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संत एकनाथ



संत एकनाथ महाराज का नाम महाराष्ट्र में अत्यंत लोकप्रिय है। संत ज्ञानेश्वर का नाम गंभीर बना देता है, संत तुकाराम के नाम में लीनता है, संत समर्थ रामदास के नाम की धाक है, वैसे ही संत एकनाथ के नाम में सबको प्रसन्न कर देने की शक्ति है। इनका चरित्र ही ऐसा है। काशी में जैसे गंगा बहती है वैसे ही महाराष्ट्र में विशेषकर पैठन में एकनाथ जी महाराज की स्मृति गंगा बहती है। आज भी महाराष्ट्र में सर्वत्र एकनाथषष्ठी मनाई जाती है और पैठन में तो इस दिन सब ओर से यात्री एकत्र होते हैं और इस स्मृति गंगा में स्नान कर कृतार्थता का अनुभव करते हैं। पैठन किसी समय विद्या का एक प्रधान केंद्रस्थान था पर आज पैठन में और कुछ नहीं पर संत एकनाथ की दिव्य स्मृति जरूर है।
संत एकनाथ जी का जन्म विक्रम संवत् 1590 के लगभग पैठण में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री सूर्य नारायण तथा माता का नाम रुक्मिणी था। जन्म लेते ही इनके पिता का देहावसान हो गया तथा कुछ समय के बाद इनकी माताजी भी चल बसीं। इनके दादा चक्रपाणि के द्वारा इनका लालन-पालन हुआ। संत एकनाथ जी बचपन से ही बड़े बुद्धिमान् थे। रामायण, पुराण, महाभारत आदि का ज्ञान इन्होंने अल्पकाल में ही प्राप्त कर लिया था।

इनके गुरु का नाम श्री जनार्दन स्वामी था। गुरुकृपा से इन्हें दत्तात्रेय भगवान्‌ का दर्शन हुआ था।
एकनाथ जी ने देखा कि श्रीगुरु ही श्रीदत्तात्रेय हैं और श्रीदत्तात्रेय ही गुरु हैं। उसके बाद इनके गुरुदेव ने इन्हें भगवान श्रीकृष्ण की उपासना की दीक्षा देकर शूलभञ्जन पर्वत पर रहकर तप करने की आज्ञा दी। तपस्या पूरी करके ये गुरु आश्रम पर लौट आये। तदनन्तर गुरु की आज्ञा से ये तीर्थ यात्रा के लिये निकल पड़े।

तीर्थ यात्रा पूरी करके संत एकनाथ जी अपनी जन्मभूमि पैठण लौट आये और दादा-दादी तथा गुरु के आदेश से विधिवत् गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। इनकी धर्म पत्नी का नाम गिरिजा बाई था। वे बड़ी पति परायणा और आदर्श गृहिणी थीं। श्री एकनाथ जी का गृहस्थ जीवन अत्यन्त संयमित था। नित्य कथा-कीर्तन चलता रहता था। कथा कीर्तन के बाद सभी लोग इन्हीं के यहाँ भोजन करते थे। अन्न-दान और ज्ञान-दान दोनों इनके यहाँ निरन्तर चलता रहता था। इनके परिवार पर भगवत्कृपा की सदैव वर्षा होती रहती थी, इसलिये इन्हे अभाव नाम की कोई चीज नहीं थी।

महाराष्ट्र में एकनाथ महाराज के संबंध में जितनी चमत्कार भरी कथा प्रसिद्ध है। उतनी और किसी भी महात्मा के संबंध में नहीं है। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए एकनाथ महाराज को ऐसे-ऐसे अवसरों का सामना करना पड़ा। जहां उनके विलक्षण धैर्य, शांति आदि गुण प्रकट हुए। ऐसा धैर्य या ऐसी शांति सामान्यतः किसी के आचरण में देखने में नही आती। उनकी दृष्टि समदृष्टि थी। ब्राह्मण, चांडाल, यवन सब उन्हें एक से ही नजर आते थे। चोर तथा वेश्या को भी कृतार्थ करने में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। प्राणी मात्र में भगवत् भाव रखते हुए वे जो कुछ कहते थे। वैसा ही आचरण करते थे। वर्णाश्रम धर्म को उन्होंने नहीं छोड़ा और भूत दया के भाव को भी उन्होंने नहीं दबाया। दोनों के सम परिमाण पर वह रहते थे। निंदको और दुष्टों के लिए कभी कोई कठोर शब्द कहकर उन्होंने उनके प्रति घृणा प्रकट नही की; यही नहीं बल्कि उन्हें सन्मार्ग पर लाने के लिए उन्होंने बड़े कष्ट उठाए। लोकोपकार के लिए ही उनका अवतार था। इनके परोपकारमय निस्पृह साधु जीवन की अनेको एसी घटनाए है जिनसे इनके विविध दैविगुण प्रकट होते है। इनके जीवन की कुछ विशेष घटनाओं का यहां उल्लेख किया जाता है।

शरीर पर थूकने वाला यवन:
पैठण में एकनाथ महाराज के घर से गोदावरी को जाने वाले रास्ते मे एक यवन रहा करता था। वह उस रास्ते से आने-जाने वाले श्रद्धालुओं को बहुत तंग किया करता था। एकनाथ महाराज जब स्नान करके लौटते तब वह इनके ऊपर कुल्ला करके थूक देता था। इससे एकनाथ महाराज को किसी-किसी दिन चार-चार, पांच-पांच बार स्नान करना पड़ता था। जहाँ वे स्नान करके लौटने लगे कि यह उन्मत्त मनुष्य फिर उन पर थूक देता और महाराज को फिर स्नान करने जाना पड़ता । इस हरकत से कोई भी आदमी चिढ़ जाता और चिढ़ना भी बिलकुल स्वाभाविक था, पर एकनाथ महाराज की शान्ति ऐसी विलक्षण थी कि बार बार एकनाथ महाराज गोदावरी-गंगाजी आदि पवित्र नदियो का स्मरण करके आनन्द से स्नान करते और धन्यवाद देते उस यवन को जिसकी कृपा से मुझे इतनी पवित्र नदी मे स्नान करने का अवसर प्राप्त होता है। एक दिन तो यह हुआ कि वह यवन उस मौके पर नही था, पर एकनाथ उसका नियम भंग न हो इस विचार से कुछ समय तक उसकी राह देखते हुए वही ठहर गए। कुछ काल प्रतीक्षा करके उसके आने का कोई लक्षण नही देखा तब आगे बढे ।
एक बार वह यवन अत्यन्त उन्मत्त होकर एकनाथ जी की देह पर बार-बार थूकता ही रहा। वह थूकता जाय और महाराज बार-बार स्नान करते जाय, इस तरह कहते हैं कि एक सौ आठ बार हुआ (कई संतो ने २१ बार कहा है ) तथापि महाराज की शान्ति जरा भी भंग नहीं हुई। अन्त में यवन थक गया और लज्जित होकर महाराज के चरणों में गिर पड़ा और रोने लगा।
श्री एकनाथ जी बोले– मै तो मुर्ख और आलसी हूँ, रोज एक ही बार गंगा स्नान कर पाता हूं पर तुम्हारे कारण मुझे इतनी बार गंगा स्नान (गोदावरी नदी दक्षिणी गंगा कही जाती है) करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उसने रोना बंद नही किया तब एकनाथ जी बोले– तुम्हे इसका कोई पाप नही लगेगा। तुम्हारे तो बहुत उपकार है मुझ पर, इस पुण्य का आधा भाग मै तुम्हे अर्पण करता हूँ। तुम रोना बंद करो और मेरे साथ घर चलो ,मै तुम्हे शरबत पिलाता हूँ ,तुम्हे अच्छा लगेगा। संत ह्रदय देख कर वह यवन पहचान गया कि एकनाथ महाराज बड़े ऊँचे औलिया (परम संत) हैं और तब से वह उनके साथ बड़े विनय और नम्रता से पेश आने लगा।

