परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 12 Praveen kumrawat द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 12

[शुकदेवजी को ज्ञानोपदेश]
यद्यपि परम तपस्वी एवं त्यागी मुनिप्रवर शुकदेवजी स्वयं परमज्ञानी एवं बड़े तपस्वी थे और उनकी भागवत-वृत्ति जगत्भर में प्रसिद्ध थी, तथापि उनकी ज्ञानगरिमा को बढ़ानेवाली, भगवद्भक्ति को पल्लवित करने वाले, शान्तिमय, अहिंसामय तथा सनातनधर्म के अनुसार गीता के महामन्त्र का उपदेश देकर, पांचभौतिक शरीर से मुक्त कर उनको दिव्य शरीरधारी बनाने वाले थे, उनके गुरुवर देवर्षि नारद। जिस समय शुकदेवजी अपने पूज्यपाद पिता कृष्णद्वैपायन वेदव्यास को पुत्रवात्सल्यरस में निमग्न कर तपोवन को चले गये, उस समय भगवदिच्छास्वरूप
देवर्षि नारदजी उनके निकट जा पहुँचे। देवर्षि नारद को सामने देख शुकदेवजी उनका सम्मान करने के लिये उठ खड़े हुए और यथाविधि पूजन किया। देवर्षि नारदजी जब आसन पर आसीन हो गये तब प्रसन्न हो शुकदेवजी से कहा “वत्स! तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुम्हें क्या उपदेश दूँ, जिससे तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हारा कल्याण हो।” नारदजी के इन अनुग्रहपूर्ण वचनों को सुनकर शुकदेवजी ने अति विनीत भाव से कहा “भगवन्! इस मर्त्यलोक में मानव जीवन के लिये सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ और परम हितकर उपदेश कौन-सा है? जो सर्वश्रेष्ट उपदेश हो वही आप मुझे दीजिये।
इसके उत्तर में देवर्षि नारद ने कहा “तुमने इस समय जो प्रश्न किया है, यही प्रश्न प्राचीनकाल में ब्रह्मर्षि, देवर्षि, राजर्षि तथा अन्यान्य महापुरुषों की एक महती सभा में किया गया था। उस समय इस प्रश्न का उत्तर उस सभा के प्रधान व्याख्याता एवं परममान्य ब्रह्मर्षि सनत्कुमार ने जो दिया था ने जो दिया था और जिसको सभा में उपस्थित जनता ने बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ सुना था वही हम तुमसे कहते हैं। ब्रह्मर्पि सनत्कुमार ने कहा था "विद्या के समान संसार में कोई नेत्र नहीं है। सूर्य का प्रकाश भी इस विद्याचक्षु के प्रकाश से कम है। सत्य-पालन के समान कोई तप नहीं है। राग के समान संसार में दुःख का अन्य कोई कारण नहीं है। राग ही सबसे बढ़कर दुःख देने वाला है और त्याग के समान सुखदाता कोई नहीं है, अर्थात् त्याग ही सबसे बढ़कर सुखप्रद है। वत्स! हिंसा, असत्य, छल, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि दुःखदायी पाप कर्मों से बचना, निरन्तर पुण्यप्रद कर्मों में निरत रहना, अपने-अपने वर्ण और आश्रम के धर्मानुकूल सदाचार का पालन करना ही अति श्रेष्ठ कल्याण का मार्ग है। मानव शरीर को पाकर काम, क्रोध, लोभ आदि दुःखदायी विषयों में आसक्त होकर जो प्राणी धर्म के मार्ग से च्युत हो जाता है, उसकी बुद्धि मोहजाल में फँस कर नष्ट हो जाती है। अत: वह दुःख पाता है और उन दुःखों से अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकता। क्योंकि विषयों का सङ्ग ही तो दुःख का लक्षण है।
जो पुरुष स्त्री, पुत्र, धनादि में आसक्त है, उसकी बुद्धि मोहजाल में फँसकर, धर्मपथ से डिग जाती है। अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को उचित है कि, वह हर तरह से सर्वप्रथम काम और क्रोध के महाप्रबल वेग को रोके। क्योंकि ये काम, क्रोधादि कल्याण-मार्ग के सबसे बड़े लुटेरे अथवा डाकू हैं। इन दोनों को अथवा इनमें से एक काम ही को अपने वश में कर लेने से काम के साथीसंगी अन्यान्य क्रोध, लोभ आदि शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं। योगाभ्यास, वैराग्य और ईश्वर-प्रणिधान द्वारा काम, क्रोधादि मनोविकारों की वासनाओं को नष्ट कर डालना, सर्वोत्तम उपाय है। तप का नाश करने वाला क्रोध है। अतः क्रोध से तप की रक्षा करे। अर्थात् क्रोध को जीतकर तप की रक्षा करे। मत्सरता लक्ष्मी का नाश करती है। अतएव मत्सरता को त्याग कर, लक्ष्मी की रक्षा करे। मानापमान को त्याग कर विद्या की रक्षा करे और प्रमाद त्यागकर अपने शरीर की रक्षा करे। अर्थात् क्रोध, दम्भ और प्रमाद को त्यागने से तप, लक्ष्मी, विद्या और शरीर की रक्षा होती है।
