एक अफ़ग़ान उबर ड्राइवर Dharm Patel द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक अफ़ग़ान उबर ड्राइवर

 

 

 

 

 

  परिवार, भाषाई मायने से समान मूल्यों से जुड़े हुए व्यक्तिओ का समूह, पर मैं अगर आपसे पूछु तो? किसी के लिए माँ के होने का सुकून, पापा का गुस्सैल स्वभाव, बहन की शरारत, भाई की नादानियाँ और इन सब से जूझते हुए आप। मेरे लिए दिनभर भटकने के बाद, जीवन की ऊंच-नीच, हार- जीत, हताशा के बाद शाम के ढलते सूरज सा घर पोहंचना। माँ का हररोज़ एक ही सा नादान सवाल " कैसा रहा आज का दिन, बेटा?" पापा का फ़ोन के किनारे से देखन, कयास लगान की सब ठीक ही होगा, होगा ना? बहन की चहल-पहल, बीवी का रसोई से आवाज़ लगाना " आ गए आप? चलो आज फिर से आपकी प्यारी तेहरी बानी है । "

  खाने के बाद वह पापा का धीरे से पास में सरकना, बातो का निकल ना, कठिन सवालों के आसान से जवाब, मीठी सी डांट " तुम्हारी उम्र में आधी दुनिया जान चूका था , तुम अभी से हार लिए?" आप सोच रहे होंगे की यह "अफ़ग़ान Uber ड्राइवर" की जगह क्या लिख रहा है। आज एक ऐसे ही परिवार की बात करनी है।

  कनाडा में मेरा पहला माह था जैसे-तैसे एक छोटी से नौकरी मिली थी, दिक्कत यह थी की ना तो वंहा बस जाती, ना ही ट्रैन। कुल मिला के टैक्सी या उबर के आलावा कोई और चारा ना था। सुबह ६:३० बजे वोह भी मिलना मुश्किल था, बस ऐसे ही एक दिन उबर की रिक्वेस्ट डाल के मैं दरवज़े पे खड़ा गुनगुना रहा था। फ़ोन की घंटी बजी,

  एक मजबूत पर मीठी सी आवाज़ में कोई बोला " मैं बस अड्डे के पास वाली गली मैं हूँ, क्या आप आ सकते हो इधर ?, आपका घर मुझे मिला नहीं। "

  अब बर्फानी सुभह में ठिठुर ता हुआ मैं निकला , ५ मिनट चल ने के बाद वहां पोहंचा। मेरा चेहरा गुस्से और ठण्ड दोनों की वजह से लाल था। सफर शुरू हुआ , चंद पलों की मातम सी ख़ामोशी को तोड़ ने की चेस्टा करते हुए ड्राइवर साहब बोले,

     " मेरी नाम तबीश है, और आप की ?"

     " मैं धर्म "

    " अच्छा तो शायद आप इंडिया से होंगे?"

    "हाँ और आप?"

    " वैसे तो मैं अफ़ग़ानिस्तान से हूँ, बाद में पाकिस्तान ३ साल रहा, फिर ८ साल इंडिया में और अब कनाडा में १३ सालो से हूँ। आप का मुल्क बड़ा ही प्यारा है , बोहोत सुकून और प्यार मिला। "

   मैं मन में बोल, " अभी रेटिंग बढ़ा ने के लिए, प्यारी प्यारी बातें बना रहे है तबिश भाई ,पर २ स्टार से ज़्याद ना दूंगा और टिप तो भूल ही जाओ। "

   मेरे पास भी करने की लिए कुछ खास था नहीं तो मैं भी बात चला ने लगा " वैसे आप ने काफी दुनिया देख ली है अंकल , पर ऐसा क्यों ? पाकिस्तान या इंडिया पसंद नहीं आया ? "

   तबीश, " नहीं बच्चा, बच्चा बोलू तो चलेगा मेरा छोटा आप सा ही है। (मेरी हामी के बाद) वैसे तो मैं काबुल के बाजार में काजू का कारोबार करता था
बजगर (किसान) से लेता, दिल्ली भेज ता, पैसे कमाता। अच्छा था, गांव में अम्मी-अब्बा, बीवी थे एक पक्का मकान, छोटी से बाइक , सुकून सी ज़िन्दगी थी। अल्लाह ने बरकत दी थी। "

     मैं " फिर क्या हुआ?"