शांति भंग करने वाले को 200 रुपए इनाम :
पैठन में एकनाथ महाराज के निंदक और द्वेषी जिस चबूतरे पर बैठकर गपशप किया करते थे और महाराज की फजीहत करने की घात में रहा करते थे। वह चबूतरा कुचरचौतरा कहलाता था। अब भी यह स्थान पैठन में प्रसिद्ध है। महाराज का कीर्तन सुनकर जिनका सिर दर्द करता ऐसे कुछ अभागे पैठन में थे। वे लोग एकनाथ महाराज से जलते थे। एक दिन एक ब्राह्मण पथिक वहां पहुंचा। पैठन भले और विद्वान लोगों का स्थान होने से वह ब्राह्मण वहां इस आशा से आया था कि अपने लड़के के उपनयन (जनेऊ) संस्कार के लिये यहां से सौ, दो सौ रुपये मिल जायंगे। दुर्भाग्य से वह सबसे पहले इस चांडाल चबूतरे पर ही पहुंचा और उसे इन्ही लोगों के दर्शन हुए। इन लोगो ने उससे कहा 'यहां एकनाथ नाम के एक बड़े महात्मा है। बड़े ही शांत है उन्हें कभी क्रोध आता ही नहीं। तुम यदि कोई ऐसा काम करो कि उन्हें चिड़ा दो, तो तुम्हें हम दो सौ रुपए देंगे।'
अब एकनाथ महाराज को क्रोध दिलाने का उपाय सोचता हुआ वह ब्राह्मण दूसरे दिन सुबह एकनाथ महाराज के घर पहुँचा। महाराज उस समय पूजा मे थे। वह ब्राह्मण बिना हाथ-पैर धोये, बिना पूछे, बिना जूते उतारे सीधे एकनाथ जी के पूजा कक्ष मे पहुँचा और एकनाथ जी की गोद मे जाकर बैठ गया। वह समझता था कि अब एकनाथ जी को क्रोध आए बिना रहेगा नहीं पर किंचित हँसकर महाराज ने उस ब्राह्मण से कहा कि आपके दर्शन से मुझे बडा आनन्द हुआ । मिलने तो बहुत लोग आते है पर आपका प्रेम कुछ विलक्षण है । बाजू में पत्नी गिरिजाबाई भगवान् के लिए चंदन घिसने की सेवा कर रही थी। उनसे एकनाथ जी बोले 'यह ब्राह्मण देव हमसे इतना प्रेम करते है कि इनको हमसे मिलने की लालसा में जूते उतारने तक का होश नही रहा। हे ब्राह्मण देव! आपके जैसे प्रेमी बहुत कम मिलते है।' इस प्रकार ब्राह्मण का पहला वार खाली चला गया । उसने समझा मामला जरा टेढा है पर दो सौ रुपये का लोभ उसके मन में था। उसने फिर एक बार प्रयत्न करने का निश्चय किया।
एकनाथ महाराज स्नान संध्या आदि से निवृत हो चुके थे, मध्याह्न् भोजन का समय था। भोजन के लिये उस ब्राह्मण का आसन एकनाथ जी के बाजू मे लगाया गया। पत्तले परोसी गयीं, घी परोसने के लिये गिरिजा बाई झुकी, त्यों ही ब्राह्मण उनकी पीठ पर चढ़ बैठा। तब एकनाथजी महाराज गिरिजाबाई से कहते है 'सँभलना, ब्राह्मण देव कहीं नीचे न गिर पड़े।' गिरिजा बाई भी एकनाथ महाराज की ही धर्मपत्नी थी। उन्होंने मुसकराते हुए उत्तर दिया– 'कोई हर्ज नही। हरि (पुत्र) को पीठपर लेकर काम करते रहने का मुझे अभ्यास है! मै भला अपने इस दूसरे बच्चे को नीचे कैसे गिरने दूंगी।' यह सब देखकर ब्राह्मण के होश उड़ गये, वह नीचे लुढककर एकनाथ महाराज के चरणों पर गिर पडा। एकनाथ महाराज ने उसे उठाया। ब्राहाण ने सब हाल कह सुनाया और इस बात पर दु:ख भी प्रकट किया कि मेरे दो सौ रुपये गये। तब एकनाथ महाराज ने उससे कहा कि 'यदि यही बात थी तो मुझसे पहले ही कह देते! तुम्हें इनाम मिलने वाला था, यह मुझे मालूम होता तो मै जरूर तुम पर क्रोध करता।'

श्राद्धान और महार:
एकनाथ महाराज के पिता का श्राद्ध था। रसोई तैयार हो गई थी, आमंत्रित ब्राह्मणों की प्रतीक्षा में एकनाथ दरवाजे पर खड़े थे। इसी समय चार-पांच महार उधर से निकले, घर में रसोई तैयार थी। उसकी गंध पाकर वे लोग आपस में कहने लगे 'वाह! कैसी बढ़िया सुगन्ध आ रही है, भूख न हो तो भूख लग जाय। पर ऐसा भोजन हम लोगों के भाग्य में कहाँ।' यह बात एकनाथ जी ने सुन ली। एकनाथ इस बात को मानने वाले थे कि जितने शरीर है सब हरि मंदिर है। उन्होंने उन महारो को बुलाया और गिरिजाबाई से कहा कि श्रद्धिय अन्न इन सब को खिला दो। महारों को बुलाकर उन्हें अच्छी तरह भोजन करा दिया और जो कुछ बचा, वह भी गिरिजाबाई ने इन महारों के घरवालों को बुलाकर खिला दिया। पश्चात एकनाथ महाराज ने 'जन में स्वयं जनार्दन है इसमें कोई संदेह नहीं।' कहकर संकल्प छोड़ा। बाल-बच्चों सहित वे महार भोजन करके अति तृप्त हुए। उस भोजन से तथा एकनाथ-गिरिजाबाई के हार्दिक प्रेम भरे शब्दों को सुनकर उन महारो की अंतरात्मा अत्यंत प्रसन्न हुई। उन्हें पान देकर विदा करने के बाद स्थान को भली-भाँति धोकर ब्राह्मणों के लिये दूसरी रसोई बनवाई गयी पर निमन्त्रित ब्राह्मणों को जब यह बात मालूम हुई, तब उनके क्रोध का पार नहीं रहा। उन्होंने एकनाथजी को धर्मभ्रष्ट समझकर बहुत अंट-संट सुनाया और फटकारकर कहा- 'तुम्हारे जैसे पतित के यहाँ हम लोग भोजन नहीं करेंगे।' एकनाथ जी ने विनयपूर्वक समझाया कि आप लोग भोजन कीजिये, सब शुद्धि करके नयी रसोई बनाई गई है' पर ब्राह्मण नहीं माने। तब हारकर यथाविधि श्राद्ध का सङ्कल्प करके एकनाथ महाराज ने पितरों का ध्यान और आवाहन किया। स्वयं पितर मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गये। उन्होंने स्वयं श्राद्धान्न ग्रहण किया और परितृप्त होकर आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये।

अतिथि सत्कार:
एक बार आधी रात के समय चार प्रवासी ब्राह्मण पैठण आये और आश्रय के लिए एकनाथजी के घर पहुँचे। एकनाथजी ने उनका स्वागत किया। मालूम हुआ कि प्रवासी ब्राह्मण भूखे हैं पर इधर कुछ दिनों से लगातार मूसलाधार वृष्टि होने से घर में सूखा ईंधन नाममात्र को भी नहीं रह गया था। इतनी रात में अब लकड़ी कहाँ से आये? एकनाथजी ने अपने पलंग की निवार खोल दी और पावा-पाटी तोड़कर लकड़ी तैयार कर दी। पैर धोने के लिये ब्राह्मणों को गरम पानी दिया, तापने के लिये अँगीठियाँ दी और यथेष्ट भोजन कराया गया। ब्राह्मण तृप्त हुए और एकनाथजी को धन्य धन्य कहने लगे।