मनुष्यमात्र को दुःख न देने की चेष्टा करना ही सर्वोत्तम धर्म है। अतएव जो मनुष्यादि किसी भी प्राणी को सताते उनके समस्त धर्मानुष्ठान सर्वथा व्यर्थ हैं। क्षमा-धर्म ही सबसे बड़ा बल है। आत्मा को जीत लेना ही सबसे वड़ा ज्ञान है। किन्तु सत्य से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है। क्योंकि परमात्मा स्वयं सत्यस्वरूप हैं। सत्य वचन बोलना कल्याणकारी है। किन्तु जिस वचन से प्राणियों का वास्तविक हित होता हो, वह वचन सत्य से भी बढ़कर है। अतएव हमारी समझ में जो किसी प्राणी के लिये अत्यन्त हितकर वचन है, वही सत्य है और जो वचन प्रत्यक्ष में सत्य प्रतीत होता हो, किन्तु जो वास्तव में प्राणियों के लिये हितकर नहीं, वह सत्याभास अर्थात असत्य वचन है। परमार्थी पुरुषों को उचित है कि वे समस्त कर्मों के आरम्भ को त्याग दें, समस्त आशाओं को त्यागे और सांसारिक भोगों का उपार्जन एवं उनका संरक्षण करना भी त्याग दें। वस्तुतः जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान् और वही पण्डित है। उसके सामने सांसारिक भोगों में आसक्त एवं रागी पुरुष मूर्ख है। जो मनुष्य अपने वश में किये हुए आत्म-स्वरूप, इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है और सावधान निर्विकार तथा शान्तस्वरूप रहता हुआ, विषयासक्त नहीं होता अर्थात् किसी सुन्दरी स्त्री को देखकर, जिसका मन चञ्चल नहीं होता और अन्यान्य विषयों के सामने आने पर भी जो अपने मन को अपने वश से निकलने नहीं देता, वह पुरुष संसार के बन्धनों से छूटकर, बहुत ही थोड़े काल में परम कल्याण को प्राप्त करता है।
हे मुनिवर शुकदेव! इस मार्ग के अतिरिक्त परमार्थियों के लिये एक मार्ग और भी है। वह यह कि, जो मनुष्य अन्य मनुष्यों से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता, वह भी अविलम्ब परम कल्याण प्राप्त करने का पात्र हो जाता है। कल्याण मार्ग के पथिक को उचित है कि, वह किसी प्राणी को भी मनसा, वाचा, कर्मणा न सतावे। समस्त लोगों के साथ मित्रता रखे। पापी-जनों के प्रति उदासीन-भाव रखे। मानव शरीर पाकर, किसी से वैर न करे। परमार्थी, आत्मज्ञानी और जितेन्द्रिय पुरुष को धन का त्याग करना चाहिये। उसे तो पूर्णरूप से आशा और चपलता को सर्वथा त्याग देना चाहिये। हे वत्स! यदि तुम सर्वोपरि कल्याण चाहते हो तो उपार्जन और सञ्चय को त्यागकर, जितेन्द्रिय बनो और जन्म-जन्मान्तरों में निर्भय कर देने वाले शोकनाशक ज्ञानमार्ग पर आरूढ़ हो जाओ। जो मनुष्य अहंकार एवं ममता की सूक्ष्म वासनाओं सहित भोग-राग को त्याग देते हैं, वे फिर किसी का सोच नहीं करते। अतः कल्याण मार्ग के पथिक को चाहिये कि वह भोगों को त्याग दे। हे सौम्य शुकदेव! तुम भोगों का त्याग करके ही सांसारिक दुःखों और तापों से छूट सकते हो। जिस प्रकार एकात्मदर्शी पुरुष के शोक और मोह निवृत्त हो जाते हैं उसी प्रकार वैराग्य उत्पन्न होने पर भी शोक और मोह की निवृत्ति हो जाती है, यही उत्तम सुख है और यही कल्याण का मार्ग है।
परमार्थी मनुष्य को अथवा कल्याण मार्ग के बटोही को अपने शरीर और अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेना चाहिये। उसे मौन रहना चाहिये और मन को अपने काबू में कर लेना चाहिये। उसे नित्य तप करना चाहिये। मन की चञ्चलता को दबाकर जिस इन्द्रिय को न जीत पाया हो, उसे जीतने की इच्छा और उद्योग करना चाहिये, किसी में किसी प्रकार की आसक्ति न रखनी चाहिये। ज्ञानी, महात्मा आदि प्रतिष्ठित व्यक्ति कहलाने में हर्ष मानकर आसक्त न होना चाहिये। एकमात्र परमात्म-विचार में सदा तत्पर रहते हुए ब्राह्मण को अविलम्ब अत्युत्तम सुख मिलता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ आदि द्वन्दों में रमण करने वाले प्राणियों में जो मनुष्य मुनिरूप से हर्ष-शोक-रहित होकर विचरण करता है, उसको तुम तृप्त हुआ जानो । ज्ञान तृप्त का लक्षण यही है कि पुरुष कभी शोक नहीं करता। शुभ पुण्यप्रद कर्मों के करने से और ऐसे कर्मों की अधिकता से देव योनि प्राप्त होती है। जब पाप और पुण्य समान होते हैं, तब प्राणी को मानव शरीर मिलता है। अशुभ अथवा पाप-कर्मों के बढ़ जाने से पशु आदि नारकीय योनियों में जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार अपने शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगादिजन्य सैकड़ों उपद्रवों से व्याकुल प्राणी, संसार रूपी कड़ाह में डाल कर उबाला जाता है। संसार की ऐसी भयंकर दशा को देखकर भी, हे शुक! तुम सचेत क्यों नहीं हो जाते? जब सहस्रों दुःख-सुख चारों ओर से घेरते चले आते हैं, तब भी तुम इस सांसारिक मायारूपी भूल में क्यों पड़े हो?
