परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 1 Praveen kumrawat द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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परम् वैष्णव देवर्षि नारद - भाग 1

पौराणिक कथाओं के सबसे अधिक लोकप्रिय पात्र हैं "देवर्षि नारद।" शायद ही कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना घटित होती होगी जिसमें नारद की भूमिका न रहती हो। उनकी एक विशेषता यह बताई जाती है कि वे कहीं टिक कर नहीं बैठते थे। कभी देवताओं के बीच, तो कभी मानवों के और कभी असुरों के बीच नारद विचरण करते थे। सभी उनका बड़ा आदर-सम्मान भी करते थे। नारद जी को भगवान् विष्णु का अनन्य भक्त कहा जाता है। यद्यपि पौराणिक कथाओं में नारद का उल्लेख सदा सम्मान के साथ किया जाता है तथापि जन-साधारण यह कह कर भी उनकी हंसी उड़ाते हैं कि वे तो इधर की उधर लगाकर झगड़े करवाते फिरते हैं। वास्तविकता यह है कि वे जो भी करते थे उससे दुष्टों का पराभव तथा सज्जन लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ती थी।
मान्यता है कि वीणा का आविष्कार नारद ने किया है। वे भगवान् की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद् गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते थे। इन्हें 'भगवान् का मन' भी कहा गया है। "नारद स्मृति" तथा "नारद भक्ति सूत्र" की रचना नारद जी ने ही की। प्रस्तुत सभी कहानियां विभिन्न पुराणों और कुछ दंत कथाओं पर आधारित हैं। इनमें बताया गया है कि देवर्षि होते हुए भी नारद प्रलोभनों में फंस गए और उन्हें अहंकार हो आया। किन्तु जब-जब वे इन दुर्बलताओं के शिकार हुए भगवान् विष्णु ने उन्हें उबार लिया। नारद धीर-धीरे मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर उठते गए और उन्होंने सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया।



एक बार नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उनसे बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा भगवान् विष्णु का भक्त नहीं है। उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान् के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान् से कोई बात छुपी थोड़े ही रहती है। उन्हें तुरंत इस बात का पता चल गया। वे अपने भक्त का पतन भला कैसे देख सकते थे? इसलिए उन्होंने नारद को इस दुष्प्रवृत्ति से बचाने का निर्णय किया।
एक दिन नारद जी और भगवान् विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले "भई नारद जी, हम तो थक गए हैं, प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला नहीं जा रहा है। हमारा गला सूख रहा है।"
यह सुनकर नारद जी तुरन्त सावधान हो गए, उनके होते हुए भगवान् भला प्यासे रहें। वे बोले “भगवन्, अभी लाया, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें।"
नारद जी एक ओर दौड़ लिए। उनके जाते ही भगवान् मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई..
नारद जी थोड़ी ही दूर गए होंगे कि उन्हें एक गाँव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुएं पर कुछ युवा स्त्रियां पानी भर रही थीं। कुएं के पास जब वे पहुंचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे, बस उसे ही निहारने लगे। वह यह भूल गए कि वे भगवान् के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी नारद जी की भावना समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर चल दी। नारद जी भी उसके पीछे हो लिए। कन्या तो घर के अंदर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर 'नारायण, नारायण' का अलख जगाया।
गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरन्त पहचान लिया। अत्यंत विनम्रता और आदर के साथ वह नारद जी को घर के अंदर ले गया और उनके हाथ-पैर धोकर स्वच्छ आसन पर बिठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी। उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए गृहस्वामी ने अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया।
नारद जी बोले "आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घड़ा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ।”
नारद जी की बात सुनकर गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान योगी तथा संत के पास जाएगी। उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने ही घर में रख लिया। दो-चार दिन पश्चात् शुभ-मुहूर्त में उसने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें गाँव में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया कि खेती करके वे आराम से अपना और अपने परिवार का पेट भर सकें।
अब नारद जी की वीणा एक खूंटी पर टंगी रहती, जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए। दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, तो कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहता। फसलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठार भर जाते। नारद जी गाँव के एक सम्पन्न किसान माने जाने लगे। वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए और नारद जी की गृहस्थी भी बढ़ती चली गई। तीन-चार लड़के-लड़कियां भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण की भी फुरसत नहीं मिलती थी । वे हर समय बच्चों के पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेत में काम करते रहते थे।
अचानक एक बार तेज बारिश हुई। जिसने कई दिनों तक बंद होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके हृदय में भय उत्पन्न कर दिया। मूसलाधार वर्षा ने गाँव के पास बहने वाली नदी में बाड़ की स्थिति पैदा कर दी। चारों ओर पानी ही पानी फैल गया। कच्चे-पक्के सभी मकान ढहने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। अनेक व्यक्ति मर गए। गाँव में त्राहि-त्राहि मंच गयी।
नारद अब क्या करें? उन्होंने भी घर में जो थोड़ा कीमती सामान बचा था उसकी गठरी बांधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर जान बचाने के लिए पानी में से होते हुए बाहर निकलने लगे। नारद जी बगल में गठरी थामें, एक हाथ से एक बच्चे को पकड़े और दूसरे हाथ से अपनी पत्नी को संभाले हुए थे। पत्नी भी एक बच्चे को गोद में और एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।
पानी का बहाव अत्यंत तेज था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहाँ गड्ढा है और कहाँ टीला ? अचानक नारद जी ने ठोकर खायी और गठरी बगल से निकल कर बह गयी। नारद जी गठरी कैसे पकड़ते, दोनों हाथ तो घिरे थे। मन मसोसकर सोचा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी और गोद का बच्चा छूटकर बह गया। पत्नी बहुत रोयी, लेकिन क्या हो सकता था?
धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, उन्होंने बहुत कोशिश की बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक दूसरे को सांत्वना देते, कोई ऊंची जगह ढूंढ़ते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्ढे में समा गए।
नारद जी तो किसी प्रकार गड्ढे में से निकल आए, मगर उनकी पत्नी का पता कहीं नहीं चला। बहुत देर तक नारद जी उसे इधर से उधर, दूर-दूर तक ढूंढ़ते रहे लेकिन व्यर्थ, रोते-रोते उनका बुरा हाल था, हृदय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था। उनकी तो सारी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोसें अपने भाग्य को या भगवान् को ?

भगवान् का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फैल गया और पुरानी सभी बातें याद आ गयीं। वे किसलिए आए थे और कहाँ आ गए? ओहो ! भगवान् विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहाँ गृहस्थी बसाकर बैठ गए।
वर्षों बीत गए, गृहस्थी को बसाने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान् अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे बैठे होंगे? यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गयी। गाँव भी अंतर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे। नारद जी पछताते और शरमाते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूरी पर उसी वृक्ष के नीचे भगवान् लेटे हैं। नारद जी को देखते ही वे उठ बैठे और बोले “अरे भाई नारद, कहाँ चले गए थे, बड़ी देर लगा दी।" पानी लाए या नहीं?"
नारद जी भगवान् के चरण पकड़ कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने। उनके मुंह से एक बोल भी नहीं फूटा। भगवान् मुस्कराए और बोले "तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है।"
लेकिन नारद जी को लगा था कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में आया कि यह सब भगवान् की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी। वे सोचने लगे, उन्हें बड़ा घमंड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है। लेकिन एक स्त्री को देखकर वे भगवान् को भूल गये, उनको पछतावा होने लगा और उनका घमंड जरा-सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान् के गुण गाने लगे..