गधे को प्राणदान :
काशी की यात्रा करके नाथ रामेश्वर जा रहे थे। रामेश्वर के समीप पहुँचे तब उद्धव आदि पीछे-पीछे आ रहे थे और नाथ भगवदचिंतन करते हुए आगे-आगे चल रहे थे। ऐसे समय पास के रेतीले मैदान में नाथ को एक गधा लोट-पोट करता दिखायी दिया। नाथ उसके समीप गये। देखा, गधा पानी के बिना छटपटा रहा है। नाथ ने तुरंत अपनी काँवर से पानी लेकर उसके मुँह में डाला। त्यों ही गधा उठा और मजे से वहाँ से चल दिया। उद्धवादि सब लोगों ने पास आकर कावड़ का जल गधे को पिलाते देखा तब मन-ही-मन उन लोगों ने सोचा कि प्रयाग का गंगाजल व्यर्थ ही गया और यात्रा भी निष्फल हो गयी। तब एकनाथ महाराज ने हँसकर उन लोगों से कहा 'भले मानसो बार-बार सुनते हो कि भगवान् सब प्राणियों के अंदर हैं, फिर भी ऐसे बावरे बनते हो! समय पर याद न रहे तो वह ज्ञान किस काम का ? प्रसंग पर काम न आना क्या ज्ञान का लक्षण है? यह मच्छर है और यह हाथी, यह चाण्डाल है और यह ब्राह्मण, यह गौ है और यह गधा इस तरह का भेद क्या आत्मा में भी है? मेरी पूजा तो यहीं से श्रीरामेश्वर को पहुँच गयी। भगवान् सर्वगत और सद्रूप हैं। भगवान् से खाली भी क्या कोई जगह हो सकती है? देह को ही देखो तो राजा की देह और गधे की देह समान ही तो है। इन्द्र और एक चींटी दोनों देहत: समान ही हैं। देहमात्र ही नश्वर है। ब्रह्मा से लेकर चींटी तक सबके शरीर नाशवान् हैं। शरीरका परदा हटाकर देखो तो सर्वत्र भगवान् ही हैं। भगवान के सिवा और क्या है? अपनी दृष्टि चिन्मय हो तो सर्वत्र चैतन्य ही है। चैतन्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।' नाथ के ये शब्द सुनकर उद्धवादि को महाराज के समदर्शन का फिर एक बार स्मरण हो आया। मयूर कवि ने कहा है कि एकनाथ ने प्यासे गये को जो दयार्द्र अन्तःकरण से पानी पिलाया, उनका यह सत्कर्म 'लक्ष विप्र भोजन' के समान ही हुआ।

वेश्या का बचाव! :
पैठणमें एक वेश्या बड़ी चतुर, सुन्दर और नृत्य-गायनादि में निपुण थी। नाथ महाराज के यहाँ हरि कीर्तनादि श्रवण करने के लिये कोई भी जा सकता था, किसी को भी मनाही नहीं थी। वह वेश्या भी महाराज का भागवत पुराण सुनने के लिये जाया करती थी। उसका पैसा खराब था और दुराचार बढ़ाने वाले पैसे को कोई भी अच्छा नहीं कह सकता। पर यह मानना पड़ेगा कि उसके भी हृदयमें भगवान् का प्रेम था। एकनाथ की अमृतमय वाणी से भागवत के आठवें अध्यायमें पिंगलाख्यान जब उसने सुना तब से उसकी चित्तवृत्ति में बड़ी क्रान्ति हो गयी। उसे अपने शरीर से घृणा हो गयी। अपने शरीर के नवों द्वारों से रात-दिन मैला ही निकलता हुआ प्रतीत हुआ। वह पश्चात्ताप करने लगी कि 'मैं भी कैसी अभागिन हूँ, जो चमड़े से घिरे हुए इस विष्ठा मूत्र के पिण्ड को आलिङ्गन करनेमें अपना जीवन बिता रही थी। हृदय में स्थित अक्षय आनन्दस्वरूप श्रीहरि का कभी मुझे स्वप्न में भी ध्यान नहीं हुआ!' इसी प्रकार अनुताप करती हुई वह वेश्या अपने घरका द्वार बंद किये घरमें अकेली ही पड़ी रही। बार-बार एकनाथ महाराज का स्मरण करती, यह भी सोचती कि मुझ जैसी पापिन को भला, ऐसे महापुरुष के चरणों का स्पर्श कभी क्यों मिलने लगा। एक दिन इसी प्रकार वह सोच रही थी कि एकनाथ महाराज गोदावरी स्नान करके उसी रास्ते से लौट रहे थे। झरोखे में से उसने महाराज को देखा और दौड़ी हुई दरवाजे पर आयी, बड़ी अधीरता से द्वार खोलकर गदद कण्ठ से बोली-'महाराज! क्या इस पापिन के घर को आपके चरण पवित्र करने की कृपा कर सकते हैं?" एकनाथ महाराज ने कहा 'इसमें कौन-सी दुर्लभ बात है?' यह कहकर एकनाथ जी ने घर में प्रवेश किया। सूर्य के प्रकाश से जैसे अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही एकनाथ महाराज के पदार्पण से वह पापसदन भगवन्नाम निकेतन हो गया। वेश्या अब वेश्या न रही, अनुताप से उसके सारे पाप धुल गये। एकनाथ महाराजके अनुग्रह से उसके चित्त पर भगवन्नाम की मुहर लग गयी। एकनाथ महाराज ने उसे 'राम, कृष्ण, हरि' मन्त्र दिया और सत्कर्म का क्रम बताया। दस वर्ष बाद जब इस अनुगृहीता का देहावसान हुआ, तब वह श्रीकृष्णस्वरूप के ध्यान में निमग्न थी।