हे शुकदेव! तुम अहित को हित, अनित्य सांसारिक विषयों को स्थायी और अनर्थकारी धनादि को अर्थसिद्ध मानते हो! किन्तु सचेत नहीं होते। तुम ऐसी भूल में क्यों पड़े हो? जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही किये कार्य से स्वयं ही रेशम के गट्ठे में बँधकर मर जाता है, वैसे ही मनुष्य अपने कर्मों से अपने को बन्धन में डालता है, किन्तु सचेत नहीं होता। सांसारिक भोगों के संग्रह करने और उनकी रक्षा करने में, एक दो नहीं—अनेक दोष हैं। अतएव इस अर्जन-रक्षण-रूप परिग्रह से परमार्थी मनुष्य को अवश्य ही हाथ खींच लेना चाहिये। क्योंकि जैसे रेशम का कीड़ा अपने आप परिग्रह से मारा जाता है, वैसे ही मनुष्य भी परिग्रह से मारा जाता है। जैसे जलाशय के गहरे कीचड़ में अथवा दलदल में फँस कर जंगली बूढ़ा हाथी घबरा-घबराकर वहीं मर जाता है और उसके बाहर नहीं निकल सकता, वैसे ही मनुष्य भी रागरूपी दलदल से बाहर निकल ज्ञान-वैराग्य के शुद्ध मार्ग पर नहीं आ पाता। जैसे महाजाल में फँसी हुई और जल के बाहर खींची हुई. मछलियाँ तड़फड़ा तड़फड़ा कर मर जाती हैं, वैसे ही स्नेहरूपी बन्धन में बँधे हुए इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के दुःखों से तड़फड़ाते और बिलखते हुए मनुष्यों को तुम देखो। उनकी दशा को देखकर हे शुक! तुम सांसारिक स्नेह एवं राग के जाल में मत फँसो।
स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी, निज शरीर और संश्चित किये हुए धनादि समस्त पदार्थ अपने नहीं, पराये हैं। क्योंकि वे सब अपने साथ नहीं जाते। अपने साथ जाने वाले तो अच्छे-बुरे कर्म हैं। स्त्री-पुत्रादि तो अपने तब कहे जा सकते थे यदि वे अपने साथ जाते। किन्तु जब स्त्री-पुत्रादि समस्त स्वजनों को छोड़कर एक दिन तुमको अकेले ही जाना है, तब तुम अनर्थकारी कामादि के बन्धन में क्यों फँसते हो? अभीष्ट सुख के लिये तुम अपने परमार्थ को क्यों नहीं सँभालते? मरने पर जिस मार्ग से तुम को जाना पड़ेगा, उस मार्ग पर न तो एक भी विश्रामस्थल है और न कोई वस्तु खाने ही को मिलती है। उस मार्ग से जाने पर दिशाओं का भी बोध नहीं होता। उस मार्ग पर तो निविड़ अन्धकार छाया रहता है। हे शुकदेव! ऐसे भयंकर मार्ग पर मरने के बाद तुम अकेले कैसे जाओगे? अपने इस प्रिय शरीर को छोड़, कूच करते समय, तुम्हारे पीछे-पीछे स्त्री-पुत्रादि भी स्वजन न जावेगा। तुम्हारे सच्चे साथी केवल तुम्हारे पाप और पुण्य तुम्हारे साथ जायेंगे। विद्या, कर्म, धर्म, शौच और विस्तृत ज्ञान को तो लोग प्रायः धनोपार्जन के काम में लगाते हैं। इनके द्वारा कल्याण प्राप्त करना नहीं जानते। यदि कोई मनुष्य विद्यादि अपने सत्कर्मों से अपना परमार्थ साधन करता है, तो कृतार्थ होकर वह संसार के सभी दुःखजनक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
अधिक जन समुदाय में बसने की जो रुचि है वही बाँधने वाली रस्सी है। पुण्यात्मा लोग इस रस्सी को तोड़कर एकान्त में तप करते हैं किन्तु पापीजन इसी रस्सी में दिनों दिन दृढ़ता के साथ बँधते जाते हैं। कल्याण मार्ग के पथिक को उचित है कि वह ऐसी नदी को अपने पुरुषार्थ से तैरकर पार जावे, जिसके रूप तो तट हैं, मन उसके प्रवाह का वेग है, स्पर्श द्वीप है, रस-विषयरूपी तृण उसमें बह रहे हैं, गन्धरूपी पंक और शब्दरूपी जल उसमें भरे हैं। स्वर्ग के मार्ग में यह नदी पड़ती है और यह बड़ी वेगवती है। इसका कर्णधार क्षमा है। धर्म ही किनारे पर रोकने वाली रस्सी है और त्यागरूपी मार्ग पर चलने वाली सत्यरूपी नौका इस नदि के पार उतारती है। धर्म-अधर्म, सत्य-मिथ्या आदि द्वन्दों का त्याग करके, जिसने तुमको त्याग दिया है, उसे तुमको भी त्याग देना चाहिये। अर्थात् स्वर्गादि