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लौटा दो बचपन


आभासी दुनिया का एक सच, जब बच्चे ही आपस में कह रहे हैं क्या दिन थे वो जब हम यू पार्क में खेला करते...। क्या दिन थे वे जब हम मिट्टी में लोटमलोत हो जाया करते थे...। क्या दिन थे वे...जब हमारा बचपन यूं खिल खिलाता था...।
गीता सोच में हैं, बड़ी ही हैरानी की बात हैं, जिस जनरेशन ने अपना बचपन अभी पूरा नहीं जिया है वो ही 'जनरेशन' कह रही हैं 'क्या दिन थे वो'....। 'जब हम स्कूल में पढ़ने जाया करते थे'...। घर के अहाते में बैठी अपने ही परिवार के बच्चों के मुंह से ये बात सुनकर वो गहरी सोच में पड़ गई।
तभी उसके कानों में ये भी शब्द सुनाई पड़े।
'अमेजिंग'...'रियली वैरी मेमोरेबल डेज़'...।
'क्या दिन थे वो जब लंच टाइम पर एक—दूसरे के टिफिन का खाना शेयर किया करते थे'...'क्या दिन थे वो जब ​मैम किसी एक को डांटती तब उस पर मंद—मंद मुस्कान के साथ दबी—दबी हंसी सभी की छूटती'....। एक—दूसरे को देखते और फिर मुंह पर हाथ रखकर हंसी दबाने की कोशिश करते ...।
हे! भगवान!
न जानें कब खुलेंगे स्कूल....?
कब वेन वाले अंकल का हॉर्न सुनाई देगा...?
कब यूनिफॉर्म और स्कूल श़ूज पहनने को मिलेंगे...?
कब खेल मैदान में दोस्तों के बीच 'रेस' होगी...?
आख़िर कब सुनाई देगी वो स्कूल की घंटी...?
गीता मन ही मन विचारने लगी। सच ही तो हैं। आख़िर कब तक ये मासूम बच्चे यूं 'ऑनलाइन क्लास' में बैठ—बैठकर शिक्षा ग्रहण करते रहेंगे...?
अब तो हाल ये हो चला है कि क्लास से फ्री होने के बाद एक—दूसरे से रोज़ाना वॉट्सएप चैट पर हैलो—हाय करते हैं। कभी—कभार वीडियो कॉल भी कर लेते हैं...। लेकिन आज ये मासूम बेहद उदास हैं...। ये अपना स्कूल मिस कर रहे हैं...।
गीता सबकुछ देख और महसूस कर रही थी। तभी मोबाइल फोन की घंटी बज उठी।
हैलो!
हां, हैलो रोहन।
हाउ आर यू
आईएम फाइन टाइप ही हूं यार!
बस मेरा भी हाल कुछ ऐसा ही है।
बहुत बोर हो रहा हूं
मैं भी....।
तभी बच्चों की ओर धीरे से फुसफुसियाते हुए गीता ने मोबाइल को स्पीकर पर डालने को कहा। बच्चों ने ऐसा ही किया।
उधर से एक सुस्त आवाज़ आई।
क्या बताऊं यार...वहीं सुबह उठो...नीम—गिलोय पियो ..योगासन करो...ब्रेकफास्ट लो और फिर वहीं 'ऑनलाइन क्लास'...।
तू भी यही सब करता हैं ना...?
इधर, ये जवाब मिला हां, ये ही समझ ले यार...बस, नीम—गिलोय की जगह कभी—कभार एलोवीरा का ज्यूस, तो कभी लौकी और मैथीदाने का पानी पी लेता हूं...। बाकी तो सब तेरे जैसा ही चल रहा हैं।
अब तो इनडोर गेम्स खेल—खेल कर भी बोर हो चुका हूं...। टीवी कार्टून्स देखना भी अब अच्छा नहीं लगता हैं....।
जब से कोरोना आया है तब से डोरेमोन, सिंचेन और भीम भी नया कुछ नहीं कर रहे हैं...। हां...बद्री और बुडबक ज़रुर देखता हूं। इन दोनों की दोस्ती और स्कूल की शरारतें देखकर मुझे हम दोनों के वो स्कूल वाले दिन याद आ जाते हैं...। क्या दिन थे यार वो....।
तभी पहले दोस्त ने बड़ी सी हामी भरते हुए कहा— हा..हा...तू सच कह रहा हैं वो दिन तो मुझे भी बेहद याद आते हैं...। तुझे याद हैं जब तेरे पास पेंसिल नहीं होती थी तब मैं ही तुझे पेंसिल देता था...और तू मुझे हमेशा अपना रबर देता था...।
और हां...तूने जो मुझे वो ब्ल्यू वाला रबर दिया था ना, वो अब भी मेरे पास हैं...मैं उससे कुछ भी 'इरेज़' नहीं करता...। मुझे ऐसा लगता है कि कहीं वो इरेज़ करते—करते ख़त्म न हो जाए...। मैं तुझे वीडियो कॉल पर ज़रुर दिखाऊंगा...।
सच में तूने वो संभालकर रखा हैं...?
...'हां यार'...।
और फिर ​बात करते—करते दोनों दोस्त भावुक हो गए...। कुछ सैकंड का पॉज़ लिया और फिर एक साथ बोल पड़े 'क्या दिन थे वो जब हम स्कूल जाया करते थे'....।
काश! वो दिन फिर से लौट आए...। हम दोनों बैग लटकाए हुए स्कूल में मिलें...क्लास अटेंड करें...प्रजेंट मैम कहें...मैदान में खूब खेलें और...। ओह! कोई तो लौटा दो बचपन...।
सच ही कह रहा हैं यार...और... तू मुझे 'रबर' दे और मैं तुझे 'पेंसिल'....।
ये बातें सुनकर गीता ने सभी बच्चों को गले से लगा लिया। बच्चे कह पड़े बुआ कब लौटेगा बचपन हमारा ....?
गीता इतना ही कह सकी, ''जल्द ही....।''

टीना शर्मा 'माधवी'
पत्रकार ब्लॉगर कहानीकार

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