चोरों का सत्कार :
एकनाथ महाराज के यहाँ एक दिन रात को हरिकीर्तन हो रहा था जब तीन चोर श्रोताओं की भीड़ में घुसे और इस विचार से कि कीर्तन समाप्त होने पर सब लोग अपने-अपने घर चले जायेंगे तब अपना काम बनायेंगे, ये लोग मौका देखते हुए एक जगह छिपे बैठे थे। कीर्तन समाप्त हुआ और सब लोग अपने अपने घर चले गये। दो बजे के लगभग चोरो ने अपना काम आरम्भ किया। कपड़ा लत्ता और कुछ बर्तन जो हाथ लगे इन्होंने पिछले दरवाजे के पास ला रखे, दरवाजा खोलकर बाहर निकलने को तैयार हुए, पर इस लोभ से कि और जो कुछ मिले ले लें, दबे पाँव घरमें इधर-उधर ढूँढ़ने लगे। ढूंढते ढूँढ़ते देवगृह के पास पहुँचे, वहाँ देखा अंदर एक दीपक टिमटिमा रहा है और एकनाथ महाराज आसन पर बैठे समाधि के आनन्द में मग्न हैं। यह दृश्य एक बार उन्होंने देखा और उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी, फिर उन्हें कुछ दिखायी नहीं दिया। कुछ सूझता ही नहीं था, अगला पिछला कोई दरवाजा ही नहीं मिल रहा था। आँख मिचौनी खेलते-खेलते वे उन बर्तनों पर गिरे, और नाथ देवगृहमें से बाहर निकले। चोरों ने यह समझ लिया था कि इसी महात्मा के प्रभाव से हमलोगो की आंखो की रोशनी गई हैं। वे महाराज के चरणों पर गिर पड़े और रोने लगे। एकनाथ महाराज ने उनकी आँखों पर हाथ फेरा तब उन्हे पूर्ववत् दृष्टि प्राप्त हुई। चोर यह चमत्कार देखकर अत्यन्त चकित हुए, उनकी बुद्धि भी पलट गयी। उन्होंने महाराज को बता दिया कि हमलोग चोर हैं और चोरी करके ये कपड़े और वर्तन लिये जा रहे थे। एकनाथ महाराज की समता अटल थी। उन्होंने चोरों से कहा 'तुम लोग बहुत थक गये होगे, इसलिये पहले भोजन कर लो और पीछे यह सब सामान ले जाओ बल्कि तुम्हारे लिये मैं इसे तुम्हारे स्थान तक ढोकर पहुँचा भी सकता हूँ! कोई सोच संकोच मत करो। चोरी करना तुम्हारा धन्धा है। तुम लोग यह सब ले जाओ। शान्ति, क्षमा, दया हम लोगों का धर्म है, उसका पालन हम लोग करेंगे।' यह कहकर नाथ महाराज ने अपनी उँगली में से अँगूठी निकालकर वह भी उनको दे दी! नाथ के इस निष्कपट सौजन्य से वे चोर अत्यन्त चकित हुए तथा और भी अधिक नम्र हो गये। दुर्जन भी सज्जनों के व्यवहार से सज्जन बनते हैं। संसार में दुर्जनता अनेक बार हमारी दुर्जनता से ही बढ़ा करती है। सौजन्य का व्यवहार देखकर भी यदि दुर्जन न चेतें तो उनकी दुर्जनता का कोई इलाज ही इस मृत्युलोकमें नहीं है यही कहना पड़ेगा। पर जल में जैसे चट्टानों को फोड़ने की ताकत है वैसे ही सौजन्य में दुर्जनता को जीतने का सामर्थ्य है। परंतु सौजन्य की इस सामर्थ्य का भरोसा सन्तों के समान साधारण मनुष्यों को न होने से साधारण मनुष्य 'जस को तस' का राजसी उपाय ही किया करते हैं। 'जस को तस' के न्याय से दुर्जनो को वश करना जितना सम्भव है, उससे अधिक सम्भव सौजन्य से उन्हें वशमें करना है। इस बात के उदाहरण सन्तों के चरित्रों में मिलते हैं। दुर्जन का दुर्जनत्व दुर्जनों की संग-सोहबत से ही उत्पन्न होता और बढ़ता है। स्वयं मनुष्य स्वभावतः भगवत रुप है और सब विकार मायिक हैं। बाहरी उपाधि से वह भला-बुरा बना दिखायी देता है। जल का सहज धर्म तो शीतलत्व है, पर अग्निसंयोग से वह गरम होता है, वह अग्निसंयोग यदि हटा दिया जाय तो जैसे जल अपने सहज रूपको प्राप्त होगा, वैसे ही बुराई की उपाधियाँ हटा देनेपर मनुष्य स्वभावतः निर्मल सच्चिदानन्दरूप ही है। सन्त यह अनुभव करते हैं कि ईश्वर सब प्राणियों के हृदयमें हैं और इसलिये वे केवल चिद्रूपत्व ही ग्रहण करते हैं, बाकी गुण-दोष जो प्रकृति के हैं वे प्रकृति को ही दे डालते हैं। इस चिद्रूप पर नित्य आरूढ़ होने से शान्ति, समता, निरहंकार आदि गुण सन्तों में सहज भाव से ही रहते हैं। इसी प्रकार से एकनाथ महाराज के सौजन्य से उन चोरों का मन पलट गया। महाराज ने गिरिजाबाई और उद्धव को जगाकर रसोई तैयार करायी और चोरों को भोजन कराया। चोर अपने साथ कुछ भी नहीं ले गये। ले गये केवल एकनाथ महाराज की उदारता का स्मरण और उस स्मरण से शुद्ध होकर उन्होंने चोरी करना छोड़ दिया, वे सदाचारपूर्वक रहने लगे और बार-बार एकनाथ महाराज के कीर्तन सुनकर सद्गति को प्राप्त हुए।

रनिया महार और उसकी स्त्री:
रनिया उर्फ विवेक नाम का एक महार पैठणमें रहता था। वह बड़ा श्रद्धालु और सदाचारी था। उसकी स्त्री भी उसके ही समान सुशीला थी। स्त्री पुरुष दोनों ही एकनाथ महाराज का कीर्तन सुनने प्रतिदिन आया करते थे और बाहर बैठकर नामघोष किया करते थे। एकनाथ महाराज गंगास्नान के लिये जायँ उससे पहले रनिया और उसकी स्त्री बारी बारी से उनके चलने का रास्ता झाडू देकर साफ करते थे। एक दिन एकनाथ महाराज के ज्ञानेश्वरी के प्रवचनमें विश्वरूप-दर्शनका प्रसंग छिड़ा था। प्रवचन जब समाप्त हुआ तब रनिया ने महाराज से पूछा, 'महाराज! भगवान् श्रीकृष्ण ने जब विश्वरूप धारण किया तब यह रनिया कहाँ था ?' महाराज ने तत्काल ही उत्तर दिया- 'तुम भी श्रीकृष्णरूप में ही थे।' रनिया और उसकी स्त्री ने घर जाकर सोचा कि जब सारे विश्व में भगवान् ही रम रहे हैं, तब हमारा शरीर महार का होने पर भी अपने हृदय में तो भगवान् ही विराज रहे हैं। कुछ दिन बीतने पर उन पति-पत्नी की यह इच्छा हुई कि एक दिन एकनाथ महाराज को अपने यहाँ भोजन के लिये बुलाना चाहिये। उनका इस प्रकार समागम होने से हम लोगों का उद्धार हो जायगा। रनिया और उसकी स्त्री अन्य महारों की अपेक्षा अधिक शुचिता और स्वच्छता के साथ रहा करते थे, अशुचि पदार्थ को स्पर्श भी नहीं करते थे और खाने-पीने में बड़ा विचार रखते थे। मुख से सदा विट्ठल नाम का जप करते हुए अपने प्रत्येक काम में दक्ष रहते थे। शरीर अवश्य ही महार का था, पर आचरण सर्वथा ब्राह्मण जैसा था। उनकी बिरादरी के लोग विनोद से उन्हें अपनी बिरादरी का ब्राह्मण ही कहा करते थे और शुद्धाचरण तथा भगवद्भक्तिमें तो वे दोनों सचमुच ही लाखों ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ थे। एकनाथ महाराज को उन्होंने बड़े सद्भाव से भोजन के लिये न्योता दिया और एकनाथ महाराज ने उसे स्वीकार किया। नगर के लोगों को जब यह बात मालूम हुई तब ब्राह्मणोंने बड़ा कोलाहल मचाया। नाथ महाराज ने इस कोलाहल का यही उत्तर दिया कि 'वह अन्त्यज तो है पर उसके ज्ञान में 'मेरा-तेरा' इस भेदभाव की कोई पहचान नहीं है। वह आत्मत्व से परिपूर्ण दिखायी देता है, वह सबके लिये समान है।' ब्राह्मणों ने सोचा कि देखें, एकनाथ महाराज उस महारके यहाँ कैसे भोजन करने जाते हैं। एकनाथ महाराज के घर से उस महार के घर तक रास्तेमें थोड़े-थोड़े फासले पर ब्राह्मण लोग प्रतीक्षा में बैठे रहे। नाथ बेखटके सबके सामने घर से बाहर निकले और रनिया के घर पहुँचे। रनिया और उसकी स्त्री ने एक साथ उनकी पूजा की, भोजन के लिये आसन बिछाया, पत्तल रखी, चौक पूरा और महाराज से बैठने के लिये प्रार्थना की। महाराज आसनपर बैठे, पक्वान्न परोसे गये और महाराज ने भोजन किया। पर इसी समय एक चमत्कार हुआ। वह यह कि जिस समय नाथ यहाँ भोजन कर रहे थे, उसी समय बहुतों ने उन्हें अपने घर पर भी उसी रूप और भेष में देखा था। एक ही एकनाथ एक ही समय में कहाँ तो अपने घरपर भागवत का प्रवचन कर रहे हैं और कहाँ उसी समय रनिया के यहाँ भोजन भी कर रहे हैं। यह चमत्कार जब उन ब्राह्मणों ने देखा तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उनके लिये यह समझना कठिन हो गया कि उन दोनोंमें से सच्चे एकनाथ कौन हैं? तब उन लोगों की यही धारणा हुई कि रनिया का सद्भाव जानकर भक्तवत्सल भगवान् पाण्डुरंग ने ही एकनाथ के भेष में रनिया के घर जाकर भोजन किया होगा।