उत्तम सुखों की प्राप्ति की कामना से किया गया धर्म-कर्म भी बन्धन का हेतु है। अतएव उसको त्यागना कहा गया है। सत्य-मिथ्या त्यागने का अभिप्राय मौन व्रत धारण करना है। विषयभोग-बन्धनादि मनुष्यों को त्याग देते हैं, अर्थात् मनुष्य जैसे-जैसे भोगों की इच्छा करता है, वैसे-ही-वैसे वे भोग उसके इच्छानुसार उसे नहीं मिलते। अतः अपने को त्यागने वाले उन भोगों को मनुष्य स्वयं ही त्याग दे। संकल्प के त्याग से काम्य धर्म को छोड़ना चाहिये और तृष्णा को त्यागकर, अधर्म को त्यागना चाहिये। बुद्धिपुरस्सर भलीभाँति निश्चय कर सत्य-मिथ्या को त्याग कर, तुम सच्चे मुनि बन जाओ और परम निश्चय द्वारा अपनी बुद्धि को स्थिर करो।
इस मानव शरीर रूपी घर में हड्डियों की धन्ने, नसों के बन्धन और रुधिर-मांसरूपी पलस्तर है। चाम से मढ़े हुए इस घर में मल-मूत्र का महा दुर्गन्ध ठसाठस भरा है। बुढ़ापा और शोक से युक्त रोगों के इस घर के प्रत्येक छेद से मल-मूत्र की दुर्गन्ध सदा निकला करती है और यह घर भूतों का बसेरा है। अतएव ऐसे अनित्य एवं घृणित शरीर को त्यागने की तुम इच्छा करो। जो मनुष्य अपने पूर्वकर्मानुसार सदा दुःखी रहता है और दुःख-निवृत्ति के लिये अनेक प्राणियों को मारा करता है अथवा सताया करता है, वह मानों इन कर्मों से और नये पापों को सञ्चित करता है और इससे उसका दुःख उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। क्योंकि कुपथ्य के परिणामस्वरूप रोग से ग्रसित प्राणी कुपथ्य के द्वारा रोग से छुटकारा नहीं पा सकता। प्रत्युत उसका रोग और बढ़ जाता है। बुद्धि के मोहान्धकार से आच्छादित हो जाने से मनुष्य दुःखों ही में सदा सुखों का अनुभव किया करता है। अपने उन्हीं कर्मों से मथानी की तरह सदा मथा जाता है। अतः इस संसार में दुःख-ही-दुःख है। यह विचारकर मुमुक्षु-जन को सदैव उदासीनभाव से रहना चाहिये।
जो मनुष्य उदासीनभाव से नहीं रहता, वह कर्म-बन्धनों से जकड़ा हुआ, अनेक दुःखों को भोगता हुआ नये-नये कर्मफलों के उदय होने से रथचक्र के समान संसार में भ्रमण किया करता है, किन्तु जाल में फँसी मछली अथवा पक्षी की तरह वह छूट नहीं सकता। अतएव हे शुकदेव! तुम उन बन्धनों को काटकर और कर्मों से निवृत्त होकर, संकल्प एवं मनोरथों को त्यागकर, समस्त इन्द्रियजित और सत्-असत् के ज्ञाता, ज्ञानी हो जाओ। अब तक अनेक ऋषि-महर्षि धारणा,ध्यान, समाधि आदि के संयम से नवीन बन्धनों से छूटकर, सुखप्रद और सर्वबाधारहित सिद्धि अपने तपोबल से पा चुके हैं। अतएव तुम भी इसी प्रकार तपोबल से सिद्धि प्राप्त करो।
साङ्ख्य, योग, वेदान्तादि कल्याणकारी शास्त्रों के पढ़ने और मनन करने से शोक नष्ट हो जाता है। अतः इन शास्त्रों को सुनने से अथवा अध्ययन करने से मनुष्य की बुद्धि उत्तम हो जाती है और उत्तम बुद्धि होने से वह सुखपूर्वक उन्नत मार्ग पर अग्रसर होता है। संसार में मूर्खजनों को नित्य ही अनेक दुःखों और भयों का सामना करना पड़ता है। विद्वान् पण्डितों के सामने वे दुःख और भय कभी नहीं आते। इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि जिनको दुःख, भय आदि नहीं दबाते वे ही पण्डित हैं, अन्य लोग मूर्ख हैं।
हे शुकदेव! यदि तुम्हारा मन अपने वश में है तो मेरा उपदेश तुम ध्यान से सुनो। क्योंकि ऐसे ज्ञानोपदेश ही से दुःख दूर होते हैं और कल्याण का मार्ग दिख पड़ता है। निर्बुद्धि और अल्पमति मनुष्यों की पहचान यही है कि वे अपने ऊपर किसी अनिष्ट के आने या विपत्ति के पड़ने पर अथवा अपने स्त्री-पुत्रादि किसी प्रिय स्वजन का वियोग होने पर अपार दुःख-सांगर में डूब जाते हैं। जो पदार्थ नष्ट हो चुके, उनके गुणों या भलाइयों का स्मरण न करना चाहिये। क्योंकि उनका स्मरण-करने से वे उनके स्नेह या प्रेम के बन्धन से छुटकारा नहीं पा सकते। अतएव सुख-भोग से उदासीन रहना ही कल्याणकारी है।