   तबीश " प्यारी सी लूर कुकू (पश्तो में लाड सी बेटी), स्कूल भी जाती थी बच्चा, नन्ही सी उंगलिओ पे तारो के हिसाब निकलती। बाद में कहती अब्बा इतने सारे तारे अपने बनाए ? मैं हस के बोलता नहीं हम सब के अब्बा ने। वह बोलती दाढ़ी वाले इमाम चाचा ? बस ऐसे ही मासूम सवाल और बेहिसाब सपने। "

   "बाद में अमरीकी आये, तालिबान आया, साथ में जंग भी आयी। काबुल का कारोबार बंध हो गया, मैं गांव आ गया। धीरे धीरे तालिबान के लोग गांव में छुपने के लिए आये, मान करते तो मार देते, हाँ करते तो गरीबी मार देती।"

   " ऐसे ही एक दिन गांव में बम गिरा सबका बच्चा खेल रहा था, उसके पास में गिरा, ९ बच्चा लोग मर गया। मेरी लूर कुकू भी , पता नहीं मेरा बच्चा कहाँ चला गया, ना लाश मिली ना ही लूर कुकू । बस छोड़ दिया गांव सब के साथ। पाकिस्तान गया, वह काम ना मिला किसी ने बोल हिन्द चले जाओ, दिल्ली में दो कारोबारी दोस्त थे उनसे बोल, उन्हों ने काम भी दिया और किराये का घर भी। "

  "लाजपतनगर में मज़दूरी की , दो बेटी और एक बेटा भी हुआ, परिवार वापस से बढ़ा। खुशियां बढ़ी, पर देर तक रुकी नहीं, अब्बा और अम्मी अल्लाह के पास चल दिए, शायद लूर कुकू मिली होंगी उनको। बस फिर क्या , बेटा पढ़ लिख कर डॉक्टर बना , पहले वह कनाडा आया बाद में हम। दोनों बेटियां निकाह करके परिवार में खुश है , पोते के साथ खेलता हूँ , वक़्त काटने उबर चलता हूँ। "

   मैं सन्नाटे की गहराई में खुद को ढूंढ़ रहा था । एक ऐसा अनुभव जिस में ना दुःख हो ना ही सुख , जो अंदर से झगझोड़ के ज़िंदा लाश बना दे , जो गीली आंखे जान के भी भुला दे वह मैंने तबीश भाई की आँखों में देखा। क्यों , किसने , कहाँ यह सरे सवाल के जवाब यहाँ पे ख़तम हो गए सिवाय एक और सवाल के।

   " आप कभी वापस गए , अपने गांव ?"

   तबीश भाई की आवाज़ काँप रही थी शब्द नहीं थे पर एहसास निकल रहे थे ,

   " बच्चा ऊपर वाले ने सब छिना तभ भी ज़िंदा था , जब सब कुछ लौटा दिया है तभ भी ज़िंदा हूँ। बड़े अरमान थे ज़िंदगी से , अब नहीं है। मेरे अब्बा ने कहाँ था, मुझे गांव जाना है , नहीं जा पाए। दिल्ली में दफनाया, अम्मा को भी।"

                                                       " मैं गांव नहीं जा सकता , अब्बा याद एते है। "

   बाकि का सफर मैं यह सोच ता रहा , रातो रात जिसकी ज़मीं छीन जाती है , परिवार बिखर जाता है , ज़िंदगी सिर्फ समेट ने में ही निकल जाती है। वह सिर्फ यादो में खुश रहते है। उनकी आवाज़ दिन भर कानो में बजती रही।

                                               " मैं गांव नहीं जा सकता " और सोचता रहा, "अगर मैं गांव ना जा सका तो ?"