अन्त्यज बालक और कोढ़ी ब्राह्मण:
एक दिन एकनाथ महाराज मध्याहन सन्ध्या के लिये गंगाजी (गोदावरी दक्षिणी गंगा कही जाती है) जा रहे थे। रास्तेमें एक महार का बच्चा अपनी माँ के पीछे दौड़ता जा रहा था। माँ पानी भरने जा रही थी, जल्दीमें कुछ आगे बढ़ गयी और बच्चा पीछे कहीं लड़खड़ाकर गिर पड़ा। बालू का वह मैदान सूर्य की प्रखर किरणों से भट्ठी हो रहा था। बच्चे के मुँह से लार और नाक से सीड़ें निकल रही थीं। बच्चा तेजी से दौड़ नहीं सकता था और माँ को आगे जाते देख उसका मन पीछे लौटने को भी न होता था। इस हालत में पड़े, धूप से हैरान उस बच्चे को देखकर नाथ का अन्तःकरण विकल हो उठा। उन्होंने चट उस बच्चे को गोद में उठा लिया, उसका नाक मुँह साफ किया और उसे अपनी धोती ओढ़ाकर धूप से बचाते हुए महारों की बस्ती में ले आये। वहाँ पहुँचते ही बच्चे ने अपना घर पहचान लिया। घर से उसका पिता दौड़ता हुआ बाहर आया, इतने में माँ भी गगरी लिये आ पहुँची। महाराज ने बच्चे को उसके माता पिता के हवाले किया और कहा 'बच्चों को ऐसे छोड़ना नहीं चाहिये, उनको हर तरह से पालना-पोसना चाहिये, इसमें लापरवाही करना ठीक नहीं' इत्यादि उपदेश करके गंगातट पर चले गये। स्नान-सन्ध्यादि करके महाराज घर गये और नित्य कर्म में लगे। इस घटना के कुछ दिन बाद त्र्यम्बकेश्वर का एक वृद्ध ब्राह्मण पैठण में आया। इसे कुष्ठरोग हो गया था और उससे यह बहुत ही पीड़ित था। पैठणमें आकर एकनाथ का घर पूछता हुआ वह सीधे एकनाथ महाराज के ही घर पहुँचा। मध्याह्न का समय था। महाराज काक बलि डालने दरवाजे के बाहर आये तो यह दुःखी ब्राह्मण उनके पास गया और अपना हाल बताने लगा। अपना नाम-ठिकाना सब बताकर उसने कहा, 'यह कुष्ठ जाय इसके लिये मैंने त्र्यम्बकेश्वरमें अनुष्ठान किया। आठ दिन हुए, भगवान् शंकर ने स्वप्न में दर्शन देकर मुझसे कहा कि जाओ तुम पैठणमें जाकर एकनाथ से मिलो और व्याकुल होकर उसने जो महार के एक बच्चे के प्राण बचाये हैं। उसकी उसे याद दिलाओ। इस उपकार का पुण्य यदि वह तुम्हारे हाथपर संकल्प कर दे तो तुम रोगमुक्त हो जाओगे।' यह कहकर वह ब्राह्मण रोने लगा और नाथ के चरणोंपर लोट गया। नाथ महाराज ने त्र्यम्बकेश्वर के ब्राह्मण की सब कथा सुनी और कहा, 'मेरे न कोई पाप है न कोई पुण्य ही। मैंने क्या पुण्य किया यह भगवान् त्र्यम्बकेश्वर ही जानें! ऐसा कोई भी पुण्य मैंने जन्म से लेकर आज तक किया हो, तो मैं उसका तुम्हारे हाथ पर संकल्प करता हूँ।' यह कहकर एकनाथ महाराज ने जलपात्र हाथ में लिया और संकल्प करने ही वाले थे, इतनेमें उस ब्राह्मण ने रोका और कहा कि 'नहीं, आपका सब पुण्य मुझे नहीं चाहिये, केवल उतना ही चाहिये जितने के लिये त्र्यम्बकेश्वर महादेव की आज्ञा हुई है। ब्राह्मण की इस इच्छा के अनुसार महाराज ने वैसा ही संकल्प किया और जल उसके हाथ पर छोड़ा। उसी क्षण उस ब्राह्मण का रोग नष्ट हो गया और उसकी काया निर्मल हो गयी। दस-पाँच दिन वह ब्राह्मण एकनाथ महाराज के यहाँ रहा, उनके अलौकिक गुणों को देख-देखकर उसकी प्रसन्नता दिन-दिन बढ़ती गयी।
एकनाथ महाराज के गुण गाता हुआ वह त्र्यम्बकेश्वर को लौट गया।

महार और ब्रह्मराक्षस :
पैठणमें एक महार चोरी करके ही अपनी जीविका चलाता था। एक चोरीमें वह पकड़ा गया, पैरों में बेड़ियाँ पड़ीं और कारागार पहुँच गया । कारागार में उसे खाने को नहीं मिला, शरीर को बड़े कष्ट हुए, सिर पर बाल बढ़े, उनमें जूएँ पड़ गयीं और सर्वांग विकल हो गया एवं प्राण आँखों में आकर अटक रहे। इस हालत में उसके पैरों की बेड़ियाँ निकाल ली गयीं और वह अधमरा-सा मनुष्य कई दिन आँगन में लोट-पोट करता पड़ा रहा। एक दिन रात को इसी हालत में उसने एकनाथ महाराज के कीर्तन की ध्वनि आती हुई सुन ली और सुनते ही उसे अपना छुटकारा करा लेने की बात सूझी। वह धीरे-धीरे रेंगता हुआ कैदखाने से निकला और इसी तरह रास्ता तय करके एकनाथ महाराज के द्वार पर जा पहुँचा। उसकी आर्त्तध्वनि ज्यों ही नाथ महाराज के कानों में पड़ी त्यों ही वह बाहर आये। महार का हाल देखा। उसके मुँह से स्पष्ट शब्द नहीं निकल पा रहा था, फिर भी संकेत से उसने सुझा दिया कि पेट में अन्न नहीं है। नाथ महाराज ने तुरंत खीर तैयार करा के उसके मुँह में डाली। बिछाने और ओढ़ने को उसे वस्त्र दिये, सोने के लिये स्थान भी दिखा दिया। वह जब सुख से सो गया तब नाथ सोने के लिये अपने कमरे में गये। दूसरे दिन नाथ महाराज ने हाकिमों को चोर के छूट आने की खबर दी और साथ ही यह विनती की कि दवा-दारू के लिये इसे अब मेरे ही यहाँ रहने दिया जाय। हाकिमों ने महाराज की बात मान ली और बाकी सजा भी माफ कर दी। तीन महीने वह नाथ महाराज के यहाँ रहा, उसकी बड़ी सेवा-शुश्रूषा हुई और तीन महीने में वह पहले-जैसा हट्टा-कट्टा हो गया। नाथ महाराज के अन्न का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसकी सारी मलिन वासनाएँ धुल गयीं। एकनाथ महाराज के प्रति उसके हृदय में परम पूज्यभाव उत्पन्न हुआ। पहले का कुमार्ग उसने छोड़ा और नाथ महाराज की कृपा से वह विट्ठलभगवान्‌ का उपासक हुआ। इस घटना के कुछ काल बाद एक दिन की बात है कि नाथ गंगाजी जा रहे थे, रास्ते में एक अश्वत्थ वृक्ष के नीचे से होकर ज्यों ही महाराज आगे बढ़े त्यों ही वृक्ष पर रहने वाला ब्रह्मराक्षस नीचे उतरकर महाराज के सामने खड़ा हो गया। उसने महाराज से कहा- 'आजतक आपने जितने ब्राह्मण-भोजन कराये, उन सबका अथवा कैदखाने से भागकर आये हुए महार की जो आपने सेवा-शुश्रूषा की उसका, दोनों में से किसी एक का पुण्य मुझे दीजिये, इससे मैं इस योनि के कष्टों से मुक्त हो जाऊँगा।' ब्रह्मराक्षस की यह प्रार्थना उन्होंने सुनी, पर पाप और पुण्य तो सकाम कर्मों से होते हैं, एकनाथ महाराज कायिक, वाचिक, मानसिक सारे ही कर्म निष्कामभाव से करते थे, इससे पाप-पुण्य का कोई हिसाब उनके पास नहीं था। पाप और पुण्य नरक और स्वर्ग के देने वाले हैं, सन्त तो इनके परे नैष्कर्म्य बोध के द्वारा सर्वथा मुक्तानन्द में रहते हैं। अखण्ड आत्मरूपानन्द ही उनका स्वरूप होता है। एकनाथ महाराज ने कैदखाने से छूटे हुए अन्त्यज की सेवा-शुश्रूषा के पुण्य पर जल छोड़कर ब्रह्मराक्षस को मुक्त किया।