विरक्त ज्ञानी पुरुषों को उचित है कि वे उन पदार्थों में दोषदृष्टि से काम लें, जिनमें उनका अनुराग या वासना हो। क्योंकि यदि वह अनुराग या वासना अनिष्ट की बढ़ाने वाली मानी जाय, तो शीघ्र ही मन में उन पदार्थों की ओर से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। बीती हुई बातों के लिये शोक करने से धर्म, अर्थ अथवा यश कुछ भी तो नहीं मिलता। प्रत्युत शोक करने से धर्मादि का नाश होता है। साथ ही वह शोक नष्ट न होकर उत्तरोत्तर बढ़ता है। प्राणियों को अच्छे पदार्थ मिलते भी हैं और उनका वियोग भी होता है। यह सबके लिये, एक समान नियम है। इष्ट वस्तु का वियोग ही दुःख या शोक कारण है। यदि कोई अपना मेली प्रिय मनुष्य मर गया, अथवा खो गया तो उसके लिये जो शोक करता है वह मानों दुःख से दुःख को उत्पन्न करता है। इस प्रकार अनिष्ट-प्राप्ति में शोक करने से दो अनर्थ होते हैं अर्थात् दोहरा दुःख होता है, किन्तु शोक न करने से दोनों दुःख मिट जाते हैं। संसार में इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख के क्रम को धीरे-धीरे विचार के साथ जो देखते हैं, वे मनुष्य प्रिय-वियोग से न तो दुःखी होते हैं और न रोते हैं। समस्त संसार को भली भाँति यथार्थ दृष्टि से देखने-वाले कभी नहीं रोते।
शारीरिक दुःख के नष्ट हो जाने पर यदि मानसिक दुःख उत्पन्न हो जाय और यदि उसे दूर करने का कोई उपाय न दिख पड़े तो उसके लिये न तो चिन्ता करनी चाहिये और न दुःखी ही होना चाहिये। दुःख को हटाने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसके लिये चिन्तित न हो। क्योंकि चिन्ता करने से दुःख नष्ट नहीं होता प्रत्युत बढ़ता है। अतएव उसकी ओर से उदासीनता ही श्रेयस्करी है। बुद्धि के उत्तम-उत्तम विचारों से मानसिक दुःख को तथा ओषधि का सेवन कर शारीरिक असुख को दूर करे यही बुद्धिमानों का कर्त्तव्य है। दुःख के समय अज्ञानियों की तरह घबड़ाना नहीं चाहिये। यौवन, सौन्दर्य, दीर्घ जीवन, धन का संचय, आरोग्यता और प्रिय वस्तु का संयोग, ये सब अनित्य हैं- अर्थात् सदा टिकाऊ नहीं हैं। अतएव बुद्धिमान विद्वान् यौवनादि में लिप्त एवं आसक्त न हों। देशव्यापी विपत्ति को व्यक्तिगत मानकर शोक न करना चाहिये, किन्तु शोकातुर न होकर उस विपत्ति की निवृत्ति लिये उद्योग करना चाहिये। यदि उद्योग करने पर भी वह न हटे, तो न तो दुःखी हो और न घबरावे।
विद्वान् और विचारशील लोगों ने अच्छी तरह छान-बीन करके और संसार के गतागत वृत्तान्तों को पढ़ एवं सुन कर यह निर्णय कर दिया है कि मानव जीवन में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है। सो उनका यह निर्णय निस्सन्देह ठीक है इन्द्रियों के विषय में प्रेम होने के कारण और मोहवश, अप्रिय मृत्यु प्राणियों को आ कर घेर लेती है। जो मनुष्य सांसारिक सुख-दुःख की ओर ध्यान नहीं देता, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। ऐसे मनुष्य को विद्वान् लोग, शोकसागर से पार हुआ मानते हैं। धनादि ऐश्वर्य का त्याग करने में मनुष्य को बड़ा दुःख होता है। धन की रक्षा करने में भी सुख नहीं मिलता और धन की प्राप्ति में भी बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़ते हैं। अतएव ऐसे धन की यदि हानि हो तो उसके लिए शोक न करना चाहिये। क्योंकि जो वस्तु सब समय दुःखदायिनी है, उसका नाश होने पर तज्जन्य दुःख का नाश हुआ भी मानना चाहिये। धन-प्राप्ति की भिन्न-भिन्न दशाओं और न्यूनाधिक विशेष अवस्थाओं में साधारण मनुष्य निज आर्थिक अवस्था से कभी सन्तुष्ट नहीं होते और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाते हैं। किन्तु पण्डितजन सदा अपनी आर्थिक परिस्थिति से सन्तुष्ट रहते हैं। समस्त संचयों का अन्त में नाश होता है, समस्त उन्नतियाँ अन्त में अवनति को प्राप्त होती हैं, सब प्रकार के संयोगों का अन्तिम परिणाम वियोग होता है और सभी जीवन अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतएव संचय, उन्नति, संयोग और जीवन को तुम सुख का हेतु मत मानो।
ज्ञानीजनों ने ठीक ही जान लिया है कि, तृष्णा का कभी अन्त नहीं होता। अतएव सन्तोष ही में बड़ा सुख है। इसीलिये विद्वज्जन सन्तोष को बड़ा धन मानते हैं। एक क्षण के लिये भी आयु का ह्रास होना बन्द नहीं होता। क्योंकि यह शरीर अनित्य है। अतएव ज्ञानियों को विचारना चाहिये कि नित्य वस्तु कौन सी है? उस नित्य वस्तु को जान लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। प्राणियों में मुख्य सत्ता का चिन्तन करके जो लोग चेतनात्मा को जान लेते हैं, वे परमपद को देखते हुए संसार-सागर के पार हो जाते हैं और उन्हें किसी प्रकार का शोक नहीं व्यापता। अर्थात् वस्तुस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही शोक और मोह नष्ट हो जाते हैं। तृप्त न होकर कामनाओं के वशवर्ती पुरुष को मृत्यु वैसे ही उठा ले जाती है, जैसे बाघ, बकरी आदि हीन बलवाले पशुओं को उठा ले जाता है। यद्यपि मृत्युरूपी बाघ मुख खोले खड़ा है, तथापि दुःखों से बचने के लिये एवं उससे छुटकारा पाने के लिये ज्ञानदृष्टि से काम लेना चाहिये। शोक को त्यागकर परमार्थ का चिन्तन करना चाहिये। परमार्थ का तत्त्वज्ञान होने पर, पहाड़ों-जैसे बड़े-बड़े दुःख भी नष्ट हो जाते हैं।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन्द्रियों के इन पाँच विषयों का, चाहे धनी हो या निर्धन सब लोग समानरूप से उपभोग कर सकते हैं, किन्तु इन विषयों के उपभोग के अतिरिक्त अन्य लाभ नहीं है।
जिस वस्तु के नाश से बड़ा दुःख होता है, उसके प्राप्त होने के पूर्व सुख अथवा दुःख कुछ भी नहीं होता। अतएव उसकी प्राप्ति के पूर्व की दशा को ध्यान में रखकर, कभी मन को दुःखी न करना चाहिये। उपस्थ और उदर की रक्षा और उदर के भरण-पोषण के लिये धैर्य से काम ले। अर्थात् अनुचित काम-वासना से और अभोज्य भोजन से बचे। आँखों द्वारा हाथ और पाँव की रक्षा करे, मन से आँखों और कानों की रक्षा करे और विद्या द्वारा मन एवं वाणी की रक्षा करे। अर्थात् मन एवं वाणी को विद्याभ्यास में लगाकर, इन दोनों को अनुचित कार्यों की ओर से रोके। भलाई-बुराई से मन हटाकर, जो शान्तिशील पुरुष उदासीन-भाव से यात्रा कर संसार से पार होता है, वही सुखी रहता है और वही पण्डित कहलाता है। जो मनुष्य अध्यात्म अर्थात् आन्तरिक विचारों में मन को लगा, अनुकूल प्रतिकूल विषयों में हर्ष और विषाद को कुछ भी नहीं गिनता, केवल परमात्मा की सहायता ही से संसार में विचरता है उसी को तुम सुखी जानो।
जब सुख के समय विपत्तिरूप दुःख आ उपस्थित होता है, अर्थात् सुख के बदले दुःख आ जाता है, तब उस दुःख को कोई भी नीतिज्ञ बुद्धिमान् नहीं हटा सकता। रोगादि दुःखों में फँसने के पूर्व ही प्रतिकूलात्मक दुःख-निवृत्ति के लिये यत्न करता रहे। जो पुरुष सदा यत्न किया करता है वह कभी दुःख नहीं पाता। मनुष्य को उचित है कि, मोक्ष प्राप्ति के सदैव यत्नवान् रह कर जरा, मृत्यु और रोगादि के चक्र से अपने प्रिय आत्मा की रक्षा करे। जैसे किसी बलवान् धनुर्धर के छोड़े हुए वाण प्रतिपक्षी के शरीर में विंध कर शरीर को पीड़ित करते हैं, वैसे ही मानसिक और शारीरिक व्यथाएँ प्राणियों को पीड़ित किया करती हैं। नित्य नयी-नयी कामनाओं से व्यथित, ग्लानियुक्त जीवन के अभिलाषी एवं विवश प्राणी के विनाश के लिये शरीर खींचा जाता है। अर्थात् जीव की अधोगति के निमित्त शरीर सताया जाता है। जैसे घास-फस के साथ जो जल की धार आगे बहकर निकल जाती है, वह लौटकर पीछे नहीं आती वैसे ही शरीरधारियों की आयु को लेकर, दिन-रात-रूपी काल के जो प्रवाह प्रतिक्षण बहे चले जाते हैं, वे फिर लौट कर नहीं आते।
शुक्लपक्ष के पीछे कृष्णपक्ष और कृष्णपक्ष के पश्चात् शुक्लपक्ष आया जाया करते हैं और इनका आना-जाना उत्पन्न हुए मनुष्यों के आयु को क्षण-क्षण में कम करता हुआ एक क्षण के लिये भी नहीं रुकता। बारम्बार सूर्योदय और सूर्यास्त होने से बने हुए दिन और रात आदि कालों का प्रवाह, स्वयं अजर-अमर बन, प्राणियों को सुख-दुःख देता है, उनको मारता है और उत्पन्न किया करता है। काल के प्रभाव से ऐसे-ऐसे कार्य प्रत्यक्ष होते देखे जाते हैं, जिनके होने की सम्भावना की कल्पना तक कभी नहीं की गयी थी। जो प्राणी अथवा धनादि पदार्थ कल हमारी आँखों के सामने विद्यमान थे, वे आज नहीं रहे। मानों कल का दिन उन सबको अपने साथ लेता गया। यदि कर्म-फल-विधान ईश्वर अथवा दैव के अधीन न होता, तो प्रत्येक मनुष्य जो चाहता वही कर सकता था। संयमी, चतुर एवं बुद्धिमान् जन भी, कर्महीन, त्रिफलजीवन अर्थात् दुःखी और दरिद्र देखे जाते हैं और महामूर्ख, निर्बुद्धि, सर्वगुणहीन तथा नीचातिनीच पुरुष सब प्रकार से भरे-पूरे और सुखी देख पड़ते हैं। उनको कोई सज्जन और धर्मात्मा जन अच्छा नहीं समझते। इसी प्रकार न मालूम कितने लोग, जो सदैव पश्वादि की हिंसा किया करते हैं, (क्योंकि उनकी हिंसामयी प्रवृत्ति है ) और जो रात-दिन दूसरे लोगों को धोखा दे ठगा करते हैं वे पतित पामर जन भी जन्मभर सुख-चैन से अपना जीवन बिता देते हैं। देखो, ऐसे भी लोग हैं, जो धनोपार्जन के लिये हाथ-पाँव नहीं हिलाते, किन्तु चुपचाप बैठे रहते हैं, पर तो भी उनके पास धन अपने आप चला आता है और ऐसे भी अनेक लोग हैं जो धनोपार्जन के लिये निरन्तर घोर परिश्रम किया करते हैं, किन्तु उनको धन नहीं मिलता। कोई-कोई चाहते हैं कि हमारे मरने के बाद हमारे सन्तान हमारे उत्तराधिकारी हो और इसलिये वे श्रीमान्पु रुष सन्तानोत्पत्ति के लिये बड़े-बड़े प्रयत्न किया करते हैं, किन्तु उनका मनोरथ सफल नहीं होता। उनकी स्त्रियों के गर्भस्थापन ही नहीं होता। किन्तु न मालूम कितने व्यभिचारी व्यभिचार करते और चाहते हैं कि कहीं उनकी प्रेयसी गर्भवती न हो जाय। वे गर्भ से वैसे ही डरते हैं, जैसे साँप से मनुष्य। किन्तु ऐसों के हृष्ट-पुष्ट चिरायु पुत्र माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध उत्पन्न होते हैं।
हे शुकदेव ! कहीं ऐसा भी देखने में आता है कि सुसन्तान प्राप्ति के लिये बड़े-बड़े व्रतोपवास और कठोर तप किया जाता है और जब उनके प्रभाव से गर्भ स्थापित हो जाता है और दस मास बाद सन्तान उत्पन्न होता है, तब वह महा-कुल-कलंकी कुपूत निकलता है। महा भयंकर रोगों से पीड़ित अनेक धनी बहुत-सा धन व्यय कर बड़े-बड़े पीयूपपाणि और प्रसिद्ध चिकित्सकों से चिकित्सा कराते हैं, किन्तु उनका रोग नहीं छूटता। कहीं-कहीं बड़े 'नामी-गिरामी चिकित्सक, जिनके पास महा मूल्यवान् ओषधियाँ हैं, स्वयं रोगाक्रान्त हो जाते हैं और रोगों से वे वैसे ही सन्तप्त होते हैं, जैसे बहेलिये से मृग। वे अनेक ओषधियों के योग से बनाये गये घृत का सेवन करते हैं, कषायों को पीते हैं और च्यवनप्राशादि पौष्टिक औषधियों को खाते हैं; किन्तु बुढ़ापा उनको वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे बलवान् हाथी पहाड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर उसे नष्ट कर डालता है। साथ-ही-साथ यह भी सोचने की बात है कि, इस भूमण्डल पर रहनेवाले तरह-तरह के