफा से गङ्गा-स्नान हेतु निकलते हैं। इस पवित्र आत्मा को स्वामी रामानन्द कहते है। उनके शिष्यो की
सख्या 500 से अधिक है। उस शिष्यसमूह मे द्वादश गुरु के विशेष कृपापात्र है—
(१) अनन्तानन्द
(२) सुखानंद
(३) सुरसुरानन्द
(४) नरहरियानन्द
(५) योगानन्द (ब्राह्मण)
(६) पीपाजी (क्षत्रिय)
(५) योगानन्द (ब्राह्मण)
(६) पीपाजी (क्षत्रिय)
(७) कबीर (जुलाहा)
(८) सेन (नाई)
(९) धन्ना (जाट)
(१०) रैदास ( चमार )
(११) पद्मावती
(१२) सुरसरि।
इन्होने ब्राह्मणो की तरह ही अन्य जाति के लोगो को भी
तारक मन्त्र की दीक्षा दी। उनके पाँच ब्राह्मण, पाँच
तथाकथित निम्नवर्ग के और दो स्त्री शिष्याएं थीं। इसके
अतिरिक्त उनके और भी अनेक चेले थे। भागवतो के इस सम्प्रदाय का नाम वैरागी है। जो लोक-परलोक की इच्छाओ का त्याग करता है। कहते है कि सम्प्रदाय की प्रवर्तिका जगजननी श्रीसीताजी है। उन्होने पहले हनुमानजीको उपदेश दिया था और फिर उनसे संसार मे इस रहस्य का प्रकाश हुआ। इस कारण इस सम्प्रदाय का नाम 'श्रीसम्प्रदाय' है और इसके मुख्य मन्त्रको रामतारक कहते हैं। इस पवित्र मन्त्र की गुरु शिष्य के कान ने दीक्षा देता है। ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक ललाटपर लगाते है। पूर्णतया भजन मे रहना ही इस सम्प्रदाय की रीति है। अधिकाश संत परमहंसी जीवन निर्वाह करते है।
कुछ समय पश्चात् स्वामीजी ने अपनी शिष्य मण्डली को सम्बोधित करके कहा कि 'सब शास्त्रो का सार भगवत् स्मरण है, जो सच्चे संत का जीवनाधार है। कल श्रीरामनवमी है। मैं अयोध्याजी जाऊँगा परंतु मैं अकेला जाऊँगा सब लोग यहाँ रहकर उत्सव मनाये कदाचित् मै लौट न सकूँ, आपलोग मेरी त्रुटियों तथा अविनय आदि को क्षमा कीजियेगा।" यह सुनकर सबके नेत्र सजल हो गये। यह सुनकर सबके नेत्र सजल हो गये। दूसरे दिन स्वामी जी संवत् 1515 मे अपनी कुटी में अन्तर्धान हो गये।

[ यह लेख 'कल्याण' के संत अंक और प्रसंग पारिजात' नामक पुस्तक की सहायता से लिखा गया है, जिसको श्रीचैतन्यदासजी ने 1517 विक्रम संवत् मे पिशाची भाषा मे लिखा था। उसका अनुवाद हिंदीमे गोरखपुर के एक मौनी बाबा ने, जिनका मौनव्रत समाप्त हो चुका था, स्थानीय स्कूल के एक विद्यार्थी के द्वारा थोड़ा-थोड़ा करके मूल प्रसङ्ग पारिजातसहित गत शताब्दी के चतुर्थ चरण मे लिखवाया था। ]

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