|| एकनाथ और श्रीखण्डिया ||
एकनाथ महाराजने भगवान की ऐसी निरुपम सेवा की कि उनके संगति सुखके स्नेह से भगवान ने उनके घर बारह वर्ष रहकर उनकी सेवा की 'वासुदेवः सर्वमिति स महात्या दुर्लभ' इस गीता के वचन के अनुसार सदा सर्वत्र परमात्मा को ही देखने वाले दुर्लभ महात्माओं की कोटि में जब एकनाथ महाराज पहुँचे तब स्वयं भगवान् ब्राह्मणरूप से उनके यहाँ आकर रहने लगे। भक्त ने भगवान की ऐसी सेवा की कि भगवान् की यह इच्छा हुई कि अब हम भक्त की सेवा करें। भक्त जब भगवान् को प्राप्त हुए तब भगवान् भक्त बनकर नीचे उतर आये। भक्त की भक्ति का उत्कर्ष भागवतता है और भगवान् की भागवतता का उत्कर्ष भक्त की भक्ति है। भगवान् ही तो भक्त और भक्त ही तो भगवान् हैं। परम भक्त को जब भगवान देखते हैं तब उन्हें भी भक्त बन जाने की इच्छा होती है। आर्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी भक्तो से ज्ञानी भक्त कोटिशः श्रेष्ठ होता है। 'ज्ञानी त्वात्मेव मे मतम' अर्थात् अखण्डरूप से मेरे अन्दर समरस हुआ अभेद भक्त मेरा आत्मा है, मैं ही तो वह हूँ। यही तो भगवान ने स्वयं कहा है। 'प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:' ज्ञानी भक्त के परम प्रेम के स्थान भगवान् और भगवान के परम प्रेम के स्थान भक्त होते हैं। इस प्रकार वे परस्पर के साथ हैं। भक्त को भगवान के सिवाय और कोई बात अच्छी नहीं लगती और भगवान् ‌को भी भक्त के सिवाय और कुछ अच्छा नहीं लगता। भक्त के सर्वस्व भगवान् और भगवान् के सर्वस्व भक्त होते हैं।

'भक्तिमान् मे प्रियो नरः' (गीता १२|१२) इस भगवद् वचन का मर्म ज्ञानेश्वर महाराज ने इस प्रकार बताया है— चौथे पुरुषार्थ की सिद्धि अर्थात् सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर वह जो संसार को मुक्ति देने निकलता है, उसे ही देखने को मेरा जी चाहता है, तब मैं अचक्षु होकर चक्षुवाला बनता हूँ। उसे आलिंगन करने का आनंद लेने के लिये मैं दो-पर-दो याने चार भुजाएँ लगाकर आता हूँ। उसके गुणों के वर्णन अपनी वाणी पर और उसकी कीर्ति के कुण्डल अपने कानों में धारण करता हूँ, अपने हाथ कमल से उसे पूजता हूँ, उसे अपने माथे का मुकुट बनाता हूँ और उसके पाँव अपने हृदय पर धारण करता हूँ।' इसी अभिप्राय के अनुसार एकनाथ महाराज की लोकोत्तर भक्ति से मोहित होकर भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण वेश में एक बार नाथ के घर आये और उन्हें नमस्कार कर सामने खड़े हो गये। उस समय उन दोनों का इस प्रकार संवाद हुआ

एकनाथ- आप कैसे आये?
ब्राह्मण - आपका नाम सुना, इच्छा हुई कि आपके साथ अखंड समागम हो और आपकी कुछ सेवा बन पड़े इसीलिये आया हूं। सदा से मैं सन्तों का सेवक ही रहा हूँ। मुझे वेतन नहीं चाहिये। पेटभर अन्न मिले और आपकी सेवा हो, इतनी ही इच्छा है।
एकनाथ- आपके कुटुम्ब परिवार में कौन-कौन हैं?
ब्राह्मण- मैं अकेला ही हूँ मेरे न कोई स्त्री है ना बाल बच्चे। इस शरीर को श्रीकृष्ण या श्रीखण्डिया कहते हैं।
एकनाथ- आपसे सेवा लेने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। तथापि आप अन्न-वस्त्र लेकर आनन्द से यहाँ परमार्थ-साधन कर सकते हैं।
ब्राह्मण- बस, इतनी ही कृपा चाहिये। अपने कष्ट से अन्न प्राप्त करने की इस दास को अनुमति हो। मेरी सेवा आप अवश्य ग्रहण करें।
श्रीखण्डिया एकनाथ के घर रहने लगा। उसने अपने गुणों से सबको मोह लिया। भगवान् ‌की लीला कुछ ऐसी अपरम्पार है कि सब प्राणियों में भगवान्‌ को देखने वाले एकनाथ भी उनके उस वास्तविक रूप को नहीं पहचान सके। भगवान् ने अपनी माया का परदा बीच में रखा, अन्यथा नाथ-जैसे भक्तश्रेष्ठ एक क्षण भी भगवान् से सेवा न कराते। परन्तु भगवान्‌ को नाथ की सेवा करना प्रिय था, इसलिये नाथ जैसे पूर्ण पुरुष भी उन्हें पहचान नहीं सके। श्रीकृष्ण ने माता यशोदा को चौदहों भुवन अपने मुँह के अन्दर दिखा दिये तो भी माता के हृदय का पुत्रभाव ज्यों-का-त्यों बना ही रहा। वैसी ही बात यहाँ भी समझनी चाहिये। भगवान् एकनाथ महाराज के यहाँ नित्य पानी भरते थे, देव-पूजा के निमित्त चन्दन घिसते, ब्राह्मण-भोजन के पश्चात् जूठी पत्तलें उठाते और नाथ की हर तरह से सेवा करते। धर्मराज के राजसूय-यज्ञ के समय से उन्हें जूठी पत्तलें उठाने की मानो आदत ही पड़ गयी है। जिनके चरणों से भागीरथी प्रकट हुईं वे एकनाथ के घर पूजा के लिये पानी भरा करते थे। जिनकी प्राप्ति के लिये हजारों तपस्वी सूखकर काठ बन गये, वह नाथ के घर देव पूजाके निमित्त चन्दन घिसा करते थे। जिनकी कीर्ति गाते-गाते 'नेति नेति' कहकर श्रुति हार मान गई, वे नाथ के गुण गाने वाले भाट बन गए जिनके चरणों की रज के लिये भर्तृहरि जैसे मनस्वी पुरुष ने सम्राट का पद त्याग दिया, वह नाथ के पैर दबाया करते थे। जिनके प्रकाश से चन्द्र-सूर्य प्रकाशमान हुए, वह नाथ के घर दीपक जलाया करते थे। इन्द्रादि देवता जिनके आज्ञाकारी है, वह नाथ की आज्ञा की प्रतीक्षा में उनके द्वार पर खड़े रहते थे। जिनके स्मरणमात्र से योगी विमलाशय हो जाते हैं, वे एकनाथ के घर पूजा के पात्र मला करते थे। लक्ष्मी जिनके चरणों के निकट रहती हैैं। वेे नाथ-पत्नी के चरणों के पास बैठा करते थे। सब देवता जिनकी आज्ञा से विश्वचक्र को चलाते हैं, वह गिरिजाबाई के घर के काम-काज की छोटी से छोटी बात भी बहुत मन लगाकर किया करते थे। धन्य हैं वह एकनाथ, जिनके भक्तिभाव से मोहित होकर भगवान् भी उनके अंकित हो गये। नाथ के घर श्रीखण्ड (दिव्य-चन्दन) घिसकर उन्होंने अपना 'श्रीखण्डिया' नाम सार्थक किया। भगवान् अपने सारे ऐश्वर्य को भुलाकर नाथ के घर बारह वर्ष सेवा करते रहे। भूतदया जिनके रोम-रोम से प्रकट हो रही थी, उन एकनाथ के घर वह भूतभावन भूतेश स्वयं सेवक बनकर रहे। नाथ का योगक्षेम भगवान् ने वहन किया, इसमें आश्चर्य ही क्या है? नाथके उत्सवमें गंगाजल से भरे हुए पात्र घृत से भरे हुए निकले, इसमें भी आश्चर्य की कोई बात नहीं! नाथ के यहाँ ३०-३५ वर्ष तक ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सबके लिये सदावर्त था। नाथ के द्वार पर से कोई भी अतिथि खाली हाथ नहीं गया। उन्होंने सहस्रों जीवों को भक्तिपथ में प्रवृत्त किया। उन्हें अन्न देकर उनके शरीर का और ब्रह्मज्ञान देकर उनकी बुद्धि का पोषण किया। बड़े-बड़े राजाओं को भी जिस दानीपन का यश नहीं मिलता, वह यश उन्हे मिला। भगवान्‌ का सख्य प्राप्त करने के कारण और स्वयं भगवान् के ही उनके घर सेवा करने के कारण उन्हें लोग 'दीनों का कल्प वृक्ष' कहने लगे। भगवान की सेवा करने वाले भक्त करोड़ों हैं, पर भगवान् जिसकी सेवा करके अपने को धन्य मानते हैं, ऐसे भक्त तो भक्तमणिगणों के चक्रवर्ती ही हैं। नाथ के पुण्यप्रताप की यह हद हो गयी और भक्ति-पन्थ के महत्कार्य पर कलश चढ़ गया।

इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए। तब भगवान् ने स्वयं अन्तर्धान होकर भक्त का यश प्रकट करने का संकल्प किया। उन सत्यसंकल्प, दयानिधि और भक्तवत्सल भगवान्‌ को एकनाथ का रहन सहन देखकर बहुत संतोष हुआ। अन्दर-बाहर एक रहने वाले भक्त से विदा होना भगवान् के लिये कठिन हो गया, तथापि भक्तजनों के उद्धारार्थ भक्तों का यश भगवान्‌ को बढ़ाना ही पड़ता है।
उस समय द्वारकामें एक ब्राह्मण अनुष्ठान कर रहा था। युक्ताहारविहार रहकर यम-नियमादि का पालन करके सदा मुख से 'कृष्ण-कृष्ण' कहा करता था। भगवान् ‌के ही छन्द से वह परिपूर्ण हो गया था। उसे सदा भगवान् का ही निदिध्यास लगा रहता था। शीत और उष्णको सहन करते और मन को एकाग्र करते हुए उसने हृदयमें जो भगवान्‌ को धारण किया, उससे भगवान्‌ को करुणा आ गयी। उस ब्राह्मण को भगवान् ने स्वप्नमें दर्शन देकर कहा कि 'मैं पैठण में एकनाथ के घर पर हूँ। उसकी सेवा से मैं प्रसन्न हुआ हूँ। वहाँ 'श्रीखण्डिया' नाम धारणकर मैं रहता हूँ, वहाँ जाओ, वहाँ मेरे दर्शन होंगे।' वह ब्राह्मण पैठणमें पहुँचा, और एकनाथ महाराज का मकान ढूँढ़ने लगा। बस्ती में जिस पहले आदमी को उसने देखा वह कन्धे पर काँवर लिये जाने वाला श्रीखण्डिया ही था। वह ब्राह्मण गद्गद हुआ और नाथ के मकान पर आया, नाथ देवगृह में थे। वह सीधा वहीं उनके पास पहुँचा। भगवान् के दर्शन करने आया हुआ वह ब्राह्मण थोड़ी देर के लिये भगवान् को भी भूल गया और भक्त को देखते ही तन्मय हो गया! उसके शरीर पर सात्त्विक अष्टभाव उदय हो आये और उसके नेत्रों से अश्रु धाराएँ बहने लगीं। कण्ठ रुँध गया, उसी हालत में उसने काँपते हुए स्वर में कहा कि 'महाराज, मुझे श्रीकृष्ण के दर्शन कराइये।' उसकी वह हालत देखकर नाथ महाराज ने कहा, 'श्रीकृष्ण तो सर्वत्र रम रहे हैं। वह सम्पूर्ण विश्वके अन्दर और बाहर व्याप्त हैं, जहाँ हो वहीं देखो, तब तुम्हें वह दर्शन देंगे। वह जहाँ है, वहीं है। उन्हें अलग करके कैसे देख सकते हो? दृश्य, दर्शन, द्रष्टा तीनों को पारकर देखो तो तुम्हीं श्रीकृष्ण हो।' यह सुनकर उस ब्राह्मणने कुछ झुंझलाकर कहा, 'मुझे इस ब्रह्मज्ञान की जरूरत नहीं। मुझे तो भगवान् ने स्वप्न दिया है कि एकनाथ महाराज के यहाँ तुझे मेरे साक्षात् दर्शन होंगे। श्रीखण्डिया कहाँ है, यह मुझे बताइये। उससे मुझे मिलाइये ।' यह सुनते ही एकनाथ के हृदय पर चोट-सी लगी और उद्भव आदि सब लोग श्रीखण्डिया को ढूँढ़ने निकले। चारों ओर ढूँढ़-खोज हुई पर कहीं पता न लगा। नाथ अपने आसन पर बैठे थोड़ी देर ध्यानमग्न हो गये और उनके ध्यान में सब बातें आ गयीं। एक बार रोमांचित हो उठे और फिर सोचने लगे, 'भगवान् ‌को मैंने कितना कष्ट दिया? लगातार बारह वर्ष उनसे ऐसी सेवा करायी। ऐसे-ऐसे काम कराये जो कभी न कराने चाहिये थे। यह सोचकर उनका कोमल हृदय अत्यन्त व्यथित हुआ। वह और गिरिजाबाई दोनों ही बेबस होकर रोने लगे। फिर उन्होंने भगवान्‌ को पुकारा। उस समय चतुर्भुज साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सामने प्रकट हुए। एकनाथ, गिरिजाबाई और उस तपस्वी ब्राह्मण को अत्यानन्द हुआ। तीनों भगवान्‌ के चरणों पर लोट गये। यह वार्ता बात-की-बात में सर्वत्र फैल गयी और एकनाथ महाराज के दर्शनों के लिये हजारों लोग दौड़े आये। श्रीखण्डिया जिस कुण्डे में पानी भरा करता था, वह कुण्डा अभी तक एकनाथ महाराज के घरमें है और षष्ठी के दिन लोग हजारों गगरी पानी उसमें डालेंते है तो भी, कहते हैं कि जब तक भगवान् गगरी भरकर उसमें नहीं डालते, तब तक वह नहीं भरता और ज्यों ही भगवान्‌ की गगरी का पानी उसमें आ जाता है, त्यों ही पानी भरकर बाहर बहने लगता है। यह सुनी बात तो है ही, पर देखी हुई भी है।

भगवान् एकनाथ के घर गंगाजी से काँवर लाकर जल भरा करते थे। यह बात आजतक अनेक सन्तों और कवियों ने बड़े प्रेम से बखानी है। जिन्हें सगुण साक्षात्कार हो चुका है अथवा जो स्वभावतः श्रद्धालु हैं, उन्हें इस बातकी सत्यता के विषय में कोई सन्देह नहीं होता। परंतु जो श्रद्धालु नहीं हैं और तर्क के द्वारा ही भगवान्‌ को जानने की चेष्टा करते हैं वे आगे दिये जाने वाले प्रमाणों का विचार करके ही अपना कोई मत निश्चित करें। जो लोग महापुरुषों के वचनों को भी प्रमाण नहीं मानते, अहंकार ही जिनके सिरपर हर घड़ी सवार रहता है उनसे अवश्य ही हमारा कुछ कहना नहीं है। महीपति बाबा ने अपने भक्तविजय और सन्त लीलामृत दोनों ग्रन्थों में यह कथा दी है। केशवकृत एकनाथ-चरित्र में भी इसका वर्णन है। नीलोबाराय ने एकनाथ की आरती मे इसका वर्णन किया है। अमृतराय ने अपने एक सुन्दर पद्य में एकनाथ की भक्ति का वर्णन करते हुए कहा है कि उनकी भक्ति से भगवान् अपने कन्धे पर काँवर रखकर एकनाथ के यहाँ जल भरते थे। रंगनाथस्वामी ने वर्णन किया है कि एकनाथ के घर 'वैकुण्ठ का सगुण ब्रह्म' स्वयं आकर श्रीखण्डिया के नाम से एकनाथ की सेवा करता था। स्वयं एकनाथ महाराज के समकालीन दासोपन्त ने भी यही वर्णन किया है कि एकनाथ के यहाँ स्वयं 'नन्दनन्दन' चन्दन घिसा करते और पानी भरा करते थे। एकनाथ महाराज के नाती मुक्तेश्वर ने एकनाथ की आरतियों और अन्य पद्यों में इस कथा को दोहराया है और 'श्रीखण्डाख्यान' नामसे ९४ ओवियों का एक स्वतन्त्र प्रकरण भी लिखा है। दासोपन्त एकनाथ महाराज के साथ बहुत रहे थे और मुक्तेश्वर को बचपन में एकनाथ महाराज का सत्संग प्राप्त हुआ था। ये प्रमाण हैं। जो सामान्य नहीं हैं, तथापि स्वयं एकनाथ महाराज के अपने हाथ के लिखे भी दो प्रमाण मौजूद हैं जो यहाँ दिये जाते हैं। पाठक इनका खूब अच्छी तरह से विचार करें। एकनाथ महाराज ने अपने ‘रुक्मिणी स्वयंवर' नामक लोकप्रिय ग्रन्थ के १६ वें प्रसंग में श्रीकृष्ण-विवाह के पश्चात् वंशपात्रदान का वर्णन करते हुए कहा है
'पहले पितामह के पिता (भानुदास) पर भगवान् सुभानु प्रसन्न हुए और उन्होंने भानुदास के वंश को तत्त्वतः हरि चरणों में लगा दिया। प्रह्लाद पर कृपा थी इससे भगवान् राजा बलि के द्वारपाल बने। वैसी ही यह बात भी है। भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी कृपादृष्टि है।'
'वैसी ही यह बात भी है' इस कथनमें, हमारे विचार में उसी कथा का स्पष्ट संकेत है। अन्तर इतना ही है कि बलि प्रह्लाद के पोते थे और एकनाथ भानुदास के परपोते। प्रह्लाद का पुण्य बल महान् था, इससे भगवान् उनके पोते के द्वारपाल बने और भानुदास का पुण्यबल भी महान था, इससे भगवान् भानुदास के परपोते के यहाँ सेवक बनकर रहे। एकनाथ महाराज का यहाँ यही अभिप्राय मालूम होता है, पर इससे भी अधिक स्पष्ट प्रमाण एकनाथ महाराज के अभंग में है। 'गाथापंचक' की नाथ गाथा में से एकनाथ महाराज के रखे हुए कुछ अभंगों का आशय यहाँ देते हैंं
एकनाथ महाराज कहते हैं- 'आपने सेवा करके मेरा नाम बढ़ाया। आप ऐसे कृपालु और उदार हैं। आप नाना प्रकारकी सामग्री जुटाते रहे। मैं आपसे कभी उऋण नहीं हो सकता। पूजा की सामग्री आप बराबर जुटाते रहे। आपने कभी कोई कमी न मालूम होने दी। सचमुच ही मैं अपराधी हूँ, पतित हूं। जड़ जीवों को आपने उबारा। भगवन्! आप कृपालु हैं, प्रेमवश आपने सेवा भी की। लीप-पोतकर स्थान स्वच्छ करना, मेरे वचन का पालन करना, चन्दन घिसना, आपने दास के लिये सब कुछ किया और मैं ऐसा पतित अपराधी हूँ कि मैंने आपसे यह सेवा करायी।'
इस प्रकार ३५० वर्षसे जिस बातको लोग सच मानते आये हैं, जिस बात के प्रमाणस्वरूप आज भी 'श्रीखण्डिया रांजण' (कुण्डा) पैठण में देख सकते हैं, जिस बात की गवाही अमृतराय, महीपति, मोरोपन्त-जैसे प्रेमी कवि दे रहे हैं, जो बात दासोपन्त-मुक्तेश्वर जैसे एकनाथ के समकालीन विचक्षण सन्त कह रहे हैं और जिस बात का सबसे बड़ा प्रमाण यह कि स्वयं एकनाथ महाराज कह रहे हैं, उसे जो अप्रमाण कहने को तैयार हों, उन्हें नमस्कार है! सर्वगत चिद्रूप परमेश्वर सगुण रूप में दर्शन देते हैं यह बात अनुभव से जानने की है, शब्दों से साबित करके दिखाने की नहीं। यह कैसे होता है और क्या होता है यह बतलानेमें क्या रखा है? वैसी दृढ़ उपासना जिसकी होगी, उसके सामने उसके उपास्य देव प्रत्यक्ष होंगे ही। सन्तों का यही अनुभव है। जैसे हम पामरों के लिये यह जगत् प्रत्यक्ष है वैसे ही भक्तों के लिये भगवान् प्रत्यक्ष हैं। सन्तों के लिये भगवान् सदा सन्निध हैं। वह जैसे निर्गुण हैं वैसे ही सगुण भी। एक अभंगमें ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है कि 'तुझे क्या कहें? सगुण कहें या निर्गुण ? तू तो सगुण-निर्गुण दोनों एक है।' यह कहकर ज्ञानेश्वर महाराज ने यह समझाया है कि स्थूल, सूक्ष्म, दृश्यादृश्य, व्यक्ताव्यक्त सबमें सर्वत्र एक परमात्मा ही ओतप्रोत हैं। प्रतीति के बल से उसे जानना होता है, जो निर्गुण है, उसे सगुण होने में कठिनाई ही क्या है? यह कहना कि वह सगुण नहीं हो सकता, उसे सर्वशक्तिमान् मानने से इन्कार करना है। वह सर्वात्मक होकर भी सर्वात्मकता में कोई बाधा पड़े बिना सगुण और साकार हो सकता है। गुरु जनार्दन की कृपा से देवगढ़ पर एकनाथ को जिन्होंने दत्तात्रेय के रूप में दर्शन दिये, जो काशी में कीर्तन करते समय प्रकट हुए, जो अनुष्ठान समाप्ति के अवसर पर श्रीकृष्ण के रूप में प्रत्यक्ष हुए, जो उनके यहाँ बारह वर्ष श्रीखण्ड के वेश में सेवक बने रहे, वह चराचर व्यापी सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी और सर्वगत जगदात्मा एकनाथ जी की अपूर्व निष्ठा से उनके सामने प्रत्यक्ष हुए। भगवान् व्यक्त हैं और अव्यक्त भी हैं। वेद, शास्त्र, पुराणों ने जिनके गुण गाये हैं और एकनाथ महाराज ने अपने इन नेत्रों से जिनके दर्शन किये उन भगवान् को एकनाथ सदा अपने हृदयमें रखते थे और उन्हीं भगवान् को सब प्राणियों के अन्दर देखते थे।

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