पक्षियों और अन्य जीव-जन्तुओं की चिकित्सा कौन करता है? वन में रहनेवाले पशु-पक्षी आदि अनेक जीव तथा दीन-दरिद्र मनुष्यों को कोई रोग प्रायः होता ही नहीं। परन्तु बड़े-बड़े प्रतापी, किसी से न दबनेवाले शूरवीर, बड़े-बड़े सिंहों को पकड़ने अथवा मार डालने वाले राजों और महाराजों पर रोगादि आक्रमण कर उनको वैसे हीं दबा लेते हैं, जैसे कोई सिंह किसी सियार को दबा लेता है। संसार की ऐसी त्रिलक्षणताओं को देखकर, मनुष्य को उचित है कि वह अपने मन को शान्त रखे। क्योंकि अति बलवान् काल का प्रवाह दुःखादि से घिरे हुए लोगों को ऊँची-नीची दशाओं में पटका करता है। जो प्राणी अपने प्रबल स्वभाव के बन्धन में बँधे हुए हैं, उनकी वह काम-क्रोधादि के गर्त में गिराने वाले स्वभाव की वासना धन से, राज्य से अथवा घोर तप से भी दूर नहीं होती। यदि मनुष्यों की सभी कामनाएँ पूरी होने लगें तो, न तो कोई मनुष्य कभी मरे, न कोई बूढ़ा ही हो और न किसी प्रकार का वह अप्रिय अनिष्ट ही देखे। संसार में सभी प्राणी स्वभावतः उच्चातिउच्च दशा को प्राप्त करने की यथाशक्ति चेष्टा किया करते हैं; किन्तु न तो कभी ऐसा हुआ और न कभी हो ही सकता है।
संसार में यह भी देखने में आता है कि जो धन के मद में चूर हैं अथवा जो राजा-रईस मदिरा के नशे में चूर रहते हैं, उनकी सेवा, मादक वस्तुओं का सेवन न करने वाले, बड़े-बड़े पराक्रमी शूरवीर किन्तु मूर्ख प्रमाद छोड़ सहर्ष किया करते हैं। कितने ही लोगों के दुःख बिना प्रयत्न किये ही अपने आप नष्ट हो जाते हैं। कुछ लोगों को ऐसे दुःख आकर घेर लेते हैं, जिनके कारणों का पता खोजने पर भी नहीं लगता। कहीं-कहीं तो ऐसी विषमता देख पड़ती है कि पालकी में बैठकर चलने वाले तो दुःखी हैं और उनकी पालकी उठाने वाले सुखी हैं। कतिपय राजे और रईस ऐसे भी हैं जिनकी रथादि सवारियों के आगे-पीछे अनेक नौकर-चाकर दौड़ा करते हैं, किसी के घर में सैकड़ों स्त्रियाँ हैं, जो बिना काम-भोग के तड़पा करती हैं और अन्यत्र सैकड़ों पुरुष ऐसे हैं जो स्त्रियों के लिये तरसा करते हैं। हर्ष-शोक, हानि-लाभ, सुख-दुःखादि में रमने वाले प्राणी प्रायः इसी प्रकार दुःखित दिखलायी पड़ते हैं । इस संसार में नाना प्रकार के दुःख हैं। अतएव हे शुकदेव! मैंने जो अभी तुम से कहा है, उस पर तुम विचार करो और तदनुसार ही संसार को देखो। ऐसा करने से तुम्हें फिर मोह न होगा।
तुम धर्म-अधर्म दोनों के फलों का त्याग करो और सत्य-असत्य के झंझट में न पड़ो। जैसे प्रकाश -अन्धकार का अविच्छिन्न सम्बन्ध है, वैसे ही धर्म-अधर्म और सत्य-असत्य का सम्बन्ध समझ उन्हें त्यागो। हे शुकदेव! हे ऋषिप्रवर! यह परम गुह्य रहस्य-विचार मैंने तुमसे कहा है। इसी ज्ञान के प्रभाव से देवता लोग, मर्त्यलोक को छोड़ स्वर्ग पा सके हैं। यह कल्याण का परम सुन्दर मार्ग है।
देवर्षि नारद के इस उपदेशानुसार शुकदेवजी चले और अन्त में इस स्थूल पाञ्चभौतिक शरीर को त्याग, मुक्ति को प्राप्त हुए।
इसमें सन्देह नहीं कि, उपर्युक्त नारदीय अध्यात्मविचार, बड़े ही महत्व का, शान्तिप्रद, अहिंसात्मक और परम कल्याण मार्ग के पथिकों के लिये सर्वोत्तम उपदेश है। जिस उपदेशामृत को पानकर शुकदेवजी जैसे बालज्ञानी, परमत्यागी और संसार-प्रसिद्ध योगी मोक्ष पा चुके हैं और जीवन्मुक्त हो चुके हैं, उसके विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है किन्तु इतना तो कहना ही पड़ता है कि नारदीय अध्यात्मज्ञान सब प्रकार के, सब श्रेणी के और सभी विचार के लोगों के लिये हितोपदेश हैं, हित की दृष्टि से एक चेतावनी है और केवल प्रसङ्गवश किसी कार्यविशेष के लिये नहीं, प्रत्युत कल्याणमार्ग के पथिकों के लिये सर्वोत्तम पथ-प्रदर्शक ज्ञान का वर